बुधवार, 5 फ़रवरी 2020

(पुस्तक समीक्षा) जो कविता है !

 पुस्तक समीक्षा
जो कविता है ! 
- प्रो. गोपाल शर्मा 

यदि आप मेरे इस आलेख को किसी पढ़े-लिखे का समझकर पढ़ रहे हैं और गुर्रमकोंडा नीरजा को नहीं जानते तो मेरी बेशकीमती सलाह है – आप पहले इस कविता-संग्रह (कुछ कोलाहल, कुछ सन्नाटा. गुर्रमकोंडा नीरजा. 2019. नजीबाबाद : पारिलेख प्रकाशन) का परिशिष्ट पढ़ें। डॉ. पूर्णिमा शर्मा ने “नत नयन, प्रिय कर्मरत मन नीरजा” शीर्षक से सुसज्जित करके 2014 में इसे लिखा था। आप जानते हैं 2014 और 2019 में अंतर है। अब नीरजा जी का मुकुल भी इस ‘थैंकलेस’ जमाने में अच्छे दिनों की मानिंद खिल उठा है। उन्हें वह स्थान अब मिल गया है जिसकी वे मुस्तहक हैं। लखटकिया पुरस्कार और वह भी केंद्रीय हिंदी निदेशालय से, यह हुई न कोई बताने वाली बात! 

‘कुछ कोलाहल, कुछ सन्नाटा’ नीरजा की विविध काव्यात्मक अभिव्यक्तियों का गुलदस्ता है जिसमें किसिम किसिम के फूल हैं; कुछ मौलिक कविताएँ, कुछ अनूदित (तेलुगु और तमिल से)। बड़े अरमानों से रक्खा गया यह कदम बड़े लोगों के द्वारा सराहा गया है – अभी यह शुरूआत है (गंगा प्रसाद विमल) और अनूठे काव्य संग्रह की हर रचना मन को उकेरती है (देवी नागरानी)। 

कवि लोग होते बहुत उस्ताद हैं, कहते हैं वे कुछ कोलाहल और कुछ सन्नाटे की कविता लेकर आए हैं। मुगम्बो खुश हुआ – जब से गाँव से नाता टूटा है – किसी ब्याह बरात में बूँदी के लड्डू के साथ ‘सन्नाटा’ पीने का मौका ही नहीं मिला। पहले तो कोई अब बुलाता नहीं, दूसरे अब कोई जा नहीं पाता, तीसरे ‘सन्नाटा’ अब मिलता नहीं। जो है वह हलाहल सा कोलाहल है । 

भवानी भाई ने कहा था - मैं सन्नाटा हूँ, फिर भी बोल रहा हूँ। कहना न होगा कि इस कविता संग्रह की कविताएँ बोलती हैं – कुछ कोलाहल भी है और कुछ उद्वेग भी। और अनुवाद को चाहे कविता के शिल्प में कहने वाले – कविता कहाँ अनुवाद है – कहते रहें, फिर भी उन्हें नीरजा का शुक्रगुजार होना होगा क्योंकि उन्होंने अनुवाद करके एक नई रचना को जन्म दिया और अनुसृजन पीड़ा का भार भी वहन किया। कवि की कविता तभी सही अर्थों में कालजयी होती है जब वह किसी अनुवादक के माध्यम से काल-जायी होने का सौभाग्य प्राप्त कर सके। यह जोड़ देना जरूरी है कि इन कविताओं के अनुवादक के रूप में कविताओं को अनुप्रयुक्त भाषाविज्ञान का सजग प्रयोक्ता और लेखक मिला इसलिए यह नवसृजन है। कृष्ण पर देवकी से अधिक यशोदा का अधिकार हो जाता है। 

यदि मैं इन कविताओं के कथ्य को प्रस्तुत कर दूँगा तो पाठकीय आनंद में बाधक बनूँगा। फिर भी इतना तो कहना ही होगा – कोख में अपने रक्त मांस से सींचकर कवि ने कविता को जन्म दिया और इस बेटी वाली माँ ने स्त्री-मन को विवेचित ही नहीं विरेचित और विकसित भी किया है। यह विवेचन ऐमिली डिकिन्सन सी संक्षिप्तता और मार्मिकता की अभिव्यक्ति कवयित्री नीरजा से करा ले गया है और इस कोलाहल में उन्हें पता भी नहीं चला। यही खूबसूरती है इस सिरजन की – कच्ची मिट्टी हूँ / आकार दो हाथों से / ढल जाऊँगी। 

इस प्रकार से प्रस्तुत संस्करण की कविताएँ एक तरफ तो सन्नाटे को कविता के शिल्प में पिरोकर जीवन के तुमुल कोलाहल को जीने की सीख हैं, दूसरी तरफ उनका ‘बोम्मै-पसु-अडिमै’ और ‘अन्ना पिरवै’ है (!)। एक पक्ष और भी है जो गौरय्या, चिड़िया, पंखुड़ी, पंख, गाय, थन आदि का तमिल-तेलुगु पाठ रचकर हिंदी के पाठकों को जिज्ञासु बनाता है। दूसरी तरफ इस पट्टी के लोगों को हिंदी पट्टी के लोगों से मिलवाता है। समझ में आ जाता है कि सरोकार एक ही है, सरकार अलग होने के बावजूद। 

ग्लोत्फेल्टी (Glotfelty) ने कुछ वर्ष पूर्व साहित्य और उसके फिजिकल एनवायर्नमेंट के संबंध के मद्देनजर उत्तर-आधुनिक समीक्षा करने का विचार प्रस्तुत किया था। इस पुस्तक का एक पाठ उन ‘गिद्धों, शिकार, आग, बसंत, तितली, पंछी, डालियाँ और फूलों’ को लेकर भी होगा। पर उसके लिए मुझे उत्तर-आधुनिक का बाना पहनना पड़ेगा। फिर कभी, इत्यलम।

समीक्षित कृति : कुछ कोलाहल, कुछ सन्नाटा (कविता)/ गुर्रमकोंडा नीरजा/ 2019/ नजीबाबाद : पारिलेख प्रकाशन/ वितरक : श्रीसाहती प्रकाशन, हैदराबाद : मोबाइल - +91 9849986346

प्रो. गोपाल शर्मा 
प्रोफेसर, अरबा मिंच विश्वविद्यालय 
अरबा मिंच, इथियोपिया 
prof.gopalsharma@gmail.com 

अवनी पर अमन कायम हो

अवनी पर अमन कायम हो

डॉ. चंदन कुमारी 

कुछ कोलाहल कुछ सन्नाटा  गुर्रमकोंडा नीरजा
2019/ परिलेख प्रकाशन, नजीबाबाद
150 रुपये 

डॉ. जी. नीरजा (1975) प्रतिष्ठित रचनाकार और समीक्षक होने के साथ ही अनुप्रयुक्त भाषाविज्ञान और तेलुगु साहित्य के इतिहास की जानी मानी विदुषी हैं। ये द्विभाषी मासिक पत्रिका‘स्रवंति’के सह संपादक तथा मासिक पत्रिका‘शोधादर्श’के संयुक्त संपादक की महती भूमिका का निर्वाह भी कर रही हैं। ये अनुवादक के रूप में तेलुगु, तमिल और हिंदी के साहित्य को समृद्ध करने का महत्वपूर्ण कार्य कर रही हैं। इनकी हिंदी सेवा के लिए इन्हें केंद्रीय हिंदी निदेशालय, युवा उत्कर्ष साहित्यिक मंच (नई दिल्ली), परिलेख कला समिति (नजीबाबाद) तथा अन्य संस्थाओं से सम्मानित किया गया है। 

साहित्य अपने हर रूप में जीवन और जगत की छवि ही उकेरता है - कभी वीभत्स, कभी शांत, कभी रोमांच से भरा और कभी कल्पनाओं की सुंदर दुनिया का सपना जो हर खौफ से आजाद और सबके लिए महफूज हो – इन सबसे ही साहित्य उदित होता है! जीवन केवल संगीत की सुरीली तान सा सरस किसी का नहीं होता। सबके जीवन में सुकून के साथ कोलाहल और सन्नाटे के लिए पर्याप्त जगह होती है। डॉ. जी. नीरजा के काव्य संग्रह ‘कुछ कोलाहल, कुछ सन्नाटा’ (2019) की कविताएँ अपनी समग्रता में जीवन संघर्ष की सपाटबयानी है। कवयित्री की इच्छा इस धरा पर शांति की स्थापना करने की है। पर यह अमन कायम कैसे हो? महानगरीय सभ्यता में अपने आप तक सिमट कर रहनेवाले लोग कोलाहल और सन्नाटे के आदि हो चुके हैं। शांति से उनका वास्ता भंग हो चुका है। ऐसे में प्रेम और शांति कायम करने की चाह रखते हुए कवयित्री की चिंता है कि इस ‘स्व’ के संकुचित दायरे का विस्तार कैसे करें! उनके शब्दों में, “टूटे दिलों को जोड़कर / ऊँच नीच की दीवार तोड़कर / अपनी तकदीर रचें कैसे?/ इस आक्रमण से बचें कैसे?” (यही है महानगर, पृ.29) । 

बार-बार संघर्ष में मात खाने पर जो टूट जाए वह आज की नई स्त्री नहीं। ‘आशियाना’ कविता हिम्मतवाली नई स्त्री का चित्र है। स्त्री विमर्श कवयित्री का प्रिय विषय रहा है। स्त्री जीवन और संघर्ष से जुड़ी कई कविताएँ इस संग्रह में हैं, जैसे –‘हक की लड़ाई’, ‘स्त्री’, ‘खतरे में बेटियाँ’, ‘गर्भ से’ इत्यादि। ‘एक ही तत्व’ और ‘मेरे साजन’ जैसी कविताओं में प्रेम की अभिव्यक्ति है। प्रेम दुनिया का सबसे सुंदर पक्ष है तभी ‘विरेचन’ कविता के माध्यम से वे संदेश देती हैं कि क्यों न प्रेम उन सबसे भी किया जाय जिनका प्रिय कार्य निरंतर आपको कोसना हो। चौरासी योनि में भटकने के बाद जो मानव जन्म मिला है। उसे क्यों क्रोध में जलाकर राख़ करना! ‘संधिपत्र’ कविता का एक अंश यहाँ द्रष्टव्य है, “पर ऐसा भी क्या गुस्सा/ कि जीवन बीत जाए, गुस्सा न बीते। ... तुम विजेता हो – चिर विजेता;/ मैं पराजित हूँ – प्रेम में पराजित ।/ कभी तो मैं बनकर देखो।” (पृ॰ 46)। प्रेम का यह संधिपत्र जो दो जन के बीच का करार है क्यों न इस करारनामे पर सबके हस्ताक्षर हो ताकि सच में ‘अवनी पर अमन कायम हो’।

दुनिया में हो रहे अत्याचार पर कवयित्री की नजर है और वे अत्याचारियों को शांतिपूर्ण चेतावनी के लहजे में कहती है, “सारे शिकार एकजुट हो रहे हैं,/ तुम्हारे खिलाफ बगावत तय है!” (खबरदार, पृ.50)। ऐसा होता तो अच्छा था पर शिकार शिकारी के डर से त्रस्त अपनी चोट को एक–दूसरे से छिपाए रखते हैं। इन मुट्ठी भर शिकारियों ने पूरी मानव जाति को आतंकित कर रखा है। एकजुटता के इस अभाव को भरना होगा! कब तक आतंक से दहलते रहेंगे! कब तक जीवित ही मरते रहेंगे! यह घुटने का सिलसिला केवल बाहर ही नहीं है, घर में भी चलता है। संग्रह की कविता ‘तपिश’ की कुछ पंक्तियाँ यहाँ उद्धृत हैं, “बुना तो था प्यार का घोंसला/ बन गया जाने कब/ बिना दरवाजों का अँधेरा तलघर।/ रिश्ते कफन बन गए/ घर चिता।/ मैं झुलसती रही/ इस आग में।” (पृ56)। ‘चमड़ा’ कविता भी अत्याचार की कहानी कहता है। प्रस्तुत है एक अंश, “लेकिन अत्याचार का इतिहास/ लिखा जाता है/ आज भी/ चमड़े पर ..../ चमड़ा पशुओं का,/ चमड़ा मनुष्यों का -/ औरतों और बच्चों का/ किसानों और मजदूरों का।” (पृ.64)। अत्याचार से त्रस्त मानव का धैर्य छूटना लाजिमी है पर कवयित्री ने इस छूटते हुए धैर्य को गुरु कहा है – “निरंतर छूटता धैर्य ही गुरु है/ तुमसे सीख ही लिया मैंने/ तुमुल कोलाहल के बीच सन्नाटे को जीना।” (सीखना, पृ 72)। 

