बुधवार, 28 दिसंबर 2011

जाना भारत भूषण और अदम गोंडवी का


पुण्यस्मरण
जाना भारत भूषण और अदम गोंडवी का


जिस दिन भी बिछड़ गया प्यारे
ढूँढ़ते फिरोगे लाखों में
फिर कौन सामने बैठेगा
बंगाली भावुकता पहने
*****  ******
जितनी उड़ती है आयु परी
इकलापन बढ़ता जाता है
सारा जीवन निर्धन करके
ये पारस पल खो जाएँगे
गोरे मुख लिए खड़े रहना
खिड़की की स्याह सलाखों में
(भारत भूषण, जिस दिन भी बिछड़ गया प्यारे)

मिलना और बिछडना ही जगत का चक्र है. भारत भूषण (८ जुलाई, १९२९ – १७ दिसंबर, २०११) और अदम गोंडवी (२२ अक्टूबर, १९४७ – १८ दिसंबर, २०११) आज भले ही हमारे बीच नहीं हैं फिर भी ‘राम की जल समाधि’(भारत भूषण) और ‘आप कहते हैं सरापा गुलमुहर है जिंदगी’(अदम गोंडवी) के रचनाकारों रूप में सदा याद किए जाएँगे.

भारत भूषण का जन्म ८ जुलाई, १९२९ को मेरठ में हुआ था. उन्होंने प्राध्यापक के रूप में अपना कैरियर शुरू किया था. धीरे धीरे उन्होंने कविता के क्षेत्र में अपने आप को स्थापित किया. उन्होंने प्राध्यापक के रूप में ही नहीं बल्कि कवि के रूप में उच्च कोटि की ख्याति अर्जित की. उनके प्रसिद्ध काव्य संग्रह हैं – सागर के सीप वर्ष (१९५८), ये असंगति वर्ष (१९९३) और मेरे चुनिंदा गीत (२००८). उनकी कविताओं में राम की जल समाधि सबसे अधिक चर्चित है. यह छोटी सी रचना इतनी मार्मिक बन पडी है कि राम के क्रमशः सरयू के जल में विलीन होने के साथ साथ पाठक का हृदय भी करुना के सागर में डूबता चला जाता है. यह कविता कुछ इस तरह आरंभ होती है –

पश्चिम में ढलका सूर्य उठा वंशज सरयू की रेती से,
हरा–हरा, रीता-रीता, निःशब्द धरा, निःशब्द व्योम,
निःशब्द अधर पर रोम-रोम था टेर रहा सीता-सीता.’
 (भारत भूषण,राम की जल समाधि)
और समाप्त होती है इस बिंब के साथ –
दीपित जयमाल उठी ऊपर,
सर्वस्व सौंपता शीश झुका, लो शून्य राम लो राम लहर,
फिर लहर-लहर, सरयू-सरयू, लहरें-लहरें, लहरें- लहरें,
केवल तम ही तम, तम ही तम, जल, जल ही जल केवल,
हे राम-राम, हे राम-राम
हे राम-राम, हे राम-राम ।
  (भारत भूषण,राम की जल समाधि)

भारत भूषण संवेदनशील कवि हैं. वे यही कहते हैं कि यदि अपना कोई बिछड़ जाए तो अकेलेपन को सहना मुश्किल हो जाएगा. अतः वे प्रश्न करते हैं कि
‘ये देह अजंता शैली सी
किसकी रातें महकाएँगी
जीने के मोडों की छुअनें
फिर चाँद उछालेगा पानी
किसकी समुंदरी आँखों में’
 (भारत भूषण, जिस दिन भी बिछड़ गया प्यारे)

भारत भूषण अस्तित्व का यह मूलभूत प्रश्न भी उठाते हैं कि यह शरीर और मन किस लिए हैं तथा यह धरती उसे किसलिए सहे और वे इस धरती को किस लिए सहें –
‘किसलिए रहे अब ये शरीर, ये अनाथमन किसलिए रहे,
धरती को मैं किसलिए सहूँ, धरती मुझको किसलिए सहे.’
(भारत भूषण,राम की जल समाधि)


यह काल चक्र का संयोग ही कहा जाएगा कि सलोने सुकुमार गीतकार भारत भूषण के निधन के अगले ही दिन हिंदी उर्दू के कबीरी परंपरा के ठेठ किसानी थाथ्वाले गजलकार अदम गोंडवी का भी स्वर्गवास हो गया. अदम गोंडवी की रचनाओं में भारत के आम आदमी की मनोदशा की अभिव्यंजना ध्यान खींचती है. उनका जन्म २२ अक्टूबर, १९४७ को सूकर क्षेत्र के करीब परसपुर (गोंड) के आटा ग्राम में हुआ. उनका वास्तविक नाम था रामनाथ सिंह. उनकी प्रमुख कृतियों में धरती की सतह पर, समय से मुठभेड़ आदि परिद्ध हैं. कवि के रूप में वे आम जनता के प्रबल पक्षधर हैं. वे कहते हैं कि जिंदगी गरीबों की नजर में एक कहर है –
‘आप कहते हैं सरापा गुलमुहर है जिंदगी
हम गरीबों की नजर में इक कहर है जिंदगी
भुखमरी की धूप में कुम्हला गई अस्मत की बेल
मौत के लम्हात से भी तल्खतर है जिंदगी.’
(आप कहते हैं सरापा गुलमुहर है जिंदगी, अदम गोंडवी)

अदम गोंडवी की कविताओं में व्यंग्य का स्वर मुखरित होता है. वे समकालीन राजनीति पर तीखा प्रहार करते हैं और कहते हैं कि
‘काजू भुने प्लेट में, विस्की गिलास में
उतरा है रामराज विधायक निवास में
पक्के समाजवादी हैं, तस्कर हों या डकैत
इतना असर है खादी के उजले लिबास में
आजादी का वो जश्न मनाएँ तो किस तरह
जो आ गए फुटपाथ पर घर की तलाश में’

आज नोट के बदले वोट का चलन है. पैसों की ताकत पर सरकार बनाई भी जा सकती है और गिराई भी. इसीलिए अदम गोंडवी कहते हैं कि
‘पैसे से आप चाहे तो सरकार गिरा दें
संसद बदल गई है यहाँ की नखास में
जनता के पास एक ही चारा है बगावत
यह बात कह रहा हूँ मैं होशो-हवास में’
     
      अदम गोंडवी की कविताओं में दलित विमर्श भी द्रष्टव्य है. यह कहा जा रहा है कि यह उत्तर आधुनिक युग है और इस युग में हाशिए पर स्थित समुदाय केन्द्र में आ रहे हैं. स्त्री, वृद्ध और दलित केंद्रित साहित्य में वृद्धि इसीका परिणाम है. पर अदम गोंडवी यह प्रश्न करते हैं कि वेद में जिनका स्थान हाशिए पर भी नहीं है, वे आस्था और विश्वास लेकर क्या करेंगे –
‘वेद में जिनका हवाला हाशिये पर भी नहीं
वे अभागे आस्‍था विश्‍वास लेकर क्‍या करें

लोकरंजन हो जहां शम्‍बूक-वध की आड़ में
उस व्‍यवस्‍था का घृणित इतिहास लेकर क्‍या करें

कितना प्रतिगामी रहा भोगे हुए क्षण का इतिहास
त्रासदी, कुंठा, घुटन, संत्रास लेकर क्‍या करें

बुद्धिजीवी के यहाँ सूखे का मतलब और है
ठूंठ में भी सेक्‍स का एहसास लेकर क्‍या करें

गर्म रोटी की महक पागल बना देती मुझे
पारलौकिक प्‍यार का मधुमास लेकर क्‍या करें

इसमें कोइ संदेह नहीं कि जिस प्रकार भारत भूषण गीत की परम्परा के उन्नायक थे उसी प्रकार अदम गोंडवी भी गजल को नया संस्कार प्रदान करने वालों में अपनी तरह के अकेले रचनाकार थे. इन दोनों प्रतिभाओं के एक साथ तिरोहित हो जाने से हिंदी गीत – गजल की दुनिया स्तब्ध रह गई है. यह सूनापन जल्दी भरनेवाला नहीं.

शुक्रवार, 2 दिसंबर 2011

वैविध्यपूर्ण गीतों का संग्रह : 'गीत ही मेरे मीत'

पुस्तक चर्चा 
श्रीमती सुषमा  बैद (1957) हैदराबाद के कविता मंचों का जाना पहचाना नाम है. खासकर उन्हें सस्वर कविता वाचन के लिए जाना जाता है. जैन समाज में वे एक आस्थाशील भक्तिप्रवण कवयित्री के रूप में अपनी पहचान बनाए हुए हैं. 1995 से अब तक उनके भक्ति गीत, कविता, मुक्तक और सावन गीत संग्रहों के रूप में ग्यारह प्रकाशन आ चुके हैं और अब यह बारहवां प्रकाशन सामने आया है – 'गीत ही मेरे मीत'(2011) जिसमें अलग अलग खंड बनाकर भक्ति गीत, अन्य गीत, कविताएँ, हास्य-व्यंग्य और मुक्तक परोसे गए हैं.
एक भक्तिप्रवण रचनाकार के रूप में सुषमा  जी अपने आराध्य की राह निहारती और उन पर सब कुछ वारती दिखाई देती हैं.(पृ.18). वे यह मंगल कामना करती हैं कि सब राग-द्वेष को तजकर स्नेह सूत्र में बंध जाएँ.(पृ.19). उनके आराध्य की यह विशेषता है कि वह शराणागत को कभी निराश नहीं करता, सब का दाता और त्राता है, भाग्य विधाता है, अज्ञान के अंधेरे का हरण करके घट घट में ऐसी सुख शांति को व्याप्त करने वाला है जिससे जन्मों का फेरा मिट जाता है.(पृ.20). कवयित्री ऐसे प्रभु को पाने केलिए जप तप का महत्व स्वीकार करती है और याद दिलाती है कि संयम की सरिता में स्नान करने से ही मन का मैल मिटता है और तन का स्वर्ण निखरता है.(पृ.20). तन को सोना बनाने का यह सूत्र वैसे तपस्या के साथ जुडता दिखाई नहीं देता क्योंकि मूल उद्देश्य शरीर को निखारना नहीं है यहाँ.
सुषमा  बैद के भक्ति गीतों में लोक भाषा और लोक गीत की खूब झलक मिलती है. वे मन का दीप जलाकार तन की बाती में प्राण की लौ सुलगाती हैं. हर सांस में अपने आराध्य का स्मरण करती हैं और सौ सौ बार उनके चरणों में सर नवाती हैं.(पृ.40). उल्लेखनीय है कि ये सारे गीत उन्होंने आचार्य श्री महाश्रमण जी की पचासवीं वर्षगाँठ के अवसर पर निवेदित किए हैं और यह प्रार्थना की है – "तेरे द्वार पे आई हूँ भगवान, चाहो तो बेड़ा पार करो/ करूं चरणों में निवेदन सादर, चाहो तो मेरा उद्धार करो."(पृ.42).
अन्य गीतों में सुषमा  ने अपनी सामाजिक चिंताओं को व्यक्त किया है जैसे मानवीय मूल्यों का हनन, प्रदर्शनप्रियता, अपसंस्कृति, महंगाई, शिक्षा और स्वास्थ्य से जुडी समस्याएँ तथा पर्यावरण प्रदूषण. वे यह गुहार लगाती है कि "हमें प्रदूषित शहर नहीं, गुनगुनाता गाँव चाहिए/ नहीं चाहिए नकली जीवन, पीपल नीम की छाँव चाहिए."(पृ.66). लेकिन उनकी भावुकता और सहृदयता का परिचय तो केवल वहीं मिलता है जहां वे आत्मविभोर होकर प्रेम के शब्द चित्र बनाती हैं. ऐसे स्थलों पर उनके भीतर बैठी प्रेम विह्वल स्त्री यह याचना करती है कि – "मुरझाए कहीं न ये दिल की कली/ सींचकर प्यार से फिर हरा कीजिए/ लोग सहते हैं कैसे जुदाई का गम/ गम में तडपा न यूं अधमरा कीजिए."(पृ.53).
हाथों से पल पल फिसलते संयोग सुख को रोके रखने की यह बेताबी बहुत कुछ कहती है.  कबीर की तरह प्रेम पात्र की प्रतीक्षा में यह हाल हो गया है कि – "जीवन है यह धुंधला-सा तन साँसें बुझीं बुझीं/ पथ देख देख थकीं अंखियाँ पा दर्शन के लाले."(पृ.56). इसीलिए वे यह सीख भी देती चलती हैं कि दर्द को भुलाने हर पल हमें व्यस्त रहना चाहिए/ जिंदगी के हर इक मौसम में मस्त रहना चाहिए.(पृ.60).
कविता खंड में धार्मिक-सामाजिक सरोकार प्रमुख हैं और हास्य-व्यंग्य तथा मुक्तक खंड में भी. इतिवृत्तात्मकता और उपदेशात्मकता में ये कवितायें कहीं कहीं तो द्विवेदी युग की याद दिला देती हैं, कहीं कहीं सीधे सीधे नारे भी कविता में उतर आए प्रतीत होते हैं. जैसे "बेटा बेटी हैं एक सामान/ मत करो बेटी का अपमान/ क्यों जान लेते भ्रूण ह्त्या कर/ बेटी को भी दो जीवन दान.(पृ.110).
कुलमिलाकर सुषमा बैद का यह बारहवां कविता संग्रह उनकी आध्यात्मिक, धार्मिक, सामाजिक और समसामयिक चिंताओं को मुख्यतः अभिधामूलक अभिव्यक्ति प्रधान करता है. प्रासंगिक रूप से कुछ स्थलों पर मार्मिक भावों की व्यंजना भी देखाई देती है.
·         गीत ही मेरे मीत (काव्य संग्रह)/ सुषमा बैद/ 2011/ सुषमा-निर्मलकुमार बैद, 3-3-835/1ए, के.एन.आर., संयुक्त एन्क्लेव, फ्लैट नं. 302, कुतबीगुडा, हैदराबाद – 500 027/ पृष्ठ 124/ मूल्य – रु.200
गुर्रमकोंडा नीरजा, प्राध्यापक, उच्च शिक्षा और शोध संस्थान, दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा, खैरताबाद, हैदराबाद – 500 004

