शुक्रवार, 7 जून 2024

आग से मत खेलिए, आग में औरतों को मत झोंकिए : संजीव



अत्यंत हर्ष का विषय है कि कथाकार संजीव को ‘मुझे पहचानो’ शीर्षक उपन्यास हेतु साहित्य अकादमी पुरस्कार 2023 से सम्मानित किया गया है। संजीव का यह उपन्यास ‘मुझे पहचानो’ भारत में प्रचलित सती प्रथा पर आधारित है। राजा राममोहन राय ने इस कुप्रथा का उन्मूलन करने के लिए अनेक यत्न किए। संजीव ने राजा राममोहन राय की भाभी पर सती प्रथा को लेकर हुए उत्पीड़न को केंद्र में रखकर यह उपन्यास लिखा है। कथाकार संजीव ने साहित्य अकादमी की घोषणा पर प्रसन्नता व्यक्त करते हुए कहा कि उनका यह उपन्यास स्त्रियों के शोषण की कथा कहता है। इसमें सती प्रथा, स्त्रियों के शोषण और उस समय के सामाजिक परिवेश से संबंधित कई मुद्दों को शामिल किया गया है।

संजीव का जन्म 6 जुलाई, 1947 में उत्तर प्रदेश के सुल्तानपुर जिले के बांगर कला गाँव में हुआ। उनका बचपन का नाम था राम संजीवन प्रसाद। उनके पिता का नाम था राम शरण प्रसाद और माता का नाम था जयराजीदेवी। संजीव अपनी माँ से बेहद प्यार करते थे। बच्चों को माता-पिता से प्यार होना स्वाभाविक है। अपनी माँ को याद करते हुए वे कहते हैं कि “मेरी जिद पर रात-रात भर भीगनेवाली माँ, मुझे वीरानी रात में कटीली झाड़ों के बीच से गुलाब का फूल तोड़कर ला देनेवाली प्यारी माँ।” (संजीव, मैं और मेरा समय, कथादेश, पृ.7)। इस संसार में माँ के लिए कोई विकल्प हो ही नहीं सकता।

संजीव का बचपन संघर्षों से ही गुजरा। अपने बचपन के दिनों को याद करते हुए संजीव कहते हैं कि यदि गाँव के ही वातावरण में रहते तो शायद आज वे इस स्तर तक नहीं पहुँचे होते। बांगर गाँव वस्तुतः ठाकुरों और ब्राह्मणों का गाँव था। ऐसे में अन्य जाति के लोगों की स्थिति क्या हो सकती है, यह समझने की बात है। गाँव के जातिगत विसंगतिपूर्ण वातावरण से बाहर निकालकर कुलटी (पश्चिम बंगाल) के पाठशाला में प्रवेश दिलाने में उनके काका जी का योगदान अविस्मरणीय है। उन दिनों को याद करते हुए संजीव कहते हैं कि कुलटी के शिवाजी चौरा पर एक पीपल के पेड़ के नीचे रामेश्वर गुरु जी की पाठशाला में ‘स्लेट’ पकड़ना सीखा। पढ़ने और भेड़ चराने में उस वक्त उन्हें एक जैसा लगता था, क्योंकि जंगल में भेड़ चराते समय सूरज के प्रकोप को सहना पड़ता था। और पाठशाला में भी परिस्थिति ऐसी ही हैं। एक साक्षात्कार में उन्होंने कहा कि पढ़ने और भेड़ की सर लड़ाने में एक जैसी ख्याति हासिल की। सजा के रूप में मूर्ख मॉनिटर सूरज की ओर ताकते रहने को कहता। उनके बड़े भैया उन्हें डॉक्टर अथवा इंजीनियर बनाना चाहते थे, लेकिन संजीव मेंढक अथवा मछलियों से घृणा करते थे। काका और बड़े भैया के डर से न चाहते हुए भी उन्होंने बीएससी की पढ़ाई पूरी की।

