सोमवार, 11 जून 2012

'तेरे मेरे दरमियाँ' लोकार्पित


[10 जून 2012 को आई ए एस ऑफीसर्स  एसोसिएशन, हैदराबाद के प्रांगण में   स्व. नारायणदास जाजू (10.6.1942 – 17.3.2012) की 70 वीं जयंती के अवसर पर नेशनल पब्लिशिंग हाउस द्वारा प्रकाशित उनके ग़ज़ल संग्रह ‘तेरे मेरे दरमियाँ’ का लोकार्पण समारोह संपन्न हुआ. इस समारोह के अध्यक्ष थे कानपुर विश्वविद्यालय के प्रोफेसर डॉ.दिनेश प्रियमन. मुख्य अतिथि थे श्री निदा फ़ाजली और लोकार्पणकर्ता डॉ. कुँवर बेचैन. कार्यक्रम का उद्घाटन डॉ.ए.के.पुरोहित ने किया. श्री स्वाधीन ने स्व.नारायणदास जाजू से जुडी यादों को श्रोताओं के सम्मुख रखा. नेशनल पब्लिशिंग हाउस के प्रकाशक श्री मोहित मलिक ने प्रकाशकीय वक्तव्य प्रस्तुत किया. मंच पर 12 लोग उपस्थित थे. डॉ.सलाउद्दीन नैयर, डॉ.किशोरीलाल व्यास, डॉ.दुर्गेश नंदिनी, श्रीमती रूबी मिश्रा, श्री बंसीलाल के साथ साथ मुझे भी वक्ता के रूप में मंचासीन होने का सुअवसर मिला. मुख्य व्याख्यानकर्त्ता के रूप में डॉ. ऋषभदेव शर्मा को आना था लेकिन संभवतः हैदराबाद से बाहर गए होने के कारण वे उपस्थित नहीं हो सके.

लोकार्पण समारोह का मुख्य आकर्षण था निदा फ़ाजली और कुँवर बेचैन का काव्य पाठ. दोनों ही समकालीन हिंदी-उर्दू मंचों के शिखरस्थ रचनाकार हैं. हैदराबाद की जनता ने इन्हें एक साथ सुनकर धन्यता का अनुभव किया.

स्वाधीन जी, नैयर जी और दुर्गेश नंदिनी जी ने काफी लंबे भाषण दिए. मुझसे पहले छह वक्ता बोल चुके थे. अपनी बारी आने पर जैसे ही मैं माइक पर गई तो स्वाधीन जी ने निर्देश जारी कर दिया, ' ज्यादा मत बोलना, अपनी बात बस दो मिनट में खत्म करना.' वैसे तो मुझे ज्यादा नहीं बोलना था पर मैंने पाँच मिनट के हिसाब से अपना लिखित वक्तव्य तैयार किया था. अतः जो कुछ मुझे कहना था, मैंने बस दो ही मिनट में ही समेट लिया. मंच से ही जब डॉ. कुँवर बेचैन जी, डॉ. ए.के.पुरोहित जी और डॉ. दिनेश प्रियमन जी ने एक साथ कहा - ‘बहुत अच्छा’, ’शाबाश’, ‘शॉर्ट एंड स्वीट’ - तो मुझे बहुत ही अच्छा लगा. जब यह कहा गया कि विवशता के पाठ की दृष्टि से ग़ज़लों का मेरा विवेचन अन्य वक्ताओं से भिन्न रहा तो मैंने मन ही मन अपने गुरुवर प्रो. दिलीप सिंह जी और प्रो. ऋषभदेव शर्मा जी को प्रणाम किया क्योंकि इसका सारा श्रेय उन्हीं की शिक्षाओं को जाता है.

मैं आपके सामने उसी वक्तव्य को प्रस्तुत कर रहीं हूँ.]

गज़लकार नारायण दास जाजू की रचनाओं में विवशता का पाठ

“माना कि अब आकाश से ये दुनियाँ बड़ी है.
 लेकिन यहाँ हर वक्त ये मुश्किल में पड़ी है.

रुकने का नाम भी तो नहीं लेती ज़िंदगी 
पल पल यूँ गुज़रती हुई ये रात-घड़ी है.

तुम भी तो यहाँ आके हवा हो गए हो दोस्त 
 दीवारो दर के पास फ़कत धूप खड़ी है.” 
                                                                                               [तेरे मेरे दरमियाँ, पृष्ठ 60]

यह ठीक है कि दुनिया आज इतनी बड़ी हो गई है कि अनंत संभावनाओं से भरा आकाश भी उसके सामने छोटा लगता है. लेकिन इस विवशता का क्या कीजिएगा कि इतनी विशाल होकर भी यह दुनिया हर वक्त किसी-न-किसी मुश्किल में पड़ी है. यहाँ तक कि विराट होते होते दुनिया का गुब्बारा इतना फूल गया लगता है कि जाने कब फट पड़े. अपने विकास में ही विनाश को भी पनाह देने की मजबूरी दुनिया के अस्तित्व की मजबूरी है. इसी तरह निरंतर दौड़ती हुई ज़िंदगी भी विवश है, मजबूर है - पल पल बीतते जाने के लिए. दुनिया और ज़िंदगी की मजबूरियाँ तो अपनी जगह हैं, रिश्ते-नातों और संबंधों की मजबूरियाँ इनसे भी बड़ी हैं. पता ही नहीं चलता कि छायादार पेड़ जैसी दोस्ती कब हमारे सिर से गायब हो जाती है और हम हर ओर से तमतमाती धूप में अकेले खड़े रह जाते हैं. आज का आदमी दुनिया की तमाम भीड़ के बीच इसी तरह अकेला होने को मजबूर है.

