शनिवार, 21 अगस्त 2010

`भारतीय भाषाशास्त्रीय चिंतन की पीठिका' : एक अवलोकन

बहुत कम लोगों का नाम इतना सार्थक होता है जितना सार्थक नाम पं.विद्‍यानिवास मिश्र का था। विद्‍या सचमुच उनमें निवास करती थी। अथाह महासागर की तरह वह जितना विस्तृत था उतना ही गहरा भी था। वेदों से प्रारंभ कर आधुनिक कविता तक, पाणिनीय व्याकरण से लेकर पश्‍चिमी भाषाविज्ञान तक, लोक जीवन की मार्मिक अंतर्दृष्‍टि संपन्नता से लेकर गहन शास्त्रीय विवेचन तक उनकी सहज गति थी। संस्कृत भाषा और हिंदी के गंभीर अध्येता एवं रचनाशील साहित्यकार ही नहीं अपितु वैयाकरणी भी थे, शब्दवेत्ता और भाषावैज्ञानिक भी थे। हिंदू धर्म एवं भारतीय संस्कृति के मर्मग्राही व्याख्याता एवं मौलिक चिंतक भे थे। संस्कृत साहित्य से आरंभ करते हुए हिंदी के भक्‍तिकाल एवं आधुनिक साहित्य तक उनकी पहुँच थी। उन्होंने इस पूरे संवेदनात्मक विकास को उसकी क्रमबद्धता में विवेचित किया। डॉ.रामस्वरूप चतुर्वेदी कहते हैं कि वे ‘समाज परिवर्तन एवं साहित्य’ के रिश्ते की भी छानबीन की ओर पुरानी प्रचलित शब्द ‘लोक’ की व्यंजनाओं को अधिक सार्थक ठहराया जिसके सहारे आचार्य रामचंद्र शुक्‍ल ने बनाया ‘लोक मंगल’। (1)


विद्‍यानिवास मिश्र शब्द शिल्पी थे, पर शब्दों से परे वे बहुत कुछ तलाश्ते थे। उनके शब्द ललित नहीं , जमीनी थी। उनका पूरा रचना संसार साहित्य की चली आती प्रतीति और प्रतीकों से अलग था। उनकी कर्मठता, साहित्यिक और सांस्कृतिक विषयों में उनकी प्रखर सक्रियता, प्राचीन तथा आधुनिक साहित्य, धर्म, दर्शन, तंत्र, भाषाशास्त्र, लोक साहित्य, कला आदि विषयों में उनकी गहरी पैठ, विलक्षण स्मरण शक्‍ति, अध्ययन-चिंतन-लेखन के प्रति पूर्ण जागरूकता आदि अनेकानेक गुण उनमें विद्‍यमान थे। उनके निबंधों में ऐसे अनेक सूत्र बिखरे पड़े हैं जिन्हें अगर कोई खोल सके और जोड़ सके तो मौलिक ग्रंथों की रचना हो सकती है।

मिश्र जी के बारे में डॉ.यश गुलाटी ने ठीक ही कहा है कि "इनके निबंधों में सहज चिंतन और तीव्र अनुभूति का मणि कांचन संयोग मिलता है। इनकी शैली रोचक, मार्मिक और हृदय स्पर्शी है। प्राचीन साहित्य, संस्कृति और परंपरा का गंभीर ज्ञान और आधुनिक जीवन के जटिल प्रश्‍नों के समाधान की दृष्‍टि की एक साथ उपस्थिति से संपन्न इनके व्यक्‍तित्व का बड़ा सुंदर अभिव्यक्‍तिकरण इनके निबंधों में हुआ है।(2) वस्तुतः वे चिंतन, कथन और आचरण के अप्रितम अन्विति थे तथा लोक और शास्त्र के संगम थे। निबंध के क्षेत्र में मिश्र जी ने विषय चयन की दृष्‍टि से अद्‍भुत एवं वैविध्यपूर्ण क्षमता का परिचय दिया है। भारतीय संस्कृति एवं लोक साहित्य के मर्मज्ञ डॉ.विद्‍यानिवास मिश्र एक सफल ललित निबंधकार होने के साथ साथ अनेकानेक विधाओं के भी कुशल चितेरे थे। वे बहुमुखी व्यक्‍तित्व से दीप्‍त सर्जक थे। उनके लेखन का प्रवाह निरंतर ऊर्ध्वगामी रहा।


उनके साहित्य में परंपरा की प्रमाण देती आधुनिकता एवं आधुनिकता हेतु समर्पण भाव से भरी परंपरा, दोनों का मधुर आलिंगन अपनी एक विलक्षण छाप छोड़ जाता है। मिश्र जी का मन ‘आँगन के पंछी’ के समान फड़फड़ाकर गगन में स्वच्छंद विचरणा चाहता तो था लेकिन वह अपनी जमीन नहीं छोड़ता था। उनका मन निरंतर गतिशील रहा। भारतीयता की उर्वर जमीन उनके साहित्य में झलकता है। मिश्र जी का साहित्य लोक व्यवहृति एवं चिंतन शास्त्र दोनों से अनुशासित है, जिसमें भारतीय चिंतन के पक्ष को अपनाते हुए भी पाश्‍चात्य साहित्य चिंतन को नज़र अंदाज नहीं किया गया। आधुनिक एवं पुरानी पीढ़ी की अंतर्विरोध, सामाजिक परंपराओं का विघटन, संस्कारों के असीम संवेदना, तो कहीं सामयिक के साथ सहयात्री बनकर निकलना मिश्र जी का स्वभाव था। कहीं ग्रामीण जीवन की नीरव गलियाँ और मादकता भरी आम्रमंजरी तो कहीं नगरों की व्यग्रता, लोक रंग से आप्‍लावित जीवन, शहरी जीवन के चकाचौंध की छटपटाहट, मानव जीवन की भंग होती सहजता आदि सभी धरातलों पर मिश्र जी का बनजारा मन स्वच्छंद विचरण करता था। उनके साहित्य में बूँद बूँद से सागर का निर्माण का आभास होता है।


मिश्र जी का साहित्य संसार अधिक विस्तृत है। समाज का ऐसा कोई पक्ष नहीं, जो मिश्र जी के निबंध सागर में तरंगायित होता न दिखाई दे। उनका साहित्य दही से निकला वह नवनीत है, जो समस्त जन मानस को अपनी ओर आकर्षित करने में सक्षम है। शोध प्रबंध के रूप में आरंभ में मिश्र जी ने ‘The Descriptive Technique of Panini' लिखा था। उसके पश्‍चात्‌ उनकी अधिकांश रचनाएँ लोक जीवन का लालित्यपूर्ण छवियों से उद्‍दीप्‍त हैं। उनमें लोक संस्कृति के उपादानों और अभिप्रायों की असाधारण समझ झलकती है। उनकी रचनाओं में उनके अध्ययन एवं चिंतन का स्पष्‍ट रूप भी प्रतिबिंबित होती है। रीति विज्ञान, भाषा दर्शन की पीठिका, हिंदी की शब्द संपदा, हिंदू धर्म जीवन में सनातन की खोज, हिंदू धर्म दीपिका, महाभारत का काव्यार्थ, भाषा और संप्रेषण आदि का रचना उनका एक आयाम है जिनमें मिश्र जी की खोजी प्रवृत्ति ही झलकती है। और साथ ही यह स्पष्‍ट होता है कि मिश्र जी सफल निबंधकार होने के साथ साथ एक श्रेष्‍ठ भाषावैज्ञानिक भी थे।


मिश्र जी द्वारा संपादित पुस्तक ‘भारतीय भाषाशास्त्रीय चिंतन’ सन्‌ 1976 में राजस्थान हिंदी ग्रंथ अकादमी, जयपुर से प्रकाशित हुई। इस संग्रह में कुल 16 निबंध संकलित हैं जो इस प्रकार हैं -

  • भारतीय भाषा दर्शन की पीठिका
  • भारत और भाषाविज्ञान
  • शब्द विचार : भारतीय दृष्‍टिकोण
  • प्रतिपादित विचार
  • शब्द और अर्थ का स्वरूप
  • शब्दार्थ संबंध : नैयायिक दृष्‍टि
  • पाणिनीय व्याकरण की कतिपय विशेषताएँ
  • वक्रोक्‍ति की संकल्पना
  • शब्दार्थ संबंध : प्राचीन काव्यशास्त्र के अनुसार
  • स्फोटवाद का भाषा दर्शन
  • शब्दार्थ संबंध : अपोहवादी दृष्‍टिकोण
  • पाणिनीय विश्‍लेषण पद्धति के आधार
  • प्राचीन भारत में ध्वनि विज्ञान
  • वाक्‍य तथा वाक्‍यार्थ संबंधी भारतीय मत
  • भाषा की चार अवस्थाएँ
  • वैदिक वाड्‍.मय में भाषादर्शन

उपर्युक्‍त सभी निबंधों में भारतीय दर्शन के अनेकानेक सूत्र ऐसे बिखरे पड़े हैं जिन्हें जोड़ने पर हर एक अंग स्वतंत्र ग्रंथ के रूप में सामने आ सकते हैं। इस संग्रह के उद्देश्‍य को स्पष्‍ट करते हुए मिश्र जी ने कहा कि "‘भारतीय भाषाशास्त्रीय चिंतन’ एक समवेत प्रयत्‍न है। इस संकलन का दुहरा उद्देश्‍य है, एक तो भारतीय चिंतान की भाषाई धारा से भारत के प्रबुद्ध आधुनिक मानस को जोड़ना और दूसरे आधुनिक संदर्भ को भारतीय अस्मिता से प्रमाणित करने का प्रयत्‍न करना।" (3)


‘भारतीय भाषादर्शन की पीठिका’ नामक अपने निबंध में मिश्र जी ने यह प्रतिपादित किया कि "भारतीय चिंतन मूलतः वाक केंद्रित है। वाक को देवताओं की धरिका तथा शक्‍ति के रूप में माना गया। अतः परिशुद्ध वाक में कल्याण निहित है। मिश्र जी की मान्यता है कि भारतीय चिंतन के अनुसार व्याकारण वेद का मुख है। अर्थात्‌ यदि भारत की विवर्तमान ज्ञान राशि के भीतर पैठना है तो यह केवल व्याकरण के द्वारा से ही संभव है। यही कारण है कि भारतीय चिंतन की भाषा व्याकरणमूलक है, पश्‍चिमी चिंतन की तरह गणित मूलक नहीं । गणित स्वयं यहाँ व्याकरणमूलक है। पाणिनीय व्याकरण के लोप से ही गणित का शून्य उद्‍भूत हुआ, और व्याकरणात्मक राशियों से तथा रूप वृत्तों से अंक गणित और ज्यामिति ने साकार ग्रहण किया है।’ (4) भारतीय कला बोध की पीठिका वस्तुतः वाक है। वाक के कारण समस्त जगत वस्तुअनुभाव्य आकार ग्रहण करता है और भारतीय साधना की पीठिका नाम का ध्यान है। मिश्र जी कहते हैं कि भारतीय चिंतन में व्याकरण किस प्रकार ओत-प्रोत है, इसको भारतीय जीवन पद्धति एवं भारतीय मूल्य बोध के आलोक में पाणिनि, पतंजली तथा भर्तृहरि के द्वारा प्रतिपादित तत्वों के आधार पर देखना समीचीन होगा।


‘पाणिनीय विश्‍लेषण पद्धति के आधार’ नामक निबंध में व्याकरण परंपरा के उत्कर्ष पाणिनि के विश्‍लेषण पद्धति के प्रमुख आधार सूत्रों का प्रतिपादन किया गया है। पाणिनि ने व्याकरण शास्त्र में प्रयुज्यमान इकाई को परिभाषित करने की तीन कसौटियाँ प्रमुख रूप से सामने रखीं -
  • इकाइयों का द्वितात्मक (Binary) विभाजन जिससे कि केवल सीमित क्षेत्रवाली इकाई की परिभाषा आवश्‍क हो तथा उससे इतर अपने आप परिभाषित हो जाय।
  • दूसरी कसौटी थी कि भाषिक परिवेश को ही आधार बनाकार परिभाषाएँ की जाय। यह सिद्धांत जे़लिंग हैरिस के वितरण सिद्धांत से भी अधिक विकसित एवं समावेशक है। मिश्र जी की मान्यता है कि पाणिनि ने इस सूत्र के आधार पर भाषा व्यवहार को ही भाषा विश्‍लेषण में प्रमाण माना है। और साथ ही साथ अर्थात्मक, पदबंधात्मक, रूपात्मक और वर्णात्मक सभी प्रकार के परिवेशों की समग्रत को सामने रखते हुए ही अपनी कोटियों की परिभाषा की है। चूँकि भाषा संरचना की समग्रता उनके ध्यान में है और वही उनके लिए अंतिम प्रमाण है। भाषा के वर्णन के लिए भाषाई उपादान ही पर्याप्‍त है।
  • पाणिनि के वर्णात्मक व्याकरण का प्रारंभ वाक्य को उक्‍ति/ Utterance की अनुभाव्य इकाई मानकर किया गया है और पूरा व्याकरण वाक्यगत संबंधों के प्रत्यायन/ Representation के रूप में बाँधा गया है। आज की भाषाशास्त्रीय शब्दावली के Sign के समीप, बुद्धिगोचर वाच्य अपने आपमें अर्थ संज्ञा/ Signified है। दोनों एक दूसरे में ओत-प्रोत हैं। अर्थात न अर्थरहित वाक्य संभव है और न वाक्य के श्रव्य रूप के अभाव में अर्थ की संभावना है।

अंततः मिश्र जी ने यह प्रतिपादित किया है कि "पाणिनि का व्याकरण वाक्य पर आधारित है, केवल पद व्याकरण नहीं है। क्योंकि पाणिनि ने पद की सत्ता वाक्य से ही मानी है।" (5) तथा पाणिनीय विश्‍लेषण की विशेषता यह है कि वह भाषा के तत्वों का जहाँ विखंडन प्रस्तुत करता है वहीं साथ साथ उनका संश्‍लेष भी प्रस्तुत करता है। अर्थात यह व्याकरण भाषा की रचना की परख तो करता ही है, उस रचना के प्रसार की संभावनाएँ भी बढ़ाता है। इस तरह यह भाषा के सर्जनात्मक उद्देश्य की ही वसतुतः पूर्ति करता है।


इस संग्रह में संकलित निबंधों के माध्यम से भारतीय भाषाशास्त्रीय चिंतन को स्पष्‍ट किया गया है। इसमें संकलित कुछ निबंध तो संस्कृत विश्‍वविद्यालय और राष्‍ट्रीय शिक्षा संस्थान की संगोष्ठियों में पढ़े गए और चर्चित निबंध है। भाषाविज्ञान की जन्मभूमि के रूप में सभी लोग भारत का स्मरण करते हैं, पर भारतीय भाषाशास्त्रीय चिंतन का पर्याप्‍त परिचय छात्रों को नहीं कराया जाता। यह संग्रह वस्तुतः इस कमी की क्षतिपूर्ति है।



संदर्भ :

  1. डॉ.रामस्वरूप चतुर्वेदी; हिंदी साहित्य और संवेदना का विकास; पृ. 311
  2. सुरेश अग्रवाल; हिंदी के प्रतिनिधि निबंधकार; पृ.163
  3. (सं) विद्यानिवास मिश्र; अनिल विद्यालंकार; माणिक लाल चतुर्वेदी; भारतीय भाषाशास्त्रीय चिंतन; पृ. 1
  4. (सं) विद्यानिवास मिश्र; अनिल विद्यालंकार; माणिक लाल चतुर्वेदी; भारतीय भाषाशास्त्रीय चिंतन; पृ. 10
  5. (सं) विद्यानिवास मिश्र; अनिल विद्यालंकार; माणिक लाल चतुर्वेदी; भारतीय भाषाशास्त्रीय चिंतन; पृ. 132



1 टिप्पणी:

चंद्रमौलेश्वर प्रसाद ने कहा…

पंडितजी पर अच्छी जानकारी देने के लिए आभार॥