सोमवार, 19 मई 2014

संप्रेषणीय आलोचना के कर्णधार परमानंद श्रीवास्तव

आलोचना आखिर क्यों? आलोचना क्या सृजन के बाद का या गैर-सर्जनात्मक लेखन है, या फिर आपद्धर्म? इन प्रश्नों का सामना प्रत्येक आलोचक को करना पड़ता है. सबके अपने-अपने उत्तर हो सकते हैं. लेकिन आलोचक डॉ. परमानंद श्रीवास्तव का उत्तर एकदम स्पष्ट और दो-टूक है. उनके लिए आलोचना ‘आपद्धर्म’ नहीं वरन् सर्जनात्मक कार्य है. उन्हीं के शब्दों में सुनिए – “आलोचना कोई साझा कार्यक्रम नहीं है. वह मेरे लिए रचनात्मक कार्य है और मेरा स्वधर्म है, ‘आपद्धर्म’ नहीं.” (परमानंद श्रीवास्तव, ‘आलोचना कोई साझा कार्यक्रम नहीं है’, ओम निश्चल से बातचीत, मेरे साक्षात्कार, पृ.सं.151). 

आलोचना क्षेत्र में उल्लेखनीय योगदान के लिए ‘व्यास सम्मान’ और ‘भारत भारती’ पुरस्कारों से सम्मानित डॉ. परमानंद श्रीवास्तव (9 फरवरी 1935 – 5 नवंबर 2013) की आलोचनात्मक कृतियों में ‘नई कविता का परिप्रेक्ष्य’ (1965), ‘हिंदी कहानी की रचना प्रक्रिया’ (1965), ‘कवि कर्म और काव्य भाषा’ (1975), ‘उपन्यास का यथार्थ और रचनात्मक भाषा’ (1976), ‘जैनेंद्र के उपन्यास’ (1976), ‘समकालीनता का व्याकरण’ (1980), ‘समकालीन कविता का यथार्थ’ (1988), ‘शब्द और मनुष्य’ (1988), ‘उपन्यास का पुनर्जन्म’ (1995), ‘कविता का अर्थात’ (1999), ‘कविता का उत्तर जीवन’ (2005), ‘दूसरा सौंदर्यशास्त्र क्यों’ (2005) आदि उल्लेखनीय हैं. हाल ही (2014) में वाणी प्रकाशन से ‘अतल का अंतरीप’, ‘समकालीन कविता : संप्रेषण का संकट’ और ‘समकालीन कविता : नए प्रस्थान’ शीर्षक उनकी तीन आलोचनात्मक कृतियों का प्रकाशन हुआ.

स्मरणीय है कि परमानंद श्रीवास्तव आलोचना को गौण कार्य न मानकर रचना जैसा ही प्राथमिक कार्य मानते थे. उनके अनुसार आलोचना मनमाना चुनाव न होकर विशेष प्रकार का चुनाव है. उनका मत है कि ‘आलोचना एक बड़ी रचना की तरह है क्योंकि वह जोखिम उठाती है तथा अच्छे और महान साहित्य में फर्क करती है. सबसे पहले वह एक सघन आस्वाद है, फिर विश्लेषण और फिर मूल्यांकन.’ (परमानंद श्रीवास्तव, एक चुनौती भरे रचनात्मक समय में – अनिल त्रिपाठी से बातचीत, मेरे साक्षात्कार, पृ.सं.13). उनकी मान्यता है कि आलोचना एप्रिसिएशन है, पर क्रिटिकल ढंग से. वह मूल्यांकन भी है, पर उससे पहले वह डिस्क्रिमिनेशन भी है. (परमानंद श्रीवास्तव, ‘आलोचना कोई साझा कार्यक्रम नहीं है – ओम निश्चल से बातचीत, मेरे साक्षात्कार, पृ.सं.160). 

डॉ. परमानंद श्रीवास्तव इस बात पर बल देते थे कि आलोचना को आत्मालोचन की प्रक्रिया से गुजरना चाहिए. ध्यान देने की बात है कि सहमति से नहीं, असहमति से बनती है बड़ी आलोचना. उनके द्वारा लिखी गई आलोचना वस्तुतः संप्रेषणीय आलोचना है. वह पाठक से संवाद करती है. उनकी आलोचना एक तरह से पठनीय निबंध प्रतीत होता है. उन्होंने अपनी खुद की कसौटियों पर ज्यादा भरोसा किया है. ‘अपनी दृष्टि’ के कारण ही वे सफल और महत्वपूर्ण आलोचक बने. 

