प्रकृति और मनुष्य एक दूसरे से संबद्ध है। प्रकृति का अर्थ है संपूर्ण भौतिक वातावरण अथवा पर्यावरण। मनुष्य तथा प्राकृतिक पर्यावरण के बीच संतुलन बनाए रखना सृष्टि के अस्तित्व की अनिवार्य शर्त है। आदर्श स्थिति यह हो सकती है कि पेड़-पौधे, पशु-पक्षी और मनुष्य सामंजस्य में रहें तथा कोई भी किसी पर हावी न हो या एक-दूसरे को नष्ट न करे। पुराने जमाने में मनुष्य की आवश्यकताएँ सीमित थीं। अतः वह पर्यावरण के दोहन की बात सपने में भी नहीं सोच सकता था। लेकिन सभ्यता के विकास के साथ-साथ मनुष्य ने प्रकृति का दोहन करना सीखा। सृष्टि का सबसे अधिक योग्य और बुद्धिमान सृजन होने के कारण मनुष्य ने यह भ्रम पाल लिया कि वह सारी सृष्टि का एक मात्र मालिक है और उसके अलावा सृष्टि में जो कुछ भी है सब उसके उपभोग के लिए है। इसलिए उसने पर्यावरण का अंधाधुंध उपभोग किया। इस तरह प्राकृतिक संसाधनों के व्यापक दुरुपयोग ने मनुष्य को विनाश के कगार पर लाकर छोड़ दिया है। पिछले कुछ दशकों से पर्यावरण के क्षरण और प्रदूषण ने मानव समाज के लिए खतरा पैदा किया है। मनुष्य सुख-सुविधाओं के लिए पर्यावरण को प्रदूषित करके कुछ समय के लिए यह सोच सकता है कि उसने प्रकृति पर विजय प्राप्त कर ली है लेकिन उसे याद रखना चाहिए कि जब प्रकृति बदला लेगी तो उसका सामना करना मनुष्य के लिए संभव नहीं होगा – ‘प्रकृति रही दुर्जेय/ पराजित थे हम सब अपने मद में।‘ (जयशंकर प्रसाद. कामायनी)।
मनुष्य जब पर्यावरण के साथ छेड़छाड़ करता है तो वह अपना रुद्र रूप प्रदर्शित करती ही है। पौराणिक भाषा में इस स्थिति को प्रलय कहा गया है। ‘कामायनी’ के आरंभ में प्रकृति के भयानक रूप का वर्णन है जिसमें जल-प्रलय के बाद सब कुछ नष्ट हो जाता है। जयशंकर प्रसाद ने ‘कामायनी’ के प्रथम सर्ग में जिस प्रलय का चित्रण किया है उसके पीछे प्राकृतिक संपदा के अबाध उपभोग और पर्यावरण के संतुलन के प्रति देव जाति का अवज्ञापूर्ण आचरण निहित है। कहना अनुचित न होगा कि इस दृष्टांत के माध्यम से प्रसाद ने अविवेकपूर्वक प्रकृति के दोहन की उपभोगवादी संस्कृति के विनाश की भविष्यवाणी की है। इसे बीसवीं शताब्दी के हिंदी साहित्य में पर्यावरण विमर्श का सार्थक उद्घोष माना जा सकता है। यही वह समय था जब भारतीय समाज आधुनिक उपभोक्तावादी संस्कृति के संपर्क में आ रहा था और साथ ही उसके परिवार से लेकर परिवेश तक पर पड़ने वाले विपरीत प्रभावों को देख और समझ भी रहा था।
पुरुषप्रधान सामाजिक-आर्थिक व्यवस्था में प्रकृति और स्त्री दोनों को एक-दूसरे के प्रतीक के रूप में देखा जाता रहा है। आदर्श स्थिति तो यह होनी चाहिए थी कि इन दोनों के साथ सामंजस्यपूर्ण सहअस्तित्व रखते हुए सभ्यता का विकास किया जाता। धरती और स्त्री दोनों को पूजनीय मानने के पीछे शायद यही दृष्टि रही हो। सामान्यतः धरती को स्त्री के समान और स्त्री को धरती के समान माना जाता रहा है। लेकिन अधिकार और सत्ता की अपार इच्छा पुरुषवादी व्यवस्थाओं के चरित्र को शोषण की मनोवृत्ति से संपन्न करती रही है। इस मनोवृत्ति के कारण ही पुरुष केन्द्रित समाज का विकास पर्यावरण और स्त्री के निरनटर दोहन पर टिका है। इस दोहन के पीछे पुरुष की आधिपत्य की भावना है। ‘कामायनी’ में जयशंकर प्रसाद पुरुष के इस सत्तावादी व्यवहार के प्रति भी ध्यान आकर्षित करते हैं। मनु जब इड़ा से दुर्व्यवहार करता है तो देव-शक्तियाँ क्रोध से भर जाती हैं – ‘उधर गगन में क्षुब्ध हुई सब देव-शक्तियाँ क्रोध-भरी,/ रुद्र-नयन खुल गया अचानक – व्याकुल काँप रही नगरी,/ अतिचारी था स्वयं प्रजापति, देव अभी शिव बने रहें!/ नहीं, इसी से चढ़ी शिंजिनी अजगव पर प्रतिशोध भरी।‘ (जयशंकर प्रसाद. कामायनी, स्वप्न, पृ.69)। इसे पर्यावरण विमर्श की अत्यंत महत्वपूर्ण शाखा ईकोफेमिनिज़्म (स्त्रीवादी पर्यावरण विमर्श) की आहट के रूप में विश्लेषित किया जा सकता है।
इसमें कोई संदेह नहीं है कि उपभोक्तावादी संस्कृति ने एक ओर तो पर्यावरण को नष्ट किया तथा दूसरी ओर स्त्री को ‘उपभोग की वस्तु’ बना डाला। मनुष्य की महत्वाकांक्षाएँ इतनी बढ़ रही हैं कि “अपने नफे के लिए साधारण आवश्यकता की वस्तुओं के दाम चढ़ा सके, अपने माल की खपत कराने के लिए युद्ध करा दे, गोला-बारूद और युद्ध सामग्री बनाकर दुर्बल राष्ट्रों का दमन कराए।“ (प्रेमचंद, महाजनी व्यवस्था)। ‘गोदान’ में प्रेमचंद कहते हैं कि “धन-लोभ ने मानव भावों को पूर्ण रूप से अपने अधीन कर लिया है। कुलीनता और शराफत, गुण और कमाल की कसौटी पैसा, और केवल पैसा है। .... यह हवा इतनी जहरीली हो गई है कि इसमें जीवित रहना कठिन होता जा रहा है।“ (प्रेमचंद, गोदान)।
मनुष्य इतना स्वार्थी बन चुका है कि उपजाऊ जमीन को भी नष्ट करके उसके स्थान पर कारख़ाने ही कारखाने खड़े कर दिए हैं जिससे पर्यावरणीय संतुलन ध्वस्त हो गया है। प्रेमचंद इस ओर ‘रंगभूमि’ (1925) में पहले ही संकेत कर गए हैं। सूरदास कहता है कि “जमीन जाएगी तो इसके साथ ही मेरी जान भी जाएगी।“ जब जॉन सेवक जमीन के लिए मुँह माँगा दाम देने के लिए सूरदास से सौदा करने लगता है तो सूरदास कहता है “इस जमीन से मुहल्लेवालों का बड़ा उपकार होता है। कहीं एक अंगुल भर चरी नहीं है। आस-पास के सब ढोर यहीं चरने आते हैं। बेच दूँगा तो ढोरों के लिए कोई ठिकाना न होगा।“ उसे किसी भी स्थिति में यह स्वीकार नहीं है कि, “कारखाने के लिए बेचारी गउएँ मारी-मारी फिरें!” (प्रेमचंद, रंगभूमि)। लेकिन बीसवीं शताब्दी का पूरा इतिहास गवाह है कि दुनिया भर में सूरदास की यह आवाज दबा दी गई और औद्योगीकरण ने विजय प्राप्त की।
औद्योगीकरण के साथ ही शहरीकरण की होड़ लगी। अब तो स्मार्ट शहरों की बात की जा रही है। लेकिन इस सच्चाई से मुँह नहीं मोड़ा जा सकता है कि हरियाली की कीमत पर पत्थर के जंगल खड़े होने से दुनिया भर को ग्लोबल वार्मिंग का खतरा झेलना पड़ रहा है। ओज़ोन की पर्त में छेद होते जा रहे हैं। नदियों की तुलना में समुद्र ऊँचा होता जा रहा है। ये सब उस प्रलय की ओर ही इशारा करने वाली घटनाएँ हैं जिसके मूल में पर्यावरण का अंधाधुंध दोहन और