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22 जून 2014 को भारत के 29वें राज्य के रूप में पुनर्गठित होने वाले राज्य ‘तेलंगाना’ अपनी विशिष्ट सांस्कृतिक पहचान के लिए जिन प्रतीकों को जोर शोर से नए सिरे से दुनिया के सामने रखा उनमें ‘बतुकम्मा’ पर्व का स्थान सर्वोपरि है। इसी कार्य योजना के तहत ‘बतुकम्मा’ का त्योहार 2014 से विराट स्तर पर राजकीय लोकपर्व के रूप में भव्यता के साथ मनाया जाने लगा है। 2016 में यह त्योहार ‘गिनीज़ बुक ऑफ वर्ल्ड रिकोर्ड्स’ में दर्ज हो चुका है। यह त्योहार प्रकृति की सुंदरता और तेलंगाना के लोगों की सद्भावना का प्रतीक बन गया है।
‘बतुकम्मा’ का संबंध देवी पूजा से है। यह त्योहार भाद्रपद मास की समाप्ति के दिन अर्थात पितृविसर्जनी अमावास्या से शुरू होता है। स्मरणीय है कि आश्विन मास में देश भर में शारदीय नवरात्र हर्षोल्लास के साथ मनाए जाते हैं और महिषासुरमर्दिनी दुर्गा की पूजा की जाती है।
भारत के विभिन्न भागों में यह त्योहार अलग अलग ढंग से मनाया जाता है। इस अवसर पर उत्तर भारत में रामलीला का आयोजन होता है तो गुजरात में डांडिया या गरबा का। यह पर्व आंध्र प्रदेश में दशहरे के रूप में मनाया जाता है तो तेलंगाना में ‘बतुकम्मा’ के नाम से प्रचलित है। महालय अमावस के दिन शुरू होकर यह पर्व दुर्गाष्टमी के दिन समाप्त होता है। ‘बतुकम्मा’ का अर्थ है ‘बतुकु अम्मा’। तेलुगु में ‘बतुकु’ जीवन का पर्याय है। अतः ‘बतुकम्मा’ का अर्थ हुआ जीव माता अथवा जीवनदायिनी माता। ‘बतुकु’ का एक और अर्थ जागरण भी है। यह माना जाता है कि इस पर्व के माध्यम से जीव अपने जीवन की रक्षा हेतु देवी को पुकारते हैं – ‘हे माँ जागो, रक्षा करो’। अतः ‘बतुकम्मा’ का एक अर्थ हुआ – ‘जागो और रक्षा करो, हे माँ !’
नौ दिनों तक चलने वाला फूलों का यह पर्व महिलाओं द्वारा मनाया जाता है। देवी माँ – बतुकम्मा – को नौ दिन विविध नैवेद्य समर्पित किए जाते हैं। प्रति दिन के नैवेद्य के नाम पर ही उस दिन का विशेष पर्व नाम रखा गया है। पहले दिन को ‘एंगिली पुव्वुला बतुकम्मा’ कहा जाता है। इस दिन तिल से बनाए मिष्ठान्न का भोग चढाया जाता है दिन को ‘एंगिली पुव्वुला बतुकम्मा’ कहा जाता है।
दूसरे दिन को ‘अटुकुला बतुकम्मा’ कहते हैं। और इस दिन चिवड़े का भोग लगता है। तीसरे दिन फीकी दाल (मुद्दापप्पु बतुकम्मा), चौथे दिन गीले चावल (नानबिय्यम बतुकम्मा), पाँचवे दिन उबले हुए चावल के आटे से बना हुआ दोसा (अट्ला बतुकम्मा), सातवें दिन चावल के आटे से बने हुए निंबौली के आकार के मुरुकुलु/ चकली (वेपकायल बतुकम्मा), आठवें दिन घी, मक्खन, तिल और गुड का मिश्रण (वेन्नमुद्दला बतुकम्मा) तथा नौवें दिन पाँच तरह के चावल – दही चावल, पुलिहोरा (इमली चावल), नींबू चावल, नारियल चावल तथा तिल चावल (सद्दुला बतुकम्मा) का नैवेद्य चढ़ाया जाता है। लेकिन छठे दिन देवी को नैवेद्य नहीं चढ़ाया जाता क्योंकि यह माना जाता है कि उस दिन देवी माँ सबसे रूठकर बैठ जाती है। इस दिन को ‘अलिगिना (नाराज) बतुकम्मा’ कहा जाता है। अंतिम दिन (‘सद्दुला बतुकम्मा’) को ‘पेद्दा बतुकम्मा’ (बड़ी बतुकम्मा/ महाबतुकम्मा) भी कहा जाता है। इसके बाद होता है ‘बोड्डम्मा’ (गौरी) पूजन जिसके लिए तालाब की मिट्टी से माँ दुर्गा की प्रतिमा बनाई जाती है। मान्यता है कि ‘बतुकम्मा’ का त्योहार वर्षा ऋतु के समाप्त होने का प्रतीक है और इस पर्व के अंतिम दिन गौरी (‘बोड्डम्मा’) पूजन द्वारा शरद ऋतु का स्वागत किया जाता है।
भारत के अन्य अनेक पर्वों की भांति ‘बतुकम्मा’ भी कृषि संस्कृति का पर्व है। वर्षा ऋतु की सकुशल समाप्ति और उस दौरान जीवन की रक्षा के लिए देवी माँ के प्रति कृतज्ञता प्रकट करने के लिए यह पर्व मनाया जाता है। इस हेतु ‘बतुकमा’ को विशेष रूप फूलों से सजाया जाता है। इसलिए इसे फूलों का त्योहार भी माना जाता है। बरसात में हर ओर हरियाली छा जाती है। तेलंगाना में इस मौसम में हर जगह मद्धम सफेद रंग के ‘गुनुका’ (सेलोसिया) के फूल खिल उठते हैं। बतुकम्मा को सजाने के लिए मुख्या रूप से इन्हीं फूलों का प्रयोग किया जाता है। इसलिए इन्हें ‘बतुकम्मा के फूल’ कहा जाता है। इन फूलों के साथ-साथ तंगेडू (अमलतास), आक, कनेर, घास के फूलों का भी प्रयोग किया जाता है। पहले तो लोग इन फूलों को अपने आसपास के पेड़-पौधों से तोड़ लाते थे लेकिन आजकल जंगली फूलों के स्थान पर गेंदे, गुलाब, गुलदाउदी, गुड़हल और सजावटी फूलों का उपयोग किया जाने लगा है जो बाजार में मिल जाते हैं।
अब एक नजर ‘बतुकम्मा’ मनाने की विधि पर। सबसे पहले पीतल का थाल लिया जाता है। इसे ‘तांबलम’ कहते हैं। इसमें गोबर से गोल वेदी बनाई जाती है। उस पर गुनुका के फूलों को इस तरह सजाया जाता है कि डंठल भीतर की ओर हो और बाहर फूल दिखाई दें। इन डंठलों पर फिर गोबर से सतह बनाई जाती है और उस पर फिर फूल सजाए जाते हैं। इस तरह परत दर परत पिरामिड आकार में फूलों को सजाया जाता है। शिखर पर कुम्हडे का फूल रखकर उस पर दीपक जलाया जाता है। फूल खुशहाली के प्रतीक हैं और दीपक प्रकाश का। इस संरचना को ही ‘बतुकम्मा’ कहा जाता है। आजकल गोबर के स्थान पर बेंत से पिरामिड आकार बनाया जाने लगा है और उसे रंगबिरंगे फूलों से सजाया जाता है।
अष्टमी के दिन बतुकम्मा को लेकर स्त्रियाँ नदी किनारे पहुँचती हैं और बतुकम्मा के चारों ओर गोलाकार बनाकर गीत गाते हुए नाचती हैं –
बतुकम्मा बतुकम्मा उय्यालो
बंगारु बतुकम्मा उय्यालो
पूवंटि इंतुलम उय्यालो
मेमु एंतेंतो एदगालि उय्यालो
बंतीपूलनिस्ता उय्यालो
बंगारु मनसिव्वु उय्यालो.....।
(बतुकम्मा बतुकम्मा झूला झूलो/ सवर्णमयी बतुकम्मा झूला झूलो/ सुमन सुकुमारी झूलो/ हम ऊँची पेंग बढ़ाएँ, झूलो/ गेंदे का हार चढाऊँगी, झूलो/ सोने का दिल दो, झूलो)।
यह त्योहार मूलतः स्त्रियों का त्योहार है और इसके माध्यम से उनका बहनापा भी प्रकट होता है। गीत-संगीत और नृत्य के बाद ‘बतुकम्मा’ को नदी या तालाब में विसर्जित करते हैं और प्रसाद के रूप में ‘मलीदा’ (बाजरे और ज्वार की मिस्सी रोटी और गुड़) बाँटते हैं।
‘बतुकम्मा’ त्योहार से संबंधित अनेक लोक कथाएँ प्रचलित हैं। एक कथा के अनुसार, चोल वंश के राजा धर्मांग और उनकी पत्नी सत्यवती की सौ शूरवीर संतानें युद्ध में एक साथ वीरगति को प्राप्त हो गईं तो राजा और रानी राजपाट त्यागकर वन में तपस्या करने चले गए। उन्होंने संतान की कामना से देवि माँ की आराधना की। देवि की कृपा से उनके एक बेटी हुई लेकिन जन्म से ही उसे तरह-तरह के खतरों का सामना करना पड़ा। तब उस बालिका का नाम ‘बतुकम्मा’ रखा गया क्योंकि वह संकटों के बावजूद उत्तरजीवन (सर्वाइवल) का प्रतीक बन गई थी। त्योहार के अवसर पर गए जाने वाले गीतों में इस कथा का भी उल्लेख किया जाता है।
बतक्म्मा बतकम्मा उय्यालो,
बंगारू बतकम्मा उय्यालो
आनाटी कलाना उय्यालो,
धर्मांगुडनु राजु उय्यालो
आ राजु भार्यायु उय्यालो
अति सत्यवती अंदुरु उय्यालो
.....
कलिकी लक्ष्मीनि गूर्ची उय्यालो
गनता पोंदिरिंका उय्यालो
....
सत्यवती गर्भमुना उय्यालो
जनियिंचे श्रीलक्ष्मी उय्यालो।
इस गीत में प्रिय कन्या बतुकम्मा को पालने या झूले में झुलाते हुए राजा धर्मांग और रानी सत्यवती के उल्लेख के साथ उन पर माँ लक्ष्मी की कृपा और वरद कन्या बतुकम्मा के जन्म की चर्चा की गई है।
यही कारण है कि तेलंगाना क्षेत्र में आज भी यदि किसी घर में जन्म लेते ही बच्ची मर जाती है तो ऐसे माँ-बाप देवी माँ के दरबार में जाकर मन्नत माँगते हैं कि यदि बेटी जन्म लेगी तो उसका नाम ‘बतुकम्मा’ रखेंगे।
एक और लोककथा भी प्रचलित है। बलात्कार से त्रस्त एक अबोध बालिका नदी में कूदकर आत्महत्या कर लेती है। गाँव वाले उस बालिका को ‘बतुकम्मा’ (जीवित हो जाओ, माँ) कह कर आशीर्वाद देते हैं। लोग आज भी यह मानते हैं कि ‘बतुकम्मा’ किसी भी अबोध बालिका के साथ ऐसा कुकृत्य नहीं होने देगी।
एक और मिथकीय कथा इस त्योहार से जुड़ी हुई है। वह यह कि दक्ष के यज्ञ में सती बिना बुलाए चली जाती हैं यह सोचकर कि गुरु और पिता के घर बिना बुलाए जाया जा सकता है। परंतु वहाँ दक्ष शिव की निंदा करते हैं तो सती इस अपमान को सह नहीं पाती और प्राण त्याग देती है। इसी की स्मृति में सती देवी के पुनः जीवित होने की कामना करते हुए फूल और हल्दी से गौरी माता की मूर्ति बनाकर पूजा की जाती है।
बतुकम्मा से संबंधित एक ऐतिहासिक कथा भी प्रचलित है। वेमुलवाडा के राजा चालुक्य ने चोल राजा और राष्ट्रकूट राजा के बीच हुए युद्ध में राष्ट्रकूट राजा का साथ दिया था और 973 ई. में थैलापुदु द्वितीय ने राष्ट्रकूट के राजा कर्कुदु द्वितीय को हराकर दूसरा चालुक्य साम्राज्य स्थापित किया था जो आज का तेलंगाना है। वेमुलवाडा के साम्राज्य में राजराजेश्वर (भगवान शिव) का प्रसिद्ध मंदिर था। चोल राजा परांतक सुंदर राजराजेश्वर के परम भक्त थे। उन्होंने अपने बेटा का नाम भी राजराजा रखा था। राजराजा चोल (शासन काल 985 ई. - 1014 ई.) के बेटे राजेंद्र चोल ने राजराजेश्वर मंदिर तुड़वा कर वहाँ का शिवलिंग अपने पिटा को भेंट किया था। 1006 ई. में राजराजा चोल ने उस शिवलिंग के लिए मंदिर का निर्माण शुरू कराया। 1010 में बृहदीश्वर नाम से मंदिर की स्थापना हुई और वेमुलवाडा के शिवलिंग को तंजावूर बृहदीश्वर मंदिर में स्थापित कर दिया गया। इससे तेलंगाना के लोग काफी दुखी हुए। कहा जाता है कि तेलंगाना छोड़कर बृहदम्मा (पार्वती) दुखी थी अतः उस दुख को कम करने के लिए बतुकम्मा उत्सव की शुरूआत हुई। लोगों ने फूलों से बड़े पर्वत की आकृति बनाकर शिखर पर हल्दी से गौरम्मा बनाकर पूजा की और गीत-संगीत के साथ त्योहार मनाया । इस प्रकार यह पर्व एक हजार वर्ष से भी अधिक समय से प्रचलित है।
तनिक गौर करें तो पाता चलता है कि ‘बतुकम्मा’ का त्योहार धरती, पानी और मनुष्य के आपसी संबंध का त्योहार है। बतुकम्मा के लिए प्रयुक्त फूलों में औषधीय गुण होते हैं जो पानी को स्वच्छ रखने में सहायक होते हैं। जहाँ ‘बतुकम्मा’ फूलों से सजाया जाता है वहीं ‘बोड्डम्मा’ को तालाब की मिट्टी से बनाया जाता है। माँ दुर्गा की मूर्ति को तालाब की मिट्टी से बनाकर पूजा-अर्चना करते हैं तथा तालाब में इस कामना के साथ विसर्जित करते हैं कि वह हमेशा पानी से लबालब रहे।
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तेलंगाना के साहित्यकार अपनी रचनाओं में इस पर्व का उल्लेख करना नहीं भूलते। हैदराबाद मुक्ति संग्राम पर आधारित किशोरीलाल व्यास ‘नीलकंठ’ ने उपन्यास ‘रज़ाकार’ (2005) में पृष्ठ 22 से 30 तक इस पर्व का अत्यंत मनोरम चित्रण किया है। नीचे हम उसीके कुछ अंश प्रस्तुत कर रहे हैं।
“नए नए कपड़ों में सजी ग्रामीण बालाएँ अपने अपने हाथों में रंग-बिरंगे फूलों के थाल लिए आई थीं। थालों को बीचोबीच सजाया गया। दीप जल उठे। ‘बतकम्मा बतकम्मा विय्यालो’ के लोकगीत गूँज उठे और तालियों की थाप देती महिलाएँ वृत्ताकार वक्र में एक ही ताल पर कदम देती घूमने लगीं।“
“बतकम्मा उत्सव दशहरे से पहले नौ दिवस तक मनाया जाता है। शाम के समय महिलाएँ फूलों को सजा कर देवी बतकम्मा के गीत गाती रास खेलती हैं, खूब गाती-हँसती हैं, फिर फूल किसी नदी या तालाब में अर्पित कर दिए जाते हैं। सभी सामूहिक रूप से प्रसाद खाती हैं और अपने घर चली जाती हैं।“
“आश्विन के आते आते आकाश में बादलों के समूहों को पवन ग्वाला धकेल धकेल कर पहाड़ों के पार ले जाता, और निरभ्र आकाश से रेशम जैसी गुलाबी धूप झरती... और धूप में पकते हुए सुनहरे धान के खेतों पर पसर जाती।
अब धान के खेत कटने लगते... कटे धान के कट्टों पर बैल चलते... और धान के बीजों के कुप्पों को देख देख कर किसानों की छातियाँ भी फूल कर कुप्पा होने लगतीं।
ऐसे में शाम के समय तेलंगाना की बालाएँ जंगल से लाल, पीले, सफ़ेद फूल चुन लातीं... फूलों को एक लंबे मुकुट की आकृति में थालियों में सजाया जाता... छोटे छोटे पीतल के कटोरों या टिफ़िनों में पुटनालु, अटुकुलु, गुड़ जैसी खाने की सामग्री रख कर तालाब, नदी या नहर के किनारे थोड़ी सी सपाट जगह देख कर फूलों की थालियाँ बीच में सजा दी जातीं और फिर ग्राम बालाएँ, युवतियाँ और प्रौढ़ाएँ वर्तुलाकार में तालबद्ध, लयबद्ध तालियाँ बजाती उन फूलों की परिक्रमा करती सामूहिक स्वर में गाने लगतीं : ‘बतकम्मा बतकम्मा विय्यालो/ बतकम्मा बतकम्मा विय्यालो।‘ तो सारा परिसर उनके मधुर कलकंठ से गूँजने लगता। रंग-बिरंगे परिधान पहने कृष्णकाय, कृषकाय कृषक बालाएँ वृत्ताकार घूमने लगतीं तो रासलीला में घूमती रंग-बिरंगी गोपियों का रूप साकार हो उठता। लगता, तालियों का समूह फूलों के चारों ओर एक ताल, एक लय में घूम रहा है, फिर क्रमशः गीत बदलते... बोल बदलते... लय और ताल बदलते... तालियों की थाप बदलती... और इन सब के साथ कदमों की छाप बदलती। देवी बतकम्मा के गीतों और नृत्यभरी इस आराधना के बाद फूल नदी में बहा दिए जाते... बीच में प्रज्वलित दीपक रख दिए जाते... तब तक आकाश में अंधेरा घिर आता... तारे झाँकने लगते... लहरों पर तैरते फूलों के बीच टिमटिमाते दीप दूर दूर होने लगते। मानवीय आस्था के ये दीप, उत्साह और उत्सव के ये दीप, जिजीविषा के ये दीप सारे दुख-दरदों के बावजूद न जाने कितनी शताब्दियों से इसी तरह से नदी की लहरों पर छोड़े जाते रहे हैं और नदी भी निर्विकार भाव से न जाने कितनी शताब्दियों से मानवीय आस्था की इन किरणों को अपनी पयस्विनी छाती पर ढोती, उन्हें सम्मान देती आ रही है। फिर हँसती, खिलखिलाती कृषक बालाएँ प्रसादरूपी कलेवा करतीं... नदी का जल पीतीं और गाती हुई उल्लास भरे मन से अपने अपने घर लौटतीं। न जाने कितनी सदियों से बतकम्मा के ये उत्सव चले आ रहे थे। ‘बतकम्मा’ अर्थात ‘जीवन की देवी’। ऐसी देवी जो ‘मृत्योर्मा अमृतांगमयः’ का ग्राम्य रूप हो; जो मृत्यु नहीं, जीवन दान दे; जो मनुष्य की कामनाओं को, आकांक्षाओं को, इच्छाओं को, जिजीविषा का पयःपान कराए।“
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