रविवार, 16 जून 2019

स्वीकृति वक्तव्य : डॉ. सी. नारायण रेड्डी साहित्य पुरस्कार-2019


समारोह की अध्यक्ष आदरणीया प्रो. शुभदा वांजपे जी, मुख्य अतिथि श्रद्धेय डॉ. नंदिनी सिद्दा रेड्डी जी, राइटर्स एंड जर्नलिस्ट्स असोसिएशन ऑफ इंडिया, तेलंगाना इकाई के महासचिव श्री देवाप्रसाद मयला जी, कादंबिनी क्लब, हैदराबाद एवं आथर्स गिल्ड ऑफ इंडिया, हैदराबाद चैप्टर की संयोजक परम आदरणीया डॉ. अहिल्या मिश्र जी, मंचासीन विद्वज्जन, सभागार में उपस्थित साहित्य प्रेमियो.... 

यह मेरे लिए अत्यंत हर्ष और गौरव का विषय है कि ‘डॉ. सी. नारायण रेड्डी साहित्य पुरस्कार-2019’ के लिए मुझे चुना गया है। इस हेतु मैं पुरस्कार समिति के सदस्यों के प्रति हार्दिक कृतज्ञता प्रकट करती हूँ। मैं इस पुरस्कार को विनम्रतापूर्वक शिरोधार्य करती हूँ। मेरे लिए यह सम्मान समस्त तेलुगु एवं हिंदी साहित्यिक जगत के स्नेह और आशीर्वाद का प्रतीक है। 

यह क्षण मेरे लिए अविस्मरणीय क्षण है। मैंने कल्पना भी नहीं की थी कि कभी मुझे डॉ. सी. नारायण रेड्डी के नाम से प्रवर्तित पुरस्कार प्राप्त होगा। 

मैं इस अवसर पर नारायण रेड्डी जी से जुड़ी हुई कुछ स्मृतियों को आपसे साझा करना चाहती हूँ। लगभग 40 वर्ष की दोस्ती थी मेरे पिताजी श्री गुर्रमकोंडा श्रीकांत और डॉ. सी. नारायण रेड्डी जी की। दोनों ने मिलकर साहित्यिक पत्रिकाओं का संपादन भी किया था। दोनों ही साहित्यकार होने के कारण घंटों चर्चा-परिचर्चा में बिताते थे। समय का पता ही नहीं चलता था उन्हें। साहित्य से लेकर राजनीति तक तमाम बातें होती थीं। 1992 में मुझे पहली बार नारायण रेड्डी जी के दर्शन का सौभाग्य मिला - रवींद्र भारती के सांस्कृतिक विभाग में। पिताजी और नारायण रेड्डी जी चर्चा कर रहे थे और मैं बस उनकी बातें सुन रही थी। अचानक अपनी बात रोककर नारायण रेड्डी जी ने मुझसे तेलुगु में प्रश्न किया तो मैंने अंग्रेजी में उत्तर दिया। तो एकदम गुस्से में आ गए और पिताजी को डाँटने लगे। तब पिताजी ने कहा कि ‘तमिलनाडु में पली-बढ़ी होने से यह तमिल जानती है। तेलुगु भी समझ तो सकती है लेकिन उसमें बात नहीं कर सकती। अंग्रेजी और हिंदी में जवाब देती है।’ तब नारायण रेड्डी जी ने मुझ से हिंदी में बात की और कहा ‘यह अच्छी बात नहीं है बेटा। देखो! आपके कारण पिताजी को आज मेरे सामने शर्मिंदा होना पड़ा। कल किसी और के सामने होना पड़ेगा। इसलिए मातृभाषा सीखो। माँ को सम्मान दो।’ उसके बाद मैंने अपने आप से वादा कर लिया था कि मेरे कारण पिताजी को कभी शर्मिंदा न होना पड़े। 

