"हमने तो कलियाँ माँगी ही नहीं
काँटे ही माँगे
पर वो भी नहीं मिले
यह न मिलने का अहसास
जब सालता है
तो काँटों से भी अधिक गहरा चुभ जाता है
तब
प्रतिरोध में उठ जाता है मन-
भाले की नोकों से अधिक मारक बनकर"
पर वो भी नहीं मिले
यह न मिलने का अहसास
जब सालता है
तो काँटों से भी अधिक गहरा चुभ जाता है
तब
प्रतिरोध में उठ जाता है मन-
भाले की नोकों से अधिक मारक बनकर"
... कहने वाली बेबाक साहित्यकार रमणिका गुप्ता का जन्म 22 अप्रैल, 1930 को सुनाम (पंजाब) में हुआ था। उन्होंने अपने पिता से उदारता और माता से जिद्दी स्वभाव अर्जित की। अपनी आत्मकथा ‘आपहुदरी’ में उन्होंने स्वयं इस बात की पुष्टि की।
रमणिका गुप्ता ने आजीवन आदिवासियों, दलितों और स्त्रियों के उत्थान हेतु कार्य किया। स्त्रियों की मुक्ति के संदर्भ में उनका कथन उल्लेखनीय है। उन्होंने एक साक्षात्कार में कहा कि "जब मैं स्त्री मुक्ति का नाम भी नहीं सुनी थी, तभी से स्त्री के स्वाभिमान की लड़ाई लड़ रही हूँ। घर से ही मैंने नौकरों के अधिकारों की लड़ाई लड़ी है।" स्त्री विमर्श का दिशा निर्धारित करते हुए उन्होंने कहा है कि - "स्त्री विमर्श ने औरत में वस्तु से व्यक्ति बनने की समझ पैदा की है। स्त्री विमर्श से स्त्रियों में आटोनामी यानी स्वायत्तता की इच्छा जगी है। उनमें निर्णय लेने की शक्ति पनपी है। हालांकि इतना ही काफी नहीं है क्योंकि अब भी और बहुत कुछ करना बाकी है। भारत की 99 प्रतिशत स्त्रियाँ सुहाग-भाग पति-परमेश्वर, पारिवारिक इज्जत की अवधारणओं से ग्रस्त हैं। ये अवधारणाएँ एक ग्रंथि की सीमा तक पहुँच चुकी हैं, उनके अंतर्मन में कुंडली जमाकर बैठी हुई हैं। हमें इनसे निजात पानी है तो अपने को इनसे मुक्त करना ही होगा।" (गुप्ता, रमणिका. स्त्री मुक्ति, संघर्ष और इतिहास, नई दिल्ली : सामयिक प्रकाशन. पृ.66)
रमणिका गुप्ता की कृतियों में (कविता संग्रह) भीड़ सतर में चलने लगी है, तुम कौन, तिल तिल नूतन, मैं आजाद हुई हूँ, अब मूरख नहीं बनेंगे हम, भला मैं कैसे मरती, आदम से आदमी तक, विज्ञापन बनते कवि, कैसे करोगे बँटवारा इतिहास का, निज घरे परदेसी, प्रकृति युद्धरत है, पूर्वांचल : एक कविता यात्रा, आम आदमी के लिए, खूँटे, अब और तब, गीत-अगीत; (उपन्यास) सीता, मौसी; (कहानी संग्रह) बहू जुठाई; (गद्य पुस्तकें) कलम और कुदाल के बहाने, दलित हस्तक्षेप, सांप्रदायिकता के बदलते चेहरे, दलित चेतना : साहित्यिक और सामाजिक सरोकार, दक्षिण-वाम के कठघरे और दलित साहित्य, असम नरसंहार : एक रपट, राष्ट्रीय एकता, विघटन के बीज; (आत्मकथा) हादसे, आपहुदरी उल्लेखनीय हैं। उत्कृष्ठ साहित्य के लिए वे अनेक सम्मानों एवं पुरस्कारों से अलंकृत हो चुकी हैं।
रमणिका गुप्ता ने स्वयंसेवी कार्यकर्ता एवं साहित्यकार के रूप में हमेशा ही स्त्री, आदिवासी, दलित और मजदूरों के मुद्दों को उकेरा। उनके साहित्य को ध्यान से पढ़ने से यह स्पष्ट होता है कि उन्होंने आदि से अंत तक मुक्ति की कामनी की। अनेक रूपों एवं आयामों में यह मुक्ति उनके साहित्य में निहित है। अपनी कविता ‘मैं आजाद हुई हूँ’ में वे कहती हैं कि "हाँ! डरो मत! आओ न!/ भीतर चले आओ तुम/ अब तुम पर कोई खिड़कियाँ/ बंद करने वाला नहीं है/ अब मैं अपने वश में हूँ/ किसी और के नहीं/ इसलिए रुको मत/ मैं आजाद हुई हूँ।"
