पशु हो गया हो
तो विवेक के रहते
प्रतीक्षा करो
उसके पुनः मनुष्य होने की
यह विचार नरेश मेहता का है। वे पीड़ित और शोषित मानव के बारे में सोचते थे। महलों में रहने वालों से उनके कवि का नाता नहीं। वे अपनी अनुभूतियों और अनुभवों के विस्तृत फलक को अपनी कृतियों में अंकित करते हैं। उनकी रचनाओं में मानवता के प्रति प्रेम और जीवन की वास्तविकताओं को देखा जा सकता है। उनके अनुसार ‘विवेकहीनता मनुष्य को पशु बना देता है’। विवेकशून्यता व्यक्ति के भीतर विचारशून्यता का अंधा कारागार निर्मित कर देती है। विडंबना है कि ‘व्यवस्था का मुकुट धारण करते ही किसी भी व्यक्ति का मनुष्यत्व नष्ट हो जाता है’।
नरेश मेहता मानवीय गुणों को महत्व देने वाले रचनाकार थे। वे इस बात पर बल देते थे कि इतिहास मानवीय उदात्तता से लिखा जाना चाहिए, न कि खड़ग से। उन्होंने ‘प्रवाद पर्व’ में कहा है कि ‘मानवीय स्वातंत्र्य/ मानवीय भाषा और/ मानवीय अभिव्यक्ति के/ प्रतिइतिहास का सामना/ वैसे ही/ मानवीय प्रतिगरिमा के साथ/ करना होगा, लक्ष्मण!/ प्रतिइतिहास को इतिहास से नहीं/ विनय से स्वीकारना होगा।’ यदि कहें कि नरेश मेहता मानववादी रचनाकार हैं तो गलत नहीं होगा। वे ‘प्रतिबद्धता’ शब्द को महज एक नारेबाजी के रूप में देखते हैं और कहते हैं कि प्रतिबद्धता एक राजनैतिक शब्द है। अतः वे इस शब्द से जुड़ने के लिए तैयार ही नहीं थे। डॉ. कमल किशोर गोयनका से बात करते समय उन्होंने इस बात की पुष्टि की कि “मनुष्य की नियति यही है कि वह मनुष्यता और मिट्टी के आकर्षण में बँधा रहे। पृथ्वी और उस पर रहने वाला हमारा मानवीय समाज हमारी नियति है, अतः उसके लिए ‘प्रतिबद्धता’ जैसी एकांगी नारेबाजी की कोई आवश्यकता नहीं है। मैं किसी भी कीमत पर ‘प्रतिबद्धता’ शब्द से जुड़ने को तैयार नहीं हूँ।” (नरेश मेहता, मेरे साक्षात्कार, पृ. 173)।
हम नरेश मेहता के कवि रूप से भली भाँति परिचित हैं। उनके गद्यकार रूप के बारे में प्रायः बहुत कम चर्चा होती है। जिस प्रकार कवि के रूप में वे सफल हुए, उसी प्रकार गद्यकार के रूप में भी वे सफल थे। वे लेखन को अनभिव्यक्त आइसबर्ग की टिप मानते हैं जो हमें दिखाई देती है। उनकी मान्यता है कि “जीवन की अनुभूति या अनुभवों के अतल जल के अंधकार में गहरे पैठे आइसबर्ग का वह विशाल वास्तविक स्वत्व हम कभी नहीं देख पाते हैं जो उस टिप को निरभ्र व्यक्त किए होता है। निश्चित ही वह टिप नहीं बल्कि ठंडे, अगम जलों में डूबा पसरा हिमखंड ही आइसबर्ग का वास्तविक सृजनात्मक स्वत्व है।” (नरेश मेहता, हम अनिकेतन, पृ.9)। सृजनात्मक क्षमता मनुष्य के भीतर जल में डूबा हुआ वह हिमखंड है जो दिखाई नहीं देता। उसे व्यक्त होने के लिए सही वातावरण चाहिए। ‘जीवन से अनाविल रूप में निबद्ध यह सृजनात्मकता’ ही नरेश मेहता के लेखे जीवन है जिसे धारण करना मनुष्य की नियति है, और भोगना प्रकृति। लेकिन जीवन की सृजनात्मक सत्ता या स्वरूप को ‘पूर्ण रूप’ से अभिव्यक्त करना असंभव है। सृजन और लेखन के बीच निहित सूक्ष्म अंतर को स्पष्ट करते हुए वे कहते हैं कि “जीवन की अनभिव्यक्त तथा अकथनीय सत्ता या स्वरूप, सृजन है। सृजन अनभिव्यक्त सत्ता है। लेखन, सृजन का संलाप रूप है। इसलिए सृजन को नहीं बल्कि लेखन को भाषा, अभिव्यक्ति, श्रोता, देश और काल सभी कुछ चाहिए होता है।” (वही, पृ.28)।
मनुष्य का जीवन अनुभव आधारित है। अनुभव देश-काल-वातावरण से परे होता है। वह तो बस घटित होता है। “वह तो एक निपात की भाँति केवल घटित होना जानता है। वह न तो सांसारिक है, न किसी प्रकार का निषेध।” (वही, पृ.25)। नरेश मेहता साहित्य को अपनी दृष्टि से समझना चाहते थे और अपना एक अलग पथ निर्मित करना चाहते थे। उनका जीवन संघर्षमय रहा। अतः वे जीवन के मूल्य को पहचानते थे। उनकी रचनाओं से गुजरते समय इस बात को महसूस किया जा सकता है।
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