करुणा विकल कहानी-सी।
वहाँ अकेली प्रकृति सुन रही,
हँसती-सी पहचानी-सी।
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प्रकृति रही दुर्जेय, पराजित
हम सब थे भूले मद में;
भोले थे, हाँ तिरते केवल,
सब विलासिता के नद में।
(कामायनी : जयशंकर प्रसाद)
जी हाँ, प्रकृति ही वह शक्ति है जो मनुष्य की वेदना, पीड़ा और उसकी करुण कहानी की मूक श्रोता है। वह विविध रूपों में मनुष्य के समक्ष प्रकट होती है। सौम्य रूप धारण करके प्रकृति जितना मन को आह्लादित कर सकती है, वह पल भर में रौद्र रूप धारण करके प्रलय भी मचा सकती है। (तरुण तपस्वी-सा वह बैठा,/ साधन करता सुर-श्मशान।/ नीचे प्रलय सिंधु लहरों का/ होता था सकरुण अवसान – कामायनी : जयशंकर प्रसाद)।
सर्वविदित है कि प्रकृति और मनुष्य का संबंध जन्मजात है। प्रकृति की गोद में बच्चा बड़ा होता है। प्रकृति के विविध रूप आलंबन बनकर मानव मन को आह्लादित करते हैं। इंद्रधनुष देखकर बच्चे मचल उठते हैं। (जगमग ओस-बिंदु गुंथ जाते साँसों के तारों में,/ गीत बदल जाते अनजाने मोती के हारों में।/ जब-जब उठता नाद मेघ, मंडलाकार घिरते हैं,/ आस-पास वंशी के गीले इंद्रधनुष तिरते हैं - व्याल-विजय : रामधारी सिंह ‘दिनकर’)। तेलुगु के कवि श्री श्री (श्रीरंगम श्रीनिवास राव) भी कहते हैं कि इंद्रधनुष को देखकर बच्चे खुशी से फूलकर कुप्पा हो जाते हैं। वे हर वक़्त पंचतत्वों के निकट होते हैं। सागर किनारे बैठकर रेत के घरौंदे बनाते हैं। प्रकृति से निरंतर पाठ सीखते हैं - पर्वत कहता शीश उठाकर,/ तुम भी ऊँचे बन जाओ।/ सागर कहता है लहराकर,/ मन में गहराई लाओ।/ समझ रहे हो क्या कहती हैं/ उठ उठ गिर गिर तरल तरंग/ भर लो भर लो अपने दिल में/ मीठी मीठी मृदुल उमंग!/ पृथ्वी कहती धैर्य न छोड़ो/ कितना ही हो सिर पर भार,/ नभ कहता है फैलो इतना/ ढक लो तुम सारा संसार! – प्रकृति संदेश : सोहनलाल द्विवेदी)
विद्यानिवास मिश्र ‘छितवन की छाँह’ में लिखते हैं, “कमल में पुरइन की बूँद की तरह तरल और चंचल लक्ष्मी का प्रतीक लोगों ने ढूँढ़ निकाला, चंपा में रूप के अभिमान की, शेफाली में तरुण अनुराग की, बंधूक में अधर के आमंत्रण की, कुमुदिनी में प्रकृति की कोमलता की, गुलाब में कीर्ति के सौरभ की और कास में मही के हास की खोज की जा चुकी है; जूही संध्या के, बेला और हरसिंगार आधी रात के, कमल अरुणोदय के और बंधूक दुपहरिया के शृंगार के रूप में सर्वमान्य हो चुके हैं।” प्रकृति अनेक भावों के लिए प्रतीक बन चुकी है। कबीर कहते हैं कि “सबकी उतपति धरती, सब जीवन प्रतिपाल/ धरति न जाने आप गुन, ऐसा गुरू विचार” तो तुलसी कहते हैं “देखत बन सर सैल सुहाए। बालमीकि आश्रम प्रभु आए॥/ राम दीख मुनि बासु सुहावन। सुंदर गिरि काननु जलु पावन॥/ सरनि सरोज बिटप बन फूले। गुंजत मंजु मधुप रस भूले॥/ खग मृग बिपुल कोलाहल करहीं। बिरहित बैर मुदित मन चरहीं॥” यह तो हुई कबीर और तुलसी की बात। प्रयोगशीलता से ओतप्रोत कवि अज्ञेय कहते हैं कि “मैं सोते के साथ बहता हूँ/ पक्षी के साथ गाता हूँ/ वृक्षों के कोंपलों के साथ थरथराता हूँ/ और उसी अदृश्य क्रम में, भीतर ही भीतर/ नए प्राण पाता हूँ।” आज के युवा कवि आशीष नैथानी ‘पहाड़ों पर सुबह’ के मनोरम दृश्य को उकेरते हैं – “हल्की ठंडी हवा चलती है जब/ ओस की बूँद/ गुलाब की पंखुरी पर अंगड़ाई लेती है/ कोयलों का कलरव भी हो जाता है शुरू/ सुथरे नीले अंबर पर/ पहाड़ों के कंधों से/ निकलता है सूरज सफर पर/ रात भर निर्जीव हो चुके पौधों की/ धमनियों में दौड़ने लगता है रक्त/ माटी होने लगती है मुलायम/ देवदार रगड़ता है हथेलियाँ।”
ऐसे सुरम्य वातावरण को आज शहरों में ही नहीं अपितु गाँवों में भी देखना बहुत कठिन होता जा रहा है, क्योंकि प्रकृति से निरंतर पाठ सीखने वाला, बचपन में उसके निकट जीवन व्यतीत करने वाला बच्चा जैसे ही बड़ा हो जाता है, वैसे ही प्रकृति से दूर होने लग जाता है। अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु वह उसका अंधाधुंध उपयोग करने लगता है। उसका संतुलन बिगाड़ने लगता है। यह भी नहीं सोचता कि इसका परिणाम क्या हो सकता है। बढ़ते बाजारवाद और औद्योगिकीकरण के कारण मनुष्य प्रकृति से छेड़छाड़ करने लगा है। परिणामस्वरूप धरती का तापमान बढ़ने लगा है। ऋतु-चक्र भी बदल गया है। तरह-तरह की बीमारियाँ फैलने लगीं हैं। चारों ओर प्रदूषण का साम्राज्य है। इससे हर कोई विचलित है। घटते प्राकृतिक संसाधनों के कारण यह डर बना हुआ है कि कहीं भविष्य में बच्चों को पेड़-पौधे, पर्वत, जंगल, चिड़िया, नदियाँ, मिट्टी आदि को मानचित्र के माध्यम से न दिखाना पड़ जाए। रघुवीर सहाय को यह चिंता सालती है। अतः वे कहते हैं, “ये पहाड़, जंगल, मिट्टी के मैदान हरे/ छोटे हो रहे हैं जो इतिहास में बड़े देश के प्रमाण थे/ इनकी विशालता का कोई गुणगान अब सुन नहीं पड़ता।”
आज हरी-भारी प्रकृति को देखने के लिए मन तरस जाता है। “न ठीक सागर बचे हैं, न नदियाँ/ पहाड़ उदास हैं और झरने लगभग चुप/ आसमान में चक्कर काटते पक्षियों के दल/ नजर नहीं आते/ क्योंकि वे बनाते थे जिन पर घोंसले/ वे वृक्ष कट चुके हैं या सूख चुके हैं।” (भवानी प्रसाद मिश्र)। भूमि बंजर बन चुकी है। नदी मर चुकी है। धरती का लाल दुखी है। “नदी ने समेट लिया अपने को!/ रुक गए प्रवाह/ गायब हो गई लहरें/ फैलने लगा सेवार अंदर ही अंदर/ दुखी था किसान/ मर गई थी नदी।” (नागार्जुन)। यदि आपके पास संवेदना का स्टेथोस्कोप हो तो कानों में लगाकर सुनिए धरती की गुहार। उसका करुण क्रंदन। हो सके तो रोकिए प्रकृति का विनाश। याद रखिए वन दिवस (मार्च 21), जल दिवस (मार्च 22), पर्यावरण दिवस (जून 5), ओज़ोन दिवस (दिसंबर 16), पर्वत दिवस (दिसंबर 31) आदि मनाने से पर्यावरण को सुरक्षित नहीं रखा जा सकता है। इन्हें केवल औपचारिकता के लिए न निभाएँ, बल्कि आजीवन प्रकृति की सुरक्षा के लिए कटिबद्ध हो जाएँ। इसके लिए हर एक व्यक्ति को पर्यावरण के प्रति सजग होना पड़ेगा। अकारण न छेड़ो प्रकृति को, अन्यथा उसका मूल्य चुकाना पड़ेगा।
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