रमणिका गुप्ता जो भी लिखती हैं बेबाक लिखती हैं। वे हमेशा विवादों के कटघरे में खड़ी रही। उनका कहना है कि पुरुषों का आर्थिक दोहन होता है तो स्त्रियों का दैहिक दोहन होता है। वे कहती हैं कि "हम राजनीतिक तौर पर आजाद तो चुके हैं, पहनावे में भी पश्चिम की नकल कर रहे हैं किंतु सोच के स्तर पर विशेषकर स्त्री और सेक्स के बिंदु पर, हमारी मानसिकता मध्यवर्गीय ही है – बल्कि कहा जाए तो 16वीं सदी की मानसिकता ही हम आज भी ढो रहे हैं। हम सूडोमॉडर्न हैं – मॉडर्न नहीं।" (गुप्ता, रमणिका. 2005. हादसे. नई दिल्ली : राधाकृष्ण पेपरबैक्स)
रमणिका गुप्ता ने एक साक्षात्कार में स्त्रियों की स्थिति के बारे में स्पष्ट करते हुए कहा कि "देश में लाखों की संख्या में जो महिलाएँ खेतों में खटती हैं वे हमसे ज्यादा स्वतंत्र हैं। मध्य वर्ग की स्त्री को क्या चाहिए वर्जनाओं से मुक्ति, काम करने की छूट, स्वावलंबी बनने की छूट। निम्न वर्ग की स्त्रियाँ पहले से ही स्वावलंबी हैं। कई बार वो पति से ज्यादा कमाती हैं। बच्चों को पालती हैं। उनको छूट है शादी करने की, छोड़ने की और दूसरा मर्द करने की। पर उनके यहाँ दबाव दूसरी तरह के हैं। वहाँ दबंग हावी हैं। उच्च वर्ग की बात करें तो यहाँ की महिला या तो बिजनेस वीमेन है या फिर वे ड्राइंग रूम डॉटर्स हैं। वो उसी में खुश हैं। हमारी 90 फीसदी औरतें अपनी गुलामी का जश्न मनाती हैं। वो सुहाग, पति परमेश्वर जैसी बातों में रहती हैं। निम्न वर्ग में बलात्कार होता है तो जुल्म होता है और हमारे यहाँ बलात्कार होता है तो इज्जत लुटती है। इज्जत का सिंड्रोम शुचिता, कुंवारीं लड़की, इसका सिंड्रोम औरत को गुलाम बनाए रखता है। परिवार ने महिलाओं को पुरुष के नजरिये से सोचने वाला बना दिया है। कामकाजी महिला अपने पति से मार खाती है, डॉक्टर महिला मजार-मंदिर पर जाकर लड़के की माँग करती है। परिवार के टूटने से ही स्त्रियों की स्थिति में कुछ सुधार होगा। वह स्वतंत्र बनेगी, बाहर निकलेगी, काम करेगी तब कहीं जाकर वह अपनी इज्जत करना सीखेगी। जब वह अपनी इज्जत करेगी तभी दूसरे भी उसका सम्मान करेंगे।"
रमणिका गुप्ता की आत्मकथा ‘हादसे’ के संबंध में सीताराम येचुरी का कहना है कि ‘हादसे’ मुठभेड़ों की शृंखला है। सुकृता पॉल रमणिका गुप्ता को व्यक्ति के बजाए संस्था के रूप में रेखांकित करते हुआ कहती हैं कि यदि उन्होंने आत्मकथा (हादसे) में खुद को ‘कोयले की रानी’ और ‘पानी की रानी’ बताती हैं तो इसके पीछे का तथ्य यह है कि उन्होंने झारखंड के आदिवासी बहुल क्षेत्रों में कोयले और पानी के लिए संघर्ष किया था। रमणिका गुप्ती की कथनी और करनी में अंतर नहीं दीखती। वे आदिवासियों, दलितों और स्त्रियों के साथ होने वाले भेदभाव के खिलाफ हमेशा लड़ती रहीं।
‘युद्धरत आम आदमी’ पत्रिका के माध्यम से रमणिका गुप्त ने हाशियेकृत समाजों के उत्थान के लिए महत्वपूर्ण कार्य किया। इसकी शुरूआत उन्होंने 1986 में त्रैमासिक पत्रिका के रूप में हजारीबाग से की थी। बाद में इसका प्रकाशन दिल्ली से होने लगा और 2013 अक्टूबर से मासिक के रूप में परिवर्तित हुई। इसका मुख्य उद्देश्य आदिवासियों, दलितों, अल्पसंख्यकों और महिलाओं की सृजनशीलता को प्लेटफार्म प्रदान करना था। स्त्री अधिकारों के संघर्षरत रमणिका गुप्ता 27 मार्च, 2019 को पंचतत्व में विलीन हुई। स्त्री, आदिवासी, दलित और अल्पसंख्यक की मुक्ति की कामना करने वाली रमणिका गुप्ता को भावभीनी श्रद्धांजलि अर्पित करती हैं।
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