"तेलुगुदेल यन्न देशंबू तेलुगेनु
तेलुगु वल्लभुंडु तेलुगोकोंडा
एल्ल भाषालंदु एरुगवे माटाडि
देश भाषालंदु तेलुगु लेस्सा"
(कृष्णदेव राय, ‘आमुक्तमाल्यदा’)
(यह तेलुगु देश है और मैं तेलुगु प्रजा का राजा हूँ. तेलुगु भाषी हूँ. अन्य भाषाओं का ज्ञान है और उनमें बातचीत करने की क्षमता भी है. किंतु सब देशों की भाषाओं की तुलना में तेलुगु ही सर्वोत्तम है.)
अपनी मातृभाषा को सर्वोत्तम माननेवाले कृष्णदेव राय का स्थान तेलुगु साहित्य के इतिहास में चिरस्थाई है. हिंदी साहित्य के इतिहास का स्वर्ण युग भक्ति काल है तो तेलुगु साहित्य के इतिहास का स्वर्ण युग कृष्णदेव राय का काल है.
भारतीय इतिहास में विजयनगर साम्राज्य को ख्याति प्राप्त है. इसके यशस्वी शासक हैं श्री कृष्णदेव राय. स्वामी विद्यारण्य ने 1336 में विजयनगर साम्राज्य की स्थापना की. हरिहर राय (1336- 1343) और बुक्का राय (1343- 1377), दोनों ने विजयनगर साम्राज्य पर शासन किए. इसके बाद उनकी संतानों ने शासन किया. 1486 में सालुवा नरसिंह राय विजयनगर साम्राज्य की गद्दी पर बैठे. 1491 में नरसिंह राय की मृत्यु के बाद नरसा नायक शासनारूढ़ हुए.
सालुव वंश (1336-1500) के पराभव के पश्चात् विजयनगर साम्राज्य तुलुवा वंश के अधीन हो गया. तुलुवा वंश के सम्राट नरसा नायक की तीन रानियाँ थीं - तिप्पांबा, नागलांबा और ओबांबा. तिप्पांबा के पुत्र का नाम नरसिंह राय था, नागलांबा के पुत्र का कृष्णदेव राय तथा ओबांबा के पुत्र थे अच्युतदेव और सदाशिव राय. नरसिंह राय ने सन्1501 से 1509 तक विजयनगर पर शासन किया. 24 जुलाई, 1509 में विजयनगर साम्राज्य के महामंत्री तिम्मरसु की सहायता से कृष्णदेव राय गद्दी पर बैठे. उन्होंने 1509 से 1529 तक राज्य किया. उनके शासन काल में विजयनगर साम्राज्य का क्षेत्र कटक व गोवा से लेकर दक्षिण में श्रीलंका तक व्याप्त हुआ. उनके राजकाज की भाषा नागरी लिपिवाली संस्कृत थी.
‘आंध्र भोज’, ‘कन्नड राज्य रमा रमणा’ और ‘मूरु रायरा गंडा’(तीन राजाओं के राजा) के नाम से प्रसिद्ध कृष्णदेव राय कलापोषक थे. उन्होंने अपने दरबार में संस्कृत, तेलुगु, कन्नड और तमिल भाषाओं के कवियों के साथ साथ संगीत, नृत्य तथा अन्य ललित कलाओं के विद्वानों को भी आश्रय दिया और सम्मानित किया. साहित्यिक गोष्ठीयों का आयोजन एवं अन्य कलाओं का प्रदर्शन ‘भुवन विजयमु’ (भुवन विजय) नामक सभा भवन में हुआ करता था.
कृष्णदेव राय के दरबार की शोभा थे ‘अष्ठ दिग्गज’ - अल्लसानि पेद्दना, नंदि तिम्मना, मादय्यगारि मल्लना, धूर्जटी, अय्यलराजु रामभद्रुडु, पिंगलि सूरना, भट्टुमूर्ति(राम राजा भूषणा) और तेनाली रामककृष्णा. इनमें अल्लसानि पेद्दना को ‘आंध्र कविता पितामह’ कहा जाता है. उन्होंने ‘मनु चरित्र’, ‘गुरु स्तुति’ तथा ‘हरिकथा सारमु’(हरिकथा सार) नामक तीन कृतियों की रचना की पर आज केवल ‘मनु चरित्र’ ही उपलब्ध है. नंदि तिम्मना ने ‘पारिजातापहरणमु’ (पारिजात का अपहरण) नाम से शृंगार रस प्रधान प्रबंध काव्य की रचना की. मादय्यगारि मल्लना ने ‘राजशेखर चरित्रमु’(राजशेखर चरित्र), धूर्जटी ने ‘कालहस्ती महत्यमु’(कालहस्ती का महत्व), अय्यलराजु रामभद्रुडु ने ‘रामाभ्युदयमु’(रामाभ्युदय) नामक प्रबंध काव्यों की रचना की. पिंगलि सूरना ने ‘राघव पांडवीयमु’(राघव पांडवीय) नामक श्लेष परक प्रबंध काव्य में रामायण और महाभारत की कथाओं को संजोया है. भट्टुमूर्ति ने ‘काव्यालंकारा संग्रहमु’(काव्यालंका संग्रह), ‘वसु चरित्रमु’(वसु चरित्र) तथा ‘हरिश्चंद्र नलोपाख्यानमु’(हरिश्चंद्र नलोपाख्यान) की रचना की. इनमें से अंतिम प्रबंध काव्य में राजा हरिश्चंद्र तथा नल-दमयंती की कथाएँ हैं. ‘विकट कवि’ के नाम से प्रख्यात तेनाली रामकृष्णा ने ‘उद्भटाराध्य चरित्रमु’ (उद्भटाराध्य चरित्र) की रचना की जो शैव धर्म पर आधारित है. बाद में उन्होंने वैष्णव धर्म पर आधारित प्रबंध काव्य ‘पांडुरंग महात्म्यमु’ (पांडुरंग महात्म्य) और ‘घटिकाचल महात्म्यमु’(घटिकाचल महात्म्य) की रचना की. कृष्णदेव राय के युग में प्रबंध काव्यों की बहुलताहोने कारण उसे ‘प्रबंध युग’ भी कहा जाता है.