प्रदूषण निहित है। पर्यावरण के संरक्षण के प्रति उदासीन मनुष्य जाती अपने आपको एक ऐसी सड़ांध से घेरती जा रही है जो फेफड़ों में जाकर मनुष्य के अस्तित्व की जड़ों को खोखला करने वाली है। दरअसल, पर्यावरण को प्रदूषित करने वाले स्रोतों को पहचानने और वहीं उसका निराकरण करने की आवश्यकता कल भी थी और आज भी है। प्रेमचंद ने अपने उपन्यास ‘कमभूमि’ (1932) में प्रतीकात्मक शैली में इस ओर इशारा किया है - “गली में बड़ी दुर्गंध थी। गंदे पानी के नाले दोनों तरह बह रहे थे। घर प्रायः सभी कच्चे थे। गरीबों का मुहल्ला था। शहरों के बाज़ारों और गलियों में कितना अंतर है! एक फूल है – सुंदर, स्वच्छ, सुगंधमय; दूसरी जड़ है – कीचड़ और दुर्गंध से भरी टेढ़ी-मेढ़ी; लेकिन क्या फूल को मालूम है कि उसकी हस्ती जड़ से है?” (प्रेमचंद. कर्मभूमि)। यहाँ यह संकेत निहित है कि ग्रामीण परिवेश और पर्यावरण यदि स्वस्थ नहीं रहेगा तो शहरी परिवेश भी एक न एक दिन प्रदूषित हो ही जाएगा। अतः शहर केंद्रित आधुनिक सभ्यता को अपनी जड़ें पहचान कर गाँवों को स्वच्छ और स्वस्थ बनाने की चिंता करनी ही चाहिए। हम कह सकते हैं कि यह पर्यावरण विमर्श का ग्राम केंद्रित मॉडल हो सकता है।
प्रकृति के दोहन से उतपन्न समस्याओं के कारण एक नया अध्ययन क्षेत्र उपस्थित हुआ जिसे ईकोक्रिटिसिज़्म कहा जाता है। हिंदी में इसके लिए पारिस्थितिकी और पर्यावरण विमर्श जैसे शब्द प्रचलन में हैं। ये दोनों ही अनूदित नामकरण क्रमशः अपारदर्शी और अपर्याप्त प्रतीत हो गए हैं। इनकी तुलना में प्रो. गोपाल शर्मा द्वारा अपने एक निबंध ‘ईकोक्रिटिसिज़्म : हरित विमर्श की अवधारणा’ में ईकोक्रिटिसिज़्म के लिए प्रस्तावित ‘हरित विमर्श’ अपेक्षाकृत अधिक पारदर्शी और सटीक है। जिसका केंद्रीय लक्ष्य है - संस्कृति और प्रकृति के बीच संबंधों पर पुनर्विचार। यह लक्ष्य ‘हरित विमर्श’ द्वारा बेहतर ढंग से संप्रेषित हो सकता है।
दरअसल, सांस्कृतिक परिदृश्य का अनिवार्य संबंध भौतिक परिदृश्य अर्थात भूगोल से होता है। इसमें भी संदेह नहीं कि प्रकृति को काटछांट कर ही मनुष्य ने तथाकथित संस्कृति का निर्माण किया है। जब तक मनुष्य प्रकृति के साथ घनिष्ठ आत्मीय संबंध का निर्वाह करता है तब तक पर्यावरण के लिए कोई खतरा नहीं होता। दुर्भाग्य यह है कि अपनी सुख सुविधाओं को बढ़ाने के लिए मनुष्य विज्ञान और प्रौद्योगिकी की प्रगति के साथ प्रकृति से अलग होता गया। परिणामस्वरूप प्राकृतिक पर्यावरण धीरे-धीरे कृत्रिम वातावरण में बदलता गया। इसका अर्थ है कि पर्यावरण संकट इस कारण नहीं है कि ईकोसिस्टम कैसे कार्य करता है बल्कि इसके लिए हमारी नैतिक प्रणाली की खामियाँ जिम्मेदार हैं।
आज हम प्रदूषित वातावरण में जी रहे हैं। प्राणवायु के स्थान पर मौत की हवा अपनी साँसों में भर रहे हैं। पल-पल हवाएँ खराब होती जा रही हैं। प्रत्येक संवेदनशील व्यक्ति को ऐसी स्थिति में पर्यावरण दोहन का विरोध करने लिए उठा खड़ा होना होगा।
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