इस संग्रह में होली के हाइकु के साथ कुछ अन्य त्रिपदी भी हैं। टैलेंट जो शिक्षा और तकनीक के सीमित अर्थ में प्रायः प्रयुक्त होता है उसका विस्तार मिट्टी की दुनिया तक दिखाते हुए कवयित्री कहती हैं, “खून टपकती अंगुलियों से/ टोकरियाँ बनाना टेलेंट है,/ कच्ची मिट्टी को आकार देना टेलेंट है।” (पृ. 33)। यह सच है वास्तविक टैलेंट वही है जो आत्मनिर्भर जीवन जीने में सहायक हो। कागज के मोटे पुलिंदों के साथ सड़क पर भटकाने वाली शिक्षा के पक्षधर बापू भी कहाँ थे! अक्षर ज्ञान आवश्यक है पर हुनर उसके समकक्ष आवश्यक है। इंसान की योग्यता का प्रमाण उसका ओहदा नहीं उसकी कर्मठता है।

कवयित्री ने अंग्रेजी के शब्दों का धड़ल्ले से प्रयोग किया है। उनका यह प्रयोग उनकी कविताओं में उनके शब्द प्रवाह को और गतिमान करता है और संदर्भ के उपयुक्त जान पड़ता है। इस प्रयोग से हिंदी का स्वरूप बोझिल नहीं हुआ है। इसमें अंग्रेजी शब्दों का हिंदीकरण करते हुए उनकी सहज ग्राह्यता झलकती है। इस काव्य संग्रह के अंत मे कालोजी नारायण राव की तेलुगु से हिंदी में अनूदित कविताएँ हैं। उन कविताओं के शीर्षक हैं – ‘एक और महाभारत, इच्छा, विडंबना, वोटों का क्या कहना, झूठी प्रशंसा, मुझे क्या हुआ इत्यादि। इसके बाद प्रो. ऋषभदेव शर्मा की हिंदी से तमिल में अनूदित कविताएँ हैं जिनके शीर्षक हैं –‘गुड़िया – गाय – गुलाम’, ‘मुझे पंख दोगे’ और ‘प्यार’। इसी क्रम में डॉ. कविता वाचक्नवी की कविताओं का तमिल अनुवाद है। और सबसे आखिर में ‘नत नयन प्रिय कर्म रत मन’ निराला के इन शब्दों से कवयित्री को सुशोभित करता हुआ डॉ. पूर्णिमा शर्मा का वक्तव्य है जिसमें उन्होने कवयित्री के व्यक्तित्व और कृतित्व पर विस्तार से प्रकाश डाला है। आरंभ में डॉ. गंगा प्रसाद विमल एवं देवी नागरानी द्वारा पुस्तक पर पूर्ण प्रकाश डाला गया है। इस कृति के पुरोवाक लेखक डॉ. गंगा प्रसाद विमल अब हमारे बीच नहीं हैं। उन्हें विनम्र श्रद्धांजलि।