नई कविता का परिप्रेक्ष्य, कवि कर्म और काव्य भाषा, समकालीनता का व्याकरण, उपन्यास का पुनर्जन्म, शब्द और मनुष्य, कविता का अर्थात और कविता का उत्तर जीवन आदि में संकलित निबंधों से लेकर पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित निबंधों तक परमानंद श्रीवास्तव ने आलोचना के नाम पर जो कुछ लिखा वह मूल्यवान एवं विचारणीय है. अज्ञेय के बारे में कहते हुए एक जगह उन्होंने लिखा है कि ‘(अज्ञेय) उनकी धारणाओं से असहमति हो सकती है पर उनका सामना स्फूर्तिप्रद है क्योंकि वे हमें एक रचनात्मक लेखक के अनुशासन, स्वशिक्षण या ‘वर्कशाप’ से भी परिचित कराती हैं.’ यही बातें आलोचक परमानंद श्रीवास्तव पर भी लागू होती हैं. उनके अनुसार आलोचना को रचनाकेंद्रित होना चाहिए. ‘इसीलिए हर आलोचक अपने लिए एक विशेष कृति चुनता है और उसी के इर्द-गिर्द अपना एक सौंदर्यशास्त्र बनाता है, जो कि निरे आस्वाद के आधार पर संभव नहीं है.’ (वही, पृ.सं.152)

जैसा कि पहले भी कहा जा चुका है कि कविता के मर्मज्ञ आलोचक डॉ. परमानंद श्रीवास्तव की आलोचना संप्रेषणीय आलोचना है. उनकी प्रसिद्ध आलोचना कृति ‘शब्द और मनुष्य’ को ही लें. इस पुस्तक की भूमिका में उन्होंने लिखा है कि ‘शब्द और मनुष्य’ में समकालीन कविता और काव्यमूल्यों की पड़ताल के बहाने एक लंबे काव्यात्मक संघर्ष को समझने और स्पष्ट करने की कोशिश की गई है.’ निराला, नागार्जुन, अज्ञेय, शमशेर, मुक्तिबोध, त्रिलोचन, रघुवीर सहाय, कुंवरनारायण, सर्वेश्वर दयाल सक्सेना, श्रीकांत वर्मा, केदारनाथ सिंह, धूमिल तथा धूमिल के बाद के कवियों अर्थात उदय प्रकाश, अरुण कमल, मंगलेश डबराल, राजेश जोशी, स्वप्निल आदि का मूल्यांकन इस संग्रह में सम्मिलित है. इस संग्रह की विशिष्टता यह है कि इसमें एक साथ कई पीढ़ियों के काव्यप्रयत्न अपना वांछित अर्थ और रूप प्राप्त करते हैं. इस पुस्तक के प्रयोजन को स्पष्ट करते हुए उन्होंने लिखा है कि ‘आज की कविता यदि समय की जटिलताओं के साक्षात के प्रति सजग या प्रतिबद्ध है तो उसे अनुभव और रूप की विविधता में जीवनयथार्थ की अभिव्यक्ति की संभावनाएँ खोजनी होंगी. ‘निजी’ और ‘सामाजिक’ के बीच का द्वंद्व समृद्ध विवेक, समझ और संवेदना का विस्तार और जीवनदृष्टि (व्यापक अर्थ में कहें, एक प्रकार की विश्वदृष्टि) – आज की कविता कहाँ तक इन्हें अपने अनुभव लोक और रूपतंत्र के भीतर साध पा रही है और कहाँ वह कुछ ख़ास अभिप्रायों, काव्यरूढ़ियों, रेटारिक – जैसी आलंकारिक युक्तियों में सिमटकर रह गई है – यह देखने की कोशिश इस पुस्तक का ख़ास प्रयोजन है.’ 

