8 मार्च को वैश्विक स्तर पर महिला दिवस का आयोजन होता है। स्त्रियों के सम्मान में मनाया जाने वाला यह दिन महत्वपूर्ण है। ध्यान देने की बात है कि कुछ देशों में - विशेष रूप से अफगानिस्तान, जॉर्जिया, अंगोला, आर्मेनिया, चीन, अजरबाइजान, बुर्किना फासो, कंबोडिया, क्यूबा, गिन्नी-बिसाउ, बेलारूस, कजाखिस्तान, किर्गिस्तान, लाओस जैसे देशों में - अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस घोषित अवकाश है। इन देशों के अतिरिक्त मकदूनिया, मेडागास्कर, माल्डोवा, मंगोलिया, नेपाल, रूस, ताजाकिस्तान, तुर्कमेनिस्तान, यूगांडा, यूक्रेन, वियतनाम और जाम्बिया में भी आधिकारिक तौर पर अवकाश होता है।
इतिहास से यह स्पष्ट होता है कि महिला दिवस की शुरूआत 1908 में तब हो गई थी जब लगभग 15 हजार स्त्रियों ने न्यूयॉर्क शहर में एक परेड निकाली थी। उनकी प्रमुख माँग यही थी कि स्त्रियों के काम के घंटे कम हों, वेतन अच्छा मिले और उन्हें वोट डालने का हक भी मिले। 1909 में अमेरिका की सोशलिस्ट पार्टी ने पहला राष्ट्रीय महिला दिवस मनाने की घोषणा की। 1910 में क्लारा जेटकिन नामक महिला ने अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस की बुनियाद रखी। आगे चलकर 1975 में संयुक्त राष्ट्र द्वारा 8 मार्च को महिला दिवस के रूप में चिह्नित किया गया। ‘महिलाओं में निवेश करें : प्रगति में तेजी लाएँ’ – यह अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस 2024 की थीम है।
यह तो हुई वैश्विक स्तर की बात। अब हम भारतीय परिप्रेक्ष्य में स्त्रियों की दशा और दिशा पर बात करेंगे। भारत में, वैदिककालीन स्त्री स्वतंत्रता के इतिहास को भुलाकर, मध्यकाल में स्त्री को घर की चारदीवारी के अंदर ‘सुरक्षित’ (!?) क्षेत्र तक सीमित कर दिया गया था। यह कब हुआ, कैसे हुआ यह बताना कठिन है। लेकिन पुनर्जागरण काल के भारतीय इतिहास से यह स्पष्ट होता है कि उस समय भारतीय स्त्री ने सार्वजनिक रूप से स्वतंत्रता संग्राम में महती भूमिका निभाई। यह भी ध्यान देने की बात है कि साहित्य के किसी काल-खंड में ऐसा नहीं हुआ कि ‘स्त्री’ प्रमुख विषय न रहा हो। आदिकाल से लेकर आधुनिक काल तक साहित्य के केंद्र में स्त्री किसी न किसी रूप में रही है। इस साहित्य से पुष्टि होती है कि समाज में पुरुषसत्तात्मक व्यवस्था होने के कारण प्रमुख विषयों में निर्णय लेना का अधिकार पुरुष को प्राप्त हुआ। 19 वीं सदी के पूर्वार्ध में बाल विवाह, कन्या भ्रूणहत्या, पर्दा प्रथा, सती प्रथा, दहेज आदि सामाजिक विसंगतियाँ बहुत बढ़ी हुई थीं। उचित शिक्षा के अभाव में स्थितियाँ बदतर होने लगीं और स्त्री घर-परिवार तक सीमित होती गई। एक ओर उसे देवी के रूप में पूजा जाता है, तो दूसरी ओर उसे दानवी कहकर धिक्कारा जाता है। ये दोनों ही स्थितियाँ घातक हैं। स्त्री न ही अपने आपको देवी मानती है और न ही दानवी। वह तो बस इस समाज से यही चाहती है कि उसे ‘मानवी’ का दर्जा प्राप्त हो। वह भी इनसान है। समाज में अपना अस्तित्व कायम रखना चाहती है। स्त्री बार-बार यही गुहार लगाती है कि वह एक स्त्री है, ममता की प्रतिमूर्ति है। उसके पास दो चेहरे, दो मुँह और दो तरह का जीवन नहीं है। जैसा भी है वह अपनी उस स्थिति को स्वीकारती है। अफसोस नहीं करती कि वह सीता-सावित्री के साँचे में फिट नहीं बैठती। उसके लिए तो बस इतना काफी है कि वह मनुष्य है - अपनी सारी कमजोरियों और खूबियों के साथ।
यहाँ हम अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस के उपलक्ष्य में स्त्री के बारे में कुछ बातें महात्मा गांधी के बहाने करना चाहेंगे। गांधी जी की आत्मकथा ‘सत्य के प्रयोग’ से यह स्पष्ट होता है कि गांधी जी स्त्रियों के अधिकारों के प्रति जागरूक थे और स्त्री-शिक्षा के प्रबल समर्थक थे। वे इस बात पर बल देते थे कि स्त्री सहनशीलता की मूर्ति है। वे स्त्री और पुरुष में भेदभाव करने का विरोध करते थे। स्त्री-पुरुष के बीच भेदभाव को मन में रखकर जीने को वे मानसिक कमजोरी व बीमारी मानते थे। उनका मानना था कि पुरुष स्त्री की क्षमाशीलता जैसे स्वाभाविक गुणों का भरपूर लाभ उठाते हैं। अतः स्त्री को हर तरह से सक्षम होने की आवश्यकता है।
महात्मा गांधी ने स्त्रियों की राजनैतिक भागीदारी को पारंपरिक और पारिवारिक भूमिकाओं के विस्तार के रूप में देखते थे। उनका दृढ़ विश्वास था कि स्त्रियों में विदेशी शासन के प्रलोभनों का विरोध करने की क्षमता अधिक है। इसीलिए उन्होंने स्वतंत्रता संग्राम में भाग लेने के लिए स्त्रियों का आह्वान किया। स्वतंत्रता आंदोलन को महात्मा गांधी ने एक नई दिशा दी और बड़ी संख्या में स्त्रियों को इसमें शामिल किया।
गांधी जी की आत्मकथा ‘सत्य के प्रयोग’ से यह बात स्पष्ट होती है कि वे स्त्रियों के अधिकारों के प्रति जागरूक थे; और स्त्री-शिक्षा के प्रबल समर्थक। ‘यंग इंडिया’ (1921) में प्रकाशित एक लेख में उन्होंने लिखा कि ‘पुरुष द्वारा खुद बनाई गई बुराइयों में से कोई भी इतनी अपयश-जनक, पाशविक और अप्रिय नहीं है जितनी कि मानवता के आधे हिस्से यानि महिलाओं के साथ किया गया दुर्व्यवहार है। हालांकि महिला कमजोर लिंग नहीं है।’ स्त्री पुरुष से शारीरिक स्तर पर भले ही कमजोर हो सकती है, लेकिन मानसिक स्तर पर वह उससे कम नहीं है।
‘हरिजन’ के एक अंक में गांधी जी ने स्त्री शिक्षा पर बल देते हुए लिखा कि ‘मैं स्त्रियों की समुचित शिक्षा की हिमायती हूँ, लेकिन यह भी मानता हूँ कि स्त्री दुनिया की प्रगति में अपना योग पुरुष की नकल करके या उसकी प्रतिस्पर्धा करके नहीं दे सकती है, चाहे तो वह प्रतिस्पर्धा कर सकती है, परंतु पुरुष की नकल करके वह उस ऊँचाई तक नहीं पहुँच सकती। उसे पुरुष का पूरक बनना चाहिए।’ महात्मा गांधी स्त्रियों के अधिकारों के प्रति सजग थे। वे इस बात पर बल देते थे कि स्त्री भी एक व्यक्ति है। वे पहले ही यह बात जान चुके थे कि भारतीय स्त्री की कानूनी एवं पारंपरिक स्थिति खराब रही है। अतः वे इस स्थिति में क्रांतिकारी परिवर्तन लाने की कोशिश करते रहे। ‘मेरे सपनों का भारत’ में गांधी जी भारतीय स्त्री के पुनरुत्थान की बात करते हुए कहते हैं कि ‘जिस रूढ़ि और कानून के बनाने में स्त्री का कोई हाथ नहीं था और जिसके लिए सिर्फ पुरुष ही जिम्मेदार है, उस कानून और रूढ़ि के जुल्मों ने स्त्री को लगातार कुचला है। अहिंसा की नींव पर रचे गए जीवन की योजना में जितना और जैसा अधिकार पुरुष को भी अपने भविष्य की रचना का है, उतना और वैसा ही अधिकार स्त्री को भी अपना भविष्य तय करने का है।’ (मेरे सपनों का भारत, पृ. 188)। पर यह इतना आसान नहीं है, क्योंकि ‘अहिंसक समाज की व्यवस्था में जो अधिकार मिलते हैं, वे किसी न किसी कर्तव्य या धर्म के पालन से प्राप्त होते हैं। इसीलिए यह भी मानना चाहिए कि सामाजिक आचार-व्यवहार के नियम स्त्री-पुरुष दोनों आपस में मिलकर और राजी-खुशी से तय करें।’ (वही)। जब स्त्री और पुरुष एक ही तरह की जिंदगी जीते हैं, तो उनमें भेदभाव क्यों? क्या उनकी जिम्मेदारियों और भूमिकाओं के कारण इस तरह का भेदभाव प्रचलित है? यह सोचने की बात है।
अकसर कहा जाता है कि स्त्री-पुरुष एक ही सिक्के के दो पहलू हैं, एक ही रथ के दो पहिये हैं, आदि आदि आदि। पर व्यावहारिक रूप से कभी भी स्त्री को पुरुष के समान अधिकार नहीं दिए जाते। यह भेद तो घर-परिवार से ही शुरू हो जाता है। लड़की से कहा जाता है – तुम लड़की हो, घर के भीतर ही बैठो। बाहर घूमने न जाना। अकेले मत जाना, छोटे भाई को साथ ले जाना। लेकिन लड़का बिना कोई बंदिश घूम सकता है, क्योंकि वह ‘लड़का’ है। पति रूपी पुरुष स्त्री को अपना मित्र व साथी मानने के बजाय अपने को उसका स्वामी मानता है तथा उसे अपनी दासी। हिंदुस्तान की स्त्रियों को इस गिरी हुई हालत से ऊपर उठाने की बात गांधी जी करते हैं और स्त्री शिक्षा पर जोर देते हुए कहते हैं कि ‘स्त्रियों को उनकी मौलिक स्थिति का पूरा बोध करावें और उन्हें इस तरह की तालीम दें, जिससे वे जीवन में पुरुषों के साथ बराबरी के दरजे से हाथ बँटाने लायक बनें।’ (वही, पृ.189)। यह तभी संभव होगा जब पुरुष स्त्री को मन बहलाने की गुड़िया न समझकर उसे सम्मान देगा। हम यह भी देख सकते हैं कि कुछ समुदायों में गाँव की स्त्रियाँ हर काम में पुरुषों से टक्कर लेती हैं। कुछ मामलों में निर्णय भी लेती हैं, हुकूमत भी करती हैं। इससे स्पष्ट है कि स्त्रियों में घर और समाज को नेतृत्व प्रदान करने की क्षमता अंतर्निहित है।
महात्मा गांधी की दृष्टि में स्त्री-पुरुष समान हैं। वे यह नहीं चाहते कि ऐसा कोई भी कानूनी प्रतिबंध स्त्री पर लगे, जो पुरुष पर न लगाया गया हो। कहने का आशय है कि उनके साथ पूरी समानता का व्यवहार होना चाहिए। स्त्रियों को पहले स्वावलंबी और आत्मनिर्भर बनना होगा। उल्लेखनीय है कि 22 फरवरी, 1944 को अपनी सहधर्मिणी कस्तूरबा गांधी के निधन के बाद एक अप्रैल, 1945 को महात्मा गांधी ने कस्तूरबा गांधी राष्ट्रीय स्मारक ट्रस्ट की स्थापना की थी। इस ट्रस्ट का उद्देश्य भी यही है कि समस्त स्त्रियों को स्वावलंबी और आत्मनिर्भर बनाया जाए। याद रहे कि स्त्री की आत्मनिर्भरता का मतलब यह कतई नहीं है कि इससे पुरुषों की स्थिति हीन हो जाएगी। बल्कि केवल इतना है कि स्त्रियों की स्थिति सुधर जाएगी। गांधी जी यही चाहते थे कि स्त्रियाँ अपनी ऊर्जा रचनात्मक कार्यों में लगाएँ ताकि उनकी स्थिति में आश्चर्यजनक सुधार हो।
इन्हीं शब्दों के‘स्रवंति’ के पाठकों को अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस की शुभकामनाएँ...
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