हम जानते हैं कि नई कविता के प्रमुख हस्ताक्षर गजानन माधव मुक्तिबोध की रचनाएँ पाठकों और आलोचकों के लिए चुनौती हैं. उनकी प्रतीकात्मकता एवं बिंब विधान मौलिक तथा किंचित दुरूह भी है. उनकी रचनाओं में सामाजिक चेतना, लोक मंगल की भावना, सौंदर्यानुभूति तथा जीवन के प्रति व्यापक दृष्टिकोण देखने को मिलता है. डॉ. श्याम राव (1965) ने अपनी किताब ‘मुक्तिबोध के सौंदर्य सिद्धांतों का विवेचन’ (2009) में मुक्तिबोध की रचना प्रक्रिया एवं सौंदर्य सिद्धांतों का संक्षिप्त विवेचन किया है.
मुक्तिबोध पर टॉलस्टॉय और मार्क्स जैसे वामपंथी रचनाकारों का प्रभाव बताया जाता है. मार्क्सवादी चिंतन के अनुसार संसार में जो कुछ सुंदर तथा श्रेष्ठ है, वह सब मानव श्रम की उपज है. मुक्तिबोध की मान्यता भी यही है कि
"जब मनुष्य को मनुष्य होने के लिए ’श्रम’ का सहरा लेना पड़ता है तो कविता के लिए भी यही सच है."
मुक्तिबोध की कविताओं में आस्था, जीवन की गतिशीलता तथा समष्टि की चेतना का चित्र अंकित है. मानव जीवन की जटिल संवेदनाओं और उसके अंतर्द्वन्द्वों की सर्जनात्मक अभिव्यक्ति के लिए मुक्तिबोध फैंटेसी का कल्पनात्मक प्रयोग करते हैं. लेखक ने यह स्पष्ट किया है कि
"गजानन माधव मुक्तिबोध का संपूर्ण साहित्य आधुनिक त्रस्त मानवता का आत्मसाक्षात्कार है. वहाँ उनका रचनात्मक एवं शिल्पग्त सौंदर्य नवीन प्रतीकों एवं बिंबों के माध्यम से जीवंत और ज्वलंत हो उठता है. आधुनिक भाव-बोधा एवं काव्य-शिल्प को गंभीर विश्वस्तरीय पहचान उन्होंने प्रदान की है. मुक्तिबोध का कृतित्व उनके व्यापक जीवनानुभव, गंभीर सौंदर्यानुभूति एवं रचनात्मक क्षमता को स्पष्ट कर देता है. आज की प्रगतिवादी काव्यधारा, प्रयोगवादी लेखन एवं नई कविता की फैंटसी को उनकी रचनाओं से दिशा प्राप्त हुई है. सृजन कर्म को मुक्तिबोध सौंदर्य मीमांसा का आधार मानते हैं. यह सीधे जीवनानुभव से संबंधित है. वे जीवनानुभवों के गुणात्मक रीति से परिवर्तन को ही सौंदर्यानुभूति मानते हैं."
"सत्यं, शिवं, सुंदरम" में से सुंदर पर ही विशेष बल दिया जाता है. वास्तव में सौंदर्य मूर्त होता है लेकिन कविता में वह अमूर्त है. आमतौर पर यह प्रश्न उठाया जाता है कि सौंदर्य वस्तुनिष्ठ है या व्यक्तिनिष्ठ. अर्थात सौंदर्य वस्तु का गुण है या द्रष्टा की प्रतीति. सौंदर्य दृष्टि कृति को अपनी विवेचना का केंद्र मानती है. प्रत्यक्षीकरण के द्वारा ही सौंदर्यानुभव संभव होता है. इस संदर्भ में मुक्तिबोध का कथन द्रष्टव्य है -
"सौंदर्य तब उत्पन्न होता है जब सृजनशील कल्पना के सहारे, संवेदित अनुभव का विस्तार हो जाए. कलाकार का वास्तविक अनुभव और अनुभव के संवेदनाओं द्वारा प्रेरित फैंटेसी - इन दोनों के बीच कल्पना का एक रोल होता है, वह रोल, वह भूमिका सृजनशील भूमिका है. सौंदर्यानुभव जीवनानुभूति और जीवनानुभव, दोनों की दो विभिन्न कक्षाओं पर पृथक समांतर गति नहीं होती. सौंदर्यानुभूति (ऐस्थेटिक एक्सपीरियन्स) जीवनानुभवों के गुणात्मक रीति से परिवर्तित रूप का नाम है. सौंदर्यानुभव और वास्तविक जीवन जगत से प्राप्त जीवनानुभव, इन दो का सार स्वरूप एक ही है. सौंदर्यानुभव के तत्व जीवन द्वारा, जीवनानुभव द्वारा प्रदत्त होते हैं. किंतु वे, विधायक कल्पना के हाथों निराला रूप धारण करके उद्दीप्त हो उठते हैं."
लेखक ने यह स्पष्ट किया है कि
"मुक्तिबोध केवल स्त्री सौंदर्य को सौंदर्य की कसौटी नहीं मानते. परंतु रीतिकालीन साहित्य में स्त्री के अंग-प्रत्यंगों का वर्णन खुले रूप में हो चुका है. रीतिकालीन कवि कहीं-कहीं स्त्री के अंगों को चमकता हुआ ‘शीशे’ बनाया तो कहीं शीशे की गोल प्याली. इन चमकते हुए शीशे और प्याली को छायावादी कवियों ने मदिरा से भर दिया. लेकिन मदिरा के शीशे और प्याली को खाली करके वामपंथी कवियों ने उन्हें पसीने से भर दिया. यह वामपंथी सौंदर्यशास्त्र का मूलभूत पहलू है."
मुक्तिबोध की कविताओं में अंतः - बाह्य द्वन्द्व विद्यमान है. उनके लिए कविता मात्र मनोरंजन का साधन न होकर मानव के स्वर्णिम भविष्य निर्माण में सहायक घटक है. उनके लिए काव्य रचना एक सांस्कृतिक प्रक्रिया है. लेखक ने इस पुस्तक में वामपंथी सौंदर्यशास्त्र की दिशा, सौंदर्यबोध के घटक, मार्क्सवादी दृष्टिकोण, सौंदर्यानुभूति के संबंध में मुक्तिबोध की धारणा, काव्य सत्य और फैंटेसी का संबंध, कला के संबंध में भारतीय एवं पाश्चात्य दृष्टिकोण, साहित्य में वस्तु और रूप के अंतःसंबंध का विवेचन - विश्लेषण किया है जिससे मुक्तिबोध के व्यक्तित्व को समझने में सहायता मिल सकती है.
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* मुक्तिबोध के सौंदर्य सिद्धांतों का विवेचन/डॉ.श्याम राव/2009/मिलिंद प्रकाशन,4-3-178/2, कंदस्वामी बाग, हनुमान व्यायामशाला की गली, सुलतान बाज़ार, हैदराबाद-500 095/पृष्ठ:133/मूल्य:रु.180/-
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