रविवार, 23 अक्टूबर 2011

ज्ञानपीठ पुरस्कृत दो कथाकार : अमरकांत और श्रीलाल शुक्ल

वर्ष 2009  का 45 वाँ ज्ञानपीठ पुरस्कार अमरकांत और श्रीलाल शुक्‍ल को संयुक्‍त रूप से दिया जा रहा है. ये दोनों ही हिंदी के प्रतिष्‍ठित साहित्यकार हैं निश्‍चय ही ये दोनों ही साहित्यकार लंबे समय समय से ज्ञानपीठ के सही दावेदार और हकदार रहे हैं। यह भी कहा जा सकता है कि इन्हें यह सम्मान अपेक्षाकृत विलंब से मिल रहा है।


अमरकांत का जन्म उत्तर प्रदेश बलिया जिले के ग्राम भगलपुर (नगरा) में 01 जुलाई,1925 को हुआ। अनका वास्तविक नाम है श्रीराम। उनकी दादी उन्हें अमरकांत कहकर पुकारती थी, जिसे उन्होंने अपना साहित्यिक नाम अमर्कांत का आधार बनाया। अमरकांत हिंदी साहित्य को अनेक उपन्यास, कहानियाँ एवं बाल साहित्य के माध्यम से समृद्ध किया। उनके उपन्यासों में ‘सूखा पत्ता’ (1959), ‘ग्रामसेविका’, ‘कंटीले राह के फूल’, ‘आकाश पक्षी’ (1967), ‘काले उजले दिन’ (1969), ‘दीवार और आँगन’ (1969), ‘सुखी जीवी’, ‘बीच की दीवार’, ‘सुन्नर पांडे की पतोह’, ‘आँधी’, ‘सुदीराम’, ‘इन्हीं हथियारों से’ और ‘पराई डाल का पंछी’ आदि उल्लेखनीय हैं। ‘जिंदगी और जोंक’, ‘देश के लोग’, ‘मौत का नगर’, ‘कुहासा’, ‘तूफान’, ‘कला प्रेमी’ आदि उनके प्रसेद्ध कहानी संग्रह हैं। उपन्यास और कहानियों के अलावा अमरकांत ने बाल साहित्य का सृजन भी किया है। ‘खूँट में दाल’, ‘दो हिम्मती बच्चे’, ‘झगरू लाल का पैसा’ आदि इसी कोटि की रचनाएँ हैं।

अमरकांत की प्राथमिक शिक्षा नगरा में संपन्न हुई। 1942 में उन्होंने इंटरमीडियट की पढ़ाई अधूरी छोड़कर स्वाधीनता संग्राम में भाग लिया। बाद में उन्होंने 1946 में सतीशचंद्र इंटर कॉलेज, बलिया से अपनी स्कूली पढ़ाई पूरी की तथा इलाहाबाद विश्‍वविद्‍यालय से स्नातक की उपाधि प्राप्‍त की। अम्रकांत प्रगतिशील लेखक संघ में शामिल होकर कहानी लेखन को गति प्रदान की। वे सैनिक, अमृत, भारत, कहानी और मनोरमा आदि पत्र-पत्रिकाओं के संपादक भी रह चुके हैं। यहाँ हम उनकी वैचारिकता के आयामों को स्पष्‍ट करने का प्रयास करेंगे।

अमरकांत का रचना संसार वैविध्यपूर्ण है। उन्हें ‘रोमानी कथाकार’ मानते हुए डॉ.गोपाल राय ने कहा कि "अमरकांत के सभी उपन्यास रोमानी उपन्यासों के फार्मूलों पर आधारित हैं जिनमें क्रांति, प्रेम, विमाता के व्यवहार, परंपरागत आदर्शों की अनुगामिनी नारी की आस्था, रूढ़िग्रस्त निम्न मध्यवर्ग की जड़ता आदि का भावपूर्ण अंकन किया गया है। इन उपन्यासों में यत्र-तत्र सामाजिक प्रयोजन की बात कही गई है पर कथा संसार से उसकी तर्कसंगत पुष्‍टि नहीं होता। जीवंत अनुभूतियों के संस्पर्श और सामाजिक विसंगतियों की चेतना के अभाव के कारण अमरकांत के उपन्यास सर्जनात्मक दृष्‍टि से अत्यंत सामान्य हैं।" (हिंदी उपन्यास का इतिहास, गोपाल राय)।

वस्तुतः अमरकांत के साहित्य की मूल चिंता है आधुनिकता और परंपरा का द्वन्द्व। उन्होंने अपने उपन्यासों और कहानियों में सामाजिक परिवर्तन को दर्शाया है। व्यक्‍ति स्वातंत्र्य और सामाजिक परिवर्तन की आवाज उनके साहित्य में सुनाई पड़ती है। सामाजिक और राजनैतिक जीवन में व्याप्‍त अराजकता के कारण व्यक्‍ति उसके व्यक्‍तित्व की रक्षा नहीं कर पाता। ऐसे समय में उसे जीवन की निरर्थकता को स्वीकारते हुए अलगाव की समस्या से जूझना पड़ता है। भारत में एक ओर यांत्रिक विकास है तो दूसरी ओर सामाजिक पिछड़ापन है। इस कारण अनेक विसंगतियों का जन्म हो रहा है। इन विसंगतियों में एक, समाज में व्याप्‍त जाति भेद को पछाड़ घोषित करते हुए अमरकांत कहते हैं - "जाति को मैं नहीं मानता; जाति एक सामाजिक ढकोसला है, अपने झूठे अहंकार का कमजोर किला। कुछ साधन-संपन्न लोगों ने कमजोरों को दबाना चाहा और इसके लिए उनकी सीमाएँ निश्‍चित कर दीं। इस संसार में दो ही जातियाँ हैं, एक अच्छे लोगों की और दूसरी बुरे लोगों की, एक साधन-संपन्न लोगों की और दूसरी साधन-विहीन लोगों की। क्या ब्राह्‍मण जाति में एक-से-एक कमीने, बदमाश, व्यभिचारी और लुच्चे नहीं भरे हैं? क्या और दूसरी जातियों में अच्छे लोग नहीं हैं? क्या यह सच नहीं है कि ऊँची कही जानेवाली जातियों के लोग छिपकर कुकर्म करते हैं और फिर भी अपने को श्रेष्‍ठ समझते हैं? जाति के विभाजन...." (सूखा पत्ता; पृ.176)।

अमरकांत परंपरागत रूढ़ियों के खिलाफ है। रूढ़िपालन के नाम पर प्रेम का विरोध करने को असामाजिक और अनुचित मानता है। इस संदर्भ में वे कहते हैं कि "दोष समाज-रचना का है, जिसमें प्रेम फल-फूल ही नहीं सकता। इस समाज में और भी दुःख और पीड़ा है, उसके सामने अपनी पीड़ा का कोई महत्व नहीं, अपने को उसमें घुला-मिलाकर मारना तो कायरता है। ... खासकर उस आदमी के लिए जो पढ़ा-लिखा और समझदार हो।" (वही, पृ.200)। उनकी मान्यता है कि "जीवन में आगे बढ़ने के लिए संघर्ष और तकलीफ जरूरी है, और जो संघर्ष नहीं कर सकता, जो तकलीफ बरदाश्‍त नहीं कर सकता, उसका जीवन व्यर्थ है।" (वही, पृ.47)।

अमरकांत के उपन्यासों में नारी जीवन की त्रासदी का मार्मिक अंकन मिलता है। यदि स्त्री के संबंध में सामंती सोच को संक्षेप में सूत्रबद्ध करना हो तो वह यह है कि ‘न स्त्री स्वातंत्र्यमर्हति।’ अर्थात्‌ स्त्री को स्वतंत्रता का अधिकार नहीं है चूँकि वह कमजोर है, अबला है। पर अमरकांत यही मानते हैं कि स्त्री और पुरुष दोनों समान हैं। वे पूछते हैं कि "औरत मर्द में कोई ऊँचा नीचा थोड़े हैं? सभी बराबर हैं। जो काम मर्द कर सकते हैं, वही औरतें भी कर सकती हैं।" (आकाश पक्षी, पृ.79)।

सदियों से सामंती संस्कार ने स्त्री को शिक्षा से दूर रखा है क्योंकि स्त्री ने यदि शिक्षा प्राप्‍त कर ली तो वह रूढ़ियों के खिलाफ खड़ी हो सकती है। हमेशा यही कहा जाता है कि लड़कियाँ अधिकतर पढ़कर भी क्या करेंगी? कुछ लोग शिक्षा का गलत अर्थ निकालकर सुख-सुविधाओं के पीछे भागते हैं। वे पढ़-लिख जाएँगे और अपनी योग्यता का झूठा प्रदर्शन करेंगे। गलत कामों में समय को बरबाद करेंगे। ऐसे लोग स्त्रियों और पुरुषों दोनों में मिल जाएँगे। पर शिक्षा का यह अर्थ कतई नहीं है। अमरकांत शिक्षा का अर्थ स्पष्‍ट करते हुए कहते हैं कि "शिक्षा का मतलब है मेहनती बनना, पुरानी गलत बातों के खिलाफ संघर्ष करना। इसके बिना जीवन एकदम बेकार हो जाता है। शिक्षा गलत बातें नहीं सिखाती, वह जीवन को हमेशा ऊँचा उठाती है।" (वही, पृ.80)।

आज का मनुष्‍य़ यांत्रिक पुर्जा बन गया है। इस पर आक्रोश व्यक्‍त करते हुए अमरकांत कहते हैं, "हम लोगों में जो गिरावट आ गई है वह केवल हमारी ही वजह से। आज हम आजाद नहीं है, मशीन के पुर्जे हैं जिनके दिल नहीं है, मन में आकांक्षाएँ नहीं है, रंगीन भविष्‍य की उमंग भी नहीं है।" (वही)।

उपन्यासों की भाँति ही अमरकांत की कहानियाँ भी उल्लेखनीय हैं। उनकी कहानियों का कथ्य बहुत महत्वपूर्ण होता है तथा शिल्प बड़ा अनगढ़। उनमें जिंदगी की पकड़ बड़ी मजबूत है। वे स्थितियों को गहराई से उतारते हैं। वस्तुतः सामाजि विसंगतियों के प्रति उनका व्यंग्य बड़ा तीखा होता है। नामवर सिंह के अनुसार ‘मर्मस्पर्शी व्यंग्यात्मकता’ उनकी काहानियों की केंद्रीय विशेषता है। इस दृष्‍टि से उनकी कालजयी  कहानी ‘दोपहर का भोजन’ उल्लेखनीय है। विश्‍व की तीन चौथाई आबादी आज भी गरीब व पिछड़ी हुई है। अमरकांत ने ‘दोपहर का भोजन’ के माध्यम से इसी बात की पुष्‍टी की है। उन्होंने यह भी दर्शाया है कि भारतीय जनता गरीब होने पर भी विचलित नहीं होती। परिस्थितियों का डटकार सामान करती है। कुलमिलाकार यह कहा जा सकता है कि अमरकांत प्रगतिशील चिंतन को भारतीय स्म्दर्भ में अभिव्यक्‍त करने वाले सफल कथाकार हैं।


अमरकांत की ही भाँति श्रीलाल शुक्ल ने भी अपने साहित्य के माध्यम से सामाजिक विसंगतियों और विद्रूपताओं को उकेरा है। श्रीलाल शुक्ल हिंदी साहित्य जगत में ‘राग दरबारी’ के लेखक के रूप में विख्यात हैं। वे अपने व्यंग्य लेखन के लिए जाने जाते हैं परंतु उन्हें सिर्फ व्यंग्यकार के रूप में देखना न्याय संगत नहीं होगा। वस्तुतः वे यथार्थ को उद्‍घाटित करने के लिए, सच और झूठ के बीच के फर्क स्पष्‍ट करने के लिए व्यंग्य का सहारा लेते हैं। यही उनकी रचना प्रविधि है। समाज में फैली मक्कारी, पाखंड, झूठ, विडंबना, राजनैतिक अवसरवादिता आदि की तस्वीर खींचने की बाध्यता कभी साहित्यकार को कार्टूनिस्ट बनाती है तो कभी फोटोग्राफर, तो कभी गंभीर चिंतक। श्रीलाल शुक्ल भी ऐसे हैं। उनके बारे में बताते हुए गिरिराज किशोर कहते हैं कि "साहित्य के संदर्भ में वे उदारमना भी हैं और ईमानादार भी। नए से नए लेखकों के बारे में लिखने में वे संकोच नहीं करते। साथ ही प्रशंसा करने में भी वे कंजूस नहीं।" (श्रीलाल शुक्ल : जीवन ही जीवन)।

श्रीलाल शुक्ल का जन्म 31 दिसंबर, 1925 को लखनऊ जनपद के अतरौली गाँव में हुआ। 1947 में इलाहाबाद विश्‍वविद्‍यालय से स्नतक की उपाधि प्राप्‍त की। तत्पश्‍चात उन्होंने भारत सरकार की सेवा की। उनके प्रसिद्ध उपन्यास हैं - ‘सूनी घाट का सूरज’(1957), ‘अज्ञातवास’(1962), ‘राग दरबारी’(1968), ‘आदमी का जहर’(1972), ‘सीमाएँ टूटती हैं’(1973), ‘मकान’(1976), ‘पहला पड़ाव’(1987), ‘बिस्रामपुर का संत’(1998), ‘बब्बरसिंह और उसके साथी’(1999), ‘राग विराग’(2001)। ‘यह घर मेरी नहीं’(1979), ‘सुरक्षा और अन्य कहानियाँ’(1991), ‘इस उम्र में’(2003), ‘दस प्रतिनिधि कहानियाँ’(2003) उनके चर्चित कहानी संग्रह हैं। ‘अंगद का पाँव’(1958), ‘यहाँ से वहाँ’(1970), `मेरी श्रेष्‍ठ व्यंग्य रचनाएँ’(1979), ‘उमरावनगर में कुछ दिन’(1986), ‘कुछ जमीन में कुछ हवा में’(1990), ‘आओ बैठ लें कुछ देरे’(1995), ‘आगली शताब्दी का शहर’(1996), ‘जहालत के पचास साल’(2003) और ‘खबरों की जुगाली’(2005) उनकी प्रसिद्ध व्यंग्य रचनाएँ हैं। इसके अतिरिक्‍त ‘अज्ञेय:कुछ रंग और कुछ राग’(1999, आलोचना), ‘भगवतीचरण वर्मा’(1989, विनिबंध) और ‘अमृतलाल नागर’(1994, विनिबंध) भी उल्लेखनीय हैं।

श्रीलाल शुक्ल की रचनाओं का एक बड़ा हिस्सा गाँव के जीवन से संबंध रखता है। ग्रामीण जीवन के व्यापक अनुभव और निरंतर परिवर्तित होते परिदृश्‍य को उन्होंने बहुत गहराई से विश्‍लेषित किया है। यह भी कहा जा सकता है कि श्रीलाल शुक्ल ने जड़ों तक जाकर व्यापक रूप से समाज की छान बीन कर, उसकी नब्ज को पकड़ा है। इसीलिए यह ग्रामीण संसार उनके साहित्य में देखने को मिला है। उनके साहित्य की मूल पृष्‍ठभूमि ग्राम समाज है परंतु नगरीय जीवन की भी सभी छवियाँ उसमें देखने को मिलती हैं।

श्रीलाल शुक्ल ने साहित्य और जीवन के प्रति अपनी एक सहज धारणा का उल्लेख करते हुए कहा है कि "कथालेखन में मैं जीवन के कुछ मूलभूत नैतिक मूल्यों से प्रतिबद्ध होते हुए भी यथार्थ के प्रति बहुत आकृष्‍ट हूँ। पर यथार्थ की यह धारणा इकहरी नहीं है, वह बहुस्तरीय है और उसके सभी स्तर - आध्यात्मिक, आभ्यंतरिक, भौतिक आदि जटिल रूप से अंतर्गुम्फित हैं। उनकी समग्र रूप में पहचान और अनुभूति कहीं-कहीं रचना को जटिल भले ही बनाए, पर उस समग्रता की पकड़ ही रचना को श्रेष्‍ठता देती है। जैसे मनुष्‍य एक साथ कई स्तरों पर जीता है, वैंसे ही इस समग्रता की पहचान रचना को भी बहुस्तरीयता देती है।"

श्रीलाल शुक्ल की सूक्ष्म और पैनी दृष्‍टि व्यवस्था की छोटी-से-छोटी विकृति को भी सहज ही देख लेती है, परख लेती है। उन्होंने अपने लेखन को सिर्फ राजनीति पर ही केंद्रित नहीं होने दिया। शिक्षा के क्षेत्र की दुर्दशा पर भी उन्होंने व्यंग्य कसा। 1963 में प्रकाशित उनकी पहली रचना ‘धर्मयुग’ शिक्षा के क्षेत्र में व्याप्‍त विसंगतियों पर आधारित है। व्यंग्य संग्रह ‘अंगद का पाँव’ और  उपन्यास ‘राग दरबारी’ में श्रीलाल शुक्ल ने इसे विस्तार दिया है।

देश के अनेक सकारी स्कूलों की स्थिति दयनीय है। उनके पास अच्छा भवन तक नहीं है। कहीं कहीं तो तंबुओं में कक्षाएँ चलाती हैं, अर्थात न्यूतम सुविधाओं का भी अभाव है। वे इस पर टिप्पणी करते हुए कहते हैं कि "यही हाल ‘राग दरबारी’ के छंगामल विद्‍यालय इंटरमीडियेट कॉलेज का भी है, जहाँ से इंटरमीडियेट पास करनेवाले लड़के सिर्फ इमारत के आधार पर कह सकते हैं, सैनिटरी फिटिंग किस चिड़िया का नाम है। हमने विलायती तालीम तक देशी परंपरा में पाई है और इसीलिए हमें देखो, हम आज भी उतने ही प्राकृत हैं, हमारे इतना पढ़ लेने पर भी हमारा पेशाब पेड़ के तने पर ही उतरता है।"

विडंबना यह है कि आज कल अध्यापक भी अध्यपन के अलावा सब कुछ करते हैं। ‘राग दरबारी’ के मास्टर मोतीराम की तरह वे कक्षा में पढ़ाते कम हैं और ज्यादा समय अपनी आटे की चक्‍की को समर्पित करते हैं। ज्यादात्र शिक्षक मोतीराम ही हैं, नाम भले ही कुछ भी हो। ट्‍यूशन लेते हैं, दुकान चलाते हैं और तरह तरह के निजी धंधे करते हैं। छात्रों को देने के लिए उनके पास समय कहाँ बचता है?

श्रीलाल शुक्ल ने अपने साहित्य के माध्यम से समसामयिक स्थितियों पर करारी चोट की है। वे कहते हैं कि ‘आज मानव समाज अपने पतन के लिए खुद जिम्‍मेदार है। आज वह खुलकर हँस नहीं सकता। हँसने के लिए भी ‘लाफिंग क्लब’ का सहारा लेना पड़ता है। शुद्ध हवा के लिए आक्सीजन पार्लर जाना पड़ता है। बंद बोत्ल का पानी पीना पड़ता है। इंस्टेंट फुड़ खाना पड़ता है। खेलने के लिए, एक-दूसरे से बात करने के लिए भी वक्‍त की कमी है।’ कुलमिलाकर यह कह सकते हैं कि श्रीलाल शुक्ल के साहित्य में जीवन का संघर्ष है और उनका साहित्य सामाजिक सरोकारों से जुड़ा है।

अभिप्राय यह है कि अमरकांत और श्रीलाल शुक्ल दोनों ही सामाजिक सरोकारों से गहरे जुड़े हुए तथा सामाजिक विकृतियों से विचलित ऐसे कथाकार हैं जो चाहते हैं कि भावी पीढ़ियों को इससे बेहतर समाज विरासत में मिलें; इसके लिए इन दोनों रचनाकारों ने उदात्त जीवन मूल्यों के प्रति पाठक में बेचैनी पैदा करने का सार्थक प्रयास किया है। निस्संदेह ज्ञानपीठ पुरस्कार इन्हें साझे में दिए जाने के बजाय अलग - अलग पूरा - पूरा दिया जाता, तो अधिक न्यायसंगत होता।

बुधवार, 12 अक्टूबर 2011

आदिवासी विमर्श पर खोजपूर्ण सामग्री


पुस्तक-चर्चा 
"हिन्दी भारत"




भारत का समाज संभवतः दुनिया के सबसे पुराने समाजों में से एक है. यहाँ समय पर अनेक सभ्यताएँ आईं और धीरे धीरे यह देश एक संगम समाज के रूप में ऐतिहासिक, सांस्कृतिक, सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक जाने कितने परिवर्तन लंबी यात्रा के दौरान घटित हुए होंगे. इतने बड़े देश में कोई भी ऐसा परिवर्तन संभव नहीं जो इसके हर कोने अँतरे को आमूल चूल बदल डाले. इस महादेश में व्यापक से व्यापक परिवर्तन में भी कुछ-न-कुछ अन-छुआ, अन-पलटा रह जाना स्वाभाविक है. और जो इस तरह अन-छुआ, अन-पलटा रह जाता है वह विकास की दौड़ में, सभ्यता के सफर में पीछे छूट जाता है. समाज के इस तरह पीछे छूटे हुए समुदाय आज की भूमंडलीय दुनिया में कहीं खो न जाए इसीलिए अनकी पहचान करना, उनकी समस्याओं से रू-ब-रू होना, उनकी सांस्कृतिक विरासत का संरक्षण करना और विकास के लाभ उन तक पहुँचना किसी भी चेतनाशील साहित्यकार के सरोकारों में शामिल होना चाहिए. 

इन्हीं सरोकारों से प्रेरित है ‘संकल्य’ का अक्‍तूबर 2010 - मार्च 2011 संयुक्‍तांक जिसे जनजातीय भाषा, साहित्य और संस्कृति विशेषांक के रूप में प्रकाशित किया गया है. प्रधान संपादक प्रो.टी.मोहन सिंह की मुख्य चिंता जहाँ यह है कि हम गांधी से लेकर नाना साहब तक से परिचित हैं लेकिन सिद्धू, कान्हूँ, बिरसामुंडा, तेलंगा खाड़िया, बुधु भगत, तलक्कर बूँद, दुक्खन मांघी, तिलका मांघी, बिंद राय, सिंह राय, खाज्या नायिक, भीमा नायिक, सिनगी दयी, कैलीदई, अंबार दादा, कोमरम भीम, फूलोझानी, मांगी कुडा आदि आदिवासियों की क्रांति चेतना से परिचित नहीं हैं वहीं अतिथि संपादक प्रो.हेमराज मीणा की चिंता यह है कि दुर्भाग्य से दिशाहीन लोगों द्वारा आदिवासी विमर्श को लेकर बहुत घपला होता रहा है. आदिवासी और दलित विमर्श के अंतर का लोगों को पता ही नहीं है. आदिवासी के पास अपनी भाषा, अपनी सांस्कृतिक विरासत तथा अपनी गौरवशाली परंपरा रही है. आदिवासी समाज की सामाजिक और मानवशास्त्रीय संरचना एक भिन्न विषय है. आदिवासी समाज के साथ चतुर सुजान लोगों ने छल किया है. आदिवासी को छलकर उससे उसके मूल दर्शन को भी छीना गया है, साथ ही कुछ लोगों ने आदिवासी विकास के नाम पार समाज और देश के साथ प्रपंच भी किया है. इन दोनों ही प्रकार की चिंताओं का समाधान करने का इस विशेषांक में प्रयास दिखाई देता है. 

विशेषांक की सामग्री को सोलह खंडों में प्रस्तुत किया गया है जिनमें नौ खंड भारत के अलग अलग राज्यों अथवा अंचलों के आदिवासियों के जीवन और जनजातीय संस्कृति पर केंद्रित किए गए हैं. उदाहरण के लिए आंध्र प्रदेश की जनजातीय विरासत के संरक्षण की चर्चा करते हुए डॉ.गोरखनाथ तिवारी ने आंध्र प्रदेश के चौंथीस जनजातीय समुदायों पर केंद्रित जनजातीय संग्रहालय और जनजातीय अध्ययन केंद्र की स्थापना की जरूरत बताई है. दूसरी ओर पूर्वोत्तर भारत संबंधी खंड में प्रो.जगमल सिंह ने मणिपुर के पर्वतीय भाग में रहनेवाली 29 प्रमुख जनजातियों की सामुदायिक संस्कृति का विस्तृत परिचय दिया है. कृष्‍णकुमार यादव ने अंडमान-निकोबार के आदिवासियों के विलुप्‍त होने के खतरे से आगाह किया है जबकि डॉ.दीपेंद्र सिंह जाडेजा ने गुजरात के जनजातीय भाषा साहित्य का परिचय कराया है. इसी क्रम में मध्य प्रदेश के आदिवासी लोक साहित्य का जायजा लिया है डॉ.हीरालाल बाछौतिया ने. उन्होंने यह प्रतिपादित किया है कि आदिम जनजातियों का जीवन और लोक परस्पर इतना घुला मिला है कि एक के बिना दूसरा अधूरा है. उनका परिवेश वन प्रांतर का वह पेड़ है जिसके पत्ते अभी भी हरे हैं. यहाँ वह वन-फूल है जो अभी मुरझाया नहीं है. वहाँ जाकर अनुभव होता है. यह भी भारत है लेकिन हम इससे कितने कम परिचित हैं.

विभिन्न प्रांतों की जनजातियों पर केंद्रित सामग्री में सबसे अधिक महत्वपूर्ण और खोजपूर्ण वे आलेख प्रतीत होते हैं जिनमें आदिवासियों की भाषा का अध्ययन किया गया है. डॉ.रमण शांडिल्य ने अरुणाचल, प्रो.नंदकिशोर पांडेय ने परख जनजाती, डॉ.व्यासमणि त्रिपाठी ने अंडमान-निकोबार, डॉ.साईदा मेहरा ने भील जनजाती, डॉ.रामनिवास साहू ने छत्तीसगढ़, डॉ.दिगविजय कुमार शर्मा ने झारखंड की भाषाओं पर जो आलेख प्रस्तुत किए हैं वे इस दृष्‍टि से उल्लेखनीय हैं. 


वैसे आदिवासी भारत संबंधी आरंभिक खंड में प्रथम आलेख के रूप में प्रो.दिलीप सिंह के ‘जनजातीय भाषाओं से जुड़े़ कुछ सवाल’ की प्रस्तुति स्वतः ही यह सिद्ध कर देती है कि विशेषांक का दृष्‍टिकोण मूलतः भाषा केंद्रित ही है. प्रो.दिलीप सिंह ने इस बात पार अफ्सोस जाहिर किया है कि हमारी संपूर्ण जनजातीय भाषाओं और बोलियों पर अभी तक कोई परिचयात्मक ग्रंथ हिंदी में नहीं आ सका है. वे बताते हैं कि "भाषा की दृष्‍टि से भारत के आदिवासी समुदायों को पिछड़ा हुआ समझने की प्रवृत्ति भी हमारी अनभिज्ञता हैं. अपनी मातृभाषा-अस्मिता को सुरक्षित रखते हुए ये प्रांतीय मातृभाषा, राष्‍ट्रभाषा हिंदी अथवा अभिजात्य संपर्क भाषा अंग्रेज़ी का आवश्‍यकतानुसार व्यवहार करते हैं. कहने का तात्पर्य यह है कि भारत के कुछ आदिवासी जन समुदाय भाषा ज्ञान की दृष्‍टि से बहुत सचेत और दक्ष हैं. जैसे संथाली अपनी जनजातीय मातृभाषा के अतिरिक्‍त हिंदी जानता है. बोडो भाषी असमिया और हिंदी जानते हैं. नागा समुदाय के लोग अपनी नागा भाषा और नागामीज़ एवं हिंदी-अंग्रेज़ी जानते हैं.गोंड समाज गोंडी के अतिरिक्‍त मराठी या तेलुगु भी जानते हैं. भील समाज के लोग भीली के अतिरिक्‍त हिंदी और गुजराती जानते हैं."


