गुरुवार, 19 नवंबर 2009

Life in Economic Terms !

Life is the two Sector Economy !

Problems are the Traditional Sector

Solutions are the Organised Sector

Births are the Production

Deaths are the Consumption

Sorrows are the Distribution

Violence is the Exchange

Characters are the Enterpreneurs

Activities are the Labour

Happiness is the Hoarding

OVERALL LIFE IS FULL OF TWISTS AND TURNS.

मंगलवार, 17 नवंबर 2009

कभी ज़मीन कभी आसमान की बातें : आठ नई किताबें



सलाखों के पीछे, कविता संग्रह / डॉ.अनंत काबरा / क्लासिकल पब्लिशिंग कंपनी, 28,शापिंग कॉम्प्लेक्स, कर्मपुरा, नई दिल्ली - 110 015 / 2009/ रु.350/- / 154 पृष्‍ठ.
अनंत काबरा ने इस कविता संग्रह में इस जीवन दर्शन को काव्यात्मक अभिव्यक्‍ति प्रदान की है कि अपराधी ही नहीं इस जगत में निरपराधी व्यक्‍ति भी किस-न-किसी प्रकार का कारावास भोग रहा है. इस कारागार की सलाखें मन की अपूर्ण इच्छाएँ, देह की आकांक्षाएँ, घुटती साँसें और बोझिल पलों से निर्मित हैं. 135 कविताओं के संकलन में पर्याप्‍त पठनीयता है. रचनाकार ने गद्‍यात्मकता, सूक्‍ति सृजन और परिभाषा गठन की तकनीक का अच्छा प्रयोग किया है. एक उदाहरण - "हम पेड़ को नहीं / तने को काटते हैं / इस आशा के साथ / नयी टहनियों पर / कोंपल फूटते ही / नया तना बन जाएगा / और वह अपनी दिशा का निर्धारण कर लेगा."


"कछु", ‘ना कहो-सब...है ’?, कविता संग्रह / डॉ.अनंत काबरा / क्लासिकल पब्लिशिंग कंपनी, 28,शापिंग कॉम्प्लेक्स, कर्मपुरा, नई दिल्ली - 110 015 / 2009/ रु.400/- / 170 पृष्‍ठ.
अनंत काबरा के इस नवीनतम संग्रह में 144 कविताएँ हैं जो समसामयिक प्रश्‍नों को संबोधित हैं. सामाजिक और राजनैतिक विसंगतियों के प्रति असंतोष और आक्रोश यहाँ मुखर है. कवि ने अराजकता पर व्यंग्य किया है, स्त्री प्रश्‍नों पर चर्चा की है, संपन्नता के अहंकार पर चोट की है और आज के आदमी के दोगले आचरण पर व्यंग्य किया है. संस्कृति के प्रति भी कवि की चिंता द्रष्‍टव्य है - "ढहने के कगार पर खड़े हैं / संस्कृति की संपदा / विरासत की धरोहर / सामर्थ्य के ऐतिहासिक गढ़ ! / हमारी शालीन भव्यता / पंथ से बड़े होते संप्रदाय / तैयार नहीं है झुकने को."


अवधान(म) / डॉ.म.लक्ष्मणाचार्य / अनुपमा प्रिंटर्स, शांति नगर, हैदराबाद / 2009 (प्रथम आवृत्ति) / रु.120/- / 104 पृष्‍ठ.
विश्‍व की समस्त भाषाओं में केवल तेलुगु भाषा ही गर्वपूर्वक यह कह सकती है कि मेरे पास अवधान जैसी अद्‍भुत एवं अनुपम साहित्यिक एवं साहित्येतर प्रक्रिया है. डॉ.म.लक्ष्मणाचार्य ने इस प्रक्रिया के अर्थ, स्वरूप, विकास और अंशों पर अच्छा प्रकाश डाला है. धारणेतर अंशों के अंतर्गत शास्त्रार्थ, चित्रकथा, छंदोभाषण, कीर्तन, आशुकविता आदि की भी चर्चा की है. घंटागणन, नाम समीकरण, पुष्‍पगणन, राग समीकरण और यांत्रिक गणित पर रोचक ढंग से प्रकाश डाला है. उपयोगी और पठनीय पुस्तक.


अलीगढ़ का क़ैदी / पुनत्तिल कुंज़ु अब्दुल्ला / अनुवाद : संतोष अलेक्‍स / साहित्य प्रतिष्‍ठान, ए-2 रामैया रेसिडेंसी, कृष्‍णा कॉलेज के आगे, मद्‍दिलिपालम, विशाखपट्टणम - 22 / 2009 / रु. 50/- / 47 पृष्‍ठ.
कवि और बहुभाषा अनुवादक संतोष अलेक्स ने कुंज़ु अब्दुल्ला के मलयालम लघु उपन्यास को हिंदी में प्रस्तुत किया है. अलीगढ़ के बहाने इस उपन्यास में एक ऐसे नारकीय परिवेश को साकार किया गया है जहाँ अनिश्‍चितता और अपराध का भयावह अंधेरा है. संबंधों के तड़ककर टूटने तथा गरीबी के इज्जत से बड़ी होने के दृश्‍य मार्मिक बन पड़े हैं. अच्छा अनुवाद.


एहसास / कविता संग्रह / मीना खोंड / गीता प्रकाशन, 4-2-771/ए, प्रथम तल, रामकोट, हैदराबाद - 500 001 / 2009 / रु. 75/- / 80 पृष्‍ठ.
मराठी भाषी मीना खोंड की 64 कविताएँ उनकी रचनाधर्मिता को प्रमाणित करती हैं. वाक्य रचना और वर्तनी की त्रुटियाँ न होतीं तो ये कविताएँ कुछ और पठनीय हो सकती थीं. विवरणात्मकता और पारंपरिकता के बावजूद कुछ कविताओं में आकर्षक बिंब निर्मित हुए हैं. कहीं आत्मालाप और कहीं वार्तालाप शैली का अच्छा प्रयोग है. कुछ स्थलों पर स्त्री जीवन की यातना को तीखी अभिव्यक्‍ति मिली है - "क्या पसंद, क्या नापसंद, बेमतलबी सवाल रहे. / वो कहते रहे / हम सुनते रहे. / अपने लिए, अपने मर्जी से कैसे जीते ? / आखिर औरत हूँ. / कन्यादान में जो मिली हूँ. / स्वतंत्र देश की गुलाम नागरिक हूँ."


ज्योति कलश / ज्योति नारायण / हिंदी अकादमी, हैदराबाद; प्लॉट नं. 10, रोड नं.6, समतापुरी कॉलोनी, न्यू नागोल के पास, हैदराबाद -500 035 / 2008 / रु.125/- / 74 पृष्‍ठ.
ज्योति नारायण के ‘ज्योति कलश ’ में दो तरह की रचनाएँ हैं - गीत और गज़ल. पारंपरिक सरस्वती वंदना से आरंभ होनेवाले इस संकलन में कवयित्री ने इंकलाब का नारा भी लगाया है - "जो भी मिल रहा गले, कर रहा वो वार है. / आज इंकलाब को, किसका इंतजार है." कई गीत उद्‍बोधनात्मक हैं. आत्मपरक अधिक हैं - मैं तुम्हें ही गुनगुनाऊँ / मैं कविता बन जाऊँ / प्रेम पथ पर बढ़ चली मैं / मैं थिरकने लगी प्रेम में / तुम भी गाओ, मैं भी गाऊँ / तेरी काया की मैं छाया. प्रकृति गीत भी कई हैं. गज़लें छोटे और बड़े दोनों प्रकार के छंदों में हैं. गीतों में तत्समप्रधान कवियित्री गज़लों में उर्दूदाँ हो जाती हैं - "कभी ज़मीन, कभी आसमान की बातें / बहुत करते हैं वो दुनियाँ जहान की बातें."


व्यक्‍तित्‍व और कवित्व / कन्हैयालाल शर्मा / मिलिंद प्रकाशन,4-3-178/2, कंदास्वामी बाग, सुल्तान बाजार, हैदराबाद - 500 095 / 2006 / रु.150/- /110 पृष्‍ठ.
एक अलग तरह की किताब. कवि और कलाकार कन्हैयालाल शर्मा ने गायन, वादन, अभिनय, चित्रकला, खेल जगत, अर्थव्यवस्था और राजनीति आदि क्षेत्रों से जुडे़ और वहाँ चमके व्यक्‍तित्वों को अपने कवित्व में ढाला है और सचित्र इस किताब में जिल्दबंद किया है. प्रशंसा करना, प्रशस्ति लिखना और वह भी इतने लोगों की एक साथ - कुछ आसान काम तो नहीं रहा होगा.


अंग्रेज़ी-हिंदी कार्यालयीन पत्राचार : व्यतिरेकी विश्‍लेषण / डॉ.वी.एल.नरसिंहम शिवकोटि / मिलिंद प्रकाशन,4-3-178/2, कंदास्वामी बाग, सुल्तान बाजार, हैदराबाद - 500 095 / 2009 / रु.150/- /94 पृष्‍ठ.
यह पुस्तक कार्यालयीन पत्राचार के तुलनात्मक और व्यतिरेकी अध्ययन को समर्पित है. अर्थात्‌ अनुवाद समीक्षा की दिशा में एक महत्वपूर्ण प्रयास है जो लघु शोध प्रबंध के रूप में है. शोधकर्ता ने पर्याप्‍त सामग्री का संकलन किया है और विश्‍लेषण के लिए काफी व्यापक आधार ग्रहण किया है. मशीनी अनुवाद संबंधी अध्याय विशेष रूप से पठनीय है.
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रविवार, 15 नवंबर 2009

My Strange Thoughts


My blood tingled
and my heart ached
with a strange, exquiste pain.

I was in constant expectation and
fear of something, marvelling at everything,
ready for anything.

My imagination played and hovered
around the same set of ideas all the time,
Like swifts hovering over
a Belfry at Dawn.

I loved walking at dawn
watching the graceful bambles
growing all around
dropping dew drops to the ground.

The river running to the sea
conjured my strange thoughts,
And its song filled my Heart
with strange foreboding;

The sound of the waves
striking the boulders
lingered in my ears.

I fell into reveries, grew melancholy,
sometimes even shed tears;
But, through all these tears and
sudden fits of sadness...

... The sound of the waves
striking the boulders
lingered in my ears.

Whether occasioned by some melodious line, or
by the beauty of the evening,
The joyous sensation of youthful life,
turbulent and seething,
Made itself felt, like the grass sending up its blades
through the Earth in the Spring.

Yellow blossoms hung high from the lower branches
of the tree in small lifeless clusters
with every branch is sweet scent
forced its way deep into my lungs.

The distance beyond the river,
to the very horizon
was all shimmering and glowing.

An occasional puff of wind
would break up the shimmer,
Making it all the more intense
a radiant haze billowed above the Earth.

यही है महानगर !

अजीब है यह जिंदगी का सफर
नहीं है हमें मंजिल की ख़बर
चारों ओर हैं कंक्रीट का जंगल
वाह रे भाई, क्या यही है महानगर !

लाखों-करोड़ों गगनचुंबी अट्टालिकाएँ
मगर नहीं दीखता है घर
इस तिकड़मी संसार में
बिछे हैं काँटे हर कदम पर
डगर डगर पर

दुनिया की भीड़ में लाखों अजीज हैं
ढूँढे बहुत पर कोई अपना नहीं मिला
दोस्ती करने आख़िर जाएँ हम कहाँ
पत्थरों के बने आदमी हैं यहाँ

सभी आसमान को छूना चाहते हैं
उन्मुक्त गगन में पंछी बन उड़ना चाहते हैं
मगर मंजिल तक पहुँचने से पहले ही भटक जाते हैं
भटकते भटकते पता नहीं कहाँ पहुँच जाते हैं

शहर की इस भीड़ में हम खो गए ऐसे
रात दिन नयनों से अश्रु बहते रहे
कैसे बयाँ करूँ अपने इस दर्द को
अपनों के बीच ही अजनबी बनके रहे

झोंपड़ी में अंधेरे का राज्य है
महलों में रोशनी का साम्राज्य है
मेहनतकश भूखों मरते हैं
शासक वर्ग ताज पे मोती जड़ते हैं

खून पसीना बहाने के बाद भी
गरीब की रीढ़ की हड्डी जुड़ी नहीं
माटी भी अपना रंग बदलने लगी
भूख से पेट की अंतडियां कराहने लगीं

टूटते संबंधों के इस दौर में
आदमी बँट गया है टुकड़ों में / खेमों में
टूटे दिलों को जोड़कर
ऊँच-नीच की दीवार तोड़कर
अपना तकदीर ख़ुद बनाएँगे
एक नया इतिहास रचेंगे

गुरुवार, 5 नवंबर 2009

प्रलय तांडव !

धरती कराह रही थी
बूँद बूँद के लिए तरस रही थी
उसकी छाती फट गई थी
और वह बंजर बन गई थी

सभी वैज्ञानिक मिल गए
मेघमंथन करने के लिए
पंडित पादरी जुट गए
वरुण देव को प्रसन्न करने के लिए

पता नहीं भयभीत वरुण देव किस कोने में जा बैठे
बच्चे बूढे सभी पानी के लिए तरस गए
नेता भी एक जुट हो गए
अकाल की घोषणा करने के लिए

इतने में अचानक
आकाश चमक उठा
सिंहगर्जन सुनाई दिया
बिजली कड़कने लगी
आसमान को चीरकर
बारिश की एक बूँद सहसा बरस पड़ी
प्यारी वसुधा पुलकित हुई

लेकिन यह कया! क्षण में ही दृश्य बदल गया !
सबकी खुशी मटियामेट हो गई
आँख झपकते ही प्रकृति प्रलय तांडव करने लगी
मेरा प्यारा कर्नूल भी जल प्रपात में डूब गया

घुप्प अँधेरा
कड़ाके की सर्दी
चारों ओर अथाह पानी
प्राण को हथेली पर धरे
खड़े हैं प्राणी

एक ही क्षण में हम बेघर हो गए
अपनों से दूर होकर अनाथ हो गए
खाने के लिए अन्न नहीं
तन ढकने के लिए कपड़ा नहीं
सोने के लिए मकान नहीं
रहने का ठिकाना नहीं

जीवन और मृत्यु के बीच
तड़प रही है मेरी आत्मा
हे वरुण देवता ! अब तो शांत हो जा
इस महातांडव को रोककर
इस अवनी पर अमन कायम कर

आशियाना

मैंने कुछ कहा
उसने कुछ सुना
दोनों ने एक दूसरे को
कुछ कहते सुना

एक - दूसरे के साथ
जीने मरने की कसमें खाई
एक - दूसरे के बीच
फासले मिटा दिए

मैंने तो अपना सब कुछ
उसके नाम कर दिया
उसीको अपना कर्ता धर्ता मान लिया

उसके लिए दुनिया को पीछे छोड़ दिया
अपना घर - परिवार, भाई - बहन,
रिश्ते - नाते और अपनों का अपनापन
लेकिन उसने मुझे क्या दिया !

दिन बीतते गए और
मैं सपनों में खो गई
नींद टूटी तो
एक तरफ कुँआ दूसरी तरफ खाई

उसके लिए मैंने सारी दुनिया से टक्कर ली
लेकिन उसने मुझे बैसाखियों के सहारे छोड़ दिया

हवा में हिलता रहा मेरा घोंसला
बिखर गया मेरा सपना
लेकिन हिम्मत नहीं हारी
मैं बनूँगी, कुछ करके दिखाऊँगी...
एक एक तिनका जोड़कर
फिर अपना आशियाना सजाऊँगी
संवारूंगी

माँ !

माँ !
नौ महीने कोख में अपने रक्त मांस से सींचकर
मुझे जन्म दिया है
और अपनी छाती को चीरकर
दूध पिलाया है

रात भर अपलक जागती रही
हर पल हर लम्हा मेरे बारे में सोचती रही

ख़ुद तो कष्ट झेलती रही
कंटीली राह पर चलती रही
पर मेरी खुशी के लिए
भगवान से हर पल याचना करती रही

अपना खून पसीना बहाकर
एक एक तिनका जोड़कर
मुझे पढ़ाया लिखाया
और काबिल बनाया

आज वह मेरी राह देख रही है
मेरा माथा चूमने के लिए तरस रही है
आख़िरी बार मुझसे बात करने के लिए
आँखों में सपने संजोए है

लेकिन
मैं सात समंदर पार बैठी हूँ
होकर लाचार
मन तो पहुँच चुका है तेरे पास
सारे बंधन तोड़कर
पर यह तन लाचार बन
बैठा है लेकर आस

हे माँ !
नहीं चुका पाऊँगी मैं
दूध का कर्ज
पर माँ मैं तो हूँ अंश तुम्हारा
रग रग में है संस्कार तुम्हारा

सोमवार, 2 नवंबर 2009

आज की हिंदी कविता में पर्यावरण

"हैलो, मनुष्य,
मैं आकाश हूँ.
कल सृजन था, निर्माण था,
आज प्रलय हूँ, विनाश हूँ.

मेरी छाती में जो छेद हो गए हैं काले काले,
ये तुम्हारे भालों के घाव हैं,
ये कभी नहीं भरनेवाले."
(मैं आकाश बोल रहा हूँ, ऋषभ देव शर्मा, ताकि सनद रहे, पृ. ५२)


इक्कीसवीं शती की प्रमुख चिंताओं में से एक है पर्यावरण संरक्षण की चिंता. पर्यावरण अर्थात्‌ हमारे आस-पास का वातावरण. वात्‌ (हवा) का आवरण. यह सर्वविदित है कि हवा विभिन्न गैसों का मिश्रण है जिसमें ऑक्सीजन, नाइट्रोजन, कार्बन-डाई-ऑक्साइड तथा सल्फर-डाई-ऑक्साइड प्रमुख हैं. गुरुत्वाकर्षण के कारण भारी गैसें पृथ्वी की सतह पर रहती हैं और हल्की गैसें ऊपरी वातावरण में. गुरुत्वाकर्षण के साथ साथ ताप एवं सघनता के कारण भी गैसों की परतें बनती हैं. वस्तुतः वायुमंडल में 79% नाइट्रोजन, 20% ऑक्सीजन, 0.3% कार्बन-डाई-ऑक्साइड और शेष में पानी तथा अन्य गैसें होती हैं. इनकी मात्रा कम या ज्यादा होने से पर्यावरण का संतुलन परिवर्तित होता है.


पर्यावरण में उपस्थित ऑक्सीजन गैस प्राणदायक है. प्राणी श्‍वास द्वारा ऑक्सीजन (प्राणवायु) अंदर लेते हैं और कार्बन-डाई-ऑक्साइड को बाहर निकालते हैं. इस कार्बन-डाई-ऑक्साइड को पेड़-पौधे भोजन बनाने के लिए उपयोग करते हैं और ऑक्सीजन बाहर छोड़ते हैं. रात में सूर्य की रोशनी न होने के कारण पेड़-पौधे कार्बन-डाई-ऑक्साइड बाहर निकालते हैं. पर्यावरण में वायु के साथ साथ जल, पृथ्वी, जीव जंतु, वनस्पति तथा अन्य प्राकृतिक संसाधान भी शामिल हैं. ये सब मिलकर संतुलित पर्यावरण की रचना करते हैं.


प्रकृति की रमणीयता हर एक को अपनी ओर आकर्षित करती है. सहृदय साहित्यकार भी पर्यावरण के प्रति सहज रूप से आकर्षित होते हैं. अतः आदिकालीन साहित्य से लेकर आधुनिक साहित्य तक में पर्यावरण / प्रकृति चित्रण दिखाई देता है. आज की कविता में पर्यावरण के रमणीय दृश्‍यों के साथ साथ प्राकृतिक विपदाओं के भी हृदय विदारक चित्र अंकित हैं.


प्रकृति मानव जीवन का अटूट अंग है. प्रकृति से वह सब कुछ प्राप्त होता है जो आरामदायक हैं. अतः कवयित्री कविता वाचक्नवी कहती है कि "प्रकृति / सर्वस्व सौंपती / लुटाती - रूप रंग / पूरती है चौक मानो / फैलाती भुजाएँ स्वागती." (पर्यटन - प्रेम / कविता वाचक्नवी / मैं चल तो दूँ / पृ.146)


वन विभिन्न जातियों और प्रजातियों के वृक्षों, वनस्पतियों तथा जीव जंतुओं का समूह है. वन मूल रूप से सूर्य ताप, आँधी और सॉइल इरोशन को रोकते हैं. वनों में उगे वृक्ष और वनस्पतियाँ निरंतर ऐसे वातावरण का निर्माण करते हैं जो समस्त जीवधारियों के लिए हितकर है. हरे भरे वनों को देखकर सबका मन पुलकित होता है - "जंगल पूरा / उग आया है / बरसों - बरस / तपी / माटी पर / और मरुत्‌ में / भीगा-भीगा / गीलापन है / सजी सलोनी / मही हुमड़कर / छाया के आँचल / ढकती है / और हरित - हृदय / पलकों की पांखों पर / प्रतिपल / कण - कण का विस्तार... / विविध - विध / माप रहा है / ... गंध गिलहरी / गलबहियाँ / गुल्मों को डाले." (आषाढ़ / कविता वाचक्नवी / मैं चल तो दूँ / पृ. 53)


सतपुडा़ की पर्वत श्रेणियाँ और वन्य प्राणियों से भरपूर जंगल की रमणीयता से मुग्ध होकर आर.के.पालीवाल कहते हैं कि "सतपुडा़ की, बूढ़ी पर्वत शृंखलाओं की / तलहटी में स्थित मड़ई का जंगल / सिर्फ़ निवास स्थान नहीं हैं वन्य जीवों का / इस जंगल की रमणीयता / क़लम बयानी के सीमित संशोधनों के बाहर है. /.../ तवा नदी की सहायक / एक सदानीरा नदी के तट से होती है / मड़ई के खूबसूरत जंगल की शुरुआत / यहाँ पूरब की दो छोटी पहाड़ियों के / ऐन बीच से उगता है सूरज / मानों उग रहा है / किसी षोडशी के उन्न्त उरोजों के बीच" (मड़ई का जंगल / आर.के.पालीवाल / समकालीन भारतीय साहित्य / जुलाई - अगस्त 2008 / पृ. 155)


पर्यावरण का संतुलन बनाए रखने में वृक्षों और वनस्पतियों का महत्वपूर्ण योगदान है. इसके कारण ही हमारे देश की संस्कृति को ‘अरण्य संस्कृति ’ के नाम से पुकारा जाता था. विकास के नाम पर मनुष्य पर्यावरण से छेड़छाड़ कर रहा है. उसका संतुलन बिगाड़ रहा है. वनों की रक्षा करने के बजाय वह उनका विनाश कर रहा है. अवैध रूप से वृक्षों को काटकर वन संपदा को लूट रहा है. इसके परिणामस्वरूप प्राकृतिक विपदाएँ घटित हो रही हैं. कवयित्री कविता वाचक्नवी ने धरती की इस पीड़ा एवं वेदना को अपनी कविता में इस तरह उकेरा है - "मेरे हृदय की कोमलता को / अपने क्रूर हाथों से / बेध कर / ऊँची अट्टालिकाओं का निर्माण किया/उखाड़ कर प्राणवाही पेड़-पौधे/बो दिए धुआँ उगलते कल - कारखाने / उत्पादन के सामान सजाए / मेरे पोर-पोर को बींध कर / स्‍तंभ गाड़े / विद्‍युत्वाही तारों के / जलवाही धाराओं को बाँध दिया. / तुम्हारी कुदालों, खुरपियों, फावडों, / मशीनों, आरियों, बुलडोज़रों से / कँपती थरथराती रही मैं. / तुम्हारे घरों की नींव / मेरी बाहों पर थी / अपने घर के मान में / सरो-सामान में / भूल गए तुम. / ... मैं थोड़ा हिली / तो लो / भरभराकर गिर गए / तुम्हारे घर. / फटा तो हृदय / मेरा ही." (भूकंप / कविता वाचक्नवी / मैं चल तो दूँ / पृ. 119)


उद्‍योगीकरण के फलस्वरूप पर्यावरण में हरित गैस (Green gas) बढ़ रही है और पृथ्वी हरित गृह (Green House) के रूप में परिवर्तित हो रही है. कार्बन-डाई-ऑक्साइड, फ्रिओन, नाइट्रोजन ऑक्साइअड और सल्फर-डाई-ऑक्साइड जैसी हरित गैसों की मात्रा दिन ब दिन बढ़ रही है जिसके कारण पृथ्वी का तापमान भी लगातार बढ़ रहा है. ग्रीन हाउस गैसों की मात्रा में वृद्धि होने के कारण ओजोन परत (Ozone Layer) में छेद हो रहे हैं. अतः दिन ब दिन तापक्रम बढ़ रहा है. वस्तुतः ओजोन परत सूर्य से आनेवाली 90% घातक अल्ट्रा वॉयलेट किरणों (UV Rays) को सोखने का काम करती है. यह परत वातावरण का कवच है. मनुष्य इसी कवच को नुकसान पहुँचाकर अनेक चर्म रोगों का शिकार हो रहा है. अतः ऋषभ देव शर्मा आकाश की वेदना को उजागर करते हैं - "हैलो, मनुष्य, / मैं आकाश हूँ. / कल तक रस था. आनंद था, / आज घुटन हूँ, संत्रास हूँ. / रस का जो स्रोत था / जिससे धरा थी रसवन्ती / उसमें तो घोल दिया तुमने / रेडियम और यूरेनियम, / जिस औंधे कुएँ में से / फूट पड़ता था / आनंद का पातालतोड़ फव्वारा, / काट डाला तुमने उसकी जड़ों को / रेडियोधर्मी विकिरणों के फावड़ों और नाभिकीया ऊर्जा की पलकटी से." (मैं आकाश बोल रहा हूँ / ऋषभ देव शर्मा /ताकि सनद रहे / पृ. ५७)
प्रेमशंकर मिश्र भी कहते हैं कि "ताप के ताए दिन हैं / तोल तोल मुख खोलो मैना / बड़े कठिन पल-छिन हैं / ताप के ताए दिन हैं. / आँगन की गौरैया / चुप है / चुप है / पिंजरे की ललमुनिया / हर घर के चौबारे / चुप हैं / चुप है / जन अलाव की दुनिया. / दुर्बल साँसों की धड़कन है / बदले सूरज के दुर्दिन हैं / बड़े कठिन पल-छिन हैं" (ताप के ताए दिन हैं / प्रेमशंकर मिश्र / साहित्य अमृत / अक्तूबर -2009/पृ. 7)

वैश्‍विक गर्मी (Global Warming) के कारण अनेक जलस्रोत सूख रहे हैं. पेयजल और प्रकृति के लिए आवश्‍यक जल की कमी के कारण कृषि पर भी नकारात्मक प्रभाव पड़ रहे हैं. अंतरराष्ट्रीय संगठन विश्‍व वन्य जीव कोश द्वारा जारी तथ्यों के अनुसार "ग्लोबल वार्मिंग की वजह से हिमाचल में स्थित हिमनदियों का दुनिया भर में सबसे तेजी से क्षरण हो रहा है. इसके परिणामस्वरूप हिमनदियों से जल प्राप्त करनेवाली नदियाँ सूखने लगेंगी और भारतीय उपमहाद्वीप में जल संकट उत्पन्न होने की आशंका उत्पन्न होगी." अतः कविता वाचक्नवी उद्वेलित होकर पूछती हैं कि "यह धरती / कितना बोएगी / अपने भीतर / बीज तुम्हारे / बिना खाद पानी रखाव के ? / सिर पर सम्मुख / जलता सूरज / भभक रहा है / लपटों में घिर देह बचाती / पृथ्वी का हरियाला आंचल / झुलस गया है / चीत्कार पर नहीं करेगी / इसे विधाता ने रच डाला था / सहने को / भला-बुरा सब / खेल-खेल में अनायास ही, / केवल सब को / सब देने को." (धरती / कविता वाचक्‍नवी / मैं चल तो दूँ / पृ. 139)


घटते हुए वन, बढ़ती हुई जनसंख्या, उद्‍योगीकरण, नगरीकरण और आधुनिकीकरण के कारण प्रदूषण तेजी़ से बढ़ रहा है. जल और वायु के साथ साथ मिट्टी भी प्रदूषित हो गई है. "बहुत-सी चीजें थीं वहाँ / मिट्