मंगलवार, 8 अगस्त 2023

भाषा और भाषाविज्ञान


भाषाविज्ञान भाषा का ही वैज्ञानिक अध्ययन है। इस अध्ययन से यह स्पष्ट हो जाता है कि भाषा क्या है? उसका विकास और परिवर्तन कैसे और क्यों होता है? उसके क्या कारण हैं? आदि। अर्थात भाषाविज्ञान भाषा संबंधी सभी प्रश्नों एवं समस्याओँ का निदान करता है। भाषाविज्ञान से संबंधित पहलुओं पर विचार करने से पूर्व भाषा क्या है? भाषा की परिभाषा क्या है? भाषा के क्या लक्षण हैं? भाषा और अभिव्यक्ति का क्या अंतःसंबंध है? आदि प्रश्नों पर विचार करना समीचीन होगा। सबसे पहले मानवेतर और मानव संप्रेषण पर विचार करेंगे। 

मानवेतर और मानव संप्रेषण

भाषा संप्रेषण का सशक्त साधन है। वह केवल विचार-विनिमय का साधन मात्र नहीं है अपितु मनुष्य का अस्तित्व इसके माध्यम से ही सिद्ध होता है। भाषा के अभाव में मनुष्य केवल जैविक जंतु (बायोलोजिकल ऑर्गानिज्म) है। भाषा ही वह साधन है जो मनुष्य को इस समाज से जोड़कर उसे समाज-सांस्कृतिक प्राणी के रूप में परिवर्तित करता है। 
भाषा क्या है? इस पर विचार करने से पूर्व ‘भाषा’ शब्द की व्युत्पत्ति पर ध्यान देना आवश्यक है। ‘भाषा’ शब्द संस्कृत की धातु ‘भाष’ से बना है जिसका अर्थ है बोलना या कहना। इस दृष्टि से ‘जो बोला जाए वह भाषा है।’ संसार के प्रायः सभी प्राणी बोलते तो हैं। प्रत्येक जीवधारी गाय, कुत्ता, बिल्ली, बंदर आदि परस्पर भावों के आदान-प्रदान हेतु किसी-न-किसी प्रकार की भाषा का प्रयोग करते हैं। ‘रामचरितमानस’ में खग भाषा का उल्लेख है – समुझै खग खग ही कै भाषा। पशु-पक्षियों की भाषा का अध्ययन करने वालों का मत है कि मनोदशा के अनुसार पशु-पक्षियों की ध्वनियाँ परिवर्तित हो जाते हैं। लेकिन भाषाविज्ञान की दृष्टि से उनके विचार-विनिमय को भाषा की संज्ञा नहीं दी जाती। 

भाषाविज्ञान में मानव के मुख से उच्चरित ध्वनि व्यवस्था को ही ‘भाषा’ की संज्ञा दी जाती है। मनुष्य कभी कभी आँख, हाथ, सिर आदि का प्रयोग करके अपना काम संकेतों से चलाता है। इसे सांकेतिक भाषा, इंगित भाषा अथवा आंगिक भाषा कहा जाता है। मनुष्य कई प्रकार के संकेत चिह्नों से भी काम चलाता है। चौराहे की बत्तियाँ, रेलवे गार्ड की झंडियाँ, झंडे का रंग, मोर्स कोड, कूट भाषा, सिक्के, राष्ट्रध्वज, विवाह में निमंत्रण के लिए हल्दी-सुपारी बाँटना आदि भी सांकेतिक भाषा के अंतर्गत ही आते हैं। सभ्यता और संस्कृति के अनेक उपादान प्रतीकात्मक होते हैं; जैसे – दाड़ी, पगड़ी आदि। स्वस्तिका, ईद का चाँद, क्रॉस आदि धार्मिक प्रतीक हैं तो × √ ∑ + = आदि गणित के प्रतीक हैं। इन प्रतीकों के बिना मनुष्य का जीवन यापन कठिन है। ये सारे प्रतीक सूक्ष्म संकेतात्मक और ध्वन्यात्मक हैं लेकिन भाषाविज्ञान की दृष्टि से इन्हें भाषा नहीं कहा जा सकता। 