कृष्णदेव राय स्वयं प्रकांड पंडित और कवि थे. उन्होंने संस्कृत में ‘मदालसा चरित्र’, ‘सत्यवधू परिणय’, ‘ज्ञान चिंतामणि’, ‘रसमंजरी’ तथा ‘जांबवती परिणय’ की रचना की. 1511 में उन्होंने तेलुगु में ‘आमुक्तमाल्यदा’ की रचना की. विशिष्टाद्वैत को प्रतिपादित करनेवाला यह प्रबंध काव्य तेलुगु साहित्य की अनुपम कृति है. कृष्णदेव राय कृत ‘आमुक्तमाल्यदा’ में आंडाल(गोदादेवी) के बाल्यकाल से लेकर भगवान विष्णु से उनके विवाह तह की यात्रा का वर्णन अंकित है. इसमें वैष्णव भक्त विष्णुचित्त की कथा भी वर्णित है अत: इसे ‘विष्णुचित्तीयमु’ के नाम से भी जाना जाता है.
‘आमुक्तमाल्यदा’ की संक्षिप्त कथावस्तु इस प्रकार है. मत्स्यध्वज नामक पांड्य नरेश मदुरा नगर का राजा था. वह विलासी पुरुष था. एक दिन उसने किसी ब्राह्मण के मुँह से यह सुना कि अंधेरे को त्यागने से ही उजाला होगा, यौवन भीतने से ही वार्धक्य होगा अत:मनुष्य को उस जगत् में अलौकिक तत्व की प्राप्ति हेतु उद्योग करना चाहिए. उसकी बातों से इस भौतिक संसार के प्रति राजा का मोहभंग हो गया. संसार में सबसे उत्तम धर्म पर विचार करने हेतु अगले ही दिन उन्होंने सभा का आयोजन किया जिसमें हर प्रांत के धर्माचार्य पधारे.
श्रीविल्लिपुत्तूर में विष्णुचित्तनामक वैष्णव भक्त रहता था. वह अहर्निश श्री मन्नार स्वामी(भगवान श्रीकृष्ण) की आराधना करता था. कहा जता है कि श्रीकृष्ण ने स्वयं विष्णुचित्त को विशिष्टाद्वैत संप्रदाय की श्रेष्ठता प्रमाणित करने की प्रेरणा दी तो विष्णुचित्त ने अपने आराध्य भगवान से निवेदन किया कि -
"गृह सम्मार्जनमो, जलाहरणमो, शृंगार पल्यंकिका
वहनंबो, वन मालिका करणमो, वाल्लभ्यल शयध्वजा
ग्रहणम्बो, व्यजनातपत्र-धृतियो, प्राउदीपिकारोपमो
नृहरी, वादमुलेल्लेरे यितरुलु नीलीलकुंबात्रमुल् ॥"
(कृष्णदेव राय, ‘आमुक्तमाल्यदा’)
(हे भगवान! घर की साफ सफाई करना, जल लाना, शृंगार पालकी का वहन करना, पुष्पमाला तैयार करना, शयन का प्रबंध करना, पंखा झलाना और दीपक जलाना आदि सेवाएँ ही मुझसे बन अपड़ती हैं. भला मैं शास्त्रार्थ क्या जानूँ? हे प्रभु! तुम्हारी लीलाओं का वर्णन करना क्या मेरे लिए संभव है?)
भगवान के आग्रह पर विष्णुचित्त ने पांड्य नरेश मत्स्यध्वज के दरबार में पहुँचकर विशिष्टाद्वैत का प्रतिपादन किया और वापस अपने नगर आकर भगवान की आराधना में लीन हो गया.
एक दिन उद्यान के सरोवर के निकट विष्णुचित्त को एक बालिका मिली. उसे ही आंडाल या गोदादेवी के नाम से जाना जाता है. वह अपने हाथों से सुंदर पुष्पमालाएँ गूँथती और स्वयं पहनकर निहारती थी. तत्पश्चात् उन्हें भगवान को पहनाती थी. कहा जाता है कि इसी संदर्भ के अनुसार इस काव्य का नाम ‘आमुक्तमाल्यदा’ पड़ा अर्थात् स्वयं धारण की हुई माला को समर्पित करना. गोदादेवी की माधुर्य भक्ति से प्रसन्न होकर श्रीरंगेश(रंगनाथ, आंडाल के आराध्य भगवान विष्णु) ने उनसे विवाह किया.
‘आमुक्तमाल्यदा’ मे लोक जीवन का चित्र भी अंकित है. इसमें द्रविड स्त्रियों की जीवन शैली का चित्रण, मछुआरों का वर्णन, ग्रामीण स्त्रियों का हास-परिहास आदि का सुंदर समायोजन हुआ है. कृष्णदेव राय ने इस प्रबंध काव्य में तत्कालीन सामाजिक, राजनैतिक, सांस्कृतिक और धार्मिक परिवेश को उकेरा है.
कृष्णदेव राय के शासन काल में अनेक मंदिरों का निर्माण हुआ जो आज भी प्रसिद्ध हैं. उनमें से एक है अनंतपुर जिले में स्थित पेनुगोंडा का ‘लेपाक्षी मंदिर’. कहा जाता है कि 1538 में विजयनगर साम्राज्य के कोषाध्यक्ष विरूपन्ना ने इस मंदिर का निर्माण किया. यहाँ पापनाशेश्वर, श्रीराम, वीरभद्र और दुर्गा की पूजा होती है. भारत में सबसे बड़ी नंदी की मूर्ति यहाँ स्थित है. इतना ही नहीं हंपी में आज भी विजयनगर साम्राज्य के अवशेष पाए जाते हैं.
उल्लेखनीय है कि आंध्र प्रदेश सरकार द्वारा इस वर्ष विजयनगर साम्राज्य के इस सबसे यशस्वी शासक श्री कृष्णदेव राय के राज्याभिषेक(24 जुलाई, 1509) की पाँचवी शताब्दी का उत्सव मनाया गया जिसका उद्घाटन राष्ट्रपति महामहिम प्रतिभा पाटिल ने किया. वास्तव में कृष्णदेव राय ने विजयनगर साम्राज्य को भारतीयता के सांस्कृतिक गढ़ के रूप में प्रतिष्ठित किया था. उनके राज्याभिषेक की छठी शताब्दी की आरंभ के अवसर पर उनकी सांस्कृतिक चेतना के पुनर्जागरण का संकल्प ही ऐसे आयोजनों को सार्थकता प्रदान कर सकता है.
6 टिप्पणियां:
अत्यंत जानकारीपूर्ण तथा नई पीढी के लिए प्रेरक आलेख हेतु बधाई.
इसी प्रकार तेलुगु साहित्य पर हमारा ज्ञानवर्धन करती रहें.
आपका भविष्य उज्ज्वल हो.
>डॉ. बलविंदर कौर
नीरजा जी,
आपका हिन्दी चिट्ठाकारी में स्वागत है।
महान शासक पर इस महान लेख के लिये आपको साधुवाद।
आपका हिन्दी ज्ञान बहुत उच्च कोटि का है और तेलुगू शायद आपकी मातृभाषा है । इसलिये आपसे हिन्दी विकिपेडिया पर 'तेलुगु' नामक लेख को सुधारने एवं उसका आवश्यक परिवर्तन/परिवर्धन करने का निवेदन करता हूँ। यदि तेलुगू साहित्यकारों एवं आन्ध्र प्रदेश से सम्बन्धित कुछ प्रमुख विषयों पर कुछ हिन्दी लेख लिख सकें तो हिन्दी का हित सधेगा।
@ अनुनाद सिंह
आदरणीय बंधु
आपने ठीक पहचाना. मेरी मातृभाषा तेलुगु है और हिंदी अध्यापन तथा शोध के क्षेत्र में कार्यरत हूँ.
यद्यपि मुझे नहीं लगता कि मुझ में विकिपीडिया की सामग्री को संशोधित करने की क्षमता है , तो भी आपने मुझ पर जो विशवास व्यक्त किया है मैं उसकी रक्षा करने की कोशिश करूंगी.
तेलुगु साहित्य विषयक मेरे अन्य लेख इसी ब्लॉग पर " तेलुगु साहित्य " लाबेल के अंतर्गत देखे जा सकते हैं.
राज्य राजेश्वर, आंध्रभोज, कन्नड़ राज्य रमा रमाणा, मुरु रायरा गंडा, प्रकांड पंडित, महान एवं ऊचतं कवि, कवियों के संरक्षक, एवं विजयनगर के सर्वश्रेष्ठ एवं उच्चतं शासक महाराज श्रीकृष्णदेव राय की जय हो 🚩🚩
काफी व्याख्यित(विस्तृत) रूप में जान कारी दिगायी है ।
इसके लिए मैं आपका धन्यवाद करना चाहूंगा।
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