बुधवार, 15 जून 2016

संपादकीय : 'संकल्पना' (आलोचना कृति)


प्रस्तुति

हिंदी भाषा और साहित्य का फलक जितना विस्तृत और बहुआयामी है, उससे संबंधित अध्ययन-अध्यापन और अनुसंधान का क्षेत्र भी उतना ही विस्तृत और प्रसरणशील है. यों तो हिंदी कभी भी क्षेत्र विशेष तक सीमित भाषा नहीं थी, लेकिन वर्तमान समय में विधिवत सब प्रकार की क्षेत्रीय और भौगोलिक लक्ष्मणरेखाओं का अतिक्रमण करके वह सार्वदेशिक, अखिल भारतीय भाषा के रूप में उभरी है और सब प्रकार के विमर्श को संभव बनाती हुई अपनी विश्व भाषा की दावेदारी को पुष्ट कर रही है. वैसे भी यह समय केंद्र से परिधि की और जाने वाले विमर्शों का समय है. कहना ना होगा की हिंदी की प्रकृति भी केंद्र से परिधि की और जानी की रहे है. विमर्शों के इस समय में परिधि की गतिविधियाँ महत्वपूर्ण हो गई हैं और बहुकेंद्रीयता उभार पर है. हिंदी अध्ययन-अध्यापन और अनुसंधान का बहुकेंद्रीय प्रसार इसका प्रमाण है. हम कहना यह चाहते हैं कि जिन क्षेत्रों को अहिंदी भाषी अथवा हिंदीतर कहकर हिंदी भाषा और साहित्य तत्संबंधी अनुसंधान के हाशिए पर धकेल कर लगभग अनुपस्थित मान लिया जाता था, आज क्षेत्रों में केवल परंपरागत ही नहीं वरन् नए, मौलिक, अछूते और चुनौतीपूर्ण विषयों पर हिंदी भाषी, और अहिंदी भाषी के भेद के बिना, उत्कृष्ट कोटि का अनुसंधान कार्य हो रहा है. दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा द्वारा संचालित उच्च शिक्षा और शोध संस्थान का इस दिशा में योगदान अनन्य है. परंतु खेद का विषय है कि अभी तक भी इसके संबंध में अधिसंख्य हिंदी जन अपरिचित हैं. क्योंकि इस प्रभूत शोधकार्य को अभी तक भी समुचित प्रकाशन के अवसर अनुपलब्ध हैं.

‘संकल्पना’ दक्षिण भारत में हो रहे शोधकार्य की एक बानगी प्रस्तुत करने का विनम्र प्रयास है. इसमें संकलित सभी शोधपत्र हैदराबाद (तेलंगाना) स्थित शोधकर्ताओं के स्वाध्याय का परिणाम हैं. इनमें से अधिसंख्य शोधकर्ता अभी अनुसंधान पथ के अन्वेषी पथिक हैं तथापि उनकी शोधदृष्टि एकदम साफ, तटस्थ, वाद निरपेक्ष और मानव सापेक्ष है. यहाँ संकलित शोधपत्रों में अध्येय पाठ के रूप में काव्य, उपन्यास, कहानी, नाटक, बल साहित्य और साक्षात्कार जैसी विविध विधाओं के पाठ तो ग्रहण किए ही गए हैं पत्रकारिता, मीडिया और वैज्ञानिक साहित्य तक को भाषिक अनुसंधान के दायरे में लाया गया है. इससे निश्चय ही हिंदी अनुसंधान के एक क्षेत्र को व्यापकता प्राप्त हुई है. इतना ही नहीं अनूदित साहित्य का विश्लेषण इसे और भी विस्तार प्रदान करता है. इसी प्रकार इस शोधपत्रों में अधुनातन शोधदृष्टियों का भी वैविध्य देखने को मिलेगा. यदि इनमें शोध और समीक्षा की राष्ट्रीय, सांस्कृतिक दृष्टि, सामाजिक दृष्टि और ऐतिहासिक दृष्टि जैसी पारंपरिक आलोचना दृष्टियाँ विद्यमान हैं तो स्त्री विमर्श, आदिवासी विमर्श, विस्थापित विमर्श, अल्पसंख्यक विमर्श, दलित विमर्श, वृद्धावस्था विमर्श और मीडिया विमर्श जैसी पिछले दो तीन दशकों में विकसित उत्तर आधुनिक आलोचना दृष्टियाँ इस पुस्तक को एकदम नई दिशा को खोलने वाली बनाती हैं. इतना ही नहीं प्रयोजनमूलक भाषा, स्त्री भाषा, लोकतत्व और अनुवाद विमर्श पर जो शोधपूर्ण अध्ययन यहाँ उपलब्ध है वह इस पुस्तक को और भी उपादेय बनाने वाला है, इसमें संदेह नहीं.

आशा है, मोतियों के शहर हैदराबाद से प्रकाश में आ रहे इस प्रकृत मुक्ताहार को हिंदी जगत में स्नेह और अपनापन मिलेगा.


25     मई, 2015                                                    - संपादकद्वय


2 टिप्‍पणियां:

Rashmi B ने कहा…

nice

Unknown ने कहा…

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