शुक्रवार, 18 जुलाई 2014

‘गुलमोहर’ : कालिमा पर लालिमा की विजय

(13 जुलाई 2014 को ‘गुलमोहर’ के
लोकार्पण के अवसर पर )
पुस्तक ‘गुलमोहर’ की लेखिका श्रीमती शांति अग्रवाल को हार्दिक बधाई देती हूँ. शांति अग्रवाल जी से मेरी मुलाकात छह वर्ष पूर्व कादंबिनी क्लब की एक मासिक गोष्ठी में हुई थी. जब कभी मौक़ा निकालकर कादंबिनी क्लब की गोष्ठी में जाती हूँ तो वहाँ शांति अग्रवाल जी से मुलाकात तो हो ही जाती है पर वार्तालाप न के बराबर. बस एक हल्की सी मुस्कान और अभिवादन. शायद इससे ज्यादा कुछ नहीं. गोष्ठियों के कारण ही मैं उनकी कहानी कला से परिचित हूँ.

आदरणीया डॉ. अहिल्या मिश्र जी ने जब फोन पर कहा कि शांति अग्रवाल की पुस्तक ‘गुलमोहर’ का लोकार्पण इस समारोह के अवसर पर हो रहा है और मुझे पुस्तक का परिचय देना है तो मैं मना नहीं कर पाई. उन्होंने स्वयं इस पुस्तक को मुझ तक पहुँचाया. 

यह पुस्तक 2010 के ‘साहित्य गरिमा पुरस्कार’ से पुरस्कृत है. गीता प्रकाशन, हैदराबाद से प्रकाशित इस कहानी संग्रह में कुल 21 कहानियाँ हैं. इन कहानियों में पग पग पर जीवनानुभूति, कहानीकार की भावुकता और संवेदनाएँ प्रकट हो रही हैं. 

इस कहानी संग्रह में संकलित पहली कहानी ‘मदर डे’ ने मुझे उस बच्चे के बारे में सोचने के लिए मजबूर कर दिया जिसने एक ‘सेरोगेट मदर’ की कोख से जन्म लिया है. पहले किसी अनाथ आश्रम से या फिर किसी रिश्तेदार से बच्चे को गोद लिया जाता था. अब एक कदम आगे बढ़कर लोग ‘सेरोगेट मदर’ के माध्यम से बच्चे को अपना रहे हैं. किसी स्त्री से सौदा कर लिया जाता है और बच्चे के जन्म के बाद उसे वापस अपनी दुनिया में छोड़ दिया जाता है. लेकिन उस माँ पर क्या बीतती होगी जिसने नौ महीने उस बच्चे को अपनी कोख में पाला-पोसा. और उस बच्चे की मानसिक स्थिति क्या होगी जिसे हर वक्त ‘किराए की कोख का जना’ कहकर दुत्कारा जाता है. इस कहानी को पढ़ते समय मुझे सलमान खान, रानी मुखर्जी और प्रीति जिंटा की फिल्म ‘चोरी चोरी चुपके चुपके’ (2001) की याद आती रही जो विक्टर बेनर्जी, शर्मिला टैगोर और शबाना आज़मी की फिल्म ‘दूसरी दुल्हन’ (1983) का रीमेक थी. निस्संदेह, इस कहानी के माध्यम से शांति अग्रवाल जी ने हमारे समय की एक ज्वलंत भावनात्मक समस्या को उजागर किया है. इस कहानी में पूरा परिवार इस बात से अवगत है. तनु उस बच्चे को स्वीकार नहीं कर पाती और हर वक्त उसे ‘किराए की कोख का जना’ कहकर डाँटती-फटकारती रहती. आठ साल तक राहुल माँ की ममता से वंचित रहता है. जब तनु उस पर चोरी का इल्जाम लगाती है तो वह और भी विचलित हो जाता है. उसकी मानसिक स्थिति से परेशान कमला रानी राहुल को उसकी सगी माँ महिमा के पास ले जाती है और उसे सौंपते हुए कहती है – ‘आज ‘मदर डे’ के दिन एक दूसरे के लिए इससे और उत्तम उपहार कोई हो ही नहीं सकता था.’

इस काहानी संग्रह की शीर्षक कहानी ‘गुलमोहर’ में लेखिका ने ‘मैं’ शैली को अपनाया है. मौली अपने हाथों से गुलमोहर का पेड़ लगाती है. पति की मृत्यु के बाद वह उस पेड़ से अपना दुःख-दर्द बाँटती रहती है. वह अपने अतीत से बाहर नहीं आना चाहती. लेकिन रोड वाइडेनिंग में उसका वह गुलमोहर बगिया के बाहर हो जाता है जिसके साथ उसका अतीत जुड़ा हुआ है. वह परेशान हो उठती है. एक दिन उसके पिता जी एक ऐसी बच्ची को घर ले आते हैं जिसके माँ-बाप दोनों एड्स से ग्रस्त होकर इस दुनिया से जा चुके हैं. मौली पहले उस बच्ची से दूर ही रहती है पर धीरे धीरे उसकी मासूमियत से बंधकर वह उसे अपनाने को मजबूर हो जाती है. वह उस बच्ची (गुलाबी) को माँ बनकर अपना लेती है. कहानी के अंत में लेखिका की टिप्पणी देखें – ‘उधर गुलमोहर बाहर चला गया. बगिया की नई दीवार खड़ी हो गई. मौली को अब अपने गुलमोहर का गम नहीं था. एक नया गुलमोहर उसकी गोद में था. उसे बड़ा करना था. *** अपनी गोद में गुलमोहर को पाकर मौली महक उठी.’ ममता को केंद्रीय विषय बनाकर शांति अग्रवाल ने कई कहानियाँ लिखी हैं जैसे चाची, ममता की पीड़ा, अम्मा, स्नेह स्पर्श आदि. साथ ही इनकी कहानियों में जातिगत भेद भाव का विरोध भी है. इसे ‘मंदिर के फूल’ नामक कहानी में देखा जा सकता है. इस कहानी में मोहन और ज़ाकिर दोनों अच्छे दोस्त हैं. मंदिर के पुजारी उन्हें हर रोज चरणामृत और पुष्प देते थे. ज़ाकिर के बीमार पड़ने पर पुजारी जी स्वयं उसके घर जाकर उसे पुष्प दे आते थे. टपोरी इस बात को उल्टा घुमाकर मोहल्ले में इस तरह फैलाता है कि पुजारी ज़ाकिर की माँ से मिलने जा रहा है. बस और क्या हिंदू-मुस्लिम समुदयों के बीच झगड़ा शुरू हो जाता है. मारपीट में घायल पुजारी का देहांत हो जाता है. ज़ाकिर को बुरा लगता है. मोहन और ज़ाकिर के परिवार वाले मिलकर पुजारी का अंतिम संस्कार करते हैं. यहाँ लेखिका लिखती हैं ‘पंडित जी के ‘मंदिर के फूल’ जात-पांत से दूर और भी गहरी मित्रता के बंधन में बंध गए.’ 

शांति अग्रवाल जी की कहानियों का केंद्रीय स्वर पारिवारिकता और मनुष्यता का स्वर है. वे मानवतावादी कहानीकार हैं. ‘रजनीगंधा’ में उन्होंने विवाह संस्था को स्त्री शोषण से मुक्त करने की बात उठाई है तो ‘कन्यादान’ में बदनाम गली की दलाल होते हुए भी एक स्त्री की ममता और बहनापे का चित्रण अत्यंत मार्मिक बन पड़ा है. ‘मुंडेर पर की गिलहरी जीव’ दया का संदेश देती है जिसे पर्यावरण विमर्श के साथ भी जोड़कर देखा जा सकता है. ‘अधूरा प्रयाश्चित’ में पारिवारिक संबंधों में संदेह का घुन लगने का परिणाम दिखाया गया है तो ‘सति’ में संस्कृति में प्रदर्शन और पाखंड का घुन लगने की परिणति समाज विरोधी, स्त्री विरोधी और मानव विरोधी दुष्कृत्य के रूप में सामने आती है. ‘एक रुपया’ शीर्षक कहानी अवमूल्यन पर आधारित है – पैसे का भी और मनुष्य का भी. 

‘दोषी कौन?’ में भारतीय समाज की उस पुरुषवादी दृष्टि का हिंसक प्रतिकार दिखाया गया है जो स्त्री को केवल वासनापूर्ति का यंत्र समझती है. पुरुष द्वारा संबंधों की गरिमा का हनन स्त्री को चंडी बनने के लिए पहले भी विवश करता रहा और आज भी कर रहा है. ‘कबाड़ होती जिंदगी’ में उपभोक्तावादी युग में जीवन की तुलना में वस्तुओं के अधिक मूल्यवान होने की त्रासदी को सामने लाया गया है तो ‘किट्टी पार्टी’ में नवधनाढ्य वर्ग की स्त्रियों के आचरण की पोल खोली गई है. इसी प्रकार ‘करू कुरू स्वाहा’, ‘अंतिम संस्कार’, ‘मानवता जीवित है’, ‘मेरे अपने’ और ‘सुखिया’ जैसी कहानियाँ भी मानवीय संबंधों की रक्षा के लिए लेखिका की चिंता को प्रकट करती हैं. 

अंत में यही कहना है कि यद्यपि लेखिका की दृष्टि ऐसे आदर्श और बेहतर भविष्य के निर्माण की ओर है जहाँ परिवार और समाज में सबके संबंध मधुर हों. परंतु इसके लिए वे कोई सपनों की दुनिया नहीं रचती, बल्कि अपनी कथावस्तु उसी यथार्थ दुनिया से उठाती है जिसमें ऊँच-नीच है, भेदभाव है, घरेलू हिंसा और स्त्री शोषण है, ईर्ष्या और द्वेष है, जीवन मूल्यों का हनन है और इन सबसे बढ़कर है उदासी, असफलता और मौत. वस्तुतः ये कहानियाँ मृत्यु की कालिमा पर ‘गुलमोहर’ की लालिमा की विजय की कहानियाँ हैं. 



गुलमोहर
शांति अग्रवाल
गीता प्रकाशन, हैदरबाद
2014
पृष्ठ 136
मूल्य - रु.395

कोई टिप्पणी नहीं: