मैं सोच रहा, सिर पर अपार
दिन, मास, वर्ष का धरे भार
पल, प्रतिपल का अंबार लगा
आखिर पाया तो क्या पाया?
जब तान छिड़ी, मैं बोल उठा
जब थाप पड़ी, पग डोल उठा
औरों के स्वर में स्वर भर कर
अब तक गाया तो क्या गाया?
इन पंक्तियों को पढ़कर क्या कोई पाठक सहज ही अनुमान नहीं लगा सकता है कि इन पंक्तियों के रचनाकार कौन हैं? इन पंक्तियों को पढ़कर पंत, बच्चन, भगवती चरण वर्मा अथवा शमशेर का नाम ले भी सकते हैं; लेकिन ये पंक्तियाँ ‘क्रांतिकारी की कथा’ कहने वाले भोलाराम के जीव की ओर सबका ध्यान खींचने वाले व्यंग्य को विधा के रूप में दर्जा दिलाने वाले व्यंग्यकार हरिशंकर परसाई की हैं।
हरिशंकर परसाई का जन्म 22 अगस्त, 1924 को होशंगाबाद जिले के जमानी गाँव में हुआ। प्रारंभिक शिक्षा स्थानीय पाठशाला में हुई। उच्च शिक्षा प्राप्त करने के लिए वे नागपुर गए। अध्ययन के बाद वे अध्यापन के क्षेत्र में उतरे, लेकिन बाद में नौकरी करने के बजाय लेखक बनकर जीवनयापन करना श्रेयस्कर समझा। हिंदी ही नहीं, किसी भी भाषा में महज लेखन के माध्यम से आजीविका जुटाना आसान काम नहीं है। लेकिन परसाई जी जीवनपर्यंत अपने निर्णय पर अटल रहे। उन्होंने ‘वसुधा’ नामक पत्रिका का प्रकाशन भी किया। यह पत्रिका उनकी निष्ठा और प्रतिबद्धता का प्रतीक है। वे अनेक पुरस्कारों और सम्मानों से गौरवान्वित हुए।
परसाई जी के साहित्य का केंद्रीय तत्व है व्यंग्य। उनकी साहित्यिक कृतियों में कहानी, रिपोर्ताज, संस्मरण, रेखाचित्र, आत्मकथा, साक्षात्कार आदि विधाओं का समुच्चय देखा जा सकता है। आमतौर पर व्यंग्य को एक शैली के रूप में देखा जाता था, लेकिन हरिशंकर परसाई ने उसे एक अलग स्वतंत्र विधा के रूप में स्थापित किया। आस-पास घटित घटनाओं एवं व्याप्त विसंगतियों को देखकर जब कोई व्यक्ति भीतर से उद्वेलित हो उठता है, तो उसकी कलम से ‘सदाचार का ताबीज’, ‘बेईमानी की परत’, ‘न्याय का दरवाजा’, ‘वैष्णव की फिसलन’, ‘आवारा भीड़ के खतरे’, ‘हरिजन को पीटने का यज्ञ’ जैसी रचनाओं का सृजन स्वाभाविक है। इस संबंध में श्रीलाल शुक्ल का यह कथन उल्लेखनीय है – “परसाई विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं क्योंकि अपनी राजनीतिक प्रतिबद्धताओं और सुस्पष्ट विचारों को आधार बनाकर उन्होंने राजनीतिक व्यंग्य को एक खास दिशा दी और गुणवत्ता में नई ऊँचाइयाँ हासिल कीं।” (श्रीलाल शुक्ल, कुछ साहित्य चर्चा, पृ.216)
हरिशंकर परसाई की लेखन शैली नितांत निजी है। वे यह नहीं मानते कि साहित्य सृजन के लिए किसी पारंपरिक ढाँचे को ही अपनाना पड़ेगा। वे तो रूढ़ियों को तोड़ने पर बल देते थे। वे हमेशा यही कहा करते थे कि ‘सत्य शुभ हो, अशुभ हो, काला हो, सफेद हो – साहित्य उसी से बनता है।’ (हरिशंकर परसाई, देश के लिए दीवाने आये)। परसाई आम आदमी की जिंदगी में व्याप्त विसंगतियों से इस कदर बेचैन हो उठते हैं कि उनका अंतस कराह उठता है। उन्होंने स्वयं कहा है कि “मैं निहायत बेचैन मन का घोर संवेदनशील आदमी हूँ। मुझे चैन कभी मिल ही नहीं सकता। इसलिए गर्दिश नियति है।” (सं. कमलेश्वर, गर्दिश के दिन, पृ.128)।
हिंदी साहित्य को धारदार व्यंग्य के माध्यम से समृद्ध करने वाले, पाठकों को हँसाने वाले, चुटकी लेने का मौका न छोड़ने वाले हरिशंकर परसाई के व्यक्तिगत जीवन के बारे में जानना हो तो उनके द्वारा लिखी हुई उनकी कहानी को ही पढ़ना होगा। जी हाँ! परसाई की कहानी अपनी जुबानी! (उनके इस बयान के सब सूत्र ‘गर्दिश के दिन’ में छिपे हैं।) तो, सुनिए!
