खूँटी पर आकाश (निबंध संग्रह)/ ज्ञानचंद मर्मज्ञ
2018/ 112 पृष्ठ / रु. 200/
प्रकाशक : ज्ञानचंद मर्मज्ञ, नं.13, तीसरा क्रॉस, के.आर.लेआउट,
छठवाँ फेज, जे.पी.नगर, बेंगलूरू – 560078
मोबाइल : 9845320295.
|
ज्ञानचंद मर्मज्ञ (1959) पिछले तीन दशक से अधिक समय से कर्नाटक में रहकर हिंदी भाषा और साहित्य के प्रचार-प्रसार और विकास के लिए सतत प्रयत्नशील हैं। कवि, पत्रकार और निबंधकार के रूप में उन्होंने वहाँ अच्छी ख़ासी ख्याति अर्जित की हैं। उनकी गद्य और पद्य रचनाएँ विश्वविद्यालय के पाठ्यक्रमों में शामिल हैं तथा वे स्वयं भारत सरकार के संचार मंत्रालय के तहत बैंगलूर टेलिकॉम डिस्ट्रिक्ट की सलाहकार समिति के सदस्य के रूप में मनोनीत हैं। ‘मिट्टी की पलकें’ काव्य संग्रह, ‘बालमन का इंद्रधनुष’ बाल कविता संग्रह और ‘संभव है’ निबंध संग्रह के बाद अब उनकी चौथी पुस्तक के रूप में एक और निबंध संग्रह आया है ‘खूँटी पर आकाश’ (2018)।
इस संग्रह में लेखक के कुल 22 निबंध संकलित हैं जिन्हें व्यक्तिव्यंजक अथवा ललित निबंध कहा जा सकता है। इन निबंधों के विषय अत्यंत विविधतापूर्ण है जिनसे लेखक के सरोकारों की व्यापकता का पता चलता है। समसामयिक, सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक और सांस्कृतिक स्थितियों पर टिप्पणी करते हुए लेखक यथास्थान कटाक्ष भी करता चलता है – कभी मीठी चुटकी के रूप में तो कभी तीखी चोट के रूप में।
कुछ स्थानों पर ज्ञानचंद मर्मज्ञ हिंदी के आरंभिक लेकिन कालजयी निबंधकार प्रताप नारायण मिश्र की मुहावरेदानी और वाक् चातुरी की याद दिलाते हैं तो कुछ अन्य स्थानों पर हजारी प्रसाद द्विवेदी और विद्यानिवास मिश्र के काव्यात्मक गद्य का स्मरण कराते हैं। बीच-बीच में किस्सागोई और संसमरणात्मकता के कारण ये निबंध कभी रामचंद्र शुक्ल तो कभी महादेवी वर्मा के गद्य की स्मृतियों को ताजा करते हैं। इसका अर्थ न तो यह है कि ज्ञानचंद मर्मज्ञ ने इन गद्यकारों का अनुकरण किया है और न ही यह कि वे इनके समान हैं। बल्कि कहने का अभिप्राय इतना ही है कि ज्ञानचंद मर्मज्ञ ने हिंदी निबंध की पूरी परंपरा को आत्मसात करके अपने गद्य लेखन को अपने व्यक्तित्व की धार प्रदान की है। इसीलिए खूँटी, झुर्री, शून्य, बेंच, चप्पल, बाल और रंग जैसे प्रत्यक्ष विषयों से लेकर अस्तित्व, सत्य और स्वतंत्रता जैसे अमूर्त विषयों पर वे समान कुशलता और सफलता से लेखनी चला सके हैं।
इन निबंधों में लेखक की मान्यताएँ बड़े स्पष्ट रूप में मुखरित हुई हैं। वे मानते हैं कि मनुष्य के प्राकृतिक भोलेपन की मिठास उसकी सच्छी पहचान की गरिमा में छिपी हुई होती है (पृ.14), बिना मतलब के सबसे लिपट-लिपटकर प्यार लुटाना शहर की सभ्यता नहीं है (पृ.15), झुर्री के रूप में बदन की दरारों में जीवन के शाश्वत संदर्भों की परिभाषाएँ अंकुरित होती हैं (पृ.21), उजाला सबको प्रिय है परंतु आँखें होते हुए भी ‘अँधेरा’ देखने वालों की भी कमी नहीं है (पृ.31), जिस भूख ने कभी आदमी को जानवर से मनुष्य बनाया, वही भूख आज मनुष्य को जानवर बना रही है (पृ.38), आकाश और खूँटी का संदर्भ उन लोगों के लिए निरर्थक है जो अपना आकाश दूसरों की खूँटी पर टाँग देते हैं और सफलता की ऊँची-ऊँची मीनारों पर चढ़कर अपनी पीठ स्वयं थपथपाते है (पृ.44)। ऐसी अनुभवजन्य उक्तियाँ इन निबंधों के हर एक पृष्ठ की खूँटी पर करीने से टंगी हुई हैं।
इन ललित निबंधों में मनुष्यता और संस्कृति के संबंध में हमारे समय की चिंताओं को केवल अभिव्यक्ति ही नहीं मिली है बल्कि उनके समाधान भी उजागर हुए हैं। लेखक ज्ञानचंद मर्मज्ञ की इन चिंताओं में भाषा का प्रश्न भी बहुत बेचैनी पैदा करने वाला है। ‘मेरी मारीशस यात्रा’ में इसीलिए उन्होंने दृढ़तापूर्वक कहा है कि हिंदी के नाम पर कुछ कर देना और हिंदी के लिए कुछ ठोस करना, दोनों में बहुत अंतर है। वे मानते हैं कि हिंदी के वर्तमान परिदृश्य में विश्व हिंदी सम्मेलन की सार्थकता उलझी हुई दिखाई देती है। उनके ये प्रश्न बहुत कुछ कह जाते हैं कि “प्रश्न उठता है कि क्या हम हिंदी को इसी तरह घसीटते हुए लेकर आगे बढ़ेंगे? हिंदी तो अपने बलबूते पर विश्व-पटल पर विस्तार पा रही है। क्या यह आवश्यक नहीं कि पूरे विश्व का ढिंढोरा पीटने से पूर्व हम अपने घर को व्यवस्थित कर लें? क्या यह उचित है कि जिस हिंदी का शृंगार दुल्हन की तरह करके हम विश्व के सामने प्रदर्शित कर रहे हैं वह अपने ही देश में अनुवाद के कारावास में पड़ी सिसकती रहे?” (पृ.111)
अभिप्राय यह है कि ‘खूँटी पर आकाश’ के माध्यम से ज्ञानचंद मर्मज्ञ अपने पाठकों को रसानुभूति तो कराते ही है, वैचारिक उत्तेजना और ऊर्जा भी जगाते हैं। इसलिए इस पुस्तक को सुधी पाठकों का भरपूर आशीर्वाद मिलेगा, इसमें संदेह नहीं।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें