मुझे कुछ कहना है – III (2017)/ डॉ. रामनिवास साहू/ गाजियाबाद : उद्योगनगर प्रकाशन/ पृष्ठ 136/ मूल्य : रु. 200/- |
हिंदी गद्य साहित्य में आत्मकथा लेखन की परंपरा अत्यंत समृद्ध है. महापुरुषों, साधु-महात्माओं, समाज सुधारकों, राजनेताओं और साहित्यकारों ने अपने बाहरी और भीतरी जीवन संघर्ष को आत्मकथाओं के माध्यम से इस तरह व्यक्त किया है कि पाठक को उनसे प्रेरणा प्राप्त होती है. आत्मकथाओं के अगले वर्ग में वे रचनाएँ आती हैं जिनमें निज के बहाने लेखकों ने अपने समुदाय के कष्टों और सच्चाइयों का उत्तम पुरुष शैली में वर्णन किया है और दलित विमर्श तथा स्त्री विमर्श को धार देने में कामयाबी हासिल की है. इसी की अगली कड़ी के रूप में आंचलिक विमर्श को एक नया आयाम डॉ. रामनिवास साहू ‘मुझे कुछ कहना है’ शीर्षक अपनी बहुखंडीय आत्मकथा के माध्यम से देने का प्रयास कर रहे हैं.
यहाँ ठहर कर यह जान लेना जरूरी है कि – ये डॉ. रामनिवास साहू हैं कौन? उनका जन्म वर्तमान छत्तीसगढ़ राज्य के कोरबा जिला के वनवासी अंचल कोरबी में 21 फरवरी, 1954 को हुआ. उनके पूर्वज दो पीढ़ी पहले ही इस वनांचल में आकर बसे थे. कोरबी में जन्मे इस बालक ने किन विपरीत परिस्थितियों में किस-किस तरह के पापड़ बेलते हुए कैसे-कैसे उच्च शिक्षा प्राप्त करने की अपनी जिद पूरी करके दिखाई और कैसे भाषाविज्ञान में एमए करके छत्तीसगढ़ की मुंडा भाषाओं के सर्वेक्षण जैसे विषय पर पीएचडी हासिल की, यह भी इस आत्मकथा का हिस्सा है. साथ ही एक छोटे ग्रामीण दुकानदार का बेटा कैसे अंधविश्वास, कलह और भितरघात से ग्रसित परिवेश से निकलकर केंद्रीय हिंदी संस्थान के क्षेत्रीय निदेशक पद तक पहुँचा, इसकी गाथा भी निरंतर परिश्रम और मूल्यनिष्ठा के प्रति आस्था जगाने वाली गाथा है.
यों तो डॉ. रामनिवास साहू अपने विद्यार्थी काल से ही कुछ न कुछ लिखते रहे हैं. वनवासी और बिगुल शीर्षक से उनकी दो पुस्तकें क्रमशः 2002 और 2003 में आ चुकी हैं तथा भाषाविज्ञान और पत्रकारिता पर भी उनकी चार किताबें आई हैं; लेकिन ‘मुझे कुछ कहना है’ उनके लेखन की नई पारी का प्रतीक है. इसके दो खंड (पहला और तीसरा) 2017 की प्रथम छमाही में प्रकाशित हुए हैं. लेखक की घोषणा के अनुसार आगे और तीन खंड आने हैं.
इस औपन्यासिक आत्मकथा के तीसरे खंड की भूमिका में लेखक ने बताया है कि “मेरा जीवनवृत्त बहुत ही सुंदर, सुदृढ़ तथा स्वर्णमय है. यह उस गाँव के लिए अत्यंत गौरवमय है जिससे प्रेरित होकर हर कोई देश को, राष्ट्र को समझना चाहेगा तथा राष्ट्रीय जीवन की मुख्यधारा में आने के लिए स्वतः प्रेरित होकर सोपान-दर-सोपान कदम बढ़ाना चाहेगा.” इसका अर्थ यह है कि लेखक अपनी आत्मकथा को छत्तीसगढ़ के उस अंचल की नई पीढ़ी के लिए प्रेरणास्पद मानता है जिसकी जमीन से वह स्वयं उगा है. इस खंड में उनके सोलहवें वर्ष की कथाएँ हैं.
किसी व्यक्ति के जीवन में सोलहवाँ वर्ष बड़ा महत्वपूर्ण होता है. किशोरावस्था के सपने इसी उम्र में आँखों में अंगडाई लेते हैं और यही उम्र यह तय करती है कि वह व्यक्ति किस दिशा में जाएगा. यहाँ कथानायक भविष्य के सपने बुन रहा है. इन सपनों में अब फ़िल्मी नायक-नायिका आने लगे हैं. हर महीने फिल्म देखने का नियम जैसा बन गया है. इस फिल्म-प्रेम ने कथानायक के मन में सामाजिक सवाल खड़े किए और बोध का निर्माण करने में बड़ी भूमिका निभाई. गाँव की प्रभातफेरी और रामचरितमानस के पाठ जैसी चीजों ने उसके इस बोध को राष्ट्रीयता के साथ जोड़ा. कॉलेज जीवन के खट्टे-मीठे अनुभवों ने भी कई तरह के मानसिक द्वंद्व खड़े किए, लेकिन भटकने की सारी सुविधाओं के बावजूद कथानायक की दृष्टि से शिक्षा रूपी मछली की आँख कभी ओझल नहीं हो सकी. आचार-विचार की सहजता का संस्कार उसे अपने माता-पिता और पालनहारी पिसौदहीन बड़कादाई से मिला था जिसे श्रीराम शर्मा आचार्य के जीवन दर्शन ने और भी ऊँचाई प्रदान की. यही वह संबल था जिसने कथानायक को कीचड़ में कमलवत रहने की दीक्षा दी.
इसमें संदेह नहीं कि ‘मुझे कुछ कहना है’ के इस तीसरे खंड में छत्तीसगढ़ के आंचलिक वनवासी जीवन के अँधेरे-उजाले का संघर्ष लेखक के अपने जीवनसंघर्ष के ‘बैकड्रॉप’ के रूप में चित्रित है. ये दोनों संघर्ष एक-दूसरे को उभारकर दिखाते हैं और पाठक आत्मकथा के बहाने अंचलकथा का भी आनंद प्राप्त करता चलता है.
पुस्तक के प्रकाशन पर लेखक और प्रकाशक को हार्दिक बधाई.
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