मैं हरिशंकर परसाई! एक शताब्दी के बाद आपके सामने आ रहा हूँ। ‘घायल बसंत’ को देखकर डर गया था। इसलिए ‘भोलाराम का जीव’ बनकर अपने आपको छुपा लिया था। ‘ठिठुरता गणतंत्र’ को देखकर ‘शिकायत मुझे भी है’, लेकिन क्या कर सकता हूँ! लाचार हूँ न! यहाँ तो सबकी ‘अपनी अपनी बीमारी’ है। सब के सब ‘भेड़ें और भेड़िये’ ही तो हैं। ‘बेईमानी की परत’ खोलने में सफल हो सकता हूँ क्या? ‘तुलसीदास चंदन घिसें’ तो मैं क्या ‘तिरछी रेखाएँ’ नहीं खींच सकता! करना तो बहुत कुछ चाहता हूँ। करने के लिए इस संसार में बहुत कुछ है, लेकिन जब जब मैं ‘पाखंड का अध्यात्म’ देखता हूँ तब तब बेचैन हो उठता हूँ। मेरी अंतरात्मा पुकारने लगती है ‘सुनो भाई साधो’। पर मेरी आवाज जनता तक नहीं पहुँचती। ‘एक मध्यवर्गीय कुत्ता’ कर क्या सकता है भला! सोच रहा हूँ कि ‘जैसे उनके दिन फिर’ मेरे भी फिरेंगे। ‘सुदामा का चावल लेकर ‘बस की यात्रा’ करूँगा और ‘क्रांतिकारी की कथा’ लिखूँगा पर ‘समझौता’ नहीं करूँगा।
यादें तो मेरे पास बहुत हैं। आपकी दिलचस्पी किस बात में है? क्या आप जानना चाहते हो कि हरिशंकर परसाई नामक यह आदमी जो हँसता है, मस्ती करता है, जो तीखा है, कटु है – इसकी अपनी जिंदगी कैसी है? यह कब गिरा? कब उठा? कैसे टूटा? कैसे फिर से जुड़ा? जानने की इच्छा है! मैं तो एक निहायत कटु निर्मम और ‘धोबीपछाड़’ आदमी हूँ। बचपन में मुझे जिस घटना ने तोड़ा, पहले उसके बारे में ही बताऊँगा। बचपन की सबसे तीखी याद ‘प्लेग’ की है। शायद 1936 या 37 होगा। उस वक़्तशायद मैं आठवीं में पढ़ रहा था। कस्बे में प्लेग पड़ी थी। आबादी घर छोड़ जंगल में रहने चली गई थी। हम नहीं गए थे। माँ सख्त बीमार थी। उन्हें लेकर जंगल नहीं जाया जा सकता था। सब लोग जा चुके थे। कस्बा वीरान हो चुका था। भाँय-भाँय करते पूरे आसपास में हमारे घर में ही चहल-पहल थी। काली रातें। इनमें हमारे घर जलने वाले कंदील। मुझे इन कंदीलों से डर लगता था। कुत्ते तक बस्ती छोड़ गए थे। ऐसी स्थिति में तो रात के सन्नाटे में हमारी ही आवाजें हमें डरावनी लगती थीं। वह रात भयंकर थी। उसे याद कर रहा हूँ, तो आज भी मेरी आत्मा काँप रही है। मरणासन्न माँ के सामने हम आरती गा रहे थे। गाते गाते पिताजी सिसकने लगे, माँ बिलखकर हम बच्चों को हृदय से चिपका रही है और हम रो रहे हैं। यह रोज रोज की बात हो गई। पिताजी, चाचा जी और एक-दो रिश्तेदार लाठी-बल्लम लेकर घर के चारों तरफ घूम-घूमकर पहरा देते। ऐसे भयंकर वातावरण में एक रात माँ हम सब को बिलखते छोड़कर कहीं दूर चली गई। कोलाहल और विलाप शुरू हो गया। कुत्ते भी सिमटकर आ गए कहीं से योगदान देने। पाँच भाई-बहनों में माँ की मृत्यु का अर्थ मैं ही समझता था – सबसे बड़ा जो हूँ! प्लेग की वे रातें मेरे मन में गहरे उतरी हैं। जिस आतंक, निराशा और भय के बीच हम जी रहे थे, उसके सही अंकन के लिए हिम्मत चाहिए। हममें से कोई इस कदर टूटे नहीं थे, जिस कदर पिताजी टूटे थे।
