गुरुवार, 22 नवंबर 2012

महात्मा गांधी का भाषा-विमर्श


”भाषा वही श्रेष्ठ है जिसको जनसमूह सहज में समझ ले. देहाती बोली सब समझते हैं. भाषा का मूल करोड़ों मनुष्य रूपी हिमालय में मिलेगा और उसमें ही रहेगा. हिमालय में से निकलती हुई गंगाजी अनंतकाल तक बहती रहेगी, ऐसे ही देहाती हिंदी का गौरव रहेगा और छोटी-सी पहाड़ी से निकलता हुआ झरना सूख जाता है, वैसे ही संस्कृतमयी और फ़ारसीमयी हिंदी की दशा होगी.” - महात्मा गांधी 

गांधी जी ने एक ऐसे भारत की कल्पना की थी जिसमें न कोई हिंदू होगा, न मुसलमान, न सिख, न ईसाई और न दलित. होंगे तो केवल इंसान होंगे जिनका धर्म होगा इंसानियत. इंसानियत को व्याख्यायित करने की या परिभाषित करने की आवश्यकता नहीं है चूंकि वह स्वयं सिद्ध है. लेकिन आज उस इंसानियत को धर्म के नाम पर, जाति के नाम पर, राष्ट्र के नाम पर, भाषा के नाम पर टुकड़ों में, खेमों में बाँट दिया गया है. आज प्रजातंत्र ‘For the people, Of the people and By the people’ न होकर ‘Far the people, Off the people and Buy the people’ बनता जा रहा है. एक हद तक बन भी गया है. गांधी जी का सपना (रामराज्य स्थापित करने का) महज सपना बनकर रह गया है.

महात्मा गांधी के विचारों की जड़ें भारतीय संस्कृति से रस ग्रहण करती हैं. उनके व्यक्तित्व में एक विलक्षणता और अद्भुत शक्ति थी जिससे देश-विदेश के लोग प्रभावित थे. वे अक्सर यह कहा करते थे कि गांधीवाद जैसा कोई वाद नहीं है. और यह सही भी है क्योंकि उनके व्यावहारिक चिंतन को वाद की सीमाओं में नहीं बाँधा जा सकता. इस संदर्भ में उनका कथन द्रष्टव्य है – “गांधीवाद नाम की कोई चीज नहीं है और न ही मैं अपने पीछे कोई संप्रदाय छोड़ जाना चाहता हूँ. मैं कदापि यह दावा नहीं करता कि मैंने किन्हीं नए सिद्धांतों को जन्म दिया है. मैंने तो अपने निजी शाश्वत सत्यों को दैनिक जीवन और उसकी समस्याओं पर लागू करने का प्रयत्न मात्र किया है. मैंने जो समितियाँ बनाई हैं और जिन परिणामों पर मैं पहुँचा हूँ वे अंतिम नहीं है. मैं उन्हें बदल भी सकता हूँ. मुझे संसार को कुछ नया नहीं सिखाना है. सत्य और अहिंसा इतने ही पुराने हैं जितनी ये पहाडियाँ. मैंने तो केवल व्यापक आधार पर सत्य और अहिंसा के आचारण में जीवन और उसकी समस्याओं का अनेक विधियों से परीक्षण किया है. अपनी सहज जन्मजात प्रकृति से मैं सच्चा तो रहा हूँ और अहिंसक नहीं. सत्य तो यह है कि सत्य मार्ग की खोज में ही मैंने अहिंसा को ढूँढ़ निकाला. मेरा दर्शन जिसे आपने गांधीवाद का नाम दिया है सत्य और अहिंसा में निहित है, आप इसे गांधीवाद के नाम से न पुकारें, क्योंकि इसमें ‘वाद’ तो नहीं है.” (डॉ.लक्ष्मी सक्सेना, समकालीन भारतीय दर्शन, पृ.89 से उद्धृत).