प्रायः यह समझा जाता है कि राजस्थान का मीणा समुदाय पर्याप्‍त प्रगति कर चुका है, लेकिन भेंटवार्ता खंड में आंध्र प्रदेश के अतिरिक्‍त पुलिस महानिदेशक आर.पी.मीणा ने बताया है कि उच्च पदों को प्राप्‍त करनेवाले 2% लोगों के अलावा शेष मीणा समुदाय खेती से जुड़ा हुआ है और आज भी गरीबी, भुखमरी तथा बेरोजगारी का शिकार होकर अपराधवृत्ति को अपनाने के लिए विवश हैं. वे बताते हैं कि दो-तीन जिलों को छोड़कर बाकि समूचे राजस्थान में रहनेवाले मीणा समुदाय में रहनेवाले लोगों का विकास अभी तक नहीं हो पाया है.

विभिन्न आलेखों में अलग अलग आदिवासी समुदायों की सांस्कृतिक विशेषताओं को उजागर किया गया है और एक सीमा तक महिमा मंडित भी. डॉ.रमेशचंद मीणा ने अत्यंत प्रामाणिक ढंग से ‘हिंसा बनाम आदिवासी’ में यह प्रतिपादित किया है कि "विषमता, भूख और विस्थापन से त्रस्त आदिवासी - ‘बभुक्षितः किम्‌ न करोति पापम्‌’ के तहत नक्सली बनते हैं. झोपड़ी और महल की दूरी लगातार बढ़ रही है. वैश्‍विक बाजार में पहाड़ों की बोली लगाने की तैयारी है तो दूसरी तरफ लोक की आवाज दबाने के लिए संगीने तानी जा रही हों तब पूछा जा सकता है कि जलियांवाला से इसे किस तरह से अलग कहेंगे जबकि गांधी ने हजारों वर्ष पूर्व महावीरस्वामी के अहिंसा से पूरे विश्‍व को एक रास्ता बताया था तब अमेरिकी ताकत का प्रयोग क्यों कर किया जा रहा है?" आदिवासी विमर्श की केंद्रीय चिंता आज के समय में शायद यही होनी चाहिए.


एक खंड में आदिवासी साहित्य शीर्षक से सात कविताएँ प्रस्तुत की गई हैं. इनमें डॉ.शुभदा पांडेय, नरेंद्र राय, शशिनारायण स्वाधीन, डॉ.अनशुमन मिश्र की भी कविताएँ हैं. साथ ही कहानी खंड में डॉ.ब्रजवल्लभ मिश्र की कहानी ‘धन्नो’ को भी आदिवासी कहानी कहा गया है. इस प्रकार का वर्गीकरण भ्रामक प्रतीत होता है. ये रचनाएँ आदिवासी साहित्य नहीं है बल्कि इनमें आदिवासी विमर्श जरूर है. प्रकारांत से आदिवासी विमर्श शीर्षक खंड में प्रो.अर्जुन चव्हाण ने इस बात की ओर इशारा किया भी है. आगे उन्होंने इसे दुर्भाग्य माना है आदिवासी समाज में आज तक एक भी महिला उपन्यासकार पैदा नहीं हुई. इस खंड में साहित्य की विभिन्न विधाओं की पड़ताल आदिवासी विमर्श के संदर्भ में की गई है जिससे इस दिशा में शोध के नए आयामों का पता चलता है. अंत में एक पुस्तक की समीक्षा दी गई है. संजय चतुर्वेदी द्वारा जनजाती नृत्य करमा पर केंद्रित पुस्तक के बारे में डॉ.श्रीप्रकाश शुक्ल ने याद दिलाया है कि करमा के पीछी कर्म में रत रहने की विशिष्‍ट इच्छा है जिसे करम अर्थात कदंब के वृक्ष के माध्यम से सांकेतिक रूप से प्रकट किया जाता है.

निःसंदेह ‘संकल्य’ का यह विशेषांक अपनी शोधपूर्ण सामग्री और व्याप्‍क विमर्श के कारण कई किताबों पर भारी है. अतः बार बार पढ़ने योग्य और सहेज रखने लायक है. मुद्रण और संपादन के साथ साथ नरेंद्र राय का बहुरंगी आवरण चित्र भी प्रशंसनीय है.


संकल्य (त्रैमासिक)/ 

वर्ष 38, अंक 4, एवं वर्ष 39, अंक 1/ अक्तूबर 2010-मार्च 2011 (संयुक्‍तांक)/ 
प्रधान संपादक - प्रो.टी.मोहन सिंह/ अतिथि संपादक - प्रो.हेमराज मीना/
कार्यालय - प्लॉट नं. 10, रोड नं 6, समतापुरी कॉलोनी, न्यू नागोल के पास, हैदराबाद - 500 035

--
Posted to "हिन्दी भारत"

सोमवार, 26 सितंबर 2011

व्यापक सरोकार वाले कथाकार त्रिपुरनेनी गोपीचंद




त्रिपुरनेनी गोपीचंद (08 सितंबर, 1910 - 02 नवंबर, 1962) तेलुगु के सुप्रसिद्ध साहित्यकार हैं. वे कहानीकार, उपन्यासकार, नाटककार और निबंधकार के साथ साथ सिनेमा निर्देशक के रूप में भी प्रसिद्ध हैं. उनकी मान्यता है कि साहित्य मनोरंजन का साधन नहीं बल्कि जनकल्याण का साधन है. इसीलिए उन्होंने समाज और जीवन से संबंधित सच्चाइयों को उजागर करने के लिए साहित्य को माध्यम बनाया और जनता को सोचने तथा विचारने के लिए मजबूर किया. उनका कथन है कि "वस्तु-शिल्पाललो वस्तुवु कोसमे शिल्पमु. विनोदमु साहित्य प्रयोजनम कादु. अदि सामाजिक मार्पुकु दोहदकारी." (वस्तु और शिल्प दोनों में शिल्प वस्तु के लिए है. मनोरंजन साहित्य का प्रयोजन नहीं है. अपितु वह सामाजिक परिवर्तन का द्‍योतक है.).

गोपीचंद का जन्म 08 सितंबर, 1910 को अंगलूरु (कृष्‍णा जिला, आंध्र प्रदेश) नामक गाँव में हुआ. उनके पिता त्रिपुरनेनी रामस्वामि चौधरी तेलुगु साहित्य में आधुनिक हेतुवाद के प्रवर्तक के रूप में जाने जाते हैं. रामस्वामि चौधरी ने ‘सूताश्रम’ की स्थापना करके हेतुवाद का प्रचार-प्रसार किया. इस प्रकार गोपीचंद को हेतुवाद अपने पिता से विरासत में प्राप्‍त हुआ.

बचपन से ही गोपीचंद जिज्ञासु थे अतः हर विषय को तर्क तथा खंडन-मंडन के सहारे समझने का प्रयास करते थे. उन्होंने अपने आप को पाठ्‍य पुस्तकों तक सीमित नहीं रखा. उन्होंने अपना ज्ञान बढ़ाने के लिए भारतीय एवं पाश्‍चात्य विद्वानों की रचनाओं का अध्ययन किया. उन पर महात्मा गांधी, अरविंद, रवींद्रनाथ टैगोर, शरतचंद्र, प्रेमचंद, उन्नव लक्ष्मीनारायण, बर्नार्डशा, बर्टरेंड रसल, शेक्सपियर, कार्ल मार्क्स, स्काट और ह्यूम्स आदि का प्रभाव दिखाई देता है. पर उन्होंने कभी किसी का अंधानुकरण नहीं किया.

गोपीचंद भी अन्य रचनाकारों की भाँति अपने परिवेश से जुड़े साहित्यकार हैं. अतः उनकी रचनाओं में गाँव से लेकर शहर तक का परिवेश दिखाई देता है.

पेशे से वे वकील थे. दरअसल 1937 में मद्रास विश्‍वविद्‍यालय से बी.एल. की उपाधि प्राप्‍त करने के बाद उन्होंने वकील के रूप में अपना जीविकोपार्जन शुरू किया था, परंतु वे उस क्षेत्र में ज्यादा दिन टिक नहीं सके क्योंकि केस जीतने के लिए न्याय को अन्याय के रूप में तथा अन्याय को न्याय के रूप में साबित करना उन्हें पसंद नहीं आया और इसलिए उन्होंने वकालत छोड़ दी.

गोपीचंद ने राजनीति में भी सक्रिय रूप से भाग लिया. इसके अतिरिक्‍त 1953 में जब अलग राज्य के रूप में आंध्र प्रदेश की स्थापना हुई और कर्नूल को आंध्र की राजधानी बनाया गया तो उस समय गोपीचंद समाचार विभाग के निर्देशक बने. लेकिन इस काम में भी वे रम नहीं सके. अतः इसे भी तिलांजलि देकर जीवन भर अपने प्रिय साहित्यिक क्षेत्र में सक्रिय रहे.

संवेदनशील साहित्यकार के रूप में त्रिपुरनेनी गोपीचंद ने देखा कि समसामयिक समाज में अंधविश्‍वास, असमानताएँ, विसंगतियाँ, मूल्यह्रास और विद्रूपताएँ चारों ओर व्याप्‍त हैं. इनके उन्मूलन हेतु उन्होंने अनेक कहानियों, उपन्यासों और नाटकों का सृजन किया. उनकी मान्यता थी कि जब तक जनता जागृत नहीं होगी तब तक सामाजिक विसंगतियों का उन्मूलन संभव नहीं होगा. उन्होंने नाटक, उपन्यास और कहानियों के माध्यम से जनता को चेताया तथा तेलुगु कथा-साहित्य को एक नया मोड़ दिया. यों तो बचपन से ही साहित्यिक परिवेश प्राप्‍त होने के कारण उन्होंने विद्‍यार्थी जीवन में ही कहानियाँ लिखना शुरू किया था लेकिन 1933 में छ्पी ‘ओलंपियस’ उनकी पहली प्रकाशित कहानी है.

गोपीचंद ने 1947 में ‘आंध्र ज्योति’ (मासिक पत्रिका) में प्रकाशित कहानी ‘बीदलंता ओकटे’ (गरीब सब एक हैं) के माध्यम से कार्ल मार्क्स के सिद्धांतों को प्रत्पादित किया. इस कहानी में लेखक ने श्रमिक वर्ग की बेबसी, उनके जीवन संघर्श और अन्याय के प्रति उनके विद्रोह को बखूबी रेखांकित किया है. उनकी कहानी ‘अर्रुचाचिना एद्‍दु’ (बूढ़ा बैल) वृद्धावस्था विमर्श की स्शक्‍त प्रस्तुति है. बूढ़े बैल का स्वगत कथन इस प्रकार है - "नेनुइप्पुडु मुसलिदान्नि अय्यानु. कालु तीसी कालु वेय्यलेनु. लेचि निलबडटमे कष्‍टंगावुंदी. आकली अनेदी उंटुंदी. अदि शरीरम उन्नंतकालम उंटुंदिकाबोलु. ... ना यजमानि तंड्रि चाला मंचिवाडु. अंटे पातकालम मनिषि. ना मनस्सुलो वुन्नाकष्‍टम आयनकु तेलिसिनट्‍लुगा एवरिकी तेलियदु. एंदुकंटे प्रस्तुतम आयना अनुभवम कूडा इंचुमिंचु ना अनुभवानिकी मल्लने वुंदि. मेमु एंदुकु ब्रतुकुतुन्नामो इतरुलकु तेलियदु. माकू तेलियदु." (मैं बूढ़ा हो गया हूँ. मेरे अंदर ताकत भी नहीं बची. खड़े रहना भी मुश्‍किल हो रहा है. भूख लगती है. यह शरीर जब तक रहेगा तब तक भूख भी रहेगी. ... मेरे मालिक के पिताजी भलेमानुस हैं. वे पुराने विचारों वाले हैं. ....मेरे मन की व्यथा को वे अच्छी तरह समझते हैं. चूँकि उनका और मेरी अनुभव एक समान है. हम क्यों जी रहे हैं हमारे अलवा कोई नहीं जानता. शायद हम भी नहीं.).

कहानीकार के रूप में गोपीचंद की प्रसिद्धी अप्रतिम है. उन्होंने तीन सौ से अधिक कहानियों का सृजन किया. उनकी कुछ प्रमुख कहानियाँ हैं - ‘देशमेमैयेटट्‍टू?’ (देश का क्या होगा?), ‘पिरिकिवाडु’ (डरपोक), ‘भार्यल्लोने उंदि’ (पत्‍नियों में ही है), ‘इरुगु-पोरुगु’ (अडोस-पडोस), ‘गोडमीदा मूडोवाडु’(दीवार पर तीसरा व्यक्‍ति) आदि.

गोपीचंद ने सामाजिक, राजनैतिक और मनोवैज्ञानिक विषयों से संबंधित अनेक उपन्यास भी रचे. 1943 में प्रकाशित ‘परिवर्तना’ (परिवर्तन) उनका पहला उपन्यास है. इस उपन्यास का नायक राजाराव अपनी पत्‍नी की मृत्यु को सहन नहीं कर पाता. वह इतना व्याकुल हो जाता है कि दिन-ब-दिन उसका स्वास्थ्य बिगड़ जाता है और वह रोग ग्रस्त हो जाता है. कथा में नाटकीय मोड़ तब आता है जब मृत्यु शय्या पर लेटे राजाराव के मन में अचानक जीने की इच्छा प्रबल हो उठती है और वह तनाव की स्थिति से मुक्‍त हो जाता है. इस उपन्यास के माध्यम से लेखक ने यह स्पष्‍ट किया है कि जीवन गतिशील है.

1947 में प्रकाशित ‘असमर्थुनी जीवयात्रा’ (असमर्थ की जीवन यात्रा) गोपीचंद का दूसरा उपन्यास है. इस मनोवैज्ञानिक उपन्यास के माध्यम से उन्होंने मानव जीवन की अनेक परतों को उजागर किया है. इस उपन्यास का प्रमुख पात्र सीताराम उच्चता ग्रंथि से ग्रसित है. वह अपने मरणासन्न पिता को वचन देता है कि वंश की प्रतिष्‍ठा बनाए रखेगा. अपने पिता को दिए वचन को निभाते निभाते सीताराम पूरी तरह कंगाल हो जाता है. पापी पेट को पालने के लिए विवश होकर वह अंततः नौकरी करता है. लेकिन किसी के अधीन काम करने से उसके अहं को ठेस पहुँचती है इसलिए वह नौकरी छोड़ देता है. आर्थिक अभाव के कारण वह कम उम्र में ही मानसिक रोगी बन जाता है और आत्महत्या कर लेता है. इस उपन्यास के माध्यम से गोपीचंद ने यह स्पष्‍ट किया है कि उतार-चाढ़ाव का नाम ही जीवन है. इस समाज में स्वस्थ जीवन जीने के लिए अहं और राग-द्वेष को तजकर कर्मशील रहना आवाश्‍यक है. कहा जाता है कि गोपीचंद ने इस उपन्यास में अपने निजी अनुभवों को अभिव्यक्‍ति दी है.

1960 में प्रकाशित उपन्यास ‘पिल्ला तेम्मेरा’ (फुरवाई) के माध्यम से त्रिपुरनेनी गोपीचंद स्त्री की उच्छृंकल मनोवृत्ति को दर्शाया है. इसी प्रकार 1961 में प्रकशित उपन्यास ‘पंडित परमेश्‍वर शास्त्री वीलुनामा’ (पंडित परमेश्‍वर शास्त्री की वसीयत) एक सामाजिक उपन्यास है. इस उपन्यास के लिए गोपीचंद को साहित्य अकादमी पुरस्कार प्राप्‍त हुआ. उनके अन्य बहुचर्चित उपन्यास हैं - ‘शिथिलालयम’ (खंडहर), ‘गतिंचिन गतम’ (बीता हुआ कल), ‘यमपाशम’ (यमपाश), ‘चीकटी गदुलु’ (अंधेरे कमरे) और ‘मेरुपु मरकलु’ (बिजली के धब्बे) आदि.

‘गुड्डी संघम’ (अंधा समाज), ‘अभागिन’, ‘तत्वमसी’, ‘मालपल्ली’ (भंगियों का गाँव) आदि गोपीचंद के सामाजिक नाटक हैं. उनके ‘सोशलिस्टु उद्‍यम चरित्र’ (समाजवादी आंदोलन का इतिहास), ‘पट्टाभिगारी सोशलिज्म’ (पट्टाभिजी का समाजवाद), ‘कम्यूनिज्म अंटे एमिटी?’ (कम्यूनिज्म का क्या अर्थ है?), ‘प्रजा साहित्यमु’ (प्रजा साहित्य) जैसे विचारोत्तेजक लेखों ने जनमानस को चेताया.

गोपीचंद के साहित्य में एक ओर सामाजिक और राजनैतिक विद्रूपताओं का अंकन है तो दूसरी ओर आधुनिकता और परंपरा की टकराहट है. मृत्युबोध और पीढ़ी अंतराल के साथ साथ उनके साहित्य में स्त्री विमर्श, दलित विमर्श, पर्यावरण विमर्श, अल्पसंख्यक विमर्श और वृद्धावस्था विमर्श भी उल्लेखनीय हैं. भाषा और शिल्प की दृष्‍टि से भी गोपीचंद का साहित्य विलक्षण है.

यह पहले भी बताया गया है कि गोपीचंद सिनेमा निर्देशक भी थे. उन्होंने ‘रैतुबिड्डा’ (किसान पुत्र), ‘गृहप्रवेशम’ (गृहप्रवेश), ‘गृहलक्ष्मी’ (गृहणी), ‘चदुवुकुन्ना अम्माइलु’ (शिक्षित लड़कियाँ) आदि चलचित्रों के संवाद लिखे तक ‘प्रियुरालु’ (प्रेयसी) और ‘लक्षम्मा’ आदि चित्रों का निर्देशन किया.

गोपीचंद सफल कथाकार, नाटककार, निबंधकार और फिल्म निर्देशक तो हैं ही. उन्होंने अपने आप को सफल संपादक के रूप में भी प्रतिष्‍ठित किया. एम.एन.राय के नेतृत्व में ‘रेडिकल पार्टी’ का आविर्भाव हुआ तो कुछ समय तक गोपीचंद ने रेडिकल पार्टी के सचिव के रूप में भी अपनी सेवाएँ दीं और तेलुगु पत्रिका ‘रेडिकल’ का संपादन भी किया. उनके संपादकीय जनमानस को झकझोरने की दृष्‍टि से सफल माने जाते हैं. वस्तुतः गोपीचंद मानववादी साहित्यकार हैं. और आज भी उनकी रचनाएँ प्रासंगिक हैं.

गुरुवार, 15 सितंबर 2011

दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा में हिंदी दिवस





हिंदी-दिवस जनभाषा की गौरव-प्रतिष्ठा का दिन है - डॉ. राधेश्याम शुक्ल 

हैदराबाद, १४ सितंबर २०११.

आज यहाँ दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा के अंतर्गत उच्च शिक्षा और शोध संस्थान , बी एड प्रशिक्षण महाविद्यालय तथा हिंदी प्रचारक प्रशिक्षण महाविद्यालय ने संयुक्त रूप से हिंदी समारोह  मनाया जिसके अंतर्गत स्वतंत्र वार्ता के संपादक एवं भाषा चिंतक डॉ. राधेश्याम शुक्ल का विशेष व्याख्यान आयोजित  किया गया.

अपने संबोधन में डॉ. राधेश्याम शुक्ल ने विस्तार से भारत के भाषा परिदृश्य की व्याख्या करते हुए यह स्पष्ट किया कि हिंदी कोई क्षेत्रीय या साम्प्रदायिक भाषा नहीं है बल्कि ऐतिहासिक दृष्टि से ''हिंदी'' शब्द सभी भारतीय भाषाओँ  का द्योतक  है. उन्होंने  भाषा और संस्कृति के अटूट सम्बन्ध की चर्चा करते हुए यह प्रतिपादित किया कि भारत की संस्कृति संगम-संस्कृति है तथा हिंदी उस को अभिव्यक्त करने वाली संगम-भाषा है.

डॉ. राधेश्याम शुक्ल ने जोर देकर कहा कि हिंदी-दिवस इस कारण अत्यंत गौरवशाली राष्ट्रीय पर्व है कि इस दिन दुनिया भर में पहली बार किसी जनभाषा को राष्ट्र की  राजभाषा का संवैधानिक दर्ज़ा मिला.उन्होंने हिंदी के व्यापक प्रचार-प्रसार के लिए दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा की सेवाओं को अतुलनीय मानते हुए इसके समर्पित हिंदी कार्यकर्ताओं की सराहना की.

समारोह की अध्यक्षता उच्च शिक्षा और शोध संस्थान के अध्यक्ष प्रो. ऋषभ देव शर्मा ने की. संपर्क अधिकारी एस के हलेमनी, सचिव डॉ. पी ए राधाकृष्णन , बी एड कालिज की प्राचार्य डॉ. सीता नायुडू तथा प्रचारक प्राचार्य डॉ उमा रानी ने भी छात्रों और शोधार्थियों को संबोधित किया.

आरम्भ में सरस्वती-दीप प्रज्वलित किया गया और छात्राध्यापिकाओं ने मंगलाचरण किया.ए जी श्रीराम , डॉ. साहिरा बानू बोरगल एवं अन्य प्राध्यापकों ने अतिथियों का स्वागत किया.डॉ. बलविंदर कौर ने भारत के गृह मंत्री पी. चिदंबरम के संदेशका वाचन किया.

इस अवसर पर दूरस्थ शिक्षा निदेशालय के सहायक निदेशक डॉ. पेरीशेट्टी श्रीनिवास राव को आंध्र प्रदेश हिंदी अकादमी का युवा हिंदी लेखक  पुरस्कार प्राप्त होने के उपलक्ष्य में सम्मानित भी किया गया. 

समारोह का संचालन डॉ. जी. नीरजा ने तथा संयोजन डॉ. मृत्युंजय  सिंह ने किया.  राष्ट्रगान के साथ समारोह संपन्न हुआ. 

मंगलवार, 13 सितंबर 2011

प्रतिष्‍ठित कवयित्री डॉ.कविता वाचक्नवी की हिंदी कविताओं का तमिल अनुवाद




प्रतिष्‍ठित कवयित्री डॉ.कविता वाचक्नवी की निम्नलिखित तीन हिंदी कविताओं का तमिल अनुवाद 

  • साधना (अनु. साधनै)
  • गौरैया (अनु. अन्ना पिरवै)
  • अभ्यास (अनु. पयिर्चि)
हिंदी कविता 
साधना 

एक मछली सुनहरी
ताल के तल पर ठहरी
ताकती रही रात भर
दूर चमकते तारे को.


ब्राह्‍ममुहूर्त में 
गिरी एक ओस बूँद
गिरा तारे का आँसू
मछली के मुँह में 
पुखराज बन गया.


तमिल अनुवाद
साधनै

ओरु तंग निरमुल्ला मीनु
इरैवेल्लाम मिन मिनिक्कुम नक्षत्तिरत्तै
ओयामल पार्तुकोंड्रु
कोलत्तोरमा निंड्रदु.


ब्राह्‍ममुहूर्तत्तिल
वानत्तिलंदु ओरु पनि तुलि विलुंददु
नक्षत्तिरत्तिन कन्नीर 
मीनिन वाइल पुगुंदु
पुष्यरागामाइ मारिनदु.


हिंदी कविता
गौरैया

धूप के मुहाने पर
पाँव रख 
छोटी - सी गौरैया एक
खड़ी हो जाती है.
धूप समझती 
चिड़िया के पंखों का विस्तार भी
समेट लिया मैंने
और सोचती है चिड़िया
रोक सकती हूँ धूप
मैं अभी
ठहर जाऊँ यदि - तब भी
डरती है धूप 
मेरी छाया तक से भी.


तमिल अनुवाद
अन्ना पिरवै

वेइलिन वासलिले
काल वैइत्तु 
निक्कुम
ओरु अन्ना पिरवै.
वेइलिन योसनै इदु - 
अन्ना पिरवैइन रेक्खैगलै
नान इरिक्कि अनैत्तुकोल्वेन
आनाल अन्ना पिरवैइन सिंधनै इदु - 
इंद वेइलै निरुत्तिविडुवेन
नान इप्पोलुदे 
निरिंदिविट्टालुम - 
वेइल भयंदिविडुम
एन निललै पार्तु.


हिंदी कविता
अभ्यास

भोर का 
चिड़ियों की चह्‌ - चह्‌ का
जिन्हें अभ्यास हो
रात्रि का निर्जन अकेलापन
उन्हें
कैसे रुचे ?


तमिल अनुवाद
पयिर्चि

पोलुदु विडिंददुम
परवैगलिन ची... ची... नादत्तुडन
विलयाडुम मनिदनुक्कु
रात्रियिन निशब्द तनिमै
अवर्गलक्कु
रुचुक्कुमा ? 








मंगलवार, 6 सितंबर 2011

साहित्य और भाषा सबसे निकटस्थ शिक्षक हैं - प्रो.दिलीप सिंह










हैदराबाद, ६ सितम्बर,२०११.

साहित्य और अन्य विषयों की शिक्षा में एक मूलभूत अंतर यह है कि साहित्य में व्यक्‍तित्व विकास और जीवन मूल्यों की शिक्षा अंतर्निहित रहती है जबकि अन्य विषयों के बारे में ऐसा नहीं कहा जा सकता. इसलिए हामारे जीवन में साहित्य के शिक्षक का महत्व अपेक्षाकृत अधिक होता है. वह साहित्य में निहित उच्च मानवीय गुणों के प्रति हमारे मन को उन्मुख और संस्कारित करता है. यह संभव है कि कोई विशेष जीवन मूल्य स्वयं शिक्षक में विद्‍यमान न हो तो भी साहित्य के माध्यम से छात्र के मन उसे जगाया जा सकता है. यहाँ हम हिंदी साहित्य की चर्चा कर सकते हैं कि किस प्रकार पद्‍मावत में शिक्षक का प्रतीक हीरामन तोता जीवन और अध्यात्म से जुड़ी पते की बातें करता है. इसी प्रकार कबीर, तुलसी और रहीम के दोहों के माध्यम से बड़ी सहजता से नैतिक शिक्षा दी जा सकती है. साहित्य में प्रकट और परोक्ष रूप से शिक्षा के सूत्र समाए हुए हैं. अगर कोई साहित्यकार प्रकृति का वर्णन करता है तो वह नदी, समुद्र, वृक्ष और बादल तक को शिक्षक बना देता है कि कैसे इनके माध्यम से परमार्थ और परोपकार जैसी उदार चीज़ें सीखी जा सकती है. यही कारण है कि बचपन से ही कोई भी साहित्यिक पाठ पढ़ाने के बाद हम से यह पूछा जाता है कि इस पाठ से आपको क्या सीख मिली. गणित या अर्थशास्त्र अथवा अन्य किसी विषय के पाठ में ऐसा नहीं होता. इसलिए साहित्य का छात्र भाग्यशाली है कि वह शिक्षक और पाठ दोनों के माध्यम से जीवन को श्रेष्‍ठ बनाने की शिक्षा प्राप्‍त कर सकता है.