दिन बीतते गए। मैं पढ़ाई और नौकरी में व्यस्त हो गया। मेट्रिक हुआ कि नहीं जंगल विभाग में नौकरी मिली। जंगल में सरकारी टपरे में रहता था। चूहे, बिच्छू और साँपों ने खूब काटा, लेकिन ज़हरमोहरा मुझे शुरू में ही मिल गया था। इसलिए ‘बेचारा परसाई’ का मौका ही नहीं आने दिया। मुझे दिखाऊ सहानुभूति से बेहद नफरत है। अभी भी है। दिखाऊ सहानुभूति दिखाने वालों को चाँटा मार देने की इच्छा होती है। फिर स्कूल में मास्टरी की थी। टीचिंग ट्रेनिंग और फिर नौकरी की तलाश। पिताजी अपनी अंतिम साँसें गिन रहे थे। परिस्थितियों के कारण मैं अनिश्चय में जी लेना सीख ही गया।
मैं बहुत भावुक, संवेदनशील और बेचैन तबीयत का आदमी हूँ। सामान्य स्वभाव का आदमी ठंडे-ठंडे जिम्मेदारियाँ भी निभा लेता है। दुनिया से तालमेल भी बिठा लेता है। व्यक्तित्वहीन नौकारीपेशी आदमी की तरह जिंदगी साधारण संतोष से भी गुजार लेता है। लेकिन मेरे साथ ऐसा नहीं हुआ। मैं अपने व्यक्तित्व और चेतना की रक्षा करने में जुट गया। तब मैंने सोचा ही नहीं था कि लेखक बनूँगा। पर मैं अपने विशिष्ट व्यक्तित्व की रक्षा तब भी करना चाहता था। मैंने अपने आपको समझाया – हे परसाई! किसी से मत डरो! ‘भीतर तुम जो भी हो, जिम्मेदारी को गैर-जिम्मेदारी के साथ निभाओ। यदि जिम्मेदारी के साथ निभाओगे तो नष्ट हो जाओगे।’ अपने से बाहर निकल आओ। दुनिया देखो, समझो और हँसो!
मैं डरा नहीं। ‘लोगों से नहीं डरा, तो नौकरियाँ गईं। लाभ गए, पद गए, ईनाम गए। पहले अपने दुखों के प्रति सम्मोहन था। अपने आपको दुखी मानकर मनवाकर आदमी राहत भी पा लेता है। बहुत लोग अपने लिए ‘बेचारा’ शब्द सुनकर संतुष्ट हो जाते हैं। अपार आनंद का अनुभव करने लगते हैं। मुझे भी पहले ऐसा ही लगा। आखिर मैं भी एक साधारण इंसान ही तो हूँ। पर मैंने आस-पास देखा। तब मुझे लगा ‘इतने ज्यादा बेचारों में मैं क्या बेचारा! इतने विकट संघर्षों में मेरा क्या संघर्ष!’ इन सब परिस्थितियों के बीच मेरे भीतर लेखक कैसे जन्मा यह सोचता हूँ तो कुछ सूझता ही नहीं। मुझे लगता है कि मैंने दुनिया से लड़ने के लिए लेखन को एक हथियार के रूप में अपनाया। इसी में मैंने अपने व्यक्तित्व की रक्षा का रास्ता देखा। ‘अपने को अविशिष्ट होने से बचाने के लिए मैंने लिखना शुरू कर दिया। पर जल्दी ही मैं व्यक्तिगत दुख के जाल से निकल गया।’ इस संसार में दुखी, अन्याय से पीड़ित तथा शोषित और भी हैं। अतः मैंने अपने आपको विस्तार दिया। मेरे हाथ में कलम है और मैं चेतना संपन्न हूँ। यहीं से व्यंग्य लेखक ‘पर-साई’ का जन्म हुआ।
इस संसार में सर्वत्र मनुष्य किसी न किसी रूप में संघर्ष करता हुआ दिखाई देता है। ‘मुक्ति अकेले की नहीं होती। अलग से अपना भला नहीं हो सकता।’ पाप से मुक्ति पाने के लिए मनुष्य छटपटाता रहता है। पर बड़ी लड़ाई केवल अकेले नहीं लड़ी जा सकती है। ‘अकेले वही सुखी हैं जो लड़ना ही नहीं चाहते। न उनके मन में सवाल उठते हैं, न शंका उठती है। ये जब-तब सिर्फ शिकायत कर लेते हैं। शिकायत भी सुख देती है। और वे ज्यादा सुखी हो जाते हैं।’ कबीर ने ठीक ही कहा है – ‘सुखिया सब संसार है, खावै और सोवै/ दुखिया दास कबीर है, जागै और रोवै।’ जागने वाले का रोना कभी खत्म नहीं होता। व्यंग्य लेखक की गर्दिश भी कभी खत्म नहीं होगी। मेरी गर्दिश सौ सालों के बाद भी ताजा है। इस भोलाराम के जीव को कब मुक्ति मिलेगी!!!
2024! हरिशंकर परसाई का जन्मशताब्दी वर्ष है। इस अवसर पर उनको याद करके उन्हें विनम्र श्रद्धांजलि अर्पित करती हूँ।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें