तेलुगु मूल : कालोजी नारायण राव
अनुवाद : गुर्रमकोंडा नीरजा
अहो भाग्य
भाग्य का क्या, कुछ भी लिखा जा सकता है
आँय-बाँय बोले तो आँय-बाँय
कितना भी गा सकते हैं.
अनुवाद : गुर्रमकोंडा नीरजा
अहो भाग्य
भाग्य का क्या, कुछ भी लिखा जा सकता है
आँय-बाँय बोले तो आँय-बाँय
कितना भी गा सकते हैं.
युद्ध से बहुत दूर
उत्तर कुमार की प्रज्ञाएँ.
विप्लव के लिए हो या सर्वोदय के लिए
दृढ़ हृदय चाहिए.
कदम कदम पर हैं
तलवारों के पुल.
जिस तरफ भी कदम रखो योद्धा ही योद्धा हैं
डर के मारे स्तंभित हो गए
अहो भाग्य !
भाग्य का क्या, कुछ भी लिखा जा सकता है
आँय-बाँय बोले तो आँय-बाँय
कितना भी गा सकते हैं.
चबूतरे पर बैठकर
प्रशस्ति गाइए या निंदा कीजिए
कलम की लच्छेदार कविता
सबको वश में कर सकती है
गांधी के लिए हो या माओ के लिए
झूठी प्रशंसा तो झूठी प्रशंसा ही है
झूठी प्रशंसा से तारे जमीन पर नहीं आते
स्तुति-गायन से इमली तक नहीं गिरती.
परिस्थितियों की आड़ में
अपने सच्चे जीवन क्षेत्र में
नित्य गुलाम रहकर
तरह तरह की घास चबाकर
तलुवे चाटकर
बापू ! बापू ! कहो
माओ ! माओ ! कहो
सर्वोदय कहो
विप्लव कहो
क्रोध क्रोध कहो
शांति कहो या क्रांति
भूसी फटकने से भी
आसान है प्रशंसा करना.
अहो भाग्य !
भाग्य का क्या, कुछ भी लिखा जा सकता है !
तुम्हारा निमंत्रण मिला –
मुझे बुलाया
तुम्हारे स्थान पर,
तुम्हारी सलाह मानी,
मुझे वह करने के लिए कहा
जो तुम करते हो
यह कैसी दुविधा !
निरर्थक निमंत्रण, सलाह !
दोनों एक ही स्थान पर हैं
कुछ भी नहीं कर रहे हैं
अहो भाग्य !
भाग्य का क्या, कुछ भी लिखा जा सकता है !
(1971 : मित्र मंडली के ‘विप्लव गीत’ पर परिचर्चा की प्रतिक्रयास्वरूप रचित)
उत्तर कुमार की प्रज्ञाएँ.
विप्लव के लिए हो या सर्वोदय के लिए
दृढ़ हृदय चाहिए.
कदम कदम पर हैं
तलवारों के पुल.
जिस तरफ भी कदम रखो योद्धा ही योद्धा हैं
डर के मारे स्तंभित हो गए
अहो भाग्य !
भाग्य का क्या, कुछ भी लिखा जा सकता है
आँय-बाँय बोले तो आँय-बाँय
कितना भी गा सकते हैं.
चबूतरे पर बैठकर
प्रशस्ति गाइए या निंदा कीजिए
कलम की लच्छेदार कविता
सबको वश में कर सकती है
गांधी के लिए हो या माओ के लिए
झूठी प्रशंसा तो झूठी प्रशंसा ही है
झूठी प्रशंसा से तारे जमीन पर नहीं आते
स्तुति-गायन से इमली तक नहीं गिरती.
परिस्थितियों की आड़ में
अपने सच्चे जीवन क्षेत्र में
नित्य गुलाम रहकर
तरह तरह की घास चबाकर
तलुवे चाटकर
बापू ! बापू ! कहो
माओ ! माओ ! कहो
सर्वोदय कहो
विप्लव कहो
क्रोध क्रोध कहो
शांति कहो या क्रांति
भूसी फटकने से भी
आसान है प्रशंसा करना.
अहो भाग्य !
भाग्य का क्या, कुछ भी लिखा जा सकता है !
तुम्हारा निमंत्रण मिला –
मुझे बुलाया
तुम्हारे स्थान पर,
तुम्हारी सलाह मानी,
मुझे वह करने के लिए कहा
जो तुम करते हो
यह कैसी दुविधा !
निरर्थक निमंत्रण, सलाह !
दोनों एक ही स्थान पर हैं
कुछ भी नहीं कर रहे हैं
अहो भाग्य !
भाग्य का क्या, कुछ भी लिखा जा सकता है !
(1971 : मित्र मंडली के ‘विप्लव गीत’ पर परिचर्चा की प्रतिक्रयास्वरूप रचित)
* मेरी आवाज (पद्मविभूषण डॉ. कालोजी नारायण राव की चयनित कविताएँ)/ 2013/ आंध्र प्रदेश हिंदी अकादमी, हैदराबाद/ पृ. 147
1 टिप्पणी:
अनुवाद पसन्द आया । मूल कविता का व्यंग्य अनुवादमें भी रूपान्तरित
हुआ है । आप को अनुवाद के लिए बधाई ।
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