परमानंद श्रीवास्तव के लिए कविता और आलोचना दोनों दो आँखों के समान हैं. इसीलिए शायद उन्होंने कहा था कि ‘कविता, आलोचना – मेरे लिए दोनों एक-सी विधाएँ हैं. मुझे लगता है कि कवि, आलोचक दोनों को गलतियों से सीखना चाहिए. पूर्णता के भ्रम से मुक्त होना चाहिए.’ (परमानंद श्रीवास्तव, आलोचना कोई साझा कार्यक्रम नहीं है – ओम निश्चल से बातचीत, मेरे साक्षात्कार, पृ.सं.156). वे इस पूर्णता के भ्रम से मुक्त थे. उनकी हर रचना में - चाहे कविता हो, या कहानी या फिर आलोचना हो – वे सर्वत्र नई जमीन तोड़ते दिखाई पड़ते हैं. निराला में समकालीन कविता के बीज तत्वों को देखते हुए परमानंद श्रीवास्तव ने यह प्रतिपादित किया कि ‘रोमान और यथार्थ, दुरूहता और सहजता, बौद्धिकता और भावुकता निजी और सार्वभौम अब कविता की मूल्यवत्ता के निर्धारण में इतने दो-टूक निर्णायक विभाजन बहुत अर्थ नहीं रखते.’ (परमानंद श्रीवास्तव, ‘निराला और समकालीन कविता’, शब्द और मनुष्य, पृ.सं.33-34) 

वस्तुतः परमानंद श्रीवास्तव का हृदय कवि हृदय है. उन्होंने स्वयं इस बात को उजागर किया कि उनका संघर्ष कवि-आलोचक का संघर्ष है. ऐसे व्यक्ति के लिए ‘आलोचना’ भी ‘रचना’ ही होता है. उन्होंने कहा भी है कि ‘कविता, आलोचना दोनों मेरे लिए हृदय-संवेदना की चीजें हैं – बौद्धिक संवेदना उसी की स्फूर्ति पाती है.’ (परमानंद श्रीवास्तव, आलोचना कोई साझा कार्यक्रम नहीं है – ओम निश्चल से बातचीत, मेरे साक्षात्कार, पृ.सं.157). 

आलोचना तो खैर सब करते रहते हैं लेकिन अच्छी आलोचना क्या है इसके बारे में डॉ. परमानंद श्रीवास्तव की स्पष्ट राय है कि - ‘अच्छी आलोचना तो वह है जो यथार्थ को लेकर प्रश्न पूछती है, सवाल उठाती है, हस्तक्षेप करती है. अगर आलोचना भी हमारी संवेदना, हमारे विवेक का विस्तार या विकास नहीं करती तो उसकी सामाजिक सार्थकता में भी मुझे संदेह है. आलोचना को आलोचना होते ही एक ‘जवाबदेही’ भी होना है.’ (परमानंद श्रीवास्तव, आप जाना उधर और आप ही हैराँ होना – अरविंद त्रिपाठी और गणेश पांडेय से बातचीत, मेरे साक्षात्कार, पृ.सं.48). इससे यह स्पष्ट होता है कि अच्छी आलोचना को प्रशंसा या निंदा के अटल रास्ते छोड़कर रचना से समझ के साथ टकराना चाहिए. इतना ही नहीं उन्होंने आलोचक के लिए कुछ धर्म या कहिए कसौटियों का भी निर्धारण किया जिनका पालन वे स्वयं करते रहे. देखें – ‘न न्यायाधीश, न वकील, न अभ्यास या लीक पर निर्भर अध्येता. आलोचक को एक महत्वपूर्ण कृति के प्रति बुनियादी तौर पर विनम्र होना चाहिए, सक्रिय आस्वाद के लिए पर्युत्सुक और सब बातें बाद में. यह उसके अपने पाठ, अपनी अभिरुचि और आस्वाद क्षमता पर भी निर्भर करेगा कि वह क्या ‘क्रिटीक’ बनाता है.’ (वही, पृ.सं.66). इसीलिए वे युवा रचनाकारों को परामर्श देते हैं कि आलोचकों से गहरा संवेदनात्मक रिश्ता बनाना चाहिए. केवल प्रशंसा की अपेक्षा नहीं करनी चाहिए’ चूँकि युवा रचनाकारों के समक्ष चुनौतियाँ ही चुनौतियाँ हैं. (परमानंद श्रीवास्तव, सामाजिक दृष्टि का निर्धारण रचना से ही होता है – श्रीप्रकाश शुक्ल से बातचीत, मेरे साक्षात्कार, पृ.सं.46). 