डॉ. चंदन कुमारी 
हिंदी विभाग
ए के दोशी महिला महाविद्यालय
 जामनगर 
08210915046 

बुधवार, 30 अक्टूबर 2019

चित्रा मुद्गल की कहानियों का सांगोपांग अध्ययन

चित्रा मुद्गल की कहानियों में यथार्थ और कथाभाषा
 डॉ. संगीता शर्मा/ 2019/ रु. 350/ पृष्ठ : 214 
सृजलोक प्रकाशन, बी-1, दुग्गल कॉलोनी, खानपुर, नई दिल्ली - 110062  
बीसवीं शताब्दी के अंतिम दशकों और इक्कीसवीं शताब्दी के आरंभिक दशकों के लगभग पचास वर्ष के काल खंड में अपनी रचनाधर्मिता की अलग पहचान बनाने वाली लेखिका चित्रा मुद्गल कथासाहित्य के अध्येताओं के लिए एक चुनौतीपूर्ण रचनाकार रही हैं। वे एकांत अध्ययन कक्ष में बैठकर काल्पनिक संसार बुनने वाली लेखिका नहीं हैं। बल्कि एक सक्रिय सामाजिक कार्यकर्ता की तरह यथार्थ जगत में उपस्थित रहने वाली लेखिका हैं। वास्तविक जीवन से सजीव और सक्रिय रिश्ते के कारण उनके अनुभव बहुत गहरे, सूक्ष्म, विराट और व्यापक है। अनुभव की यह सच्चाई उनकी अभिव्यक्ति को भी धार प्रदान करती है। यही कारण है कि उनकी कहानियाँ विषयवस्तु और भाषाशैली जैसे दोनों धरातलों पर यथार्थ से अनुप्राणित दिखाई पड़ती हैं।

चित्रा मुद्गल की कहानियों की इसी मूलभूत विशेषता को डॉ.संगीता शर्मा (1969) ने अपनी ताजा शोधपूर्ण कृति ‘चित्रा मुद्गल की कहानियों में यथार्थ एवं कथाभाषा’ (2019) में अत्यंत पैनीदृष्टि से प्रतिपादित, विवेचित और विश्लेषित किया है। यही कारण है कि स्वयं लेखिका चित्रा मुद्गल ने उन्हें साधुवाद और आशीर्वाद देते हुए 5 सितंबर, 2019 को लिखे पत्र में यह स्वीकार किया है कि “यह तो सच है कि कहानियाँ जीवन यथार्थ की ही अभिव्यक्ति होती हैं। कुछ अपने जिए-भोगे का यथार्थ होते हैं कुछ नजदीक से देखे जीवन के अनुभव जनित संसार का हिस्सा। तुमने अपने अध्यवसाय और गहन विश्लेषण विवेचन के माध्यम से इन कहानियों में मानव जीवन के यथार्थ और उसकी प्रासंगिकता को उसके पात्रों, घटनाओं और परिस्थितियों के आधार पर रेखांकित किया है, यह सराहनीय है।”

लेखिका डॉ.संगीता शर्मा ने ‘आदि-अनादी’ शीर्षक से तीन खंडों में प्रकाशित चित्रा मुगल की समस्त कहानियों का विहंगम परिचय कराने के बाद विस्तार से व्यक्तिपरक यथार्थ की दृष्टि से उनका विश्लेषण किया है। और दिखाया है कि अहं, द्वंद्व, घुटन, संत्रास, अकेलापन और आत्मनिर्वासन जैसी आधुनिक जीवन शैली से जुड़ी मनोविकृतियाँ आधुनिक मनुष्य के जीवन को नारकीय बनाए रही हैं।

इसके अलावा सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक यथार्थ के विविध पहलुओं की अभिव्यक्ति की दृष्टि से इन कहानियों का विवेचन-विश्लेषण करते हुए लेखिका ने यह प्रतिपादित किया है कि आधुनिक जीवन का कोई भी मार्मिक कोण चित्रा मुद्गल की कलम की नोक से अछूता नहीं रह सका है। कहना न होगा कि जीवन और जगत के यथार्थ के इस गहरी पहचान ने ही चित्रा मुद्गल को हमारे समय की महान लेखिका बनाया है।

इस पुस्तक का भाषा विश्लेषण विषयक अंश अपने आप में विशिष्ट ही नहीं स्वतःपूर्ण भी है। यथार्थपरक भाषा प्रयोग की पड़ताल करते हुए जहाँ परिवार और समाज में अलग-अलग स्तरों पर बदलती भाषा के रंग देखे और दिखाए गए हैं वहीं शैली के स्तर पर शब्दों के चुनाव और उक्तियों के गठन में निहित समाजशास्त्रीय दृष्टि और बुनावट के सौंदर्य को उजागर किया गया है। विश्वास और बुनावट के सौंदर्य को उजागर किया गया है। विश्वास किया जाना चाहिए कि विशेष रूप से कथाभाषा और शैलीविज्ञान को आधार बनाकर अनुसंधान करने वाले शोधर्थियों के लिए यह पुस्तक बड़े काम की चीज साबित होगी। साधारण पाठक भी चित्रा मुद्गल के कथाकार व्यक्तित्व के अलग-अलग आयामों से परिकित होने के लिए इस पुस्तक को उपयोगी पाएँगे।

हिंदी कुंज पर प्रकाशित

बुधवार, 16 अक्टूबर 2019

यथार्थ की खूँटी पर सपनों का आकाश

खूँटी पर आकाश (निबंध संग्रह)/ ज्ञानचंद मर्मज्ञ 
2018/ 112 पृष्ठ /  रु. 200/  
प्रकाशक : ज्ञानचंद मर्मज्ञ, नं.13, तीसरा क्रॉस, के.आर.लेआउट,
छठवाँ फेज, जे.पी.नगर, बेंगलूरू – 560078
मोबाइल : 9845320295. 

ज्ञानचंद मर्मज्ञ (1959) पिछले तीन दशक से अधिक समय से कर्नाटक में रहकर हिंदी भाषा और साहित्य के प्रचार-प्रसार और विकास के लिए सतत प्रयत्नशील हैं। कवि, पत्रकार और निबंधकार के रूप में उन्होंने वहाँ अच्छी ख़ासी ख्याति अर्जित की हैं। उनकी गद्य और पद्य रचनाएँ विश्वविद्यालय के पाठ्यक्रमों में शामिल हैं तथा वे स्वयं भारत सरकार के संचार मंत्रालय के तहत बैंगलूर टेलिकॉम डिस्ट्रिक्ट की सलाहकार समिति के सदस्य के रूप में मनोनीत हैं। ‘मिट्टी की पलकें’ काव्य संग्रह, ‘बालमन का इंद्रधनुष’ बाल कविता संग्रह और ‘संभव है’ निबंध संग्रह के बाद अब उनकी चौथी पुस्तक के रूप में एक और निबंध संग्रह आया है ‘खूँटी पर आकाश’ (2018)। 

इस संग्रह में लेखक के कुल 22 निबंध संकलित हैं जिन्हें व्यक्तिव्यंजक अथवा ललित निबंध कहा जा सकता है। इन निबंधों के विषय अत्यंत विविधतापूर्ण है जिनसे लेखक के सरोकारों की व्यापकता का पता चलता है। समसामयिक, सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक और सांस्कृतिक स्थितियों पर टिप्पणी करते हुए लेखक यथास्थान कटाक्ष भी करता चलता है – कभी मीठी चुटकी के रूप में तो कभी तीखी चोट के रूप में। 

कुछ स्थानों पर ज्ञानचंद मर्मज्ञ हिंदी के आरंभिक लेकिन कालजयी निबंधकार प्रताप नारायण मिश्र की मुहावरेदानी और वाक् चातुरी की याद दिलाते हैं तो कुछ अन्य स्थानों पर हजारी प्रसाद द्विवेदी और विद्यानिवास मिश्र के काव्यात्मक गद्य का स्मरण कराते हैं। बीच-बीच में किस्सागोई और संसमरणात्मकता के कारण ये निबंध कभी रामचंद्र शुक्ल तो कभी महादेवी वर्मा के गद्य की स्मृतियों को ताजा करते हैं। इसका अर्थ न तो यह है कि ज्ञानचंद मर्मज्ञ ने इन गद्यकारों का अनुकरण किया है और न ही यह कि वे इनके समान हैं। बल्कि कहने का अभिप्राय इतना ही है कि ज्ञानचंद मर्मज्ञ ने हिंदी निबंध की पूरी परंपरा को आत्मसात करके अपने गद्य लेखन को अपने व्यक्तित्व की धार प्रदान की है। इसीलिए खूँटी, झुर्री, शून्य, बेंच, चप्पल, बाल और रंग जैसे प्रत्यक्ष विषयों से लेकर अस्तित्व, सत्य और स्वतंत्रता जैसे अमूर्त विषयों पर वे समान कुशलता और सफलता से लेखनी चला सके हैं। 

इन निबंधों में लेखक की मान्यताएँ बड़े स्पष्ट रूप में मुखरित हुई हैं। वे मानते हैं कि मनुष्य के प्राकृतिक भोलेपन की मिठास उसकी सच्छी पहचान की गरिमा में छिपी हुई होती है (पृ.14), बिना मतलब के सबसे लिपट-लिपटकर प्यार लुटाना शहर की सभ्यता नहीं है (पृ.15), झुर्री के रूप में बदन की दरारों में जीवन के शाश्वत संदर्भों की परिभाषाएँ अंकुरित होती हैं (पृ.21), उजाला सबको प्रिय है परंतु आँखें होते हुए भी ‘अँधेरा’ देखने वालों की भी कमी नहीं है (पृ.31), जिस भूख ने कभी आदमी को जानवर से मनुष्य बनाया, वही भूख आज मनुष्य को जानवर बना रही है (पृ.38), आकाश और खूँटी का संदर्भ उन लोगों के लिए निरर्थक है जो अपना आकाश दूसरों की खूँटी पर टाँग देते हैं और सफलता की ऊँची-ऊँची मीनारों पर चढ़कर अपनी पीठ स्वयं थपथपाते है (पृ.44)। ऐसी अनुभवजन्य उक्तियाँ इन निबंधों के हर एक पृष्ठ की खूँटी पर करीने से टंगी हुई हैं। 

इन ललित निबंधों में मनुष्यता और संस्कृति के संबंध में हमारे समय की चिंताओं को केवल अभिव्यक्ति ही नहीं मिली है बल्कि उनके समाधान भी उजागर हुए हैं। लेखक ज्ञानचंद मर्मज्ञ की इन चिंताओं में भाषा का प्रश्न भी बहुत बेचैनी पैदा करने वाला है। ‘मेरी मारीशस यात्रा’ में इसीलिए उन्होंने दृढ़तापूर्वक कहा है कि हिंदी के नाम पर कुछ कर देना और हिंदी के लिए कुछ ठोस करना, दोनों में बहुत अंतर है। वे मानते हैं कि हिंदी के वर्तमान परिदृश्य में विश्व हिंदी सम्मेलन की सार्थकता उलझी हुई दिखाई देती है। उनके ये प्रश्न बहुत कुछ कह जाते हैं कि “प्रश्न उठता है कि क्या हम हिंदी को इसी तरह घसीटते हुए लेकर आगे बढ़ेंगे? हिंदी तो अपने बलबूते पर विश्व-पटल पर विस्तार पा रही है। क्या यह आवश्यक नहीं कि पूरे विश्व का ढिंढोरा पीटने से पूर्व हम अपने घर को व्यवस्थित कर लें? क्या यह उचित है कि जिस हिंदी का शृंगार दुल्हन की तरह करके हम विश्व के सामने प्रदर्शित कर रहे हैं वह अपने ही देश में अनुवाद के कारावास में पड़ी सिसकती रहे?” (पृ.111)

अभिप्राय यह है कि ‘खूँटी पर आकाश’ के माध्यम से ज्ञानचंद मर्मज्ञ अपने पाठकों को रसानुभूति तो कराते ही है, वैचारिक उत्तेजना और ऊर्जा भी जगाते हैं। इसलिए इस पुस्तक को सुधी पाठकों का भरपूर आशीर्वाद मिलेगा, इसमें संदेह नहीं।