मंगलवार, 21 फ़रवरी 2023

उन्नति भाषा की करहु...


हर वर्ष 21 फरवरी को 'अंतरराष्ट्रीय मातृभाषा दिवस' मनाया जाता है। स्मरणीय है कि यूनेस्को ने 17 नवंबर, 1999 को इसे स्वीकृति दी। यह 21 फरवरी, 2000 से पूरी दुनिया में मनाया जा रहा है। वस्तुतः यह घोषणा बांग्लादेशियों (तब पूर्वी पाकिस्तानियों) द्वारा किए गए भाषा आंदोलन को श्रद्धांजलि देने के लिए की गई थी। यूनेस्को की इस घोषणा से बांग्लादेश के भाषा आंदोलन को अंतरराष्ट्रीय स्वीकृति प्राप्त हुई। 1952 से ही बांग्ला देश में यह दिन मनाया जाता आ रहा है। भाषा आंदोलन के कारण ही अलग बांगलादेश का निर्माण हुआ। भाषाई एवं सांस्कृतिक विविधता को वैश्विक स्तर पर बढ़ावा देने के उद्देश्य से ही अंतरराष्ट्रीय मातृभाषा दिवस मनाया जा रहा है। इससे बहुभाषिकता को निश्चित रूप से बढ़ावा मिलेगा।

ध्यान देने की बात है कि 1947 में आजादी के साथ लोगों को देश विभाजन की त्रासदी को भी झेलना पड़ा। 1947 में जब पाकिस्तान बना तब उसके भौगोलिक रूप से दो अलग-अलग हिस्से थे - पूर्वी पाकिस्तान (वर्तमान में बांग्लादेश) और पश्चिमी पाकिस्तान (वर्तमान में पाकिस्तान)। पूर्वी और पश्चिमी पाकिस्तान के बीच भारत था। संस्कृति और भाषा के स्तर पर दोनों भाग एक दूसरे से बहुत भिन्न थे। 1948 में, पाकिस्तान सरकार ने उर्दू को पाकिस्तान की एकमात्र राष्ट्रीय भाषा घोषित किया, भले ही बांग्ला पूर्वी पाकिस्तान और पश्चिमी पाकिस्तान को मिलाकर अधिकांश लोगों द्वारा बोली जाती थी। पूर्वी पाकिस्तानियों ने इसका खुलकर विरोध किया, क्योंकि अधिकांश आबादी पूर्वी पाकिस्तान से थी और उनकी मातृभाषा बांग्ला थी। उन्होंने उर्दू के अलावा बांग्ला को राष्ट्रीय भाषा बनाने की माँग की थी। पाकिस्तान की संविधान सभा में 23 फरवरी, 1948 को पूर्वी पाकिस्तान के धीरेंद्रनाथ दत्ता ने यह माँग उठाई थी। विरोध को ध्वस्त करने के लिए, पाकिस्तान की सरकार ने जनसभा और रैलियों को गैरकानूनी घोषित कर दिया था। 1952 में ढाका विश्वविद्यालय के छात्रों ने आम जनता के सहयोग से रैलियों का आयोजन किया था। पुलिस की गोला-बारी में सैकड़ों लोग मारे गए। लोगों ने अपनी मातृभाषा के लिए अपने प्राणों की आहुति दी। इसलिए बांग्लादेश में इस दिन को शहीद दिवस के रूप में याद किया जाता है। फूट डालो और राज करो की नीति के तहत बांग्लादेश का विभाजन हुआ। विभाजन का उद्देश्य ही था देश में तनाव की स्थितियों को पैदा करना तथा सांप्रदायिकता को बढ़ावा देना।

उक्त घटना का उल्लेख महुआ माजी के उपन्यास ‘मैं बोरिशाइल्ला’ में भी है। यथा – “1951 के अक्तूबर महीने में सैयद अकबर नामक एक अफ़गान युवक की गोली से प्रधानमंत्री लियाकत अली की मृत्यु हो गई और उनके बाद ख्वाजा नाज़िमुद्दीन पाकिस्तान के नए प्रधानमंत्री बने। नाज़िमुद्दीन ने जिन्ना साहब की तरह उर्दू को पूर्वी और पश्चिमी पाकिस्तान की राष्ट्रभाषा बनाने का निर्णय लिया। उसकी मंशा भी बहुसंख्यक बंगालियों की स्वतंत्र सत्ता को, उनकी भाषा, साहित्य-संस्कृति को मिटाकर उन्हें नामहीन, परिचयहीन नकलनवीस दासों में परिणत करने की थी। इसीलिए तो उनके इस निर्णय के विरोध में 21 फरवरी, 1952 ई. को ढाका के छात्र समुदाय ने पूर्वी पाकिस्तान में हड़ताल की घोषणा कर दी। ढाका राजपथ पर विशाल जुलूस निकाला गया। उस विशाल जुलूस का नेतृत्व कर रहे थे शेख मुजीबुर्रहमान। पुलिस तथा सेना ने जुलूस पर गोलियाँ चलाईं। नौ छात्र शहीद हो गए। फिर तो भाषा आंदोलन ने व्यापक रूप धारण कर लिया। अनेक छात्र गिरफ़्तार कर लिए गए। कारागार के लौह-कपाट आंदोलनकारी छात्रों के आक्रोश से झनझना उठे, ‘कॉमरेड शोन् बिगुल ओइ हांकछे रे/ कारार ओइ लौहो कॉपाट भेंगे फैल/ कोरबे लोपाट/ मोदेर गॉरोब/ मोदेर आशा/ आ मोरी बांग्ला भाषा...” [कॉमरेड सुनो – बिगुल बज रहा है/ कारागार के उस लौह कपाट को तोड़ डालो/ नहीं तो वे हमारी बांग्ला भाषा को/ जो हमारा गर्व है, हमारी आशा है, मिटाकर रख देंगे।]" (माजी : 2007 : 119-120)

स्मरणीय है कि भाषा आंदोलनकारियों के साथ बर्बरतापूर्वक व्यवहार किया गया था। अपनी भाषा और संस्कृति की रक्षा के लिए खड़े होने वाले लोगों को बेरहमी से कुचला गया। हर तरह से उनका शोषण किया गया। तब पूर्वी पाकिस्तानी जनता स्वायत्त शासन के बारे में सोचने लगी। उनके मन में यह धारणा घर कर गई कि “आत्मनियंत्रण का अधिकार मिले बगैर पश्चिमी पाकिस्तानी शासकों के अत्याचार से मुक्ति मिलना संभव नहीं।” (माजी : 2007 : 121)। बांग्ला भाषा के अलावा किसी और भाषा को मातृभाषा के रूप में आत्मसात करने की बात वे सोच भी नहीं सकते थे। आंदोलन बड़े पैमाने पर होने लगा। 7 मई, 1954 में संविधान सभा ने उर्दू भाषा को आधिकारिक भाषा बनाया। 29 फरवरी, 1956 को बांग्ला भाषा को दूसरी आधिकारिक भाषा के रूप में मान्यता प्राप्त हुई। उर्दू और बंगाली पाकिस्तान की आधिकारिक भाषाएँ बन गईं। 23 मार्च, 1956 को पाकिस्तान का संविधान लागू किया गया था। इसका उल्लेख पाकिस्तान संविधान के अनुच्छेद 214(1) में है। आक्रोश से भरे बांग्लादेशियों ने अपनी मुक्ति के लिए संघर्ष किया। बांग्ला देश के स्वतंत्रता संग्राम को मुक्ति संग्राम के नाम से जाना जाता है जो 1971 में शुरू हुआ था। 26 मार्च, 1971 से लेकर 16 दिसंबर, 1971 तक यह युद्ध चला। अंततः 16 दिसंबर, 1971 को बांगलादेश स्वतंत्र हुआ। बांग्लादेशियों ने अपनी भाषा, साहित्य और संस्कृति को सुरक्षित रखने के लिए संघर्ष किया।

आशा करते हैं कि मातृभाषा प्रेम की यह भावना हमारे अंदर न केवल हमारी मातृभाषा के लिए, बल्कि दूसरी भाषाओं के लिए भी विकसित होगी। सभी प्रकार की बहुसंख्यक और अल्पसंख्यक भाषाओं को सह-अस्तित्व में लाने का प्रयास करना चाहिए। एकाधिकार की भावना को जड़ से निर्मूल करना चाहिए।

“सब मिल तासों छांड़ि कै, दूजे और उपाय।
उन्नति भाषा की करहु, अहो भ्रातगन आय॥” 
                          (भारतेंदु हरिश्चंद्र)।

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