हिंदी साहित्य के क्षेत्र में प्रेमचंद (31 जुलाई, 1880 - 8 अक्टूबर, 1936) का आगमन 1915 के बाद हुआ था। जिस समय देवकीनंदन खत्री हिंदी में तिलिस्मी और अय्यारी उपन्यासों का सृजन करके विशाल पाठकवर्ग का विकास कर रहे थे उस समय उर्दू साहित्य में नवाब राय ‘बनारसी’ (प्रेमचंद) उपन्यासकार और कहानीकार के रूप में प्रतिष्ठित थे। 1915 में खत्री जी के देहावसान के बाद प्रेमचंद हिंदी में आए। ‘सेवासदन’ (1918) के साथ उनका आगमन हिंदी साहित्य के क्षेत्र में हुआ था। उन्होंने प्रेमाश्रम (1922), रंगभूमि (1925), कायाकल्प (1926), निर्मला (1927), गबन (1931), कर्मभूमि (1932), गोदान (1936) आदि उपन्यासों और अनेक कहानियों का सृजन किया था। प्रेमचंद के साहित्य से संबंधित अनेक समीक्षात्मक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। प्रेमचंद्र के पुत्र अमृतराय ने ‘प्रेमचंद : कलम का सिपाही’ (1982) नाम से अपने पिता की जीवनी को लिपिबद्ध किया था। भारतीय भाषाओं सहित अंग्रेजी में भी प्रेमचंद का साहित्य उपलब्ध है। उनके कथासाहित्य पर अनेक दृष्टियों से शोध हो चुका है। शायद ही कोई पक्ष बचा हुआ हो। लेकिन कमल किशोर गोयनका का शोधपूर्ण आलेख ‘प्रेमचंद : शोध की नई दिशाएँ’ पढ़ने से कई रोचक तथ्य सामने आए हैं। उन्होंने अपने आलेख में प्रमुख रूप से तीन दिशाओं को आधार बनाया है –
- प्रेमचंद के जीवन के दस्तावेजों की खोज और उनके अज्ञात तथ्यों का प्रकाशन
- हिंदी-उर्दू की अज्ञात एवं दुर्लभ रचनाओं की खोज एवं प्रकाशन
- तथ्यों एवं प्रमाणों के आधार पर प्रेमचंद के विचार का मूल्यांकन
कमल किशोर गोयनका का कहना है कि उन्हें प्रेमचंद के पत्र, परीक्षाओं के प्रमाण पत्र, सर्विस बुक, बैंक की पास बुकें, डायरी आदि कुछ दस्तावेज प्राप्त हैं जिनमें उनके जीवन के अनेक अज्ञात प्रसंगों, घटनाओं तथा स्थितियों की कहानी छिपी है जिनका उल्लेख अमृतराय ने भी नहीं किया था। अतः प्रेमचंद की जीवनी को फिर से नए सिरे से लिखने की आवश्यकता पर वे बल देते हैं।
कहा जाता है कि प्रेमचंद गरीबी में पैदा हुए, गरीबी में जिए और गरीबी में ही मर गए। यहाँ तक कहा जाता है कि उनके पास कफन के लिए भी पैसे नहीं थे। लेकिन कमल किशोर गोयनका बताते हैं कि उनकी सर्विस बुक उनके वेतन की कहानी बताती है। 1900 में उनका वेतन 20 रुपए मासिक था और 1921 में 100 रुपए तथा 1934 में 800 रुपए मासिक था। उनकी बैंक की पास बुक मृत्यु के 14 दिन पहले का बैलेंस 4471 रुपाए बताती है जबकि दूसरी बैंक में 300 रुपए थे। गोयनका यह बताते हैं कि अमृतराय को अपनी जीवनी में इन बातों को स्पष्ट करना चाहिए था लेकिन पता नहीं वे प्रेमचंद के आर्थिक जीवन के इन पक्षों को क्यों छिपाया।
कमल किशोर गोयनका अपने इस आलेख में प्रेमचंद कि उर्दू और हिंदी कहानियों 'दोनों तरफ से' (1911), 'गर्मी' (1929), 'जिहाद' (1929), 'शूद्रा', 'कैदी', 'खेल', 'बालक', 'रँगीले बाबू' आदि की चर्चा की है । उनकी उर्दू कहानी ‘दोनों तरफ से’ जो मार्च 1911 में प्रकाशित हुई थी उसमें दलितों के उत्थान की कथा है। गोयनका कहते हैं कि महात्मा गांधी के भारतीय रंगमंच पर आने से पहले ही वे (प्रेमचंद) इस कहानी में दलितों के उत्थान की कथा रच रहे थे, जबकि हमारे आलोचक मानते हैं कि गांधी के प्रभाव के कारण उन्होंने दलितों की समस्याओं की ओर ध्यान दिया था। ‘गर्मी’ कहानी जनसंख्या नियंत्रण पर ज़ोर देती है, ‘जिहाद’ कहानी आज के धार्मिक जिहाद की याद दिलाती है। भारत से गए गिरमिटिया मजदूरों पर केंद्रित कहानी है ‘शूद्रा’ जो ‘चाँद’ पत्रिका के ‘प्रवासी अंक’ में प्रकाशित हुई थी। ‘खेल’ शीर्षक कहानी गाँव के छोटे-छोटे बच्चों की कहानी है जिसमें खेल और जीवन एक-दूसरे के पर्याय हो गए हैं। ‘बालक’ एक ऐसी कहानी है जिसकी चर्चा न के बार होती है। इस कहानी का नायक एक अपढ़ ब्राह्मण है और वह अपनी पत्नी के नवजात बच्चे को जिसका पिता कोई दूसरा व्यक्ति है इस तर्ज के साथ अपनाता है कि “यह बच्चा मेरा बच्चा है। मेरा अपना बच्चा है। मैंने एक बोया हुआ खेत लिया है, तो क्या उसकी फसल को इसलिए छोड़ दूँगा कि उसे किसी दूसरे ने बोया था।” ‘रँगीले बाबू’ का नायक ईश्वर की सत्ता को ललकारता है। प्रेमचंद के संदर्भ में जो भी आधे-अधूरे मूल्यांकन प्राप्त है उसे अस्वीकार करते हुए गोयनका कहते हैं कि "उनके व्यापक वांङ्मय और सैकड़ों पात्रों के साथ-साथ चलना होगा और उन्हें संपूर्ण रूप से समझकर ही निष्कर्षों तक पहुँचना होगा।" (गोयनका, कमल किशोर. प्रेमचंद : नई शोध दिशाएँ. गवेषणा, अंक-111. पृ.14)। कमल किशोर गोयनका अपने शोध पत्र में यह प्रतिपादित करते हैं कि प्रेमचंद 'भारतीय आत्मा की शिल्पी' हैं। उनका मूल्यांकन नए सिरे से होना आवश्यक है।
संदर्भ
गोयनका, कमल किशोर (जनवरी-मार्च 2018). प्रेमचंद : शोध की नई दिशाएँ. गवेषणा, अंक-111. आगरा: केंद्रीय हिंदी संस्थान.
3 टिप्पणियां:
प्रेमचंद का नई दृष्टि से मूल्याङ्कन करना चाहिए, बात तो मार्के की है, किन्तु अभी तो हमने उन्हें पढ़ना भी नहीं सीखा है.
जी बिल्कुल... आदरणीय
कौन से शोध अपेक्षित रह गये है!!
एक टिप्पणी भेजें