शुक्रवार, 7 जून 2024

समय के इस सिंधु में है बिंदु भर अस्तित्व मेरा : मालती जोशी



हिंदी साहित्य जगत में मालती जोशी एक जाना पहचान नाम है। मालती जोशी का नाम लेते ही पाठक को - मोरी रंग दे चुनरिया, बोल री कठपुतली, महकते रिश्ते, बाबुल का घर, मन ना भये दस बीस, रहिमन धागा प्रेम का, पाषण युग, निष्कासन, पटाक्षेप, शोभायात्रा आदि - रचनाएँ याद आना स्वाभाविक है। साहित्य तथा शिक्षा के क्षेत्र में उनके अविस्मरणीय योगदान हेतु भारत सरकार ने 2018 में उन्हें पद्मश्री सम्मान से अलंकृत किया था। उन्होंने साहित्य के माध्यम से सामाजिक विसंगतियों पर प्रहार किया है, साथ ही स्त्री के अधिकारों के लिए आवाज उठाई है। उनके साहित्य में परंपरा, आधुनिकता और संस्कृति का त्रिवेणी-संगम देखा जा सकता है। उनका निधन साहित्यिक जगत के लिए एक अपूरणीय क्षति है।

मालती जोशी का जन्म 4 जून, 1934 को औरंगाबाद में हुआ था। मातृभाषा मराठी थी, पर शिक्षा-दीक्षा हिंदी में हुई। उन्होंने आगरा विश्वविद्यालय से एम.ए. (हिंदी) की उपाधि अर्जित की। अपनी पढ़ाई के संबंध में उन्होंने बताया है कि “पिता पुरानी ग्वालियर रियासत में मजिस्ट्रेट थे। छोटे-छोटे कस्बों में स्थानांतरित होते रहते थे। इसलिए पढ़ाई में एकरूपता नहीं रह पाई। चौथी कक्षा तक घर में पढ़ाई की। पाँचवीं में लड़कों के स्कूल में दाखिला लिया क्योंकि कन्याशाला केवल चौथी तक थी। आठवीं में थी तब पिताजी का स्थानांतरण हुआ। फिर आठवीं प्राइवेट करनी पड़ी। उन दिनों राज्य ग्वालियर की मिडिल परीक्षा की बहुत मान्यता थी। नौवीं, दसवीं मालव कन्या विद्यालय, इन्दौर से पास की। उन दिनों दसवीं (मैट्रिक) स्कूल की अंतिम कक्षा हुआ करती थी। उसके बाद इंटर प्राइवेट किया। बीए और एमए होलकर कॉलेज इंदौर से किया।” इस प्रकार मालती जोशी की पढ़ाई जारी रही।

लेखन के प्रति रुझान के संबंध में बात करते हुए मालती जोशी ने एक संस्मरण में लिखा है कि “मैंने सन 1950 में मैट्रिक पास किया था। उन दिनों स्कूल में अध्यापिकाएँ या तो उम्रदराज होती थीं या फिर वे युवतियाँ जो हालात की मार से हताश, निराश और जीवन से उदासीन होती थीं। ऐसे में ठंडी हवा के झोंके की तरह हिंदी की नई टीचर का आगमन हुआ। लखनऊ कॉलेज से ताजा ग्रेजुएट होकर आई थीं। रहन-सहन में, बातचीत में नफासत थी, नजाकत थी। छात्राओं से उनका व्यवहार भी मित्रवत था, जो एक नई बात थी। लड़कियाँ तो उन पर लट्टू हो गईं। मुझमें तब कविता के अंकुर फूटने लगे थे। मैंने उन पर ढेरों कविताएँ लिख डालीं। उनकी शादी और हमारी फाइनल परीक्षा आस-पास ही संपन्न हुई थी। फेयरवेल पार्टी के दिन मैंने अपनी कविताओं की कापी उन्हें सादर भेंट कर दी थी।” छात्र जीवन से ही मालती जोशी गीतकार के रूप में लोकप्रियता अर्जित करने लगीं। लोग उन्हें ‘मालवा की मीरा’ कहने लगे थे। नवंबर 1979 में ‘धर्मयुग’ में एक कहानी छपी, जिसने मालती जोशी को अखिल भारतीय मंच पर स्थापित कर दिया, उसके बाद उन्होंने पीछे मुड़कर नहीं देखा।

