समाज में किसी व्यक्ति व समुदाय की अस्मिता अथवा पहचान का मुख्य आधार उसकी सामाजिक प्रतिष्ठा ही होती है। सामाजिक प्रतिष्ठा के लिए समाज में अनुकूल वातावरण की आवश्यकता होती है। इसके विपरीत सच्चाई यह है कि दुनिया के सभी समाजों में सदियों से पुरुष और स्त्री को अलग-अलग दृष्टि से देखा जाता है। स्त्री को कमजोर माना जाता है और उसे हमेशा ही अबला, दीन, कमजोर, वीक जेंडर आदि अनेक विशेषणों से संबोधित किया जाता है; लेकिन यह भी निर्विवाद सत्य है कि स्त्री भले ही शारीरिक रूप से पुरुष से कमजोर है पर मानसिक रूप से वह किसी भी स्तर पर कम नहीं है। इस संदर्भ में महादेवी वर्मा का यह कथन उल्लेखनीय है: “नारी का मानसिक विकास पुरुषों के मानसिक विकास से भिन्न परंतु अधिक द्रुत, स्वभाव अधिक कोमल और प्रेम-घृणादि भाव अधिक तीव्र तथा स्थायी होते हैं। इन्हीं विशेषताओं के अनुसार उसका व्यक्तित्व विकास पाकर समाज के उन अभावों की पूर्ति करता रहता है जिनकी पूर्ति पुरुष-स्वभाव द्वारा संभव नहीं। इन दोनों प्रकृतियों में उतना ही अंतर है जितना विद्युत और झड़ी में। एक से शक्ति उत्पन्न की जा सकती है, बड़े-बड़े कार्य किए जा सकते हैं, परंतु प्यास नहीं बुझाई जा सकती। दूसरी से शांति मिलती है, परंतु पशुबल की उत्पत्ति संभव नहीं। दोनों के व्यक्तित्व, अपनी पूर्णता में समाज के एक ऐसे रिक्त स्थान को भर देते हैं जिससे विभिन्न सामाजिक संबंधों में सामंजस्य उत्पन्न होकर उन्हें पूर्ण कर देता है।” (महादेवी वर्मा, शृंखला की कड़ियाँ, पृ.11-12)। स्त्री-पुरुष साहित्य के केंद्र में भी आ चुके हैं। साहित्यकार इनके विविध रूपों और विविध संबंधों का चित्रण करते रहे हैं।
1990 के बाद विमर्शों का साहित्य भारतीय भाषाओं में उभरने लगा। इसकी भूमिका एक तरह से उसी समय तैयार हो चुकी थी जब ‘नई कविता’ अस्तित्व और अस्मिता की खोज की बात कर रही थी। नई कविता में व्यक्ति की जिजीविषा और अस्तित्व के संघर्ष की बात थी। आगे चलकर यही व्यक्ति समुदाय में बदल गया - हाशियाकृत समुदाय में। उस समुदाय का संघर्ष ही विमर्श है। जीने की इच्छा, अस्तित्व और अस्मिता को सुरक्षित रखने की जद्दोजहद, शोषण के प्रति आक्रोश और संघर्ष के परिणामस्वरूप स्त्री, दलित, आदिवासी, अल्पसंख्यक, तृतीय लिंगी, पर्यावरण आदि विमर्श सामने आए।
8 मार्च अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस है, अतः स्त्री विमर्श पर दृष्टि केंद्रित करना समीचीन होगा। स्त्री विमर्श की अवधारणा पर विस्तार से चर्चा करने से पूर्व ‘स्त्री’ शब्द पर विचार करना आवश्यक है। स्त्री शब्द के अनेक पर्याय हैं। जैसे हिंदी में नारी, औरत, महिला, कन्या, मादा, श्रीमती, लुगाई आदि और अंग्रेजी में female, woman, damsel. इसी तरह तेलुगु में स्त्री, आडदी, इंति, महिला, कन्या, श्रीमती, आविडा, आडपिल्ला, अम्मायी, मगुवा आदि शब्दों का प्रयोग संदर्भ के अनुसार किया जाता है। इसी तरह तमिल में पेन, मंगै, श्रीमत आदि का प्रयोग किया जाता है। यदि ‘स्त्री’ शब्द के व्युत्पत्तिमूलक अर्थ पर ध्यान दें तो यह स्पष्ट होता है कि यास्क ने अपने ‘निरुक्त’ में ‘स्त्यै’ धातु से इसकी व्युत्पत्ति मानी है जिसका अर्थ लगाया गया है – लज्जा से सिकुड़ना। पाणिनि ने भी ‘स्त्यै’ धातु से ही ‘स्त्री’ की व्युत्पत्ति सिद्ध की है, पर इस धातु का अर्थ इकट्ठा करना लगाया है – ‘‘स्त्यै शब्द-संघातयोः’ (धातुपाठ)। साहित्य में स्त्री को दया, माया, श्रद्धा, देवी आदि अनेक रूपों में संबोधित किया जाता है। स्त्री को इस तरह अनेक रूपों में विभाजित करके देखने के बजाय उसके व्यक्तित्व को समग्र रूप में अर्थात मानवी के रूप में देखने की आवश्यकता है।
भारतीय स्त्री को बचपन से ही घर और समाज की मर्यादाओं की पट्टी पढ़ाई जाती है। पुराने समय में लड़की को एक सीमा तक ही शिक्षा प्रदान की जाती थी। उसे घरेलू काम-काज में प्रशिक्षण दिया जाता था। उसके लिए तरह-तरह की पाबंदियाँ होती थीं। हमारे शास्त्रों में कहा भी गया है न कि ‘न स्त्री स्वातंत्र्यम् अर्हति’। यही माना जाता रहा है कि स्त्री पिता, पति और पुत्र के संरक्षण में सुरक्षित रहती है। लेकिन शास्त्रकार यह भूल जाते हैं कि स्त्री भी है तो मनुष्य ही। वह मानवी है। उसके भीतर भी भावनाएँ हैं। पुरुषसत्तात्मक समाज ने उसे माँ और देवी का रूप प्रदान करके उसे ऐसे सिंहासन पर बिठा दिया कि वह कठपुतली बनती गई। स्त्री को जहाँ एक ओर देवी, माँ, भगवती आदि कहकर संबोधित किया जाता है, वहीं दूसरी ओर उसकी अवहेलना की जाती है। “नारी के देवत्व की कैसी विडंबना है!” (शृंखला की कड़ियाँ, पृ. 35)। पुरुष के समान स्त्री भी इस समुदाय का हिस्सा है, तो सारे प्रतिबंध उसी के लिए क्यों!? पुरुष के लिए क्यों नहीं?
स्त्री को यह कहकर घर की चारदीवारी तक सीमित किया गया कि घर के बाहर वह असुरक्षित है। घर ही उसका साम्राज्य है। “कितना मनहूस था वह दिन जब किसी पिता ने, किसी भाई ने, किसी बेटे ने,/ किसी बेटी को/ किसी बहन को/ किसी माँ को, किसी पत्नी को सुझाव दिया था/ घर में रहने का, हिदायत दी थी/ देहरी न लाँघने की/ और बँटवारा कर दिया था/ दुनिया का - घर और बाहर में।/ बाहर की दुनिया पिता की थी – वे मालिक थे, संरक्षक थे/ भीतर की दुनिया माँ की थी – वे गृहिणी थीं संरक्षिता थीं।” (ऋषभदेव शर्मा, क्यों बड़बड़ाती हैं औरतें, देहरी, पृ. 36)।
स्त्री जिस घर में जन्म लेती है वह घर विवाह के बाद उसके लिए पराया हो जाता है। उस घर के लिए वह मेहमान बन जाती है। विवाह के बाद नए घर में प्रवेश करके वहाँ अपने आपको जड़ से रोपने की कोशिश करती है। और यह कोशिश निरंतर चलती है। रुकने का नाम नहीं लेती। इस रोपने की क्रिया में उसे तमाम तरह की चुनौतियों का सामना करना पड़ता है। उसकी एक नई पहचान बनती है। और वह नए रिश्ते में बंध जाती है। सबकी जरूरतों के बारे में सोचने वाली स्त्री अपनी जरूरतों को दरकिनार कर देती है। इस संदर्भ में मुझे तेलुगु कवयित्री एन. अरुणा की प्रसिद्ध कविता ‘सुई’ याद आ रही है। उस कविता में उन्होंने सुई के माध्यम से स्त्री जीवन को व्यक्त किया है। यहाँ सुई प्रतीक है। जिस तरह फटे कपड़ों को सुई जोड़ती है उसी तरह स्त्री भी अपने परिवार को आत्मीयता के धागों से पिरोती है - इन्सानों को जोड़कर सी लेना चाहती हूँ/ फटे भूखंडों पर/ पैबंद लगाना चाहती हूँ/ कटते भाव-भेदों को रफू करना चाहती हूँ/ आर-पार न सूझने वाली/ खलबली से भरी इस दुनिया में/ मेरी सुई है/ और लोकों की समष्टि के लिए खुला कांतिनेत्र। (एन. अरुणा, मौन भी बोलता है, पृ. 53-54)। इतना करने पर भी स्त्री को क्या मिलता है! कभी-कभी तो उसे घर के सदस्यों की अवहेलना और तिरस्कार भी झेलना पड़ता है। चाहे गलती किसी की भी क्यों न हो स्त्री को ही दोषी ठहराया जाता है। “युगों से उसको उसकी सहनशीलता के लिए दंडित होना पड़ रहा है।” (महादेवी वर्मा, शृंखला की कड़ियाँ, पृ.17)।
समय के साथ-साथ स्त्री भी मूलभूत मानवाधिकारों के प्रति सचेत हो गई। सदियों से हो रहे शोषण के खिलाफ आवाज उठाने लगी। यदि महादेवी वर्मा के शब्दों में कहें तो “स्त्री न घर का अलंकार मात्र बनकर जीवित रहना चाहती है, न देवता की मूर्ति बनकर प्राण-प्रतिष्ठा चाहती है। कारण वह जान गई है कि एक का अर्थ अन्य की शोभा बढ़ाना तथा उपयोग न रहने पर फेंक दिया जाना है तथा दूसरे का अभिप्राय दूर से उस पुजापे को देखते रहना है जिसे उसे न देकर उसी के नाम पर लोग बाँट लेंगे। आज उसने जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में पुरुष को चुनौती देकर अपनी शक्ति की परीक्षा देने का प्रण किया है और उसी में उत्तीर्ण होने को जीवन की चरम सफलता समझती है।” (वही, पृ.105)। शोषण के प्रति स्त्री अपनी आवाज उठाने लगी: “नहीं! मैं गुड़िया नहीं,/ मैं गाय नहीं,/ मैं गुलाम नहीं!” (ऋषभदेव शर्मा, गुड़िया-गाय,-गुलाम, देहरी, पृ.10)। परिणामस्वरूप स्त्री विमर्श की अवधारणा सामने आई।
स्त्री विमर्श की अवधारणा भारत एवं पाश्चात्य संदर्भ में बिल्कुल अलग-अलग है क्योंकि भारतीय दृष्टि में स्त्री ‘मूल्य’ है जबकि पाश्चात्य दृष्टि में वह मात्र ‘वस्तु’ है। स्त्री विमर्श एक प्रतिक्रिया है। युगों की दासता, पीड़ा और अपमान के विरुद्ध स्त्री की सकारात्मक प्रतिक्रिया है अपनी अस्मिता एवं अस्तित्व की रक्षा हेतु। 1949 में सिमोन द बुआ ने अपनी पुस्तक ‘द सेकंड सेक्स’ में स्त्री को वस्तु रूप में प्रस्तुत करने की स्थिति पर प्रहार किया। डोरोथी पार्कर का मानना है कि स्त्री को स्त्री के रूप में ही देखना होगा क्योंकि पुरुष और स्त्री दोनों ही मानव प्राणी हैं। 1960 में केट मिलेट ने पुरुष की रूढ़िवादी मानसिकता पर प्रहार किया। वर्जीनिया वुल्फ़, जर्मेन ग्रीयर आदि ने भी स्त्री के अधिकारों की बात की। इन स्त्रीवादी चिंतकों का प्रभाव भारतीय समाज पर भी पड़ा। भारतीय स्त्रीचिंतकों में वृंदा करात, प्रभा खेतान, मैत्रेयी पुष्पा, महाश्वेता देवी, मेधा पाटकर, अरुंधति राय, वोल्गा, अब्बूरी छायादेवी, जयाप्रभा, अंबै (सी.एस.लक्ष्मी) आदि उल्लेखनीय हैं।