उल्लेखनीय है कि जीवनराग, जीवनदृष्टि, जीवनासक्ति, जीवनधर्मिता, मनुष्य आदि आलोचक परमानंद श्रीवास्तव के बहुत प्रिय शब्द हैं – उनकी आलोचना के बीज शब्द. इसलिए बार बार वे इन शब्दों को दुहराते हैं और कहते हैं कि ‘लेखक की दृष्टि में समकालीन कविता को अर्थ-विशिष्ट बनाने वाला सर्वप्रथम तत्व है जीवनराग, गहरे अर्थों में जीवनासक्ति या जीवनधर्मिता.’ (शब्द और मनुष्य, भूमिका, पृ.सं.8).

ध्यान से देखा जाय तो यह स्पष्ट होता है कि कविता अपने आप को पाठ में बंद नहीं रखती बल्कि वह एक पाठक से दूसरे पाठक, दूसरे से तीसरे तथा तीसरे से चौथे पाठक तक यात्रा करते हुए वह बार बार अपने आप को पाठ के रूप में अभिव्यक्त करती जाती है, वस्तुतः पाठक भी आलोचक है. वह कृति को अपने पाठ में एक नया स्पेस देता चलता है. परमानंद श्रीवास्तव को ‘कविता में वक्तव्य-की सी स्पष्टता से परहेज नहीं है, पर वे चाहते हैं कि ‘स्पष्टता’ के साथ ‘असामन्य विदग्धता’, ‘विशिष्ट अर्थध्वनि’ और ‘व्यंजकता’ भी हो.’ (शंभुनाथ, ‘संकीर्णता बनाम समग्रता’, प्रतिमानों के पार, पृ.सं.43). डॉ. परमानंद श्रीवास्तव के अनुसार कविता (साहित्य) एक प्रकार का संप्रेषण है. संप्रेषण समूचे मानवीय अनुभव और जीवनासक्ति का. यही कारण है कि उन्होंने आज की कविता को गहरे अर्थ में राजनीतिक कविता माना ‘जो अनुभव के समूचे मानवीय प्रसार में, सबसे अधिक इसी जीवनासक्ति से अनुप्राणित है.’ (शब्द और मनुष्य, भूमिका, पृ.सं.8).

डॉ. परमानंद श्रीवास्तव ने समकालीन कविता की आलोचना करते हुए कुछ महत्वपूर्ण निष्कर्ष निकाले जो इस प्रकार हैं – 
  • ‘मुख्यतः आज की कविता प्रगतिशील विचारधारा और जीवनदृष्टि के पक्ष में अपने उपकरणों का अधिक विवेकपूर्ण संयोजन करने के बारे में पहले से कहीं अधिक जागरूक है.’ 
  • ‘कविता के सामने आज कविता से भी बड़ी चुनौतियाँ हैं, यह जानकर भी इधर के कवियों ने जरूरी समझा है कि कविता की बनावट या संगठन को यथेष्ट महत्व दिया जाय. प्रतिबद्ध कविता का भी अपना सौंदर्यशास्त्र हो सकता है – इस मान्यता के साथ वे आधुनिकतावाद या आधुनिक कलावाद पर यह ज़िम्मेदारी छोड़कर मुक्त नहीं होना चाहते कि नए यथार्थदर्शन के अनुरूप कलाविवेक की युक्तियाँ वे निर्धारित करें.’ 
  • ‘आज के युवा कवि समकालीन काव्य परिदृश्य की इस विशिष्टता को अपने लिए भी एक महत्वपूर्ण अवसर मानते हैं कि अकेले वे कविकर्म में नहीं लगे हैं बल्कि तीन या चार पीढ़ियों के महत्वपूर्ण कवि अपने कठिन समय की चुनौती-भरी कविताएँ लिख रहे हैं.’ 
  • ‘साठ के बाद युवा कविता का जो दौर शुरू हुआ था उसमें कवियों की एक प्रमुख माँग यह थी कि उनका मूल्यांकन सर्वथा नए मानदंडों के आधार पर किया जाय, क्योंकि जिस समय-विशेष में वे लिख रहे हैं उसकी केंद्रीय संवेदना के निर्माण में उनकी ही हिस्सेदारी है. समय-विशेष में उनके होने का विशेष अर्थ है, इसलिए उनका मुहावरा भी इतिहास के नैरंतर्य में विस्फोट जैसा ही है.’ (परमानंद श्रीवास्तव, ‘अपनी केवल धार’, शब्द और मनुष्य, पृ.सं.187) 
कविता की आलोचना कभी भी सरलरेखीय नहीं हो सकती. अतः कविता के आलोचक की पहली जरूरत है कविता की समझ. और यह समझ परंपरा और समकालीनता दोनों से टकराने से ही विकसित होगी. हिंदी आलोचना के क्षेत्र में हमेशा ही परंपरा के मूल्यांकन की आकांक्षा रही और आगे भी रहेगी. स्मरणीय है कि परंपरा के मूल्यांकन की प्रक्रिया में डॉ. रामविलास शर्मा का काम सबसे विस्तृत है जो निराला पर है. निराला में बहुत सी परंपराएँ आकर अंतर्मिश्रित हुई हैं. उन्हीं निराला में समकालीन कविता की परंपरा खोजकर डॉ. परमानंद श्रीवास्तव ने उसमें नागार्जुन को ही नहीं, बल्कि मुक्तिबोध और राघुवीर सहाय को भी रखा. निराला की परंपरा को यह व्यापक फलक देने में वे सफल हुए क्योंकि वे निराला के व्यक्तित्व में ‘रोमांटिक और यथार्थ, रोमांटिक और क्लासिक, क्लासिक और आधुनिक का अधिक समृद्ध अंतर्गठन’ देख सके.