उस दिन नारायण रेड्डी जी ने अपनी प्रसिद्ध काव्य पंक्तियाँ सुनाई – ‘नड़का ना तल्लि/ परुगु ना तंड्री/ समता ना भाषा/ कविता ना श्वासा।’ (गति मेरी माँ है/ प्रयाण मेरा पिता/ समता मेरी भाषा है/ कविता मेरी साँस)। नारायण रेड्डी जी की बातों से मैं बेहद प्रेरित हुई। उसके बाद तेलुगु बोलना ही नहीं, लिखना-पढ़ना भी सीख गई। आज मैं तेलुगु साहित्य को यथाशक्ति हिंदी पाठकों के समक्ष लाने का कार्य कर रही हूँ – सेतुबंध में गिलहरी बनकर। तेलुगु साहित्य पर केंद्रित मेरी दो पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। दोनों ही कृतियाँ सरकारी अनुदान से प्रकाशित हुई हैं। पहली पुस्तक ‘तेलुगु साहित्य : एक अवलोकन’ परिलेख हिंदी साधक सम्मान से पुरस्कृत है तो दूसरी पुस्तक ‘तेलुगु साहित्य : एक अंतर्यात्रा’ केंद्रीय हिंदी निदेशालय, मानव संसाधन विकास मंत्रालय के ‘हिंदीतर भाषी हिंदी लेखक पुरस्कार’ से पुरस्कृत है। वर्तमान मानव संसाधन विकास मंत्री डॉ. रमेश पोखरियाल निशंक जी की एक पुस्तक का हिंदी से तेलुगु में और तेलुगु साहित्यकार कालोजी की कुछ कविताओं का हिंदी में अनुवाद करने का भी सुअवसर मुझे मिला है। मुझे सदा तेलुगु साहित्य पर हिंदी में लिखने के लिए प्रेरित और प्रोत्साहित करने वाले अपने गुरुवर श्रद्धेय प्रो.ऋषभदेव शर्मा जी के प्रति मैं आजीवन ऋणी रहूँगी। 

तीन चार विभिन्न अवसरों पर नारायण रेड्डी जी से मुलाक़ात हुई। उनके साथ मंच साझा करने का अप्रतिम अवसर भी प्राप्त हुआ। 2009 में जब पिताजी को श्रीश्री सम्मान प्राप्त हुआ तो मैं उनके साथ कार्यक्रम में गई। मुख्य अतिथि थे डॉ. सी. नारायण रेड्डी जी। पिताजी ने मेरी ओर इशारा करते हुए उनसे पूछा ‘इसे पहचाना?’ तो रेड्डी जी ने कहा – ‘हाँ, मैंने कुछ कार्यक्रमों में तेलुगु पुस्तकों की समीक्षा करते हुए इनको सुना है। अच्छी समीक्षक है। लग रहा है कि दोनों भाषाओं पर अधिकार पाने की कोशिश कर रही है।’ तब पिताजी ने हँसते हुए कहा – ‘यह तो मेरी वही बेटी है जिसके कारण आपने मुझे डाँटा था।’ बेहद खुश होकर मेरी पीठ थपथपाते हुए उन्होंने कहा – ‘अच्छा; तेलुगु सीख गई! पिता का नाम रोशन करेगी।’ आज मेरे पिताजी होते तो वे बहुत ही प्रसन्न होते। 

‘डॉ. सी. नारायण रेड्डी साहित्य पुरस्कार’ मिलने से मेरी ज़िम्मेदारी और बढ़ गई है। अब मुझे पहले से ज्यादा साहित्य की सेवा करनी होगी। मैंने कभी नियमित रूप से नहीं लिखा है। कविता तो मैं तभी लिखती हूँ जब मेरे अंदर कुछ संघर्ष चलता है। गद्य की भी स्थिति लगभग ऐसी ही है। लेकिन मेरी ज़िम्मेदारी अब आप लोगों ने बढ़ा दी है। 

सिनारे ने अपनी एक कविता में ज़ोर देकर कहा था - 

‘एक बादल का हस्ताक्षर उसकी बारिश की बूँदों में पाया जाता है 
एक पेड़ का हस्ताक्षर उसकी कोमल पत्तियों में पाया जाता है 
मेरे हस्ताक्षर के लिए दस्तावेजों की तलाश व्यर्थ है 
मेरे मन का हस्ताक्षर मेरी काव्य कृतियों में पाया जाता है’ 

तो मैं उन्हीं की इन पंक्तियों को साक्षी मानकर आप सबके समक्ष आज संकल्प लेती हूँ कि मैं निरंतर लिखूँगी और हिंदी तथा तेलुगु के लिए आजीवन काम करूँगी। 

मैं सभी आयोजकों, अतिथियों और पुरस्कार चयन समिति के सदस्यों के प्रति आभार व्यक्त करती हूँ। 

अंत में सबसे अधिक महत्वपूर्ण बात है कि आज ‘फादर्स डे’ है। इस दिन यह पुरस्कार ग्रहण करते हुए मैं सचमुच भावविह्वल हूँ। और यह सम्मान मैं अपने माता-पिता की स्मृति को समर्पित कर रही हूँ। 

धन्यवाद। 
- गुर्रमकोंडा नीरजा

4 टिप्‍पणियां:

RISHABHA DEO SHARMA ऋषभदेव शर्मा ने कहा…

हार्दिक अभिनंदन, डॉ. नीरजा।

Unknown ने कहा…

Badhai

Roopa ने कहा…

Congratulations madam

Unknown ने कहा…

बहुत-बहुत बधाई डॉ.गुर्रमकोंडा नीरजा जी, आशा है, आपकी कलम साहित्यिक दौड़ लगाती रहेगी, आपको जीत दिखाती रहेगी।