मालती जोशी अपने आस-पास के वातावरण से गृहीत अनुभवों को शब्दों में पिरोकर पाठकों के सामने प्रस्तुत कर देती थीं। उनकी कहानियों एवं उपन्यासों में संवेदना के अलग संसार को देखा जा सकता है। उनके कहानी संग्रहों में - पाषाण युग, मध्यांतर, समर्पण का सुख, मन न हुए दस बीस, एक घर हो सपनों का, विश्वास गाथा, आखिरी शर्त, मोरी रंग दी चुनरिया, अंतिम संक्षेप, एक सार्थक दिन, शापित शैशव, महकते रिश्ते, पिया पीर न जानी, बाबुल का घर, औरत एक रात है, मिलियन डालर नोट आदि - उल्लेखनीय हैं। इसी प्रकार उपन्यासों में - पटाक्षेप, सहचारिणी, शोभा यात्रा और राग विराग। दादी की घड़ी, जीने की राह, परीक्षा और पुरस्कार, स्नेह के स्वर, सच्चा सिंगार - आदि बालकथा संग्रह हैं, तो - हार्ले स्ट्रीट - व्यंग्य। इनके अतिरिक्त और भी अनेक श्रेष्ठ रचनाओं का सृजन उन्होंने किया। मालती जोशी की कुछ कहानियाँ सिर्फ दूरदर्शन पर धारावाहिक के रूप में प्रसारित करने के लिए ही लिखी गई थीं। विशेष रूप से जया बच्चन द्वारा निर्मित टेलीविजन शो ‘सात फेरे’ और गुलज़ार द्वारा निर्मित ‘किरदार’ के लिए।

मालती जोशी की कहानियों में वैविध्य को देखा जा सकता है। उनके कथा-पात्र उनके इर्द-गिर्द ही मंडराते रहते हैं। उन्हें तो कहीं भटकने की जरूरत ही नहीं पड़ती। इस संदर्भ में उनका यह कथन उल्लेखनीय है – “मध्यवर्गीय परिवार से हूँ। ससुराल और पीहर दोनों ओर विशाल, लंबा चौड़ा परिवार है। और जिसे अंग्रेजी में close knit कहते हैं - दोनों परिवार वैसे ही हैं। पतिदेव घोर सामाजिक प्राणी थे। उनके मित्रों की संख्या कम न थी। इसलिए पात्र और कथानक के लिए मुझे कभी भटकना नहीं पड़ा। वैसे भी लेखक का संवेदनशील मन अपने आस-पास से अनजाने ही कुछ न कुछ इकट्ठा करता रहता है। यह सामग्री उसके अवचेतन में जमा होती रहती है। कहानी लिखते समय कोई व्यक्ति, कोई बात, कोई प्रसंग अनायास याद आ जाता है और कहानी में फिट हो जाता है।”

मालती जोशी ने कहानीकार के रूप में काफी लोकप्रियता अर्जित की। इसमें कोई दो राय नहीं। सुधा अरोड़ा ने लिखा है कि मालती जोशी पाठकों में सर्वाधिक लोकप्रिय और समीक्षकों द्वारा सर्वाधिक उपेक्षित कथाकार हैं! इस संबंध में मालती जोशी ने लिखा है कि “सर्वाधिक लोकप्रियता की बात अतिशयोक्ति हो सकती है, परंतु समीक्षकों की उपेक्षा वाली बात सौ फीसदी सच है। मेरी सीधी-सादी नितांत घरेलू कहानियों को श्रेष्ठीजन कोई तवज्जो नहीं देते। उन्हें हाशिये पर डाल दिया जाता है, या यों कहें कि एक तरह से खारिज कर दिया जाता है। स्वातंत्र्योत्तर कहानियाँ, साठोत्तरी कहानियाँ, महिला रचनाकार जैसे लेखों में मेरे नाम का उल्लेख तक नहीं होता। अगर मैं कहूँ कि इस बात का मुझे कोई मलाल नहीं है तो यह झूठ बोलना होगा। शुरू में इस बात से सचमुच दुख होता था, पर अब मैंने मन को समझा लिया है। मैं जिन लोगों के लिए लिखती हूँ, वे तो मुझे सिर-आँखों पर लेते हैं – फिर दुख कैसा!” (मालती जोशी की लोकप्रिय कहानियाँ, भूमिका)। मालती जोशी का कथन पढ़ते समय तेलुगु साहित्यकार मालती चंदूर का नाम बार-बार मानस पटल पर उभर रहा है। उन्होंने भी मालती जोशी की भाँति अपने आस-पास के ही परिवेश से कथासूत्र का ताना-बाना बुना है। उनकी कहानियों और उपन्यासों को भी समीक्षकों ने ‘एक गृहस्थ की मामूली रचनाएँ’ कहकर उपेक्षित किया था। लेकिन उनकी कलम रुकी नहीं, थकी नहीं। 1992 में उनके उपन्यास ‘हृदयनेत्री’ को साहित्य अकादमी पुरस्कार प्राप्त हुआ। साहित्य के क्षेत्र में ढूँढ़ने पर हमें मालती जोशी, मालती चंदूर जैसी अनेक लेखिकाएँ अवश्य मिलेंगी जिन्हें इस समाज में अपने आपको स्थापित करने के लिए जद्दोजहद करनी पड़ती है।

मालती जोशी पारिवारिक जीव हैं। वे स्वयं अपने आपको वही कहती हैं। रिश्तों को बेहद महत्व देने वाली रचनाकार हैं मालती जोशी। उनकी कहानियों में अनेक संबंधों के बीच प्रेमपूर्ण व्यवहार रहता है। प्रेम को परिभाषित करते हुए उन्होंने लिखा है कि “मेरी पीढ़ी के लिए प्रेम महज एक टाइम पास नहीं था। हमारे लिए प्रेम का अर्थ त्याग, बलिदान, समर्पण आदि हुआ करता था। प्रेम एक उदात्त अनुभव, एक पवित्र भावना थी। एक मीठा दर्द था जो चुपके-चुपके सहा जाता था। वह एक व्रत था।” (चाँद अमावस की, भूमिका)। उनकी कहानियों में प्रेम एक अंत:धारा की तरह प्रवाहित होता रहता है।

मालती जोशी की कहानियों में मध्यवर्गीय जीवन शैली को भलीभाँति देखा जा सकता है। स्वयं मध्यवर्गीय परिवार से होने के नाते मालती जोशी अपने देखे हुए और भोगे हुए अनुभव जगत को कहानियों के माध्यम से व्यक्त करती हैं। इसका खुलासा उन्होंने स्वयं किया है – “सारी कहानियों को अगर एक शीर्षक में बाँधना हो तो कहना पड़ेगा कि ये मध्यमवर्गीय जीवन का दस्तावेज हैं। मैं स्वयं इसी वर्ग से हूँ इसलिए मध्यमवर्ग के सुख-दुख, राग-द्वेष, आशा-आकांक्षा से अच्छी तरह परिचित हूँ। मध्यमवर्गीय परिवार या मध्यमवर्गीय नारी मेरी कहानियों का केंद्रबिंदु रहे हैं।” (रहिमन धागा प्रेम का, भूमिका)

15 मई,, 2024 को मालती जोशी का निधन हो गया। उनको भावपूर्ण श्रद्धांजलि अर्पित करते हुए सूर्यबाला कहती हैं कि “वरिष्ठ कथा लेखिका मालती जोशी अगले चार जून को अपने जीवन के 90 गौरवशाली वर्ष पूरे करतीं, लेकिन अफसोस, इसके पूर्व ही 15 मई को वे अंतिम यात्रा पर चली गईं। यह मेरे लिए व्यक्तिगत क्षति से अधिक कथा लेखन के एक युग का अवसान है। वे जीवन और लेखन दोनों में संयम, संतुलन और समरसता की अनूठी मिसाल प्रस्तुत करने वाली रचनाकार थीं। उनकी लेखनी मध्यवर्ग का आईना बन गई। मालती जोशी ने अपनी कहानियों में मानवीय संबंधों के इतने जटिल और विरल यथार्थ उकेरे हैं कि वे अपने समय और समाज की क्लाइडोस्कोप कही जा सकती हैं। हमारे समय की कोई स्थिति नहीं है, जो उनकी लेखनी से छूट गई हो।”

मालती जोशी की कविता ‘आत्मकथ्य’ की इन पंक्तियों से हम उन्हें श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं –

समय के इस सिंधु में है बिंदु भर अस्तित्व मेरा
इसलिए अभिमान भी कभी करती नहीं मैं
प्राप्य जो मेरा रहा है, वह मुझे सब मिल गया है
परम तृप्ति से हृदय का कलश नित भरती रही मैं
                        छू न पाता है मुझे यह तुमुल कोलाहल जगत का
                        क्योंकि अपने आप से संवाद होता है निरंतर
                        एक दुनिया साथ मेरे चल रही है जन्म से ही
                        और भीतर पल रही है, दूसरी दुनिया समांतर
उम्र के सोपान चढ़ती जा रही हूँ अनवरत मैं
कब कहाँ विश्राम होगा, यह अभी अज्ञात है
आज तक जो भी रचा सब उस रचयिता की कृपा है
श्रेय की भागी बनी मैं यह अनोखी बात है
                        थी नहीं स्पर्धा किसी से, और ईर्ष्या भी नहीं है
                        हैं प्रभु के रूप हम सब, सत्य मैं यह जानती हूँ
                        राह में जो भी मिले सब बंधु थे, सब मित्र ही थे,
                        आज मैं नतशीश हो आभार सब का मानती हूँ 
                                                                            (वीणा मासिक, फरवरी 2023)

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