डॉ. परमानंद श्रीवास्तव ने कल की कविता के आज के कालखंड में प्रासंगिक हो उठने को कविता की उत्तरजीविता (Survival of Poetry) माना है. आज जबकि कविता को या तो हाशिये पर रखा जा रहा है या उसे नटों-विटों-विदूषकों की कला बन जाने को विवश किया जा रहा है; ऐसे में डॉ. परमानंद श्रीवास्तव की आलोचना कृति ‘कविता का उत्तर जीवन’ बहुत प्रासंगिक कृति प्रतीत होती है. इसकी भूमिका में उन्होंने लिखा है कि ‘कविता संगीत की हद को भी छूना चाहती है, उससे पहले वह समय की तात्कालिक जटिलताओं से भी बच नहीं सकती. देखते देखते कविता को सस्तेपन की ओर, भद्दी तुकबंदियों की ओर और अश्लील मनोरंजन तक सीमित करने का जो दुष्चक्र सांप्रदायिक ताकतों के एजेंडा पर है, उसे देखते हुए भी कहा जा सकता है कि कविता की जीवनी शक्ति असंदिग्ध है. यही समय है कि ग़ालिब, मीर, दादू, कबीर भी हमारे समकालीन हो सकते हैं.’ (कविता का उत्तर जीवन, पूर्वकथन). वे मानते हैं कि कविता वस्तुतः शब्दों में और शब्दों से तो लिखी जाती है पर साथ ही अपने आसपास वह स्पेस भी छोड़ती चलती है जिसे पाठक अपनी कल्पना और समय के अनुरूप भर सकता है. इस संदर्भ में उनका कथन द्रष्टव्य है – ‘कविता के बाहर और कविता के भीतर का जो द्वंद्व है उसको ठीक ठीक पहचानकर ही कविता के साथ न्याय किया जा सकता है.’ (परमानंद श्रीवास्तव, मुख्यधारा की कविता – महावीर सिंह चौहान से बातचीत, मेरे साक्षात्कार, पृ.सं.28). 

यहाँ यह भी कहना जरूरी है कि जिसे हम परमानंद श्रीवास्तव की आलोचना कृतियों में जीवनासक्ति या जीवनराग के आग्रह के रूप में देखते हैं, उस प्रतिमान का आधार लोक है. हर विधा में लोक एक अनिवार्य तत्व है. लोक को छोड़कर आगे नहीं बढ़ा जा सकता. कहना न होगा कि डॉ. परमानंद श्रीवास्तव भी लोक के पक्षधर हैं. लेकिन इसे फार्मूले की तरह ठूँसना उन्हें चिंताजनक प्रतीत होता है. इसीलिए कविता में लोक रंग के संदर्भ में श्रीप्रकाश शुक्ल से चर्चा करते हुए उन्होंने कहा है कि ‘लोक रंग कविता में आए तो अच्छा है. इससे कविता को नई जीवन शक्ति प्राप्त होती है. जिस रूप में यह दिखाई दे रहा है उससे डर है कि यह नई काव्य रूढ़ि न बन जाए. सौंदर्य भरने के लिए शब्द प्रयोग सम्मोहन ही हो सकता है.’ (परमानंद श्रीवास्तव, सामजिक दृष्टि का निर्धारण रचना से ही होता है – श्रीप्रकाश शुक्ल से बातचीत, मेरे साक्षात्कार, पृ.सं.44). 