ये विचार दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा के कुलसचिव प्रो.दिलीप सिंह ने यहाँ सभा के खैरताबाद परिसर में आयोजित उच्च शिक्षा और शोध संस्थान के शिक्षक दिवस समारोह में अध्यक्ष पद से बोलते हुए व्यक्‍त किए. प्रो.सिंह ने आगे कहा कि साहित्य की ही भाँति भाषा भी हमारा शिक्षक है. उन्होंने कहा कि भाषा में सामाजिक और सांस्कृतिक अनेक ऐसे पहलू निहित होते हैं जिन्हें सीखकर हम लोक व्यवहार के साथ साथ व्यक्‍तित्व निर्माण के लक्ष्‍य को भी प्राप्‍त कर सकते हैं. उन्होंने ध्यान दिलाया है सभी भाषाओं के साहित्य में अनेक ऐसे पात्र मौजूद हैं जो हमें जीवन संघर्ष की शिक्षा देते हैं तथा हताशा के क्षणों में हमारे काम आते हैं. यदि प्राचीन साहित्य को छोड़ भी दें तो आज के कहानी और उपन्यासों में भी शिक्षा का यह गुण मिल जाएगा. प्रो.दिलीप सिंह ने याद दिलाया कि प्रेमचंद के उपन्यास ‘रंगभूमि’ का सूरदास अंधा अनपढ़ भिखारी होते हुए भी बहुत बड़ा अनाऔपचारिक शिक्षक है जो हमें समाज के लिए कुछ सार्थक कार्य करने की प्रेरणा देता है. डॉ.दिलीप सिंह ने बताया कि भाषा और साहित्य हमारे सबसे अधिक निकट सबसे बड़े शिक्षक है क्योंकि इनसे हम जीवन को सुंदर बनाने के रास्ते सीख सकते हैं अतः साहित्य को परीक्षा लिखने अथवा शोधग्रंथ रचने के लिए ही नहीं, जीवन और समाज को सार्थक बनाने की शिक्षा प्राप्‍त करने की दृष्‍टि से भी पढ़ना चाहिए.

इस अवसर पर संस्थान के छात्रों और शोधार्थियों ने वि्भागाध्यक्ष प्रो.ऋषभदेव शर्मा सहित सभी अध्यापकों डॉ.साहिरा बानू बी. बोरगल, डॉ.जी.नीरजा, डॉ.बलविंदर कौर, डॉ.गोरखनाथ तिवारी और डॉ.मृत्युंजय सिंह का उत्तरीय, स्मृति चिह्‍न, पुष्‍प गुच्छ और उपहार देकर सम्मान एवं अभिनंदन किया.



शुक्रवार, 2 सितंबर 2011

डॉ. कविता वाचक्नवी और डॉ. राधेश्याम शुक्ल का सम्मान समारोह


हैदराबाद, ३० अगस्त २०११ .

दोपहर के समय  डॉ.अहिल्या मिश्र का फोन आया. सूचना मिली कि  शाम को ठीक साढ़े चार बजे आथर्स  गिल्ड ऑफ़ इण्डिया के हैदराबाद चैप्टर की विशेष बैठक है. पहुँचने पर पता चला दो विद्वानों का सम्मान समारोह था. एक तो डॉ कविता वाचक्नवी जी जो कुछ ही दिन के लिए लन्दन से आई थीं . दूसरे डॉ. राधेश्याम शुक्ल जिन्हें दो दिन पहले ही कमला गोइन्का फाउंडेशन ने पत्रकार शिरोमणि का ५१ हज़ार का पुरस्कार दिया था.

मंच पर दोनों सम्माननीय अतिथियों के साथ विशेष अतिथि प्रो.ऋषभदेव शर्मा , डॉ. एम् प्रभु , मधुसूदन सोंथालिया और अध्यक्ष डॉ. अहिल्या मिश्र बैठीं. खूब भावभीना स्वागत हुआ. बाद में  हास्य व्यंग्य   के महारथी वेणुगोपाल की अध्यक्षता में ''कविता की एक शाम डॉ. कविता के नाम'' का आयोजन हुआ. कई भाषाओँ की कविताएँ सुनने का मौका मिला. बहुत अच्छा लगा. मुझे भी काव्य पाठ के लिए बुलाया गया. मैंने कविता जी की तीन छोटी कविताओं का तमिल अनुवाद प्रस्तुत किया, तो सबने खूब आशीर्वाद दिया. कविता जी को अनुवाद पसंद आया इससे मुझे संतोष हुआ ; नहीं तो मैं तो डरी हुई थी.

मैं इस साहित्यिक शाम को भूल न सकूँगी.                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                         

बुधवार, 27 जुलाई 2011

‘नानीलु’ के प्रवर्तक प्रो.एन.गोपि



"समय है एक धागा
है कहाँ आखिरी सिरा
ढूँढ़ते जाना ही तो
जिंदगी है." (एन.गोपि, नन्हे मुक्‍तक)

‘नानीलु’ नामक नन्हीं कविता के प्रवर्तक तेलुगु कवि एन.गोपि का जन्म 25 जून, 1948 को नलगोंडा जिले के भुवनगिरि में हुआ. उनका वास्तविक नाम गोपाल है. उनकी माता का नाम लक्ष्मम्मा है और पिता का नाम चिन्नय्या. गोपि ग्राम जीवन और लोक संस्कृति के प्रति समर्पित एक ऐसे कवि हैं जिनकी कविताएँ वैविध्यपूर्ण एवं बहुआयामी हैं. वे अपनी जमीन से इस तरह से जुड़े हुए हैं कि उनकी कविताओं में मिट्टी का सोंधापन पाठकों के मन-मस्तिष्क को सहज ही आप्‍लावित करता है.

प्रो.गोपि के प्रमुख काव्य संग्रह हैं - तंगेडु पूलु (पीले फूल, 1976), मैलुराई (मील का पत्थर, 1982), चित्र दीपालु (रंगीन दीप, 1989), वंतेना (सेतु, 1993), कालान्नि निद्रपोनिव्वनू (समय को सोने नहीं दूँगा, 1998), नानीलू (नन्हे मुक्‍तक, 1998), एंडपोडा (धूप, 2002), जलगीतम्‌ (जलगीत, 2002) आदि. इनमें से अधिकांश काव्य संग्रह किसी न किसी संस्था द्वारा पुरस्कृत हैं : तंगेडु पूलु - आंध्र महिला सभा द्वारा देवुलपल्ली कृष्णशास्त्री पुरस्कार (1980); मैलुराई - प्रिवर्स फ्रंट अवार्ड, (1982); चित्रदीपालु - डॉ.सी.नारायण रेड्डी कविता पुरस्कार, (1990); वंतेना - अमलापुरम्‌ लेखक संघ द्वारा सरसम पुरस्कार, (1994); कालान्नि निद्र्पोनिव्वनू - केंद्रीय साहित्य अकादमी पुरस्कार,(2001).

‘नानीलु’ (नन्हे मुक्‍तक) के कारण डॉ.गोपि तेलुगु कविता के क्षेत्र में ट्रेंड सेटर के रूप में प्रसिद्धि प्राप्‍त कर चुके हैं. वस्तुतः नन्हे मुक्‍तक छोटी कविताएँ हैं, पर बहुत छोटी भी नहीं. इस संदर्भ में कवि ने स्वयं कहा है कि "बिना अतीव कसावट और बिना अनावश्‍यक ढिलाई के साथ नानी (नन्हा मुक्‍तक) मेरे द्वारा रूपायित 20-25 अक्षरोंवाला एक ढाँचा है, एक छंद है. इनमें अक्षरों की संख्या 20 से कम नहीं, और 25 से अधिक नहीं. नानी माने मेरे (ना; नावि = मेरे) और तेरे (नी; नीवी = तेरे) हैं. मतलब है हम सब के. नानी माने नन्हा बच्चा भी है. ये भी नन्ही कविताएँ हैं न! इनमें मैंने चार चरणों के ही नियम का पालन किया. चरणों के विभाजन में ‘वचन कविता’ के अंतर्गत जो संगीत है वह इन में नहीं है. फिर भी निर्माण की दृष्‍टि से इन में भी नियमबद्धता देखी जा सकती है. कुछ नन्हे मुक्‍तक ऐसे हैं जिनके दो दो चरणों में एक एक भाव का अंश निहित है. इनमें प्रथम दो चरणों में एक भाव का अंश है तो अंतिम दो चरणों में दूसरा. प्रथम भावांश का समर्थन करते हुए या उस की सार्थकता का प्रतिपादन करते हुए दूसरा भावांश रहता है :
"घड़ा फूट गया
कुढ़ते हो क्यों? 
माटी दूसरा रूप लेने की
कर रही है तैयारी."

इस मुक्‍तक में प्रथम भावांश का समर्थन दूसरा भावांश कर रहा है."

गोपि हमेशा मनवता पर जोर देते हैं. वे निराडंबर जीवन व्यतीत करने में आस्था रखते हैं. वे मिलनसार और संवेदनशील व्यक्‍ति हैं. उनका हृदय इतना कोमल है कि समाज में व्याप्‍त विसंगतियों, विद्रूपताओं, मूल्यह्रास और अपसंस्कृति को देखकर विचलित हो जाता है. इसीलिए तो उनका कवि हृदय कहता है - "इंसानों के बीच/ रुपय्या ही गर पुल है/ तो इंसानियत का/ तो समझो काम तमाम." (नन्हे मुक्‍तक).

गोपि अपने भावों और विवारों को कविता के माध्यम सी अभिव्यक्‍ति करते हैं. उनके लिए तो कविता ही सब कुछ है. एक ‘पैशन’ है. अतः वे कहते हैं - "सब के सो जाने पर/ चोरी से टी.वी. देखने वाले बच्चे की भाँति/ रचता हूँ मैं कविताएँ." (वही).

प्रेम स्वाभाविक मानव प्रवृत्ति है. यदि व्यक्‍ति और व्यक्‍ति के बीच निहित संबंधों को ही लें तो इसके अनेक रूप दिखाई देते हैं. माता-पिता एवं पुत्र-पुत्री के बीच, भाई-बहन के बीच, प्रेमी-प्रेमिका के बीच, पति-पत्‍नी के बीच. और फिर यही प्रेम समाज और देश के लोगों से भी जुड़ जाता है. गोपि की कविताओं में भी प्रेम के विविध रूप दिखाई पड़ता है. एक ओर पर्यावरण के प्रति अमित प्यार दीख पड़ता है तो दूसरी ओर मानवीय संबंधों के प्रति. मातृभूमि के प्रति उनका प्रेम निर्विवाद है. वे कहते हैं - "प्रेम/ अधिक बतियाता नहीं/ द्वेष की/ कोई सीमा नहीं." (वही). कवि उन लोगों पर भी व्यंग्य कसते हैं जो प्यार के नाम पर अपनी जिंदगी को जला डालते हैं - "प्यार से/ जला लिया क्या जिंदगी को?/ तब तो/ बर्नाल भी प्रेम ही है." (वही).

गोपि की कविताओं में वृद्धावस्था विमर्श से लेकर पर्यावरण विमर्श, स्त्री विमर्श, दलित विमर्श और आदिवासी विमर्श जैसे उत्तरआधुनिक विमर्श के अनेक आयाम भी दिखाई पड़ते हैं.

बचपन सबको प्रिय लगता है क्योंकि वह एक ऐसी अवस्था है जो छलरहित और निर्मल है. राग-द्वेष से परे, सुनहला समय. अपने बचपन को याद करते हुए कवि कहते हैं - "निर्मलता बचपन की/ जब तक याद आ जाती/ यदि हर दिन याद आती तो/हम शायद कुछ और होते." (वही).

कवि जहाँ बचपन को याद करके उल्लसित होते हैं वहीं दूसरी ओर अपने बच्चों की राह देखते हुए बूढ़े माँ-बाप को देखकर विचलित होते हैं - "सेलवुल्लो वच्चिना ना चिरंजीविकि/ इंडिया अंता डर्टी डस्टबिन ला कनिपिस्तुंदि/ ***/ प्रपंचम्‌ एंतो/ मारिंदंटुन्नारू/ अदेमोगानी/ इंडिया मात्रं वृद्धाश्रमम्‌गा मारुतुन्नदि." (चुट्टियाँ बिताने आए अपने लाडले को/ इंडिया एक डर्टी डस्टबिन-सा लग रहा है/ ***/ सब कहते अहिं कि दुनिया काफी बदल चुका है/ पर/ इंडिया तो वृद्धाश्रम बन रहा है; ‘होम फर द एजड’, कविता दशाब्दी, (सं) प्रो.एस.वी.सत्यनारायण, डॉ.पेन्ना शिवरामकृष्णा).

सृष्‍टि निर्माण में स्त्री-पुरुष दोनों ही समान है. दोनों एक-दूसरे के पूरक हैं. पर अपनी शारीरिक कमजोरी के कारण स्त्री को अबला के रूप में चित्रित किया जाता है अतः कवि कहते हैं - "सृष्टिकाव्य को/ रचते हैं दोनों/ पर कापीराइट होता है/ पुरुष का ही." (नन्हे मुक्‍तक). वे आधुनिक स्त्री के बारे में कहते हैं कि "आज की महिला/ है नहीं उपग्रह/ शोषण के खिलाफ/ शाब्दिक प्रहार है." (वही).

स्त्री ही नहीं बल्कि दलित और निम्न जाति के लोग भी बरसों से हाशिए पर ही रहे. आज धीरे धीरे वे केंद्र में आ रहे हैं, कहा जाए तो आ भी चुके हैं. सवर्ण जातियाँ सदियों से निम्न जाति के लोगों को अछूत कहकर धिक्कारती रही हैं. उन्हें कीड़े-मकौड़ों की तरह कुचलती रही हैं. श्रम का शोषण करती रही हैं. दलित पीढ़ी दर पीढ़ी जमीनदारों के यहाँ पालेरू/बंधुआ मजदूर बनकर रह जाता है - "कोमरय्या कोमरेल्ली मल्लन्नला अन्नप्पुडु/ इक मुंदु कोमरय्या डप्पु/ बुल्लि कोमरय्या भवितव्यान्नी पाडुतुंदि काबोलु." (कोमरय्या अब/ दिख रहा है - शिव-सा/ कोमरय्या की डफली अब/ नन्हे कोमरय्या का भविष्य गाएँगी शायद; ‘डफली’, समय को सोने नही दूँगा). आंध्र प्रदेश में शव यात्रा में डफली बजाने वालों को ‘कोमरय्या’ कहकर संबोधित किया जाता है. आज के जमाने में कोई भी गुलाम बनकर रहना पसंद नहीं करते - "गुलामी/ भाती नहीं किसी को/ यहाँ तक कि/ कीड़े को भी." (नन्हे मुक्‍तक).

गोपि संवेदनशील और जागरूक कवि हैं. उन्होंने अपनी लंबी कविता ‘जलगीतमु’ (जलगीत) में पाठकों को पर्यावरण के प्रति जागरूकता का संदेश दिया है. आधुनिकता और विकास के नाम पर मनुष्य ने धरती के अस्तित्व को ही खतरे में डाल दिया है. एक ओर बढ़ती आबादी है तो दूसरी ओर उस आबादी के कारण पैदा होनेवाली अनेकानेक समस्याएँ हैं जिसके कारण संतुलन बिगड़ रहा है और प्रदूषण तथा प्राकृतिक विपदाएँ बढ़ रही हैं. कवि कहते हैं कि "यह प्रदूषण शताब्दी है/ यह शताब्दी है जल के दंश की." (जलगीत). कवि पानी की महत्ता को भली भाँति समझते हैं. इसलिए तो वे उद्वेलित होकर कहते हैं - "जलहीनता/ जन्म देती है योद्धाओं को/ जलहीनता/ क्रूरता में प्राण फूँकती है/ जलहीनता/ आश्रयदाता के प्राणों को डस लेती है." (वही). आधुनिक मानव की त्रासदी को देखने पर कवि को लगता है कि "धरती माँ मौत की चारपाई पर अंतिम साँसें गिन रही है,/ जमीन पर घास ही नहीं उगती तो कागजों पर कविता कहाँ से आएगी?" (वही).

आज के कार्पोरेट कल्चर की ओर इशारा करते हुए कवि कहते हैं कि "कम्यूनिकेशनल होरुकु/ पावुरालु एगिरिपोतुन्नाइ/ पट्टुकोनि आपंडि/ ‘हेलो’ अने ओक्का बाणम्‌तो/ रसार्द्र जीव विन्यास संपुटान्नि चंपकंडी." (‘कम्यूनिकेशन’ के शोर से घबराकर/ कबूतर उड़ते चले जा रहे हैं/ उन्हें पकड़कर रोकिए/ ‘हेलो’ के एक ही तीर से/ रसार्द्र-जीवन के खज़ाने को मत नष्‍ट कीजिए; ‘मरती हुई चिट्ठी’, समय को सोने नहीं दूँगा).

गोपि ने अपनी कविताओं के माध्यम से समसामयिक घटनाओं और परिस्थितियों को उकेरा है. उनकी कविताओं में ग्राम जीवन से लेकर शहर के आभिजात्य जीवन का अकेलापन भी परिलक्षित होता है. इसलिए तो वे कहते हैं - "जिंदगियाँ हैं हजारों की/ हाथों में / ‘स्पाट वेल्यूएशन’ में/ घायल मत करो प्रतियाँ." (नन्हे मुक्‍तक).



बुधवार, 20 जुलाई 2011

‘कादंबिनी क्लब’ में शमशेर पर विशेष व्याख्यान



‘कादंबिनी क्लब’ में शमशेर पर विशेष व्याख्यान

हैदराबाद.

स्थानीय कादंबिनी क्लब, के तत्वावधान में 17 जुलाई, 2011 को हिंदी प्रचार सभा परिसर में क्लब की 227वीं मासिक गोष्ठी आयोजित की गई|  प्रो. ऋषभदेव शर्मा की अध्यक्षता में संपन्न इस गोष्ठी के प्रथम चरण में  शमशेर बहादुर सींह के शताब्दी के संदर्भ में ‘शमशेर बहादुर सिंह को समझने की कोशिश’ विषय पर उच्च शिक्षा और शोध संस्थान, दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा की प्राध्यापक डॉ.जी.नीरजा ने विशेष व्याख्यान दिया. ‘देसिल बयना’ के अध्यक्ष दयानाथ झा मुख्य अतिथि रहे तथा संयोजन क्लब की संयोजिका डॉ.अहिल्या मिश्र ने किया.

विशेष व्याख्यान देते हुए डॉ.जी.नीरजा ने शमशेर को आंतरिक ऊर्जा से संपन्न कवि बताते हुए उनके व्यक्‍तित्व और कृतित्व की संघर्षशीलता और रचनाधर्मिता पर विशेष चर्चा की. डॉ.जी.नीरजा ने कहा कि "गद्‍य हो या पद्‍य - शमशेर की भाषा बनावटी नहीं है। वे खड़ीबोली क्षेत्र का प्रतिनिधित्व करते हैं और उसका ठेठ तथा एक सीमा तक खुरदरा अंदाज उनकी भाषा में भी है। खास तौर से उनकी कहानियाँ पढ़ते समय यह साफ दिखाई देता है कि उनका गद्‍य बातचीत की शैली का है। वे जैसे बोलते हैं, वैसे ही लिखते भी हैं। कहने का मतलब यह है कि लिखते समय भी वे बातचीत का खुलापन लाते हैं।" डॉ.जी.नीरजा ने शमशेर की अनेक कविताओं के उदाहरण देते हुए यह प्रतिपादित किया है कि "शमशेर की कविताओं में एक ओर प्रेम की आकांक्षा, नारी सौंदर्य की कल्पना और निराशा से उत्पन्न व्यथा का मार्मिक चित्रण है तो दूसरी ओर उनका मिज़ाज इन्क़लाबी है."


डॉ.ऋषभ देव शर्मा ने अध्यक्षीय वक्तव्य में कहा कि शमशेर बहादुर सिंह एक कवि, समीक्षक, संस्मरणकार, कहानीकार और कोशकार के रूप में हिंदी साहित्य में अविस्मरणीय योगदान के लिए जाने जाते हैं. उन्होंने बताया कि शमशेर भारतीय और पश्‍चिमी साहित्यिक परंपराओं के साथ साथ हिंदी, उर्दू और अंग्रेज़ी तथा साहित्य, चित्रकला, वास्तुकला और संगीत के संगम के प्रतीक हैं तथा उन्होंने हिंदी कविता के क्षेत्र में ‘हिंदुस्तानियत’ के संस्कार को परिपुष्‍ट किया. डॉ.शर्मा ने शमशेर की भाषा में हिंदवी की लय की चर्चा करते हुए उसकी बिंबात्मकता और समाजविद्‍धता की ओर भी ध्यान दिलाया और कहा कि शमशेर की तमाम कविता में प्रगतिशीलता के प्रति एक खास तरह का रुझान निहित है जो नारेबाजी और बड़बोलेपन के बिना शोषण के खिलाफ आवाज उठाता है. डॉ.शर्मा ने शमशेर की कुछ चर्चित रचनाओं का वाचन भी किया.

दूसरे चरण में लक्ष्मीनारायण अग्रवाल के संचालन में कवि गोष्ठी हुई, जिसमें प्रो.ऋषभ देव शर्मा, कुंजबिहारी गुप्ता, सत्यनारायण काकड़ा, गौतम दीवाना, सूरजप्रसाद सोनी, उमा सोनी, डॉ. रमा द्विवेदी, आज्ञा खंडेलवाल, डॉ. अहिल्या मिश्र, मीना मूथा, भंवरलाल उपाध्याय, नीरज त्रिपाठी, डॉ. देवेन्द्र शर्मा, विनीता शर्मा, मीना खोंड, जयश्री कुलकर्णी, मुकुंददास डांगरा, जुगल बंग जुगल', डॉ. सीता मिश्र, सरिता सुराणा जैन, पवित्रा अग्रवाल, संपत देवी मुरारका, दत्तभारती गोस्वामी, भावना पुरोहित आदि ने विविध विषयों को केंद्रित करते हुए काव्यपाठ किया| 

सरिता सुराणा जैन के धन्यवाद के साथ कार्यक्रम का समापन हुआ|

(रिपोर्ट एवं चित्र : संपतदेवी मुरारका)

शमशेर बहादुर सिंह को समझने की कोशिश

"ओ मेरे घर
ओ हे मेरी पृथ्वी
साँस के एवज़ तूने क्‍या दिया मुझे
- ओ मेरी माँ?

तूने युद्ध ही मुझे दिया
प्रेम ही मुझे दिया क्रूरतम कटुतम
और क्या दिया
मुझे भगवान दिए कई-कई
मुझसे भी निरीह मुझसे भी निरीह!"
(शमशेर; ‘ओ मेरे घर’, इतने पास अपने; पृ.19)

हिंदी साहित्य जगत में ‘नई कविता’ के सशक्‍त हस्ताक्षर शमशेर बहादुर सिंह (13 जनवरी,1911 - 12 मई,1993) का अपना एक सुनिश्‍चित स्थान है। उनका जन्‍म उत्तर प्रदेश के मुजफ्फरनगर जिले के एक गाँव एलम में हुआ था। शिक्षा-दीक्षा देहरादून तथा प्रयाग में हुई। वे हिंदी, उर्दू और अंग्रेज़ी के विद्वान थे। इन तीनों ही भाषाओं पर उनका समान अधिकार था। उनकी प्रमुख रचनाएँ हैं - दोआब(1948), प्लाट का मोर्चा : काहानियाँ और स्केच(1952), कुछ कविताएँ(1959), कुछ और कविताएँ(1961), चुका भी हूँ नहीं मैं(1975), इतने पास अपने(1980), उदिता : अभिव्यक्‍ति का संघर्ष(1980), बात बोलेगी(1981), काल तुझसे होड़ है मेरी(1988), टूटी हुई बिखरी हुई(1990), कुछ गद्‍य रचनाएँ(1989) तथा कुछ और गद्‍य रचनाएँ (1992)। स्मरणीय है कि शमशेर ‘दूसरा सप्‍तक’ (1952) में सम्मिलित थे तथा उन्हें 1977 में ‘चुका भी हूँ नहीं मैं’ के लिए साहित्य अकादमी पुरस्कार एवं मध्यप्रदेश साहित्य परिषद का तुलसी पुरस्कार प्राप्‍त हुए थे। 1987 में मध्य प्रदेश सरकार ने उन्हें मैथिलीशरण गुप्‍त पुरस्कार और 1989 में कबीर पुरस्कार से सम्मानित किया।

शमशेर और उनकी कविताओं पर कुछ कहना एक चुनौती है क्योंकि उनकी काव्य यात्रा छायावादोत्तर रोमांटिक भावधारा से शुरू होकर प्रगतिवाद और प्रयोगवाद को पार करती हुई नई कविता से जुड़ती है और उसके पार भी चली जाती है। सच तो यह है कि उन्होंने कविता के क्षेत्र में छाए हुए वादों की जकड़न से अपने आपको अलग रखा और काव्य भाषा को चित्रात्मकता, संगीत, बिंब विधान और लय के माध्यम से तराशा। इस संदर्भ में रामस्वरूप चतुर्वेदी का मत द्रष्‍टव्य है - "शमशेर की कविताओं में संगीत की मनःस्थिति बराबर चलती रहती है।एक ओर चित्रात्मकता की मूर्तता उभरती है, और फिर वह संगीत की अमूर्तता में डूब जाती है। भाषा में बोलचाल के गद्‍य का लहजा और लय में संगीत का चरम अमूर्तन।"(रामस्वरूप चतुर्वेदी, हिंदी साहित्य और संवेदान का विकास; पृ.205)। वे अपनी कविताओं में संवेदनाओं का मूर्त चित्रण करते हैं। इस संदर्भ में मुक्‍तिबोध का मत है कि "शमशेर की मूल प्रवृत्ति एक इंप्रेशनिस्टिक चित्रकार की है। इंप्रेशनिस्टिक चित्रकार अपने चित्र में केवल उन अंशों को स्थान देगा जो उसके संवेदना-ज्ञान की दृष्‍टि से प्रभावपूर्ण संकेत शक्‍ति रखते हैं।... दूसरे शब्दों में इंप्रेशनिस्टिक चित्रकार दृश्‍य के सर्वाधिक संवेदनाघात वाले अंशों को प्रस्तुत करेगा और यह मानकर चलेगा कि यदि वह संवेदनाघात दर्शक के हृदय में पहुँच गया तो दर्शक अचित्रित शेष अंशों को अपनी सृजनशील कल्पना द्वारा भर लेगा।" (मुक्‍तिबोध, नई कविता का आत्मसंघर्ष तथा अन्य निबंध; पृ.92)

शमशेर कविता में आंतरिक ऊर्जा को महत्व देते हैं। वे खड़ीबोली के बोलचाल के रूप को महत्व देते हैं। उनका मत है कि ‘पाठक के मन की बात को पाठक की ही भाषा में व्यक्‍त करना चाहिए।’ इस संदर्भ में वे उर्दू को भी याद करते हैं और कहते हैं - "मैं उर्दू और हिंदी का दोआब हूँ। मैं वह आईना हूँ जिसमें आप हैं।" (शमशेर, बाढ़)

यहाँ एक बात ध्यान रखने की है कि गद्‍य हो या पद्‍य - शमशेर की भाषा बनावटी नहीं है। वे खड़ीबोली क्षेत्र का प्रतिनिधित्व करते हैं और उसका ठेठ तथा एक सीमा तक खुरदरा अंदाज उनकी भाषा में भी है। खास तौर से उनकी कहानियाँ पढ़ते समय यह साफ दिखाई देता है कि उनका गद्‍य बातचीत की शैली का है। वे जैसे बोलते हैं, वैसे ही लिखते भी हैं। कहने का मतलब यह है कि लिखते समय भी वे बातचीत का खुलापन लाते हैं।

शमशेर बहादुर सिंह को भली भाँति उनके साहित्य के माध्यम से जाना जा सकता है चूँकि उनका जीवन और साहित्य वस्तुतः एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। पाखंड और दिखावा न तो उनके व्यक्‍तित्व में था और न ही उनके साहित्य में । उनका संसार निजीपन का संसार है। अनुभव का संसार है। जीवन के ताप को सहकर वे सहज बने। यही सहजता उनके व्यक्‍तित्व और रचनाओं में मुखरित है। इसी के कारण उनके विचार भी उदात्त बने। वे हमेशा अपने प्रिय कवि निराला को याद करते हैं और कहते हैं - "भूल कर जब राह - जब-जब राह... भटका मैं/ तुम्हीं झलके हे महाकवि,/ सघन तुम ही आँख बन मेरे लिए।"

शमशेर का समूचा जीवन अभावों के कटघरे में बीता पर उन्होंने कभी उफ तक नहीं की। हालात के आगे घुटने टेकना तो शायद वे जानते ही नहीं थे। शमशेर के साथ बिताए तीन वर्षों को याद करते हुए हेमराज मीणा बताते हैं कि "शमशेर जी साधारण चाय के स्थान पर हल्दी की चाय खुद बनाकर पीते थे और आर्थिक विपन्नता का आलम यह था कि घिसे और फटे हुए कुर्ते को हाथ से सिलकर काम चलाना पड़ता था।" ऐसी स्थिति में भी शमशेर टूटे नहीं, बिखरे नहीं। अड़िग होकर आगे बढ़ते रहें। यही आस्था और जिजीविषा उनकी रचनाओं में भी मुखरित है - "मैं समाज तो नहीं, न मैं कुल/ जीवन:/ कण-समूह में हूँ मैं केवल/ एक कण।/ -कौन सहारा!/ मेरा कौन सहारा!"

शमशेर की कविताओं में एक ओर प्रेम की आकांक्षा, नारी सौंदर्य की कल्पना और निराशा से उत्पन्न व्यथा का मार्मिक चित्रण है - "गोद यह/ रेशमी गोरी/ अस्थिर/ अस्थिर/ हो उठती/ आज/ किसके लिए? जा/ ओ बहार/ जा! मैं जा चुका कब का/ तू भी-/ ये सपने न दिखा?"  तो दूसरी ओर उनका मिज़ाज इन्क़लाबी है - "सरकारें पलटती हैं जहाँ हम दर्द से करवट बदलते हैं।? हमारे अपने नेता भूल जाते हैं हमें जब,? भूल जाता है ज़माना भी उन्हें, हम भूल जाते हैं उन्हें खुद/ और तब/ इन्क़लाब आता है उनके दौर को गुम करने।"

शमशेर कम बोलनेवाले व्यक्‍ति थे। उनकी धारणाएँ उनकी कविता में बोलती हैं। उनकी प्रसिद्ध उक्‍ति है कि "बात बोलेगी/ हम नहीं/ भेद खोलेगी/ बात ही।/ सत्य का/ क्या रंग/ पूछो, एक रंग/ एक जनता का दुःख एक/ हवा में उड़ती पताकाएँ अनेक।" (बात बोलेगी)। कभी कभी यह भी प्रतीत होता है कि शमशेर आधुनिक मानवीय दाह को शांत करनेवाले कलाकार हैं - "आधुनिकता आधुनिकता/ डूब रही है महासागर में/ किसी कोंपले के ओंठ पे/ उभरी ओस के महासागर में / डूब रही है/ तो फिर क्षुब्ध क्यों है तू।" (‘सारनाथ की एक शाम’ (त्रिलोचन के लिए); चुका भी हूँ नहीं मैं; पृ.21)

शमशेर ने बदलती हुई जटिल और भयावह दुनिया में मनुष्‍य की पीड़ा और मूल्यहीनता को चित्रित किया है। मनुष्‍य परिस्थितियों और उनके सुख-दुःख को विविध धरातलों पर अभिव्यक्‍त किया है। उनकी कविता का केंद्र व्यक्‍ति है। उन्होंने अपने आप को व्यक्‍ति के प्रति समर्पित कर दिया है - "समय के/ चौराहों के चकित केंद्रों से।/ उद्‍भूत  होता है कोई : "उसे-व्यक्‍ति-कहो" :/ कि यही काव्य है।/ आत्मतमा/ इसलिए उसमें अपने को खो दिया।" (‘एक नीला दरिया बरस रहा’; चुका भी हूँ नहीं मैं; पृ.13)। उन्होंने मध्यवर्ग की अधकचरी स्थिति को ऐतिहासिक संदर्भों में देखते हुए कहा है कि - "इतिहास में भी तू/ असहनीय रूप से दयनीय।" इसी प्रकार साम्राज्यवाद के नाम पर आम लोगों को धोखा दिए जाने पर व्यंग्य करते हुए वे कहते हैं कि "बनियों ने समाजवाद को जोखा है/ गहरा सौदा है काल भी चोखा है/ दुकानें नई खुली हैं आजादी की/ कैसा साम्राज्यवाद का धोखा है!" (‘बनियों ने समाजवाद को जोखा है’; सुकून की तलाश; पृ.56)।

शमशेर ने अनेक रचनाओं में सामाजिक सच्चाई और लोकतंत्र की ताकत को स्वर प्रदान किया है। उनकी दृष्‍टि में "दरअसल आज की कविता का असली भेद और गुण उन लोक कलाकारों के पास है जो जन आंदोलान में हिस्सा ले रहे हैं।"((सं) वक्‍तव्य; दूसरा सप्‍तक; पृ.77)। भारत-चीन युद्ध के समय कवि ने ‘सत्यमेव जयते’ पर जोर दिया - "शिव लोक में चीनी दीवार न उठाओ!/ वहाँ सब कुछ गल जाता है/ सिवाए सच्चाई की उज्ज्वलता के!/ असत्य कहीं नहीं है!/ शक्‍ति आकार में नहीं,/ सत्य में है!/ हमारी शक्‍ति/ सत्य की विजय/ ...याद रखो/ सत्यमेव जयते!/ सत्यमेव जयते!/ सत्यमेव जयते!" (‘सत्यमेव जयते’(भारत-चीन युद्ध); चुका भी हूँ नहीं मैं; पृ.43)। कवि की मान्यता है कि मानव मात्र के लिए बुनियादी चीज है-शांति। अतः वे कहते हैं - "अगर तुमसे पूछा जाय कि/ सबसे बुनियादी वह पहली चीज़ कौन-सी है/ कि मानव मात्र के लिए जिसका होना आवश्यक है?/ तो एक ही जवाब होगा तुम्हारा :/ एकदम पहली ही बार,/ फिर दूसरी बार भी,/ और अंतिम बार भी/ यही एक जवाब :-/ शांति!" (‘शांति के ही लिए’; चुका भी हूँ नहीं मैं; पृ.57)

समाज में धर्म के नाम पर होनेवाले पाखंड पर भी शमशेर कुठाराघात करते हैं - "जो धर्मों के अखाड़े है/ उन्हें लड़वा दिया जाए!/ जरूरत क्या कि हिंदुस्तान पर/ हमला किया जाए!!/ ***/ मुझे मालूम था पहले ही/ ये दिन गुल खिलाएँगे/ ये दंगे और धर्मों तक भी/ आख़िर फैल जाएँगे/ ***/ जो हश्र होता है/ फ़र्दों का वही/ क़ौमों का होता है/ वही फल मुल्क को/ मिलना है, जिसका/ बीज बोता है।" (‘धार्मिक दंगों की राजनीति’, सुकून की तलाश; पृ.71)। वे यह भी कहते हैं कि "जितना ही लाउडस्पीकर चीखा/ उतना ही ईश्‍वर दूर हुआ :/ (-अल्ला-ईश्‍वर दूर हुए!)/ उतने ही दंगे फैले, जितने/ ‘दीन-धरम’ फैलाए गए।" (‘राह तो एक थी हम दोनों की’, सुकून की तलाश; पृ.33)। शमशेर बौद्धिक स्तर पर मार्क्स के द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद से प्रभावित है। उनकी कविताओं में मार्क्स के विचारों के साथ साथ कला, प्रेम और प्रकृति के विविध रंग विद्‍यमान है। इस संदर्भ में उन्होंने अपने आत्मसंघर्ष को व्यक्‍त करते हुए कहा कि - "वाम वाम वाम दिशा,/ समय साम्यावादी।/ पृष्‍ठभूमि का विरोध अंधकार - लीन। व्यक्‍ति .../ कुहास्पष्‍ट हृदय-भार, आज हीन।/ हीनभाव, हीनभाव/ मध्यवर्ग का समाज, दीन।/ पथ-प्रदर्शिका मशाल/ कमकर की मुट्ठी में किंतु उधर :/ लाल-लाल/ वज्र कठिन कमकर की मुट्ठी में / पथ प्रदर्शिका मशाल।" (‘वाम वाम वाम दिशा’; कुछ और कविताएँ)

कलासृजन, संरचना और शिल्प की दृष्‍टि से शमशेर की लंबी कविता ‘अम्न का राग’को विशेष रूप से  उल्लेखनीय माना जाता है। इसमें कवि ने समाजशास्त्रीय संबंधों को बखूबी उकेरा है। इस कविता में उन्होंने दो राष्‍ट्रों की संस्कृतियों को प्रतिबिंबित किया है तथा वैश्‍विक दृष्‍टिकोण को उभारा है। शमशेर शोषण, हिंसा और युद्ध का विरोध करते हैं और यह चाहते हैं कि सर्वत्र शांति कायम हो। ‘अम्न का राग’ की शुरुआत में ही बसंत के नए प्रभात की ओर संकेत किया  है - "सच्चाइयाँ/ जो गंगा के गोमुख से मोती की तरह बिखरती रहती हैं/ हिमालय की बर्फ़ीली चोटी पर चाँदी के उन्‍मुक्‍त नाचते/ परों में झिलमिलाती रहती हैं/ जो एक हजार रंगों के मोतियों का खिलखिलाता समंदर है/ उमंगों से भरी फूलों की जवान कश्तियाँ/ कि बसंत के नए प्रभात सागर में छोड़ दी गई हैं।" इस काव्यांश में कवि ने प्रतीकों के माध्यम से सत्य और शांति को उजागर किया है। आगे देश की सीमाओं को अतिक्रमित करते हुए कहते हैं कि - "ये पूरब-पश्‍चिम मेरी आत्मा के ताने-बाने हैं/ मैंने एशिया की सतरंगी किरनों को अपनी दिशाओं के गिर्द लपेट लिया।" शमशेर भारतीय एवं पाश्‍चात्य संस्कृतियों को अपनी आत्मा मानते हैं। उनक दृष्‍टिकोण वैश्‍विक है। इसी वैश्‍विक परिदृश्‍य को उकेरते हुए वे कहते हैं कि "मैं यूरोप और अमरीका की नर्म आँच की धूप-छाँव पर/ बहुत हौले-हौले से नाच रहा हूँ/ सब संस्कृतियाँ मेरे संगम में विभोर हैं/ क्योंकि मैं हृदय की सच्ची सुख शांति का राग हूँ/ बहुत आदिम, बहुत अभिनव।" इतना ही नहीं भारतीय एवं पाश्‍चात्य विचारकों, शायरों, दार्शनिकों, संगीतकारों और रचनाकारों का उल्लेख करते हुए कहते हैं कि - "देखो न हक़ीकत हमारे समय की जिसमें/ होमर एक हिंदी कवि सरदार जाफ़री को/ इशारे से अपने क़रीब बुला रहा है/ ***/ और आज तो मेरा टैगोर मेरा हाफ़िज मेरा तुलसी मेरी/ ग़ालिब/ एक एक मेरे दिल के जगमग पावर हाउस का/ कुशल आपरेटर हैं।" शमशेर को अमरीका का लिबर्टी स्टैचू उतना ही प्यारा है जितना मास्को का लाल तारा। पीकिंग का स्वर्गीय महल मक्का मदीना से कम पवित्र नहीं - "मुझे अमरीका का लिबर्टी स्टैचू उतना ही प्यारा है/ जितना मास्को का लाल तारा/ और मेरे दिल में पीकिंग का स्वर्गीय महल/ मक्का-मदीना से कम पवित्र नहीं/ मैं काशी में उन आर्यों का शंख-नाद सुनता हूँ/ जो वोल्गा से आए/ मेरी देहली में प्रह्‍लाद की तपस्याएँ दोनों दुनियाओं की/ चौखट पर/ युद्ध के हिरण्यकश्‍य को चीर रही हैं।" यह कविता उनकी अद्‍भुत सृजनात्मक प्रतिभा का परिचायक है।

शमशेर समस्त संसार में शांति कायम करना चाहते हैं। उन्होंने अतीत, वर्तमान और भविष्‍य के सपने को एक साथ पिरोया है - "ये आँखें हमारे माता-पिता की आत्मा और हमारे बच्चों/ का दिल है/ ये आँखें हमारे इतिहास की वाणी/ और हमारी कला का सच्चा सपना हैं/ ये आँखें हमारा अपना नूर और पवित्रता हैं/ ये आँखें ही अमर सपनों की हक़ीक़त और/ हक़ीक़त का अमर सपना हैं/ इनको देख पाना ही अपने आपको देख पाना है, समझ/ पाना है।/ हम मानते हैं कि हमारे नेता इनको देख रहे हों।"

शमशेर संवेदनशील ही नहीं अपितु भावुक भी थे। नामवर सिंह ने उनकी भावुकता का जिक्र करते हुए हैदराबाद में एक समारोह में बताया था कि कैसे एक बार नरेंद्र शर्मा की गिरफ्तारी की सूचना ने उन्हें विचलित कर दिया था। प्रेमलता वर्मा शमशेर के व्यक्‍तित्व के कुछ आयामों को सामने रखते हुए कहती हैं कि शमशेर की दुनिया ‘वाइब्रेंट’ थी। वे छलरहित मगर चुंबकीय आकर्षण वाले व्यक्‍ति थे। वे हमेशा कहा करते थे कि "कविता के माध्यम से मैंने प्यार करना - अधिक से अधिक चीजों को प्यार करना - सीखा है। मैं उसके द्वारा सौंदर्य तक पहुँचा हूँ।" अनेक विद्वानों ने शमशेर को अनेक तरह से संबोधित किया है। मलयज के लिए वे ‘मूड्स के कवि’ हैं तो अज्ञेय के लिए ‘कवियों के कवि।’ रामस्वरूप चतुर्वेदी उन्हें ‘एब्स्ट्रैक्‍ट के कवि’ मानते हैं तो नामवर सिंह ‘सुंदरता के कवि।’ गोपाल कृष्‍ण कौल ने उन्हें ‘फार्मलिस्ट’ माना है तो मधुरेश उन्हें ‘तनाव और अंतर्द्वन्द्वों के कवि’ मानते हैं। विजय देव नारायण साही ने उन्हें ‘बिंबों का कवि’ घोषित किया है तो सत्यकाम ने ‘कवियों का पुंज’ तक कह दिया है। पर शमशेर कहते हैं - 

" मैं समय की लंबी आह
मौन लंबी आह...
होना था - समझना न था कुछ भी शमशेर...
आत्मा है
अखिल की हठ - सी..."

  • (शताब्दी संदर्भ के अंतर्गत १७ जुलाई, २०११ को कादंबिनी क्लब में प्रस्तुत किया गया आलेख  )