व्यक्ति, जीवन और जगत की इन तमाम मजबूरियों को हिंदी के वरिष्ठ ग़ज़लकार स्व.नारायण दास जाजू की ग़ज़लों में बहुत ख़ूबसूरती से प्रकट किया गया है. मुझे जो थोड़ा सा समय यहाँ अपनी बात कहने के लिए मिला है उसमें मैं उनकी गज़लों में निहित इसी विवशता के पाठ पर प्रकाश डालने का प्रयास करूँगी.

यहाँ इस बात को ध्यान में रखा जाना चाहिए कि ग़ज़ल अब केवल हिंदी-उर्दू की काव्य विधा  नहीं रह गई है बल्कि देश-विदेश में अनेक भाषाओं में अब ग़ज़ल कही जा रही है. मराठी,  गुजराती, तेलुगु और पंजाबी ही नहीं हमारे हैदराबाद में तो अंग्रेज़ी तक में गज़ल कही जा रही है. खासतौर पर तेलुगु में दाशरथी कृष्णमाचार्य,ज्ञानपीठ पुरस्कार विजेता डॉ.सी.नारायण रेड्डी और ग़ज़ल श्रीनिवास ने इस विधा को अपार लोकप्रियता दिलवाई है. अगर आप तेलुगु और हिंदी में रची गई डॉ.सी.नारायण रेड्डी की ग़ज़लों को देखें तो पता चलेगा कि उनमें एक खास तरह की जीवन-ऊर्जा और मानवतावादी दृष्टि विद्यमान है. अगर उन ग़ज़लों के सामने नारायण दास जाजू की ‘तेरे मेरे दरमियाँ’ की ग़ज़लों को रखकर देखा जाए तो यह मानवतावादी नज़रिया दोनों को एक दूसरे के करीब लाता प्रतीत होगा. लेकिन श्री जाजू ने उदासी और विवशता का जो पाठ अपनी ग़ज़लों में बुना है वह उन्हें एक स्वतंत्र व्यक्तित्व प्रदान करता है. इसका अर्थ यह न समझा जाए कि इस संग्रह की ग़ज़लों में व्यक्तिगत, सामाजिक, राजनैतिक आदि दूसरे सरोकार नहीं हैं, बल्कि मेरा कहना है कि नारायण दास जाजू अत्यंत व्यापक समाजी सरोकार वाले कवि हैं और ये सरोकार ही उन्हें उन मजबूरियों का साक्षात्कार कराते हैं जिनकी चर्चा मैंने शुरू में की. अपनी पहली ही गज़ल में कवि ने दिल के घावों का भरना नामुमकिन बताया है क्योंकि उन पर एक तलवार लटकी हुई है –
“ये दिल के घावों का भरना कहाँ है मुमकिन अब  
लटक रही है इन पर जो ये तलवार ज़रा.” (पृष्ठ 1)
- यहाँ ‘ज़रा’ के प्रयोग से मजबूरी और गहन हो गई है.

कवि चाहता है कि आनेवाली पीढ़ी को जीने की कला सिखा सके. लेकिन वह इस तथ्य के आगे विवश है कि‘दिखती है रात, दिन के उजाले में भी यहाँ.’ (पृष्ठ 3)
अब इसे मजबूरी नहीं तो क्या कहिएगा कि 
“मैंने गुजारी इस तरह से ये ज़िंदगी 
 सहरा में कड़ी धूप में लिपटी रही छाया. 
*** 
मैं जो गया था पास से तेरे कभी उठकर 
क्या बात थी कि लौट कर, मैं नहीं आया.” (पृष्ठ 9)

यह विवशता इतनी बढ़ गई है कि
“दुःख पीड़ा और दर्द अश्क सब साथ उतर जाते हैं लेकिन  
खुद में नीलकंठ सा गहरा एक बवंडर देखता हूँ मैं.”(पृष्ठ 11)

दरअसल बेचैनी और विवशता नारायण दास जाजू की गज़ल-भाषा के दो मजबूत स्तंभ हैं. समय की सीमा को देखते हुए अपनी तरफ से कुछ अधिक न कहते हुए मैं उनके चंद अशआर पेश करना चाहूँगी. गज़ल नं. 19 का मक़ता देखें –
“इस ज़मीन पर ‘जाजू’ हमने बिखरे दिल को बाँध लिया  
जीता है बीमार यहाँ जो उस का सब कुछ दवा के नाम”(पृष्ठ 19)

गज़ल नं 23 का मतला –
“ज़िंदगी बंट जो गई आज कई किश्तों में  
ये क्यों दरार सी पड़ आई अपने रिश्तों में” (पृष्ठ 23)

गज़ल नं. 109 का एक शेर है – 
“इस ज़िंदगी में दिल की लगी आग थी ऐसी  
हर शाम उठा करते थे तुम आह की तरह.” (पृष्ठ 109)

और अंत में आखिरी गज़ल –

“कि अपने प्यार में साज़िश रचाई जाती है 
 हमारे मिलने पे बंदिश लगाई जाती है.
तुम्हारे गाँव की आँख तरसती रहती है  
हमारे शहर में फ़सलें उगाई जाती है.
आग लग जाए तो हंगामा खडा होता है.  
इस लिए शहर में आग लगाई जाती है.
बेगुनाह लोगों को किस की सज़ा मिलती है  
पेशियाँ बदलती हैं, मियाद बढ़ाई जाती है.”(पृष्ठ 114)  

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