रविवार, 29 जनवरी 2023

मधुकरी के कवि : नरेश मेहता


वहन करो
ओ मन! वहन करो,
सहन करो पीड़ा!!

सृष्टिप्रिया पीड़ा है
कल्पवृक्ष–
दान समझ, शीश झुका

स्वीकारो–
ओ मन करपात्री! मधुकरि स्वीकारो!!
वहन करो, सहन करो,
ओ मन! वरण करो पीड़ा!!

ये पंक्तियाँ मधुकरी के कवि नरेश मेहता के अवचेतन को अंकित करने में सक्षम हैं। नरेश मेहता की कविताओं में इस बिंब को अनेक स्तरों पर देखा जा सकता है। वे परंपरा और आधुनिकता को एक साथ लेकर चलने वाले कवि हैं। वे एक सजग प्रयोगशील सर्जक के रूप में अपने आपको प्रतिष्ठित कर चुके थे। करुणाशंकर उपाध्याय का कहना है कि “नरेश ने काव्य के क्षेत्र में ‘दूसरा सप्तक’ से लेकर ‘मेरा समर्पित एकांत’ तक की यात्रा की है तो उपन्यास में ‘प्रथम फाल्गुन’ से लेकर ‘वह नदी यशस्वी है’ के किनारे तक जा पहुँचा है।” (आधुनिक कविता का पुनर्पाठ, पृ.175)। इस यात्रा के दौरान नरेश मेहता कहानियों और नाटकों से भी गुजरे।

‘बनपाखी सुनो’, ‘बोलने दो चीड़ को’ में संकलित कविताओं में कवि मन प्रकृति के निकट दिखाई देता है। प्राकृतिक सौंदर्य के अनेक उपमान उनकी कविताओं में देखे जा सकते हैं। ‘बाँसों के अनंत वृक्षों वाले/ उस अरण्य में’ कवि अपने आपको एक अनाम वानीर-वृक्ष घोषित करता है। उनकी कविताओं में जहाँ पीले फूल कनेर के दिखाई देते हैं वहीं दूसरी ओर नीलम वंशी से कुंकुम के स्वर गूँज उठते हैं। वसुधा मंत्रोच्चार से वासंती रथ का आह्वान करती है तो अमराई में दमयंती-सी पीली पूनम काँप उठती है। शॉल-सा कंधों पर पड़ा फाल्गुन चैत्र-सा तपने लगता है तो बैलों की घंटियाँ बोलने लगती हैं। पिघलते हिमवानों के बीच दूब का वर्ण खिल उठता है, इंद्रलोक की सीमा केसर के जल से सिंचित हो उठतीहै। उदयाचल से किरन-धेनुओं को हाँकता हुआ प्रभात का ग्वाला दीखता है। उनकी कविताओं में वैश्वानरी-गंध, गायत्री छंद, सावित्रियों के अरण्य-रास, औषधियों का आचमन, हिरण्यगर्भ, आकाशगंगा, पराब्रह्माण्ड, महापिण्ड आदि अनेक दार्शनिक एवं मिथकीय बिंबों को भी देखा जा सकता है। वे वस्तुतः प्राकृतिक उपादानों के माध्यम से मनुष्य को गतिशील होने की प्रेरणा देते हैं।

मनुष्यता की रक्षा कवि नरेश मेहता का परम कर्तव्य है। वे हर व्यक्ति के भीतर के क्रंदन को लिपिबद्ध करना चाहते हैं। कमल किशोर गाइन्का से बात करते हुए उन्होंने कहा कि “विज्ञान और राजनीति ने मनुष्य को अकेला छोड़ दिया है। आज मनुष्य की जगह उत्पादन को ‘रिफाइंड’ करने की चेष्टा की जा रही है। इस तथाकथित आधुनिकता ने मनुष्य को न तो उदात्त बनाया है और न आनंद प्रदान किया है।” (मेरे साक्षात्कार, पृ. 173)। वे यही मानते थे कि सभी मानवीय दुखों का मूल कारण भ्रष्ट राज्य व्यवस्था है – “मानवीय उदात्तताओं और करुणा के प्रतीक/ धर्म के प्रतिपालक नहीं हो सकते।”

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