स्मरणीय है कि मानव भाषा केवल सांकेतिक न होकर लिखित है। अतः मनुष्य के भावों, विचारों और अभिप्रेत अर्थों को अभिव्यक्त करने का ध्वनि प्रतीकमय साधन भाषा है। भाषाविज्ञान में भाषा के इसी रूप का अध्ययन किया जाता है। भाषा शब्द का प्रयोग कृत्रिम भाषा के लिए भी होता है। कृत्रिम भाषा उसे कहते हैं जिसे मनुष्य अपनी सुविधा या उद्देश्य से गढ़ लेते हैं. वस्तुतः कृतिम भाषा का प्रयोग उस भाषा के लिए किया जाता है जो सहज न होकर तोड़ी-मरोड़ी जाती है. देवेंद्रनाथ शर्मा ने अपनी पुस्तक ‘भाषाविज्ञान की भूमिका’ में कृत्रिम भाषा को अंतरराष्ट्रीय भाषा की संज्ञा दी है और कहा है कि “भाषा भेद जनित असुविधाओं को दूर कर अंतरराष्ट्रीय व्यवहार के लिए एक सामान्य भाषा प्रस्तुत करना ही कृत्रिम भाषा के आविष्कार का उद्देश्य है। अतः चाहें तो कृत्रिम भाषा को अंतरराष्ट्रीय भाषा भी कह सकते हैं। इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए विगत दो शताब्दियों में सैकड़ों भाषाएँ बनाई गईं। किंतु उनमें अधिकतर उत्पत्ति के साथ ही गतायु हो गईं।” (देवेंद्रनाथ शर्मा, (2008), पृ. 52)। इस प्रकार की भाषा का प्रमुख उदाहरण है एस्पेरांतो नाम की भाषा. कृत्रिम भाषा प्रयोग में कुछ समस्याएँ उत्पन्न होती हैं क्योंकि कृत्रिम भाषा दैनिक व्यवहार के लिए उपयुक्त कामचलाऊ भाषा है। अतः इसमें न ही गंभीर आलोचना संभव है न ही साहित्य रचना। 

मानवेतर और मानव भाषा के संबंध में प्रसिद्ध भाषावैज्ञानिक चार्ल्स हॉकेट (1960) ने अपना आलेख ‘द ऑरिजिन ऑफ द लैंग्वेज’ में विचार प्रस्तुत किए। उनका कहना है कि “man is the only animal that can communicate by means of abstract symbols. Yet this ability shares many features with communication in other animals, and has arisen from these more primitive systems.” उन्होंने मानवेतर एवं मानव भाषा की तुलना सृजनात्मक यादृच्छिकता तथा द्वैतता के आधार पर की. इसके लिए उन्होंने 13 आधारों को कसौटियों के रूप में प्रयोग किया जो निम्नलिखित हैं –
             Vocal-auditory channel (मौखिक श्रव्यता): मानव भाषा मुँह से बोली जाती है और कान से सुनी जाती है। यह मौखिक-श्रव्य सरणि है। भाषा की लिखित-पठित सरणि का आधार भी यही है। 

            Broadcast transmission (प्रसारण संचरण) and directional reception (दिशात्मक अभिग्रहण): जब मानव मुख से ध्वनियाँ निकलती हैं तो ध्वनि तरंग सभी दिशाओं में संचरण करता है तथा सुनने वाले श्रोता का ध्यान भी उसी दिशा की ओर जाता है.

            Rapid fading (Transitoriness) (अनित्यता): नाम से स्पष्ट है कि ध्वनि अल्पकालिक है. कहने का आशय है कि ध्वनि मुँह से निकलने के बाद लुप्त हो जाती है। कहने का आशय है कि जैसे ही वक्ता बात करना बंद कर देता है तो ध्वनि तरंगे रुख जाती हैं। 

Interchangeability (परिवर्तनीयता) : मनुष्य जब संदेश को संप्रेषित करता है तो वह वक्ता की भूमिका में होता है और वह जब संदेश के ग्रहण करता है तो श्रोता की भूमिका में होता है. अर्थात वक्ता-श्रोता की भूमिकाएँ आपस में परिवर्तनशील हैं। 

         Total feed back (पूर्ण प्रतिक्रया): वक्ता अपने वक्तव्य को सुनकर यदि उसमें कोई कमियाँ निहित हैं तो उनका निराकरण कर सकता है। अनुतान, बालाघात आदि की सहायता से वह बोलने की पद्धति को बदल सकता है। 


        Specialization (विशेषीकरण): भाषिक संकेतों के माध्यम संप्रेषण संभव होता है। संकेतों के माध्यम से मौखिक भाषा को विशेषीकृत किया जाता है ताकि श्रोता संदेश को गरहन कर सके। 

Semanticity (आर्थीयता)
Arbitrariness (यादृच्छिकता)
Discreteness (विविकत्ता)
Displacement (अंतरणता)
Productivity (उत्पादनशीलता)
Traditional transmission (परंपरागत प्रेषण)
Duality of patterning (अभिरचनात्मक द्वैतता)

इनमें से ज्यादातर प्रवृत्तियाँ मानवेतर प्राणियों की भाषा में दिखाई देती हैं लेकिन कुछ कुछ प्रवृत्तियाँ सिर्फ मानव भाषा में ही उपलब्ध होती हैं। 

हॉकेट : मानवेतर और मानव भाषा के आधार

इसी तरह मैकनील (1972, हार्पर) ने ‘Aquisition of Language’ में यह स्पष्ट किया है कि संरचनात्मक दृष्टि से मानव भाषा में योजना व्यवस्था होती है अर्थात विभिन्न ध्वनियों के संयोजन से शब्द, वाक्य आदि का निर्माण होता है। उन्होंने यह भी स्पष्ट किया है कि प्रकार्यात्मकता के आधार पर वस्तु, भाव एवं घटना को संकेत करने के प्रकार्य होते हैं। चॉमस्की (1966) ने अपनी पुस्तक ‘कार्टीसियन लिंग्विस्टिक्स’ में मानवेतर एवं मानव भाषा के बीच निहित भेद को स्पष्ट करने का प्रयास किया है। उन्होंने यह कहा कि मानव भाषा के माध्यम से अपने भावों को अभिव्यक्त करता है जबकि मानवेतर प्राणी में इस शक्ति का अभाव है। उनका मत है कि “Language acquisition is a matter of growth and maturation of relatively fixed capacities, under appropriate external conditions.” मानव भाषा में किसी भी अज्ञात या नए-नए संदर्भों को अभिव्यक्त करने की क्षमता होती है जबकि मानवेतर भाषा में नहीं होती। 

मानवेतर और मानव भाषा के बीच निहित भेद को स्पष्ट करते हुए जॉन लयोंस (1991, पृ. 2) ने कहा कि “A Human Language is one that is attested as being used (or as having been used in the past) by human beings; and a non-human language is one that is (or has been) used by any non-human being (either an animal or a machine).” इससे यह स्पष्ट होता है कि भाषाविज्ञान का विषय ‘मानव भाषा’ है। भाषा एक सामाजिक प्रक्रिया है (सोशल फिनोमिना)। वक्ता और श्रोता के बीच विचार-विनिमय का साधन है भाषा। अर्थात वक्ता-श्रोता के बीच भाषा मौखिक व्यवहार का साधन है। भाषा मनुष्य के मुख से उच्चरित वह सार्थक ध्वनि समूह है जिसका विश्लेषण और अध्ययन भाषाविज्ञान में किया जाता है। 

संदर्भ
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