बुधवार, 6 दिसंबर 2023

'स्पैरो' की उड़ान का सम्मान

साहित्यिक क्षेत्र में अंबै के नाम से प्रसिद्ध तमिलनाडु की लेखिका सी. एस. लक्ष्मी (1944) को 2023 के “टाटा लिटरेचर लाइव! लाइफटाइम अचीवमेंट अवार्ड” से सम्मानित किया गया है। लक्ष्मी का जन्म कोयंबत्तूर में हुआ था। उनका अधिकांश समय मुंबई और बैंगलूर में बीता। उन्होंने मद्रास क्रिश्चियन कॉलेज से स्नातक की उपाधि अर्जित की। 1956 की असफल क्रांति के कारण हंगरी से पलायन कर रहे शरणार्थियों के प्रति अमेरिकी नीति पर उन्होंने अपना शोधप्रबंध प्रस्तुत किया और नई दिल्ली के जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय से पीएच.डी. की उपाधि प्राप्त की। उन्होंने अपना अकादमिक जीवन एक शिक्षक के रूप में शुरू किया। उन्होंने मुंबई में स्त्रियों के लिए “स्पैरो” नाम से एक संस्था की स्थापना की। स्पैरो (SPARROW - Sound Picture ARchives of Research on Women) की स्थापना का विचार उन्हें 1988 में आया। इसके पीछे स्त्रियों के लिए एक अलग अभिलेखागार स्थापित करना ही मुख्य उद्देश्य रहा। इसकी आवश्यकता उनके शोध अध्ययन के दौरान उभरी। उनका उद्देश्य महिला अभिलेखागार को मात्र एक संग्रह के रूप में स्थापित करना नहीं था, बल्कि एक ऐसा अभिलेखागार बनाने का था जो स्त्रियों की समस्याओं को दूर करने में सहायक हो। वर्तमान में आप ही इस संस्था की निदेशक हैं।

अंबै बहिर्मुखी व्यक्तित्व की धनी रचनाकार हैं। समाज में व्याप्त विसंगतियों एवं विद्रूपताओं के प्रति उन्होंने हमेशा आवाज उठाई। मूलतः स्त्री के अधिकारों के लिए। इसके लिए उन्होंने साहित्य को माध्यम बनाया। अंबै से परिचित लोगों का कहना है कि उनकी कथनी और करनी में कोई अंतर नहीं दीखता। उनकी अधिकांश रचनाओं में स्त्री विषयक मान्यताओं तथा उनके अधिकारों के लिए संघर्ष करते हुए व्यक्तित्व को देखा जा सकता है। उनकी कहानियाँ रिश्तों को उजागर करती हैं। अंबै समकालीन जीवन के बारे में तीखी टिप्पणियाँ करने से भी पीछे नहीं हटती। वह विकट परिस्थितियों में कभी भी हार नहीं मानती।

सी. एस. लक्ष्मी ने 16 वर्ष की उम्र से ही कहानियों के माध्यम से अपने विचारों को व्यक्त करना शुरू कर दिया था। 1962 में उनकी पहली कृति ‘नंदिमलै चारलिले’ (नंदी पर्वतों के समीप) प्रकाशित हुई। उनकी प्रमुख कृतियाँ हैं - 'अंधि मलय’ (गोधूलि बेला), ‘सिरगुगल मुरियुम’ (पंख टूट जाते हैं), ‘वीट्टिन मूलयिल ओरु समयिलअरै’ (घर के कोने में एक रसोईघर), ‘काट्टिल ओरु मान’ (जंगल में एक हिरण) आदि। उनकी अधिकांश कृतियाँ अंग्रेजी में अनूदित हो चुकी हैं और वे खुद भी अंग्रेजी में लिखती हैं। उन्होंने अनेक नाटकों का भी सृजन किया है। वे सफल अनुवादक भी हैं। हिंदी और अंग्रेजी से तमिल में कविताओं का अनुवाद करती हैं, साथ ही तमिल से अंग्रेजी में।

अंबै की कहानियों का मूल स्वर स्त्री अस्मिता है। अपनी मातृभाषा तमिल में वे अंबै के नाम से लिखती हैं, जबकि अंग्रेजी में लक्ष्मी के नाम से। इसके संबंध में एक साक्षात्कार में उन्होंने स्पष्ट किया कि सृजनात्मक लेखन के लिए विशेष रूप से अपनी मातृभाषा में वे अंबै नाम का प्रयोग करना ही पसंद करती हैं। तमिल में अंबै का अर्थ है देवी अर्थात पार्वती। अपनी युवावस्था में वे तमिल लेखक देवन से अत्यधिक प्रभावित थी। उनकी कृति ‘पार्वतियिन सबदम’ (पार्वती की शपथ) को पढ़कर वे सोचने को मजबूर हो गईं। उस कृति की मूल कथा एक स्त्री के इर्द-गिर्द घूमती है। इसमें यह बखूबी दिखाया गया है कि अपने पति द्वारा अपमानित स्त्री शपथ लेती है कि वह अपनी अस्मिता के लिए दुनिया से लड़ेगी। वह अपने अस्तित्व के संघर्ष में सफलता हासिल करती है। इससे प्रेरित होकर लक्ष्मी ने ‘अंबै’ नाम से सृजनात्मक लेखन शुरू किया था।

पुरुषसत्तात्मक समाज में स्त्रियों के लिए आगे बढ़ना, अपने अस्तित्व को बचाए रखना इतना आसान नहीं है। सदियों से स्त्री को यह कहकर हाशिये पर धकेला गया कि ‘न स्त्री स्वातंत्र्यमर्हति।’ हर क्षेत्र में उसे पीछे ही रहना पड़ता है। यदि स्त्री घर की दहलीज लाँघकर समाज में कुछ बनने की इच्छा से किसी क्षेत्र में आगे आती है, तो उसे यह समाज जीने नहीं देता। तरह-तरह के नाम से भी उसे संबोधित किया जाता है। पुरुष तो उसे हर कदम पर टोकने के लिए तैयार रहता है। इतना ही नहीं पुरुष-मानसिकता से ग्रस्त स्त्रियाँ भी स्त्री की दुश्मन बन बैठती हैं। लक्ष्मी ने भी बहुत कुछ झेला है। उन्हें और उनके लेखन को धिक्कारने वालों की कमी नहीं है। इसकी पुष्टि करते हुए एक साक्षात्कार में उन्होंने कहा कि उनके चरित्र पर भी तरह-तरह के लांछन लगाए गए थे। कुछ पुरुष लेखकों ने उनकी तथा उनकी रचनाओं की भर्त्सना की थी। उन्हें मानसिक रूप से प्रताड़ित किया गया थ। वे एकदम अकेली पड़ गई थीं। फिर भी उन्होंने परिस्थितियों के आगे घुटने नहीं टेके। सभी तरह की आलोचनाओं का अंबै ने डटकर सामना किया। इसके लिए उन्होंने लेखनी को हथियार बनाया।

अंबै के स्त्री पात्र हाड़-मांस से बने हैं और अपनी सभी इच्छाओं और कल्पनाओं को बिना किसी हिचकिचाहट के व्यक्त करते हैं। ‘सिरागुगल मुरियुम’ (पंख टूट जाते हैं) कहानी संग्रह की केंद्रीय कहानी में लेखिका ने बेमेल रिश्तों का खुलासा किया है। उन्होंने यह स्पष्ट किया है कि जब पति का साथ न मिले तो उस पत्नी की जिंदगी नारकीय बन जाएगी। कहानी की केंद्रीय पात्र ऐसी परिस्थितियों में भी साहस के साथ आगे बढ़ती है।

‘वीट्टिन मूलयिल ओरु समयिलअरै’ (घर के कोने में एक रसोईघर) में कुल मिलाकर 20 कहानियाँ संकलित हैं। ये कहानियाँ सांस्कृतिक संदर्भों से युक्त हैं। प्रत्येक कहानी का एक अलग अहसास है। इन कहानियों के माध्यम से हम उस स्त्री की दयनीय स्थिति को समझ सकते हैं जो पारंपरिक रूढ़ियों के कारण पिसती है तथा घर और समाज में अपने अस्तित्व को कायम रखने के लिए संघर्ष करती है। अकसर यही सुनने को मिलता है कि स्त्री का साम्राज्य रसोईघर है। वह रसोईघर से कदम आगे नहीं रख सकती। यदि वह घर के निर्णयों में कुछ सलाह देने के लिए आगे आई, तो उसे चुप करा दिया जाता है यह कहकर कि- जा! रसोई का काम देख पहले। बड़ी आई पुरुष को सलाह देने वाली! रीति-रिवाजों के आगे स्त्री भी इतना दब जाती है कि वह भी अपने आपको रसोईघर तक सीमित कर लेती है। लेखिका यह टिप्पणी करती हैं कि जब तक स्त्री अपने लिए अपने अस्तित्व व अस्मिता के लिए स्वयं संघर्ष नहीं करेगी, तब तक कुछ नहीं हो सकता। उसे स्वयं ऊपर उठना होगा। उसकी सहायता के लिए कोई आगे नहीं आएगा।

सी. एस. लक्ष्मी ‘अंबै’ एक सशक्त स्त्रीवादी लेखिका हैं। वे कोरी नारेबाजी करने वाली लेखिका नहीं हैं, अपितु ज़मीनी सच्चाई को पाठकों के सामने रखकर स्त्री की समस्याओं के निदान के लिए काम करने वाली सक्रिय कार्यकर्ता हैं। “टाटा लिटरेचर लाइव! लाइफटाइम अचीवमेंट अवार्ड” से सम्मानित होने के अवसर पर बात करते हुए उन्होंने कहा कि यह सम्मान पाकर वे अत्यंत गौरव का अनुभव कर रही हैं। उन्होंने यह भी स्पष्ट किया कि यह सम्मान एक स्त्रीवादी रचनाकार का सम्मान नहीं है, अपितु यह साहित्य का सम्मान है। यह एक साहित्यकार का सम्मान है। साहित्य रचनेवाला सिर्फ साहित्यकार अथवा रचनाकार होता है, न कि स्त्रीवादी या पुरुषवादी।

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