शिक्षा ने संजीव की जिंदगी को बदल ही दिया है। इस में कोई दो-राय नहीं। बचपन से ही साहित्य के प्रति रुचि जगाने में उनके स्कूल के अध्यापक नंद किशोर दास सोनी, अनिल कुमार मेहता, पारसनाथ पाठक, केदार पांडेय, मिलिंद कश्यप आदि का योगदान अतुलनीय है। उनकी बचपन की स्मृतियों को उनके कथा-साहित्य में देखा जा सकता है। एक साक्षात्कार उन्होंने इस बात की खुलासा की कि उनकी स्मरण शक्ति बहुत तेज है। बचपन की कुछ घटनाएँ उस बालक की स्मृति में इस कदर घर कर गईं कि बाद में चिंगारी बनकर लेखन के माध्यम से बाहर निकलने लगीं। स्मृतियों के संबंध में संजीव कहते हैं कि “मेरे सामने नित नई दुनिया खिलती रहती है। कुछ पानी के अंदर, कुछ कोहरे में, कुछ बाहर। शिशुपन के तीन वर्ष से लेकर आज तक की दुनिया। बेशुमार घटनाएँ, बेशुमार चरित्र, बेशुमार जीवन स्थितियाँ। जो भी देखता, भोगता और महसूसता हूँ, स्मृतिकोशिका में दर्ज हो जाता है। लाख-लाख, कोटि-कोटि, गड्डमड्ड स्मृतियाँ, कुछ देर तक बनी रहती हैं, कुछ फीकी पड़ जाती हैं। कुछ चमकीले क्षण, कुछ मुद्राएँ, कुछ टीसें, कुछ धारधार संवाद, कुछ चित्र, कुछ चरित्र! फिर कोई समानधर्मी घटना, फिल्म, पुस्तक अंश, बातचीत या निपट तनहाइयों के कल्पना-प्रसंगों की उद्दीपना पाकर वे चीजें जाग जाते हैं, अपने ढंग से सूत्र जोड़कर आकार लेने लगती हैं।” (संजीव, मेरी रचना प्रक्रिया (भूमिका), संजीव की कथा यात्रा : दूसरा पड़ाव, पृ. 6)। इससे स्पष्ट है कि संजीव ने अपने अनुभवों एवं अनुभूतियों को कथा-सूत्र में पिरोकर पाठकों के समक्ष रखा। उनकी पहली कहानी है ‘किस्सा एक बीमा कंपनी की एजेंसी का’। इस कहानी को उन्होंने राम संजीवन नाम से ‘सारिका’ पत्रिका को भेजा, तो कमलेश्वर ने ‘संजीव’ नाम से उस कहानी को प्रकाशित किया। तब से राम संजीवन प्रसाद की साहित्यिक यात्रा ‘संजीव’ के नाम से शुरू हुई।

संजीव का कथा-साहित्य स्वानुभूति का साहित्य है। मधु कांकरिया कहती हैं कि संजीव की कहानियों का अनुभव संसार डराने के साथ-साथ दिमाग में खरोंचें भी डाल देता है। “बदलाव का स्वप्न देखनेवाले संजीव की कहानियाँ सर्वहारा समाज के तमाम मनुष्य विरोधी चेहरे को सामने लाती हैं। संजीव को पढ़ना उत्तर आधुनिक जीवन के सामूहिक अवचेतन में झाँकने जैसा है। बिना अपनी पक्षधरता का शोर मचाए हुए पूरी निर्भीकता के साथ संजीव अपने समय और समय की हिंसक सत्ता संरचनाओं में भीतर तक धँसकर कथानक के रेशे-रेशे बुनते हैं।” (मधु कांकरिया, धरती पर मनुष्य को बचाने की चेष्टा है ये कहानियाँ (भूमिका), प्रतिनिधि कहानियाँ : संजीव)

कविता हो या कहानी, उपन्यास हो या संस्मरण, चित्रकारी हो या नृत्य कला – अभिव्यक्त करना इतना आसान नहीं, जितना सोचा जाता है। मस्तिष्क में बहुत कुछ रहता है, लेकिन उन विचारों को कागज या कैनवास पर उतारना आसान नहीं, क्योंकि मस्तिष्क से लेकर कागज तक की यात्रा में बहुत कुछ टूट जाता है, छूट जाता है और जुड़ जाता है। रचनाकार अपने आस-पास व्याप्त समाज और समय के अनुरूप पात्रों का गठन करता है, अतः समाज, समय, पात्र और रचनाकार कुल मिलाकर चतुर्आयाम बन जाते हैं तथा कहानी ग्राफ परवान चढ़ता है। जब तक मनुष्य भीतर से उस अनुभूति को नहीं महसूस करता तब तक उसे अभिव्यक्त नहीं कर सकता। अपनी लेखन की रचना प्रक्रिया के संबंध में संजीव कहते हैं कि “कोई भी सृजन कर्म स्रष्टा की निजी वैयक्तिकता और शेष विश्व और काल के साथ उसकी द्वंद्वात्मकता का प्रतिफलन है। कोई कहानी क्यों लिखता है, सिर्फ वही और वैसी ही क्यों लिखता है, रचना के उपादानों का कहाँ-कहाँ से संधान व संश्लेषण करता है, संवर्धन और संशोधन की वे क्रियाएँ किस तरह अंजाम पाती हैं – यह एक नितांत गूढ़ रहस्य है, चेतन से अवचेतन, संस्कार से सरोकार और स्वतः स्फूर्तता से दबावों तक फैली हुई बहुआयामी क्रिया।” (संजीव, मेरी रचना प्रक्रिया (भूमिका), संजीव की कथा यात्रा : दूसरा पड़ाव, पृ. 5)।

कथाकार संजीव के प्रमुख उपन्यास हैं – सूत्रधार, धार, सावधान! नीचे आग है, किशनगढ़ के अहेरी, सर्कस, जंगल जहाँ शुरू होता है, पाँव तले की दूब, फाँस, आकाश चंपा, रह गईं दिशाएँ इसी पार, मुझे पहचानो आदि। उनकी संपूर्ण कहानियाँ संजीव की कथायात्रा : पड़ाव : 1,2,3 में सम्मिलित हैं। रानी की सराय और डायन बाल उपन्यास हैं। अनेक पुरस्कारों एवं सम्मानों से संजीव सम्मानित हो चुके हैं। ‘मुझे पहचानो’ शीर्षक उपन्यास के लिए 2023 का साहित्य अकादमी पुरस्कार से वे सम्मानित हैं। अब थोड़ी सी चर्चा इस कृति पर करना समीचीन होगा।

संजीव के उपन्यासों की कथा-भूमि में वैविध्य देखा जा सकता है। ‘किशनगढ़ के अहेरी’ में किशनगढ़ और गोमती नदी का तट, वहाँ का ग्रामीण परिवेश तथा सेठ-साहूकारों का शोषण और उस शोषण के विरुद्ध संघर्ष चित्रित है। सर्कस में काम करनेवालों की त्रासद कहानी ‘सर्कस’ शीर्षक उपन्यास में अंकित है तो ‘सावधान! नीचे आग है’, ‘जंगल जहाँ शुरू होता है’, ‘धार’, ‘पाँव तले की दूब’ आदि में आदिवासी जीवन-गाथा है। ‘फाँस’ किसान विमर्श की दृष्टि से उल्लेखनीय उपन्यास है तो ‘सूत्रधार’ भोजपुरी के शेक्सपीयर भिखारी ठाकुर पर केंद्रित उपन्यास है। ‘मुझे पहचानो’ रचना अपने आप में एक अलग कथा-सूत्र लेकर चलती है।

‘मुझे पहचानो’ उपन्यास छत्तीसगढ़ की पृष्ठभूमि पर आधारित है। इसमें उपन्यासकार ने राजे-रजवाड़ों और हीरा उत्खनन करने वाले व्यापारियों के चेहरे भी सामने लाने का प्रयास किया है। उपन्यास की नायिका एक दलित स्त्री है। उसे एक जमींदार अपनी पत्नी का दर्जा देता है। वह जमींदारी के काम में अपने पति का भरपूर सहयोग करती है। जब वह विधवा हो जाती है तो जमींदार की अन्य पत्नियों के बजाय उसे ही सती बनाने की साजिश की जाती है। यह उपन्यास सती प्रथा पर प्रहार करता है। सती प्रथा के उन्मूलन के लिए जिस राजा राम मोहन राय ने अपना जीवन नौछावर कर दिया, उन्हीं की भाभी को इसी प्रथा से गुजरना पड़ा। इस घटना को नींव बनाकर संजीव ने इस उपन्यास का सृजन किया। इस उपन्यास में लेखक ने यह स्पष्ट किया है कि स्वयं स्त्रियाँ इस तरह के कुकृत्य को धार्मिक व सांस्कृतिक मान्यता कहकर सहमती देती थीं। उपन्यास में एक स्त्री कहती हैं, “जीवन में कभी-कभी तो ऐसे पुण्य का मौका देते हैं राम!” उपन्यासकार एक पात्र के माध्यम से टिप्पणी करते हैं – “सोचिए। क्योंकि आप मनुष्य हैं, सोच सकते हैं, पशु नहीं सोच सकते। यह यौन शुचिता, गर्भ शुचिता या रक्त शुचिता से भी जुड़ती है, मगर उसके लिए स्त्रियाँ ही क्यों दोषी मान ली जाएँ? ये बातें सिर्फ हिंदू नहीं, मुस्लिम, सिख, ईसाई, सब पर लागू होती हैं। ईश्वर या प्रकृति के सिरजी सृष्टि में कोई किसी का गुलाम नहीं है, फिर यह डायन, यह मॉब लिचिंग, यह ऑनरकिलिंग जैसे बर्बर हुड़दंग क्यों, जिसका शिकार औरत ही तो होती है, आप उस पर ही सती का मूल्य कैसे लाद सकते हैं जो आप खुद नहीं कर सकते। आग...! मैं हाथ जोड़ कर अरज करता हूँ, आग से मत खेलिए, आग में औरतों को मत झोंकिए।”

संजीव अपनी रचनाओं के माध्यम से समाज में व्याप्त विसंगतियों के प्रति आवाज उठाते हैं, क्योंकि उनका मानना है कि लेखन से अंधेरा छँट सकता है। ऐसे साहित्यकार को साहित्य अकादमी पुरस्कार प्राप्त होने के उपलक्ष्य में ‘दक्षिण भारत’ के लेखक और पाठक समुदाय के ओर से हार्दिक अभिनंदन।

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