शुक्रवार, 9 नवंबर 2012

शिक्षा में भाषा और भाषा में शिक्षा

संप्रेषण की बहुमुखी व्यवस्था का नाम है – भाषा. वह सोचने-विचारने का माध्यम है और सामाजिक संस्था भी है. साहित्यिक साधन के साथ साथ वह शिक्षा का भी साधन और साध्य दोनों है. उसमें जहाँ संपूर्ण देश को एक सूत्र में बाँधने की शक्ति है वहीं देश को टुकड़ों में, खेमों में तोड़ने की शक्ति भी है. इस संदर्भ में सर्वप्रथम स्मरणीय तथ्य यह है कि भाषा हमारी धरोहर है. हर व्यक्ति सहज रूप से दैनंदिन जीवन में पल पल भाषा का प्रयोग करता है. मातृभाषा के रूप में हो या प्रथम भाषा के रूप में, द्वितीय भाषा के रूप में हो या विदेशी भाषा के रूप में. मनुष्य को जैविक जंतु से सामाजिक-सांस्कृतिक प्राणी बनाने का माध्यम वस्तुतः भाषा ही है. भाषा के बिना मानव अस्तित्व की कल्पना करना भी असंभव है. अतः किसी भी सभ्य-संस्कृत समाज में भाषा के प्रति व्यापक दृष्टिकोण अपनाना अपरिहार्य होता है. 

यह सर्वविदित है कि भाषा एकरूपी न होकर विषमरूपी है. समाज में अनेक भाषाएँ तो हैं ही, एक भाषा भी अनेक रूपों में प्रचलित होती है. लचीलापन उसका एक प्रमुख गुण है. भाषा के बारे में अनेक विचार प्रचलित हैं. मानव शिशु सहज रूप से भाषा अर्जित करता है. इसी प्रवृत्ति के आधार पर उसे ‘इन्नेट टेंडेंसी’ कहा गया है. भाषा वस्तुतः समाज की संस्कृतिवाहिनी है. 

सस्यूर ने अपने भाषा चिंतन में कई मूलभूत प्रश्न उठाए थे. उनकी मान्यता थी कि ‘भाषा प्रतीकों की व्यवस्था है अतः उसको समझने के लिए प्रतीकों से संबंधित विज्ञान के अध्ययन का रास्ता अपनाना होगा.’ सस्यूर का दृष्टिकोण भाषा को ‘मानवीय व्यवहार’ के रूप में देख सका. चॉम्स्की ने भाषा और उसके अध्ययन को संज्ञानवाद (Cognitism) अर्थात मनुष्य की ज्ञान अर्जन की प्रकृति से जोड़ा. उनके अनुसार 'भाषा अपनी आतंरिक प्रवृत्ति में मानव मन का दर्पण है और सार्वभौमिक व्याकरण का अध्ययन इसीलिए मानव मन की बोधात्मक क्षमता का अध्ययन है.' उन्होंने भाषा व्यवस्था (Language Competence, Lang) को भाषा व्यवहार (Language Performance, Parole) से अधिक महत्व दिया है.

लेबॉव ने भाषा को 'शुद्ध भाषिक प्रतीकों की व्यवस्था न मानकर, सामाजिक प्रतीकों की एक उपव्यवस्था' के रूप में परिभाषित किया. उन्होंने भाषिक विकल्पन (Language Variation) की संकल्पना को समझाया. हैलिडे ने वाक् भेद (Speech Variety) का व्यापक अध्ययन किया. उन्होंने इसके कुछ प्रकार भी निर्धारित किए - सामाजिक वाक् भेद (Social Dialect or Sociolect), क्षेत्रीय वाक् भेद (Regional Dialect or Regional Style), प्रयोजनमूलक वाक् भेद (Functional Styles - Domains & Registers). डेल हाइम्स ने 'भाषा में संस्कृति का संबंध' प्रतिपादित करते हुए यह स्थापित किया कि 'भाषा का संबंध भाषा समाज के मनोविज्ञान से भी होता है अतः भाषा व्यवहार तो सांस्कृतिक होता ही है, भाषा द्वारा संपन्न सांस्कृतिक व्यवहार का भी मनोविज्ञान होता है.' उन्होंने भाषा में संस्कृति की संकल्पना को सुदृढ़ करने के लिए 'होम मेड मॉडल' (लोक संस्कृति) को महत्व दिया.  

कहने का मतलब है कि भाषा समाज और संस्कृति से जुड़ी है, इसमें दो राय नहीं. शिक्षा और भाषा की बात करते समय याद रखने की बात यह भी है कि भारत बहुभाषिक और बहुसांस्कृतिक देश है. इस देश में लंबी अवधि से हिंदू और मुस्लिम संस्कृतियाँ भाषा संपर्क से जुड़ी हैं. इन दोनों संस्कृतियों के समन्वय का परिणाम ही हिंदी भाषा की हिन्दुस्तानी शैली में देखा जा सकता है. भाषा पढ़ते-पढ़ाते समय यदि साहित्य भाषा के सांस्कृतिक शैली भेदों पर भी ध्यान दिए जाए तो यह पद्धति सांस्कृतिक एकता के बोध का आधार बन सकती है. 