अपने सत्य और अहिंसा के इस व्यावहारिक चिंतन को महात्मा गांधी ने सूत्र रूप में 'हिंद स्वराज' में बहुत बेबाकी से व्यक्त किया है। उन्होंने अन्य विषयों के साथ अपने भाषा चिंतन की भी व्याख्या इसमें की है। स्मरणीय है कि राजनेता के अलावा एक पत्रकार और भाषा चिन्तक के रूप में भी गांधी जी ने भारतीयों को गहरे प्रभावित किया। वे हिंदी साहित्य सम्मलेन और दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा के कार्यकलापों से बराबर सक्रिय रूप में जुड़े रहे तथा उनके भाषा विमर्श का स्वतंत्र भारत के भाषा नियोजन पर गहरा प्रभाव है, “मात्र हिंदी ही नहीं, सभी भारतीय भाषाओं के साहित्येतिहास और कालविभाजन में ‘गांधी युग’ अपनी अलग पहचान और अपना व्यापक प्रभाव लिए हुए व्याख्यायित है.” (प्रो.दिलीप सिंह, गांधी, प्रेमचंद और हम; ‘स्रवन्ति’, अक्टूबर 2010; पृ.4). गांधी जी ने ‘हिंद स्वराज’ में पाठक-संपादक की शैली में स्वराज्य, इंग्लैंड की हालत, सभ्यता का दर्शन, हिंदुस्तान की दशा, उसकी आजादी की संभावनाएँ, हिंदू-मुस्लिम संबंध, राजनैतिक और आर्थिक विकेंद्रीकरण, पत्रकारों की आचार संहिता, शिक्षा, भाषा, सत्य और अहिंसा जैसे अनेकानेक विषयों का खुलासा किया है. मैं यहाँ विशेष रूप सेगांधी जी की भाषा संबंधी मान्यताओं पर प्रकाश डालना चाहूँगी.

गांधी जी ने हिंदी भाषा के विकास के लिए जो कुछ भी किया है वह अतुलनीय है. उन्होंने यह महसूस किया कि पूरे देश को एक सूत्र में बाँधने के लिए तथा स्वराज्य प्राप्त करने के लिए एक ऐसी भाषा की जरूरत है जो 'हिंद' की होगी – हिंदुस्तान की होगी. इस संबंध में वे कहते हैं कि “हिंदुस्तान की आम भाषा अंग्रेज़ी नहीं बल्कि हिंदी है. वह आपको सीखनी होगी और हम तो आपके साथ अपनी भाषा में ही व्यवहार करेंगे.” (महात्मा गांधी, हिंद स्वराज, नया ज्ञानोदय, अंक 82, दिसंबर 2009 (101 वीं वर्षगाँठ पर ‘हिंद स्वराज’ की अविकल प्रस्तुति), पृ. 112). उन्होंने देश के साथ साथ हिंदी सेवा के लिए अपने आपको समर्पित किया. हिंदी के प्रचार-प्रसार करने और उसे भारत के स्वतंत्रता संघर्ष की आधिकारिक भाषा का दर्जा दिलाने के लिए उन्होंने चेन्नई (मद्रास) में 1918 में दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा की स्थापना की. “’राष्ट्रभाषा’ को राष्ट्रीय एकात्मकता और स्वतंत्रता संग्राम का एक हथियार बनाकर पूरे राष्ट्र को एक सूत्र में पिरोने का जो स्वप्न महात्मा गांधी ने देखा था, उनके इसी स्वप्न की परिणति दक्षिण भारत में सभा की स्थापना से हुई. इसकी भूमिका 1918 (इंदौर के आठवें अधिवेशन) में बनी, जिसमें महात्मा गांधी ने हिंदी के विस्तार का व्रत अपने विधायक कार्यक्रम में उसे राष्ट्रभाषा बनाकर लिया और इसके लिए उन्होंने व्यापक पैमाने पर देशव्यापी प्रयत्न किए.” (प्रो.दिलीप सिंह, ‘दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा’, हिंदी भाषा चिंतन, पृ.265).

महात्मा गांधी ने हिंदी के प्रचार-प्रसार के लिए अनेक संगठन और संस्थाओं की स्थापना की. वे वस्तुतः 'हिंदुस्तानी' के पक्षधर थे. उन्होंने अंग्रेज़ी मोह के आवरण को हटाकर हिंदी का - विशेष रूप से हिंदुस्तानी का पक्ष लिया और कहा कि “हिंदी को हम राष्ट्रभाषा मानते हैं. यह राष्ट्रीय होने लायक है. वही भाषा राष्ट्रीय बन सकती है जिसे अधिक संख्यक लोग जानते और बोलते हों और सीखने में सुगम हो.” (गोपाल शर्मा, ‘हिंदी और गांधी’, राजभाषा हिंदी : विचार और विश्लेषण, पृ.98 से उद्धृत). 

हिंदी गांधी जी की मातृभाषा नहीं थी. परन्तु उन्होंने यह महसूस किया कि भारतीय जनता हिंदी का प्रयोग अधिक करती है तो अत्यंत तत्परता से उन्होंने हिंदी सीखी. उनका मत था कि जिस देश की अपनी भाषा नहीं उसे जीने का अधिकार क्या हो सकता है! इसीलिए उन्होंने भारत के स्वतंत्र होने के साथ ही यह सन्देश दिया था कि दुनिया से कह दो गांधी अंग्रेज़ी नहीं जानता. उन्होंने कहा कि ''अपनी भाषा को तोतली बोलोगे तो भी वह मीठी लगेगी. विदेशी भाषा में न कभी सच्ची स्वाभाविकता पा सकोगे न सही तेजस्विता. हिंदी के बिना राष्ट्र गूंगा है.” लेकिन भारतीय जनगण का दुर्भाग्य रहा कि गांधी के बाद हमें उनके जैसा कोई भारतीय भाषाओं से प्रेम अर्ने वाला या भारतीय ज़मीन से जुडा नेता नहीं मिला; और हिंदी राजभाषा होकर भी अंग्रेज़ी की गुलामी से मुक्त नहीं हो सकी। 

गांधी जी मातृभाषा के पक्षधर थे. उनका मत था कि स्वदेशी भाषा और संस्कृति की बलि देकर अंग्रेज़ी नहीं सीखनी चाहिए. उन्होंने राष्ट्रभाषा के रूप में हिंदी को आगे बढ़ाया . उनके अनुसार बुनियादी शिक्षा मातृभाषा में दी जानी चाहिए . उनका यह कथन भाषा विषयक उनकी तड़प का द्योतक है – “अगर मेरे हाथों में तानाशाही सत्ता हो, तो मैं आज से ही विदेशी माध्यम के जरिए दी जाने वाली हमारे लड़कों और लड़कियों की शिक्षा बंद कर दूँ और सारे शिक्षकों और प्रोफेसरों से यह माध्यम तुरंत बदलवा दूँ या उन्हें बर्खास्त कर दूँ. मैं पाठ्य पुस्तकों की तैयारी का इंतज़ार नहीं करूँगा. वे तो माध्यम के पीछे पीछे अपने आप चली आएंगी. यह एक ऐसी बुराई है जिसका तुरंत इलाज होना चाहिए.” गांधी जी इस बात पर बल देते थे कि “जो लोग अंग्रेज़ी पढ़े हुए हैं उनकी संतानों को पहले तो नीति सिखानी चाहिए, उनकी मातृभाषा सिखानी चाहिए और हिन्दुस्तान की एक दूसरी भाषा सिखानी चाहिए. ... हमें अपनी भाषा में ही शिक्षा लेनी चाहिए. ... जो अंग्रेज़ी पुस्तकें काम की हैं उनका अपनी भाषा में अनुवाद करना होगा. ... हर एक पढ़े-लिखे हिन्दुस्तानी को अपनी भाषा का, हिंदू को संस्कृत का, मुसलमान को अरबी का, पारसी को फ़ारसी का और सबको हिंदी का ज्ञान होना चाहिए. कुछ हिंदुओं को अरबी और कुछ मुसलमानों और पारसियों को संस्कृत सीखनी चाहिए. उत्तरी और पश्चिमी हिन्दुस्तान के लोगों को तमिल सीखनी चाहिए. सारे हिन्दुस्तान के लिए जो भाषा चाहिए, वह तो हिंदी ही होनी चाहिए. उसे उर्दू या नागरी लिपि में लिखने की छूट रहनी चाहिए. हिंदू-मुसलमानों के संबंध ठीक रहें, इसलिए बहुत से हिन्दुस्तानियों का इन दोनों लिपियों को जान लेना ज़रूरी है. ऐसा होने से हम आपस के व्यवहार से अंग्रेज़ी को निकाल सकेंगे.” (महात्मा गांधी, हिंद स्वराज, नया ज्ञानोदय, अंक 82, दिसंबर 2009 (101 वीं वर्षगाँठ पर ‘हिंद स्वराज’ की अविकल प्रस्तुति), पृ. 109).