स्त्री, समाज को अपने व्यक्तिगत अनुभवों से जोड़कर देखती है। वह जब से यह महसूस करने लगी कि वह पुरुष से किसी भी स्तर पर कम नहीं तब से ही वह अपने अस्तित्व एवं अस्मिता के लिए आवाज उठाने लगी। स्त्री विमर्श में महत्वपूर्ण कारक है ‘जेंडर’। स्त्री इसी लिंग केंद्रित जड़ता को तोड़ना चाहती है। इसे स्त्री मुक्ति का पहला चरण माना जा सकता है। वैश्विक स्तर पर घटित विभिन्न आंदोलन स्त्रीवादी सैद्धांतिकी को निर्मित करने में सहायक सिद्ध हुए। प्रमुख रूप से उदारवादी स्त्रीवाद, समाजवादी-मार्क्सवादी स्त्रीवाद, रेडिकल स्त्रीवाद, सांस्कृतिक स्त्रीवाद, पर्यावरणीय स्त्रीवाद, वैयक्तिक स्त्रीवाद स्त्री प्रश्नों पर प्रकाश डालते हैं।
वस्तुतः स्त्री विमर्श के लिए कुछ समीक्षाधार निर्धारित करना अनिवार्य है। समाज में स्त्री की स्थिति, स्त्री विषयक पारंपरिक मान्यताओं पर पुनर्विचार, पारंपरिक स्त्री संहिता की व्यावहारिक अस्वीकृति, शोषण के विरुद्ध स्त्री का असंतोष और आक्रोश, देह मुक्ति, पुरुषवादी वर्चस्व के ढाँचे को तोड़ना, स्त्री सशक्तीकरण और सार्वजनिक जीवन में स्त्री की भूमिका आदि को प्रमुख रूप से स्त्री विमर्श की कसौटियाँ माना जा सकता है। इनके आधार पर साहित्य का स्त्री विमर्शमूलक विश्लेषण आसानी से किया जा सकता है।
भाषा की दृष्टि यदि स्त्री विमर्श को देखा जाए तो रोचक तथ्य सामने आते हैं। स्त्री-भाषा पुरुष की भाषा से भिन्न होती है। स्त्री अपने अनुभव जगत से शब्द चयन करती है। जहाँ पुरुष-भाषा में वर्चस्व, रौब और अधिकार की भावनाओं को देखा जा सकता है वहीं स्त्री-भाषा में सखी भाव अर्थात मैं से हम की यात्रा को देखा जा सकता है। सामान्य स्त्री के भाषिक आचरण में पुरुष की रुचि-अरुचि का ध्यान रखने की प्रवृत्ति, परिवार की शुभेच्छा की प्रवृत्ति, स्त्री सुलभ कलाओं में रुचि की प्रवृत्ति, घर-परिवार और संस्कारों में रुचि की प्रवृत्ति, घरेलू चिंताओं की प्रवृत्ति को देखा जा सकता है। इसी प्रकार एक शिक्षित स्त्री के भाषिक आचरण में पूर्ण आत्मविश्वास, निडरता, जागरूकता, स्थितियों के विश्लेषण की क्षमता आदि प्रवृत्तियों को देखा जा सकता है।
कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि स्त्री विमर्श से अभिप्राय है स्त्री में आत्मनिर्णय की प्रवृत्ति होना जिससे वह उस रूढ़िगत स्त्री संहिता का अतिक्रमण कर सकती है जो उसकी अस्मिता एवं अस्तित्व के लिए घातक है तथा सार्वजनिक जीवन में अपनी भूमिका निभा सकती है। 8 मार्च को हर.वर्ष अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस अभियान के रूप में मनाया जाता है। यह 1909 से शुरू होकर आज तक चल रहा है। इस वर्ष का थीम है इंस्पायर इनक्लूजन। अर्थात हर क्षेत्र की स्त्री को प्रोत्साहित करना और उन्हें आगे बढ़ने में सहायता करना।
‘हिंदी प्रचार समाचार’ के पाठकों को अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस की अनंत शुभकामनाएँ।
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