इस संबंध में प्रो.दिलीप सिंह की मान्यता है कि "किसी भी मनुष्य के लिए दर्शन, समाजशास्त्र, मनोविज्ञान आवश्यक होता है. किसी समाज में जन्म लेते ही वह इनसे स्वतः बंध जाता है. भाषा क्योंकि मानव समाज की संपत्ति है अतः उसमें भी ये तीनों अंतर्भुक्त होते हैं - भाषा दर्शन, भाषा का समाजशास्त्र और भाषा समाज का मनोविज्ञान भाषा के व्यावहारिक विकल्पों में गुंथे होते हैं. इसलिए भाषा एक बहुआयामी यथार्थ है, एक सामाजिक यथार्थ. साहित्य भी क्योंकि भाषाबद्ध होता है, इसलिए उसमें भी ये तीनों घुले-मिले रहते हैं. रचनाकार सामान्य भाषा को हीरे की तरह तराश कर एक ऐसा बहुकोणीय आकार देता है कि भाषा में निहित ये तीनों पक्ष प्रकाशित होने लगते हैं. हम एक शिक्षक के रूप में भाषा संरचना और भाषा सिद्धांत की जानकारी रख सकते हैं या साहित्यिक पाठ की विषयवस्तु जान सकते हैं. पर उद्देश्य बाधित भाषा-२ शिक्षण की मूलचिंता यह है कि हम शिक्षार्थी को यह सब पूर्णता में कैसे दें. कोई भी भाषा कभी न तो निःसंगत (Isolation) में पैदा होती है और न ही निःसंगत में हम उसका प्रयोग करते हैं. अतः साहित्यिक भाषा को निःसंगत में डाल कर प्रस्तुत करना शिक्षार्थी की दक्षता को अधूरा और सीमित बनाना है. भाषा महत्वपूर्ण है, पर भाषा शिक्षण में जयादा महत्वपूर्ण यह है कि हम भाषा को पढ़ाएँ कैसे? इसी तरह साहित्य की विषयवस्तु महत्वपूर्ण है पर साहित्य शिक्षण की दृष्टि से ज्यादा महत्वपूर्ण यह है कि हम यह कैसे दिखाएँ कि वह गठित कैसे हुई तथा उसमें कौन कौन से समाज-सांस्कृतिक तत्व मथे हुए हैं. साहित्य शिक्षण प्रक्रिया में भी अनुदेश (Instruction), संज्ञान (Cognition) और आभ्यंतरीकरण (Internalization), ये तीनों चरण महत्वपूर्ण होने चाहिए. भाषा शिक्षण के अधुनातन चिंतन में 'क्या, कैसे और कब' पढ़ाया जाए, इस बात को पाठ्य सामग्री और शिक्षण गतिविधि में अपनाने की अच्छी स्थिति आज बन चुकी है, पर साहित्य शिक्षण में हम आज भी 'क्या' पर तो जोर देते है (वह भी लेखक के नाम, पाठ की विषयवस्तु और विधागत प्रतिनिधित्व के आधार पर ही ज्यादा, पाठों के अनुस्तरण और शिक्षण बिंदु के आधार पर कम) लेकिन 'कैसे और कब' पर लगभग नहीं के बराबर. शिक्षक की सजगता का अर्थ है यह जानना कि प्रत्येक भाषा अपने अनुभव संसार को ढंग से संयोजित और व्यक्त करती है. भौतिक धरातल पर ये तथ्य भले ही एक हों किंतु बोधन के धरातल पर किसी भाषा समाज द्वारा अपनी विशिष्ट सामाजिक एवं सांस्कृतिक दृष्टि के कारण ये नए संदर्भ में ग्रहण किए जाते हैं. अर्थात संसार को देखने की प्रत्येक भाषा समाज की जीवन जगत के प्रेरित दृष्टि एवं उसकी समग्र जीवन पद्धति की जानकारी के अभाव में प्रायः असंभव है." 

आज आवश्यकता इस बात की है कि हम बात को समझें कि स्वभाषा की शिक्षा के साथ ही स्वभाषा के माध्यम से शिक्षा हमारे व्यक्तित्व के सर्वतोमुखी विकास के लिए परम आवश्यक है. अतः फिर से ऐसा आंदोलन छेड़ा जाना चाहिए जिसका लक्ष्य शिक्षा के माध्यम के रूप में मातृभाषाओं को प्रतिष्ठित करना हो. साथ ही द्वितीय भाषा के रूप में हिंदी भाषी छात्रों को दक्षिण या पूर्वोत्तर की भाषाएँ पढ़ाई जाएँ ताकि सांस्कृतिक ऐक्य की लक्ष्य-सिद्धि हो सके. तीसरी भाषा के रूप में अंग्रेज़ी अथवा अन्य विदेशी भाषाएँ पढ़ी-पढ़ाई का सकती हैं.

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