छायावाद के प्रवर्तक जयशंकर प्रसाद (30 जनवरी, 1889 - 15 नवंबर, 1937) कवि के साथ-साथ नाटककार, कहानीकार, उपन्यासकार, निबंध लेखक तथा संपादक थे। रामविलास शर्मा के अनुसार वे छायावाद के पहले कवि हैं। प्रसाद एक ऐसे साहित्यकार हैं जो अपने गंतव्य तक पहुँचने के लिए साध्य को ही मुख्य मानते हैं। यही बात उन्होंने ‘चंद्रगुप्त’ नाटक में चाणक्य के मुख से कहलवाई है। प्रसाद ने जहाँ एक ओर गंभीर ऐतिहासिक साहित्य का सृजन किया है, वहीं दूसरी ओर प्रकृति, देशप्रेम आदि का चित्रण बखूबी किया है। उनकी कहानियों में साहस-युक्त बाल चरित्र को भी देखा जा सकता है।
हर मनुष्य को बचपन की स्मृतियाँ आह्लादित करती हैं। मनोविज्ञान की दृष्टि से बात करें तो जन्म से लेकर किशोरावस्था तक का समय बचपन कहलाता है। सामान्य रूप से कहें तो यह वह समय है जब मनुष्य बिना किसी भेद-भाव के, बिना किसी राग-द्वेष के हँसी-खुशी समय व्यतीत करता है। यह वह सुनहरा समय है जो जिंदगी को तनाव-मुक्त रखता है। इस अवस्था में न तो तनाव के बारे में पता रहता है और न ही सामाजिक विसंगतियों का ज्ञान रहता है। यदि कुछ होता है तो वह है सिर्फ और सिर्फ अल्हड़ खेल। उसी में नन्हे बच्चे भाव विभोर होकर नाचते हैं, गाते हैं, किलकते हैं, खिलखिलाते हैं। अपने चारों ओर खुशियों की सुगंध फैलाते हैं। यदि कहें कि बचपन सबसे मधुर और अविस्मरणीय क्षणों का पुंज है, तो गलत नहीं होगा। इसीलिए शायद जयशंकर प्रसाद भी कह गए - ‘तुम्हारी आँखों का बचपन!/ खेलता था जब अल्हड़ खेल,/ अजिर के उर में भरा कुलेल,/ हारता था हँस-हँस कर मन,/ आह रे वह व्यतीत जीवन!/ तुम्हारी आँखों का बचपन!/ साथ ले सहचर सरस वसंत,/ चंक्रमण करता मधुर दिगंत,/ गूँजता किलकारी निस्वन, पुलक उठता तब मलय-पवन/ तुम्हारी आँखों का बचपन!’ क्या आज भी ऐसा बचपन बचा हुआ है! यह तो सोचने की बात है। ‘आज भी है क्या नित्य किशोर-/ उसी क्रीड़ा में भाव विभोर-/ सरलता का वह अपनापन-/ आज भी है क्या मेरा धन!/ तुम्हारी आँखों का बचपन!’
सांसारिक दाव-पेंच के दबाव के कारण आज असमय ही बालकों का बचपन छिनता जा रहा है। बहुत बार परिस्थितियों के कारण किसी नन्ही सी जान को परिवार की जिम्मेदारी तक अपने कंधों पर उठानी पड़ जाती है। इस विसंगति को अपने समय में जयशंकर प्रसाद ने भी महसूस किया था। उनकी कहानी ‘छोटा जादूगर’ में यह दिखाया गया है कि एक छोटा सा बच्चा कितना हिम्मती है। वह परिस्थितियों का सामना साहस के साथ करता है। एक राहगीर से मेले में उसकी मुलाकात होती है। जब वह व्यक्ति उस छोटे से बच्चे के माता-पिता के बारे में पूछता है, तो वह कहता है कि ‘बाबूजी जेल में हैं’ देश के लिए और माँ बीमार। पिता के जेल जाने के बावजूद वह टूटता नहीं और अपनी बीमार माँ का भी ध्यान रखता है। जब वह राहगीर कहता है कि ऐसी परिस्थिति में वह तमाशा देख रहा है, तो वह झट से कहता है, ‘तमाशा देखने नहीं, दिखाने निकला हूँ। कुछ पैसे ले जाऊँगा, तो माँ को पथ्य दूँगा। मुझे शर्बत न पिलाकर आपने मेरा खेल देखकर मुझे कुछ दे दिया होता, तो मुझे अधिक प्रसन्नता होती!’ (जयशंकर प्रसाद ग्रंथावली, भाग iv, पृ. 264)। ऐसा कह पाना सबके लिए आसान नहीं। यह वही बहादुर बच्चा कह सकता है जिसने जिंदगी के खट्टे-मीठे लम्हों को जिया हो।
आजकल परिस्थितियों के कारण बच्चे जल्दी ही चतुर और सांसारिक बनते जा रहे हैं। सोशल मीडिया के कारण बच्चों का बचपन गुम होता जा रहा है। मासूमियत कोसों दूर है। प्रसाद जी के ज़माने में सोशल मीडिया तो न था, लेकिन राष्ट्र और समाज की परिस्थितियाँ अति विषम थीं। इसीलिए उन्होंने लिखा, ‘बालक को आवश्यकता ने कितना शीघ्र चतुर बना दिया। यही तो संसार है।’ (वही)। छोटा जादूगर छोटी उम्र में बीमार माँ के इलाज के लिए रास्ते में लोगों को जादू दिखाकर पैसा कमाने का काम करता है। जब उसकी माँ अंतिम साँसें ले रही होती है, तब भी वह जादू दिखाने चल पड़ता है। यह अंश पढ़ते समय पाठक द्रवित हुए बिना नहीं रह सकते।
‘छोटा जादूगर’ कहानी पढ़ते समय मानो ऐसा लगता है कि जयशंकर प्रसाद स्वयं पात्र बनकर उपस्थित हैं जो बाल मन को समझने का प्रयास कर रहे हैं। मेले में जब बच्चा जाता है, तो वहाँ चीजों को देखकर उसका मन ललचाता है। यह एक स्वाभाविक प्रक्रिया है। लेकिन मेले में जाने के बावजूद बच्चा खिलौने या फिर मिठाइयों को खरीदने के बजाय, तमाशा देखने के बजाय घर-परिवार के बारे में, घर की जरूरतों के बारे में सोचता हो, तो तनिक रुक कर सोचना पड़ेगा। ‘छोटा जादूगर’ कहानी के बाल पात्र को भी मेले की चीजें अच्छी लगती हैं। वह कहता है - ‘मैंने सब देखा है। यहाँ चूड़ी फेंकते हैं। खिलौनों पर निशाना लगाते हैं। तीर से नंबर छेदते हैं। मुझे तो खिलौनों पर निशाना लगाना अच्छा मालूम हुआ। जादूगर तो बिलकुल निकम्मा है। उससे अच्छा तो ताश का खेल मैं ही दिखा सकता हूँ।’ (वही, पृ. 266)। यह सब उस बच्चे ने बड़े गर्व और आत्मविश्वास के साथ कहा। जब वह बोल रहा था तब उसकी वाणी में कहीं भी रुकावट नहीं थी। यह उसके आत्मविश्वास का प्रतीक है। यह मातृ-प्रेम को दर्शाने वाली अद्वितीय कहानी है। इस कहानी में जयशंकर प्रसाद ने परोक्ष रूप से स्वाधीनता संग्राम में जेल जाने वाले एक पात्र का उल्लेख किया है।
बच्चे मन के सच्चे होते हैं। छोटी-छोटी बातों पर खुश हो जाते हैं। उसी तरह छोटी सी बात पर दुखी भी हो जाते हैं, रूठते भी हैं, हंगामा भी करते हैं। कहने का अर्थ है कि बच्चे किसी एक मनोदशा में ज़्यादा देर तक नहीं टिकते। एक ही क्षण में उनकी इच्छाएँ बदल जाती हैं। बच्चे आसानी से किसी की ओर आकर्षित हो जाते हैं। उनके मन में अपार दया का भाव रहता है। कहा जाता है कि उनमें भगवान वास करते हैं। ‘गूदड़ साईं’ शीर्षक कहानी में प्रसाद जी ने साईं के माध्यम से यह कहा कि ‘मेरे पास, दूसरी कौन वस्तु है, जिसे देकर इस ‘रामरूप’ भगवान को प्रसन्न करता!’ (जयशंकर प्रसाद की श्रेष्ठ कहानियाँ, पृ.16)। इस कहानी का नन्हा मोहन साईं को ‘गरीब और भिखमंगा जानकर माँ से अभिमान करके पिता की नजर बचाकर कुछ साग-रोटी लाकर दे देता, तब उस साईं के मुख पर पवित्र मैत्री के भावों का साम्राज्य हो जाता।’ (वही)।
जयशंकर प्रसाद मनुष्यता को प्रमुखता देने वाले साहित्यकार हैं। उनके समग्र साहित्य में इस तत्व को रेखांकित किया जा सकता है। उनके अनुसार जीवन की मुख्य संवेदनाएँ हैं मानवता और करुणा। ‘अनबोला’ एक ऐसी कहानी है जिसमें प्रसाद जी ने इन मानवीय संवेदनाओं को उकेरा है। इस कहानी में जग्गैय्या का मातृ-प्रेम दिखाया गया है। जग्गैय्या एक छोटा सा बालक है। पिता का साया बचपन में उठ गया था। उसके सिर पर तो सिर्फ ममतामयी माँ का हाथ था। “जग्गैय्या को केवल माँ थी, वह कामैया के पिता के यहाँ लगी-लिपटी रहती, अपना पेट पालती थी। कामैया की मछलियाँ ले जाकर बाजार में बेचना उसी का काम था।’ (जयशंकर प्रसाद ग्रंथावली, भाग iv, पृ.312)। एक दिन जाल में मछलियों के साथ-साथ समुद्री बाघ भी आ गया। ‘जग्गैय्या की माँ अपना काम करने की धुन में जाल में मछलियाँ पकड़कर दौरी में रख रही थी। समुद्री बाघ बालू की विस्तृत बेला में एक बार उछला। जग्गैय्या की माता का हाथ उसके मुँह में चला गया। कोलाहल मचा; पर बेकार! बेचारी का एक हाथ वह चबा गया।’ (वही, पृ.313)। जग्गैय्या अपनी मूर्च्छित माँ को उठाकर झोंपड़ी में ले चलता है। उसके मन में कामैया के पिता के लिए असीम क्रोध भर जाता है। अपनी माँ को कष्ट में देखकर वह सोचने लगता कि यदि उसके पास खुद की नाव होती तो माँ को आज यह दिन देखना न पड़ता। वह चाहते हुए भी अपनी माँ को बचा नहीं पाता। छोटी उम्र में ही माता-पिता की छाया से वंचित न जाने कितने जग्गैय्या जीवन-संघर्ष में अग्रसर हैं! ऐसी स्थिति में अपने जीवन यापन के लिए उन्हें काम करना ही पड़ता है। सेठ-साहूकार काम तो करवा लेते हैं, लेकिन पगार तो उन्हें नाममात्र के लिए ही देते हैं। बालश्रम कानूनन अपराध है, पर वे बच्चे कर ही क्या सकते हैं! प्रसाद की कहानी का मधुआ एक ऐसा ही पात्र है जो ‘कुँअर साहब का ओवरकोट लिए खेल में दिनभर साथ रहा। सात बजे लौटा तो और भी नई भजे तक कुछ काम करना पड़ा।’ (जयशंकर प्रसाद, प्रतिनिधि कहानियाँ, पृ. 91)। रोटी के बदले उसे लातें खाने को मिलीं। प्रसाद ने इस कहानी में यह दर्शाया है कि बालक मधुआ की ममता और निरीहता एक शराबी के भीतर क्रांतिकारी परिवर्तन ला सकती है।
जयशंकर प्रसाद की कहानी ‘बालक चंद्रगुप्त’ एक छोटी सी ऐतिहासिक कहानी है। इस कहानी में उन्होंने रोचक ढंग से इतिहास के नायक चंद्रगुप्त के बचपन की झाँकी प्रस्तुत की है। बचपन में चंद्रगुप्त राजसी वैभव का अभिनय करता है। उस समय उसकी मुलाकात चाणक्य से होती है। भले ही यह दृश्य नाटकीय है, पर बहुत प्रभावी है। प्रसाद के बाल चरित्रों में जहाँ एक ओर प्रेम, करुणा, दया जैसी संवेदनाएँ हैं, वहीं दूसरी ओर उनमें मातृप्रेम के साथ-साथ देशप्रेम जैसे राष्ट्रीय मूल्य भी निहित हैं।
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