गांधी जी बार बार हिंदी पर जोर देते थे. अंग्रेज़ी के बारे में तो उनका स्पष्ट मत था कि वह भारत की राष्ट्रभाषा नहीं बन सकती. 20 अक्टूबर 1917 को भरूच में हुई दूसरी गुजरात शिक्षा परिषद में राष्ट्रभाषा के लिए उन्होंने पाँच लक्षणों का होना अनिवार्य बताया था –
1. अमलदारों के लिए वह भाषा सरल होनी चाहिए.
2. उस भाषा के द्वरा भारतवर्ष का आपसी धार्मिक, आर्थिक, राजनैतिक व्यवहार हो सकना चाहिए.
3. यह जरूरी है कि भारतवर्ष के बहुत-से लोग उस भाषा को बोलते हो.
4. राष्ट्र के लिए वह भाषा आसान होनी चाहिए.
5. उस भाषा का विचार करते समय क्षणिक या अल्प स्थायी स्थिति पर ज्यादा जोर नहीं देना चाहिए.” 

गांधी जी ने यह भी बताया कि ये लक्षण अंग्रेज़ी में नहीं है बल्कि हिंदी में है तथा हिंदी को हम राष्ट्रभाषा मानते हैं. यह राष्ट्रीय होने लायक है. हिंदी भाषा के बारे में स्पष्ट करते हुए महात्मा गांधी ने कहा था कि “हिंदी मैं उसे कहता हूँ जिसे उत्तरी भारत में हिंदू तथा मुसलमान बोलते हैं तथा जो नागरी या उर्दू लिपि में लिखी जाती है. हिंदी तथा उर्दू दो अलग अलग भाषाएँ नहीं हैं. शिक्षित लोगों ने उनमें अंतर कर रखा है.” 

निष्कर्षतः महात्मा गांधी के भाषा संबंधी कतिपय सूत्र  –
  • हिंदी भाषा पहले से ही राष्ट्रभाषा बन चुकी है. हमने वर्षों पहले उसका राष्ट्रभाषा के रूप में प्रयोग किया है. उर्दू भी हिंदी की इस शक्ति से पैदा हुई है. (20 अक्टूबर 1917 को भरूच में संपन्न दूसरी गुजरात शिक्षा परिषद का अध्यक्षीय भाषण.)
  •  हमें एक मध्य भाषा की भी जरूरत है. देशी भाषाओं की जगह पर नहीं परंतु उनके सिवा. इस बात में साधारण सहमति है कि यह माध्यम हिन्दुस्तानी ही होना चाहिए, जो हिंदी और उर्दू के मेल से बने और जिसमें न तो संस्कृत की और न फारसी और अरबी की ही बरमार हो. (वही).
  •  हमारे रास्ते की सबसे बड़ी रुकावट हमारी देशी भाषाओं की कई लिपियाँ है. अगर एक सामान्य लिपि अपनाना संभव हो, तो एक सामान्य भाषा का हमारा जो स्वप्न है (अभी तो यह स्वप्न ही है) उसे पूरा करने के मार्ग की एक बड़ी बाधा दूर हो जाएगी. (वही).
  • भिन्न भिन्न लिपियों का होना कई तरह से बाधक है. वह ज्ञान की प्राप्ति में एक बड़ी रुकावट है. (वही).
  • मेरी विनम्र सम्मति में तमाम अविकसित और अलिखित बोलियों का बलिदान करके उन्हें हिन्दुस्तानी की बड़ी धारा में मिला देना चाहिए. (वही).
  • हमें एक सामान्य भाषा की वृद्धि करनी होगी. अगर मेरी चले तो जमी हुई प्रांतीय लिपि के साथ साथ मैं सब प्रान्तों में देवनागरी लिपि और उर्दू लिपि का सीखना अनिवार्य कर दूँ और विभिन्न देशी भाषाओं की मुख्य मुख्य पुस्तकों को उनके शब्दशः हिन्दुस्तानी अनुवाद के साथ देवनागरी में छपवा दूँ. (वही). 
  •  करोड़ों लोगों को अंग्रेज़ी की शिक्षा देना उन्हें गुलामी में डालने जैसा है. मैकाले ने शिक्षा की जो बुनियाद डाली, वह सचमुच गुलामी की बुनियाद थी. (हिंद स्वराज्य)
  •  जिस शिक्षा को अंग्रेजों ने ठुकरा दिया है वह हमारा सिंगार बनती है, यह जानने लायक है. उन्हीं के विद्वान कहते रहते हैं कि उसमें यह अच्छा नहीं है, वह अच्छा नहीं है. वे जिसे भूल-से गए हैं, उसी से हम अपने अज्ञान के कारण चिपके रहते हैं. उनमें अपनी अपनी भाषा की उन्नति के कोशिश चल रही है. वेल्स इंग्लैंड का एक छोटा-सा परगना है; उसकी भाषा धूल जैसी नगण्य है. ऐसी भाषा का अब जीर्णोद्धार हो रहा है. वेल्स के बच्चे वेल्श भाषा में ही बोलें, ऐसी कोशिश वहाँ चल रही है. इसमें इंग्लैंड के खजांची लॉयड जॉर्ज बड़ा हिस्सा लेते हैं. और हमारी दशा कैसी है? हम एक-दूसरे को पत्र लिखते हैं तब गलत अंग्रेज़ी में लिखते हैं. एक साधारण एम.ए. पास आदमी भी ऐसी गलत अंग्रेज़ी से बचा नहीं होता. (वही).
  • अंग्रेज़ी शिक्षा को लेकर हमने अपने राष्ट्र को गुलाम बनाया है. अंग्रेज़ी शिक्षा से दंभ, राग, जुल्म वगैराह बढ़े हैं. अंग्रेज़ी शिक्षा पाए हुए लोगों ने प्रजा को ठगने में, उसे परेशान करने में कुछ भी उठा नहीं रखा है. (वही).
  • हिन्दुस्तान को गुलाम बनाने वाले तो हम अंग्रेज़ी जानने वाले लोग ही हैं. राष्ट्र की हाय अंग्रेजों पर नहीं पड़ेगी, बल्कि हम पर पड़ेगी. (वही).
  • हिंदी सुधार (सभ्यता) सबसे अच्छा है, और यूरोप का सुधार तो तीन रोज का तमाशा. (वही).
  •  भारत के गाँवों में हिंदी भाषा के द्वारा ही सेवा संभव है. आज लोगों को राष्ट्रभाषा हिंदी सीख लेने की प्रतिज्ञा कर लेनी चाहिए. (वही).
  • मैं अंग्रेज़ी से नफरत नहीं करता पर मैं हिंदी से अधिक प्रेम करता हूँ. इसलिए मैं हिन्दुस्तान के शिक्षितों से कहता हूँ कि वे हिंदी को अपनी भाषा बना लें. (वही).
  • लिपियों में मैं सबसे आला दरजे की लिपि नागरी को ही मानता हूँ. यह कोई छिपी बात नहीं है फिर नागरी लिपि यदि संपूर्ण है तो उसी का साम्राज्य अंत में होगा. (वही).
यह आलेख 'भास्वर भारत' के प्रवेशांक (अक्टूबर 2012) में 'गांधी जी की राय में एक राष्ट्रभाषा से अधिक एक राष्ट्रलिपि की आवश्यकता' शीर्षक से प्रकाशित  हुआ है.

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