सोमवार, 16 अगस्त 2010

तेलुगु संस्कृति का दर्पण बनती कहानियाँ



सांस्कृतिक रूप से संपूर्ण भारत अखंड है। भाषा, रंग-रूप, आचार-व्यवहार, खान-पान, वेश-भूषा और जलवायु आदि के वैविध्य के कारण इसे ऐसे बहुसांस्कृतिक क्षेत्र के रूप में भी देखा जाता है जिसमें अनेक संस्कृतियाँ अविरोधी भाव से समाई हुई हैं। यदि भाषा को जातीयता और संस्कृति के एक आधार के रूप में स्वीकार किए जाए तो कहा जा सकता है कि भारतीय संस्कृति में हिंदी, बंगला, तमिल, तेलुगु आदि विविध संस्कृतियाँ समाहित हैं जो परस्‍पर भारतीयता के सर्वव्यापी सूत्र द्वारा गुंथी हुई हैं।


संस्कृति के आधार स्तंभ हैं भाषा और साहित्य। यदि किसी देश से उसकी भाषा और साहित्य को छीन लिया जाए तो उसकी संस्कृति स्वतः ही नष्‍ट हो जाएगी। अभिप्राय यह है कि भारतीय संस्कृति भारतीय भाषाओं के साहित्य पर आधारित है। विविध भारतीय भाषाओं के साहित्य और इतिहास का अवलोकन करने के लिए पर्याप्‍त है कि क्षेत्र और भाषा की भिन्नता के बावजूद भारतीय मनीषा की मूलभूत चिंताएँ पहले भी एक जैसी थीं और आज भी एक जैसी हैं।


तेलुगु साहित्य के इतिहास को पूर्व नन्नया युग (ई.पू.200 - ई.1000 तक), नन्नया युग (11 वीं शती), शिव कवि युग (12 वीं शती), तिक्कना युग (13 वीं शती), एर्रना युग (1300 -1350), श्रीनाथ युग (1350 - 1500), रायल युग या प्रबंध युग (1500 -1600), दक्षिणांध्र युग (1600 - 1775), क्षीण युग 1775 - 1875) और आधुनिक युग (1875 से आज तक) के रूप में विभाजित किया गया है।


हिंदी की भाँति तेलुगु में भी आधुनिक काल का उदय नवजागरण के उन्मेष के साथ ही हुआ। राष्‍ट्रीय चेतना, मुद्रण कला का विकास, विविध समाज सुधार आंदोलन के कारण तेलुगु साहित्य की दशा एवं स्वरूप में तेजी से बदलाव आया। इस युग में गद्‍य की विविध विधाओं का विकास हुआ। आधुनिक तेलुगु साहित्य में ‘ग्रांथिकमु’ (पंडिताऊ भाषा) की जगह ‘व्यावहारिकमु’ (व्यावहारिक भाषा) का प्रयोग होने लगा। चिन्नया सूरी ने ‘बाल व्याकरणमु’ (बाल व्याकरण) नाम से तेलुगु व्याकरण लिखा। आधुनिक काल को सही अर्थ में आधुनिक बनानेवाले विद्वानों में कंदुकूरी वीरेशलिंगम्‌ पंतुलु, तिरुपति वेंकट कवि द्वय (दिवार्कल तिरुपति शास्त्री तथा चेल्लपिल्ला वेंकट शास्त्री) और गुरजाडा अप्पारव का महत्वपूर्ण योगदान है। इन चारों को आधुनिक तेलुगु साहित्य के युग प्रवर्तक कहा जाता है।


गद्‍य की विधाओं में कथा साहित्य (विशेषतः कहानी साहित्य) का अपना महत्वपूर्ण स्थान है। सभी भारतीय भाषाओं में बड़ी तेजी से इसका विकास हुआ। इसे बंगला में ‘गल्प’, हिंदी में ‘कहानी’, तमिल और मलयालम में ‘कथेगल’, कन्नड में ‘कथेगलु’ और तेलुगु में ‘कथा’ अथवा ‘कथानिका’ कहा गया।


तेलुगु साहित्य में कहानी रचना का आरंभ 19 वीं शती के उत्तरार्द्ध में हुआ और तेलुगु के प्रथम कहानीकार हैं गुरजाडा अप्पाराव। गुरजाडा के पूर्व भी कुछ कहानियाँ लिखी गईं, पर उन्हें कहानी नहीं माना जा सकता चूँकि उनमें आधुनिक कहानी के स्वीकृत तत्व दिखाई नहीं देते।


सती प्रथा, कन्याशुल्क, बाल विवाह, वेश्‍य वृत्ति जैसी सामाजिक विसंगतियों, दुराचार और परंपरावादियों की मानयताओं पर गुरजाडा ने खुलकर प्रहार किया। गुरजाडा ने ‘कन्याशुल्कम्‌’ (कन्याशुल्क) उपन्यास के माध्यम से तेलुगु पाठकों को झकझोर कर रख दिया। उन्होंने समाज सुधार को लक्ष्य बनाकर ‘दिद्‍दुभाटु’ (सुधार), ‘मी पेरेमिटी’ (आप का नाम क्या है?) और ‘संस्कर्ता हृदयम्‌’ (स्माज सुधारक का हृदय) जैसी प्रसिद्ध कहानियों का सृजन किया। तेलुगु में कहानी विधा का प्रारंभ इन्हीं सामाजिक कहानियों से हुआ। तत्पश्‍चात्‌ चिंता दीक्षितुलु (एकादशी संग्रह), श्रीपाद सुब्रह्‌मण्य शास्त्री, वेलूरी शिवराम शास्त्री (कृति, क्षमार्पणम्‌ (क्षमार्पण)), अडवी बापिराजू, विश्‍वनाथ सत्यनारयण (नी ऋणम्‌ तीर्चुकुन्ना (तेरा ऋण चुकाया)), गुडिपाटी वेंकटचलम्‌ (कन्नीटी कालुवा (अश्रुधारा), अदृष्‍टम्‌ (किस्मत), वेंकटचलम्‌ कथलु (वेंकटचलम्‌ की कहानियाँ)), मुणिमाणिक्यम्‌ (हास्य कथलु (हास्य कहानियाँ), तल्लि प्रेमा (मातृ प्रेम), कांतम्‌ कापुरम्‌ (कांतम्‌ का पारिवारिक जीवन)), मोक्कपाटी नरसिम्‍ह शास्त्री (बैरिस्टर पार्वतीशम्‌)), कोडवटेगंटी कुटुंबराव (तल्ली लेनी पिल्ला (अनाथ), मोंडिवाडु (हठीला)), गोपीचंद (तंड्रुलु - कोडुकुलु (बाप -बेटा), शितिलालयम्‌ (खंडहर)) आदि विख्यात साहित्यकारों ने तेलुगु कहानी को एक नया शिल्प प्रदान किया। साथ ही पुरानी पीढ़ी के साहित्यकारों की भाँति युवा पीढ़ी ने भी समसामयिक परिस्थितियों को अपनी काहानियों में उकेरा है।


तेलुगु कहानी की इस रोचक यात्रा का आनंद हिंदी पाठकों को प्रदान करने के लिए राचकोंडा बहनों (राचकोंडा स्वराज्यलक्ष्‍मी, पारनंदि निर्मला, मुनुकुट्‍ल पद्‍म राव, गुंटूर रजनी प्रभा) ने तेलुगु पत्र पत्रिकाओं में प्रकाशित 48 चर्चित कहानियों का हिंदी अनुवाद प्रस्तुत किया है। उनकी सद्‍यः प्रकाशित पुस्तकें ‘तेलुगु की प्रतिनिधि कहानियाँ, भाग - 1,2 (2010) हिंदी पाठकों के समक्ष तेलुगु संस्कृति का आइना पेश करती हैं। प्रथम खंड में अवसराल रामकृष्‍ण राव, वेलचेटि सुब्रह्‌मण्यम, मल्लादि वेंकट कृष्‍णमूर्ति, शांति नारायण, विविन मूर्ति, चिल्ल्र भवानी देवी, सोदुम जयराम, वाराल कृष्‍णमूर्ति, मधुरांतक नरेंद्र, कवन शर्मा, धंडिकोटि ब्रह्‌माजी राव तथा पारनंदि निर्मला की कहानियों का अनुवाद सम्मिलित है जबकि द्वितीय खंड में राचकोंडा सुभद्रा देवी, स्वराज्य लक्ष्मी, बलिवाड कांताराव, एल.आर.स्वामी, दार्ल तिरुपतिराव, शिवल जगन्नाथराव, अवधानुल विजयलक्ष्मी और वेलचेटि सुब्रह्‌मण्‍यम्‌ की कहानियों को रखा गया है। इन कहानियों में विषय वैविध्य है। इनमें वृद्धावस्था की रचनाएँ, चिकित्सा क्षेत्र में व्याप्‍त भ्रष्‍टाचार,वैवाहिक जीवन की विसंगतियों के साथ साथ स्त्री विमर्श, पर्यावरण विमर्श और दलित विमर्श जैसी उत्तर आधुनिक सोच से संबंधित कहानियाँ भी शामिल हैं।


मराठी में 1960 के बाद दलित साहित्य आंदोलन चला। इस आंदोलन का मुख्‍य उद्‍देश्‍य है जातिप्रथा, वर्ण व्यवस्था, अछूत समस्या, जातिगत सांप्रदायिकता और दलितों के अधिकार की लड़ाई को तीव्र करना ही है। हिंदी साहित्य के साथ साथ तेलुगु साहित्य में भी दलित विमर्श ने जोर पकड़ा। विद्रोह और आक्रोश वस्तुतः दलित साहित्य की मूल प्रवृत्ति है। लंबे समय से दलितों को सामाजिक तिरस्कार और शोषण का शिकार बनाया जाता रहा है। समाज सुधार और जागरण की लहर का यह सुपरिणाम है कि सदियों से दबा कुचला यह वर्ग आज उठकर खड़ा हो गया है और अपने अधिकारों के लिए लड़ रहा है। इस दृष्‍टि से इस संग्रह में संकलित कहानियाँ ‘अर्थी’, ‘विवाह’, ‘बंधन’(सोदुम जयराम), ‘मुखिया का बैल’ और ‘दीवाल’(वाराल कृष्‍णमूर्ति) द्रष्‍टव्य हैं।


सोदुम जयराम की कहानी ‘अर्थी’ में दर्शाया गया है कि पहले हरिजन बस्ती गाँव से बाहर होती थी, पर आज हरिजन बस्ती और गाँव के बीच की दूरी समाप्‍त हो चुकी है। "बीते दिन तो और ही थे, वे दाने दाने के लिए मौताज होते हैं। घिनौनी जिंदगी जीते थे। मार खाकर फिर उसी किसान के वहाँ जा बैठते थे और अधफूँकी बीड़ी के लिए हाथ फैलाते थे। उन्हें शायद यह महसूस ही नहीं होता था कि कितनी घिनौनी जिंदगी जी रहे थे वे। औरतों की बात का तो कहना ही क्या?... जब मर्द ही गुलामों की तरह जी रहे थे तब उनकी औरतों का अपना अस्तित्व ही क्या रह जाता है।... कभी घोंघे की चाल चलनेवाला जमाना आज तीर की तेजी से भाग चला जा रहा है।"


एक ओर विश्‍व में अंतरराष्‍ट्रीय आदिवासी दिवस मनाया जा रहा है और दूसरी ओर ‘ऑपरेश्‍न ग्रीन हंट’ के नाम पर उन्हें जमीन से विस्थापित किया जा रहा है। डॉ.कवन शर्मा की कहानी ‘बचाओ’ में इस बात को स्पष्‍ट किया गया है। "बड़े बड़े बाँधों का निर्माण करने पार निर्वासित हुए लोग अब भी चालीस से अस्सी प्रतिशत निर्वासित ही हैं। आज के नेताओं के वादे केवल पानी पर खींची लकीर मात्र हैं। जिंदगी का आनंद उठानेवाले कुछ हैं तो बली की वेदी पर चढ़नेवाले कुछ और हैं।"


इस संकलन की कहानियों में स्त्री के अनेक रूपों का चित्रण भी है। स्त्री भले ही शारीरिक शक्‍ति में पुरुषों से कमजोर है लेकिन उसके पास मानसिक शक्‍ति की कमी नहीं होती। बलिवाड कांताराव की कहानी ‘कथानायिका’ में ऐसी स्त्री की मानसिक स्थिति का वर्णन है जिसके पास शारीरिक सुंदरता नहीं है - "ठंडी हवा के झोंके रह रहकर बंद दरवाजों की दरारों से आ आकर गालों को थप्पड़ की मार की तरह सुन्न कर रहे थे। मेरी कल्पना की उमा में और प्रत्यक्ष उमा में जमीन - आसमान का अंतर था। अपनी चिट्‍ठी में उतने सुंदर और कोमल भावों को व्यक्‍त करनेवाले उमा देखने में नाटी, धँसी आँखों वाली, चिडिया सी दुबली पतली थी। *** मुझे लगा कि जीवन की सभी इच्छाएँ उसी क्षण जलकर राख हो गई और मेरी नसें फूटकर शक्‍तिविहीन हो गईं। मैं वहीं ढ़ेर सा पड़ा रहा।" यदि स्त्री देखने में सुंदर नहीं होती तो कोई भी उसे पसंद नहीं करता। वह स्त्री भी मानसिक रोग का शिकार हो सकती है।


इस समाज में निःसंतान स्त्री को प्रताडित होना पड़ता है। पारनंदि निर्मला की कहानी ‘बंगारम्मा’ में निःसंतान स्त्री की मानसिक पीड़ा का वर्णन है। "ज़िंदगी आराम से कट रही थी। किंतु विधाता को यह सहन नहीं हुआ। भाग्य का क्रूरतम दंड बंगारम्मा को मिली। वह यह कि उसकी गोद कभी नहीं भरी।.... दिन बीतते गए, वर्ष बीतते गए, जाने कितने देवी देवताओं से मनौतोयाँ माँगी। हर पेड़, हर मंदिर में माथा टेका किंतु उसके माथे पर संतान भाग्य कोई नहीं लिख पाया था।... यह खोट सदा महसूस करती कि उसके बच्चा नहीं है। ससुराल में भी उस पर व्यंग्य बाण चलते, उसे नीची दृष्‍टि से देखते।" लेकिन निःसंतान स्त्रियाँ भी स्नेहशील, ममतामयी और वात्सल्य से युक्‍त होती हैं, इसे नकारा नहीं जा सकता है।


दहेज प्रथा सामाजिक विसंगति है। सब लोग यह जानते हैं कि दहेज लेना और दहेज देना दोनों कानूनन अपराध हैं, फिर भी लोग दहेज लेने और देने को अपनी शान समझते हैं। यही कारण है कि दहेज न दे पाने की स्थिति में अनेक शिक्षित कन्याएँ अविवाहित रह जाती हैं। अवधानुल विजयलक्ष्मी की कहनी ‘वाह रे वाह! बुजुर्ग’ में इस विषम स्थिति का मार्मिक चित्रण है।


अंततः यह कहना समीचीन होगा कि अनुवादकों ने इन दो संकलनों में प्रायः ऐसी तेलुगु कहानियों का चयन किया है जिनमें नारी हृदय की पीड़ा और सामाजिक विसंगतियों का मर्मस्पर्शी अंकन है। कुछ कहानियों में बाल मनोविज्ञान को भी आधार बनाया गया है। इसमें संदेह नहीं कि इस अनुवाद से तेलुगु और हिंदी भाषियों के मध्य साहित्यिक ही नहीं, सामाजिक और सांस्कृतिक आत्मीयता में वृद्धि होगी क्योंकि अनुवाद का कार्य सही अर्थों में सेतुबंध का कार्य है। राचकोंडा बहनों की यह साहित्य सेवा सराहनीय है।


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* तेलुगु की प्रतिनिधि कहानियाँ (भाग - 1,2)/ अनुवाद : पारनंदि निर्मला (भाग - 1) राचकोंडा बहनें (भाग - 2)/ 2010/ निहाल पब्लिकेशन्स्‌ एंड डिस्ट्रीब्यूटर्स, सी -70, गली नं. 3, उत्तरी छज्जुपूर, दिल्ली - 110 094/ पृ.167 (भाग -1), पृ.128 (भाग - 2)/ मूल्य -350/- (भाग - 1), 250/- (भाग - 2)

1 टिप्पणी:

चंद्रमौलेश्वर प्रसाद ने कहा…

तेलुगु कहानियों के इतिहास पर अच्छी जानकारी इस समीक्षा के माध्यम से देने के लिए आभार॥