ध्यान देने की बात है कि डॉ. परमानंद श्रीवास्तव ने सहज रचनात्मक भाषा में कविता के बारे में लिखा तथा उसकी निरंतरता को अन्वेषित किया. कविता के मूल्यांकन के संदर्भ में उन्होंने कहा कि ‘सच्ची महत्वपूर्ण कविता वास्तव में मुठभेड़ भर नहीं चाहती. वह जीवन में छिपे गोपन, अज्ञात, रहस्यमय का भी पूरा स्वाद चाहती है. वह क्रमशः हर पाठ में कुछ और बताने लगती है जिस पर पहले ध्यान न गया हो. निजी और सामाजिक के बीच का अनुभवलोक उस संरचना में सार्थक होता है जिससे कई झंकृतियाँ, कई गूँजें संभव हैं.’ (परमानंद श्रीवास्तव, ‘कविता में कविता कहाँ है!’, कविता का उत्तर जीवन, पृ.सं.29).

परमानंद श्रीवास्तव के लेखों/ टिप्पणियों से गुजरने पर यह अहसास होता है कि उन्होंने अपने समय की समग्रता को समझने का प्रयास किया है. उन्होंने सवयं अपनी आलोचना प्रक्रिया के बारे में स्पष्ट करते हुए कहा कि ‘मैं आलोचना लिखते हुए सार्थक संवाद की ही मनःस्थिति में रहता हूँ, इसलिए नए शब्द या पद आते भी हैं तो पारिभाषिक बनने से इंकार करते हुए. कभी कभी अधिक संभावनापूर्ण शब्दों पर जरूर ध्यान जाता है, क्योंकि उनसे एक नई राह खुलती है. हम आलोचना में अपने अनुभव आस्वाद से गुजरते हुए अपना एक समय भी रचते हैं.’ (परमानंद श्रीवास्तव, आप जाना उधर और आप ही हैराँ होना – अरविंद त्रिपाठी और गणेश पांडेय से बातचीत, मेरे साक्षात्कार, पृ.सं.49-50).

अंत में, यह रेखांकित करना आवश्यक है कि ‘पाठ’ की संभावनाओं को खंगालने के लिए ‘पाठ’ का अतिक्रमण करना भी परमानंद श्रीवास्तव की आलोचना की संप्रेषणीयता और सृजनात्मकता का आवश्यक तत्व है. वे मानते हैं कि कविता और आलोचना दोनों पाठ के बाहर जाती हैं. पाठ के बाहर जाकर ही आलोचना होती है. अपनी रचना ‘कविता का अर्थात’ की भूमिका में उन्होंने इस बात की ओर संकेत किया है कि कविता में समय और समय में कविता को देखने की कोशिश उनके लिए उत्तेजक अनुभव है. उन्होंने कहा कि ‘कविता का अर्थात’ शीर्षक संकेत है कि ‘इस नए पाठ या विमर्श में जो चुनौतियाँ दिखाई दे रही हैं, वे कविता से एक वृहत्तर अर्थ की माँग करती है. कविता में उपन्यास जैसे स्पेस की खोज गद्य और कविता के बीच एक विलक्षण रिश्ते का संकेत है. आज कविता की आलोचना के सामने संरचना का एकाग्र पाठ ही जरूरी कार्यभार नहीं है, सभ्यता समीक्षा के रूप में संरचना में निहित समय और यथार्थ की पहचान एक नैतिक जिम्मेदारी है.’ वे आगे यह कहते हैं कि ‘आलोचना के रूप में यह कोशिश ही आलोचना का अपना संघर्ष भी है. दूसरे शब्दों में एक खोज. एक अनथक जिज्ञासा.’ (परमानंद श्रीवास्तव, कविता का अर्थात, भूमिका). 

अतः यह कहा जा सकता है कि यदि परमानंद श्रीवास्तव को एक आलोचक के रूप में पहचानना चाहें, पड़ताल करना चाहें तो सबसे पहले हमारा सामना एक रचनाकार से होता है - एक ऐसे संवेदनशील सृजनात्मक रचनाकार से जो अपने आपको प्रतिमानों के पार रखते हैं.

[बेलगाम संगोष्ठी, 'पुण्य स्मरण', 29, 30 मार्च 2014 में प्रस्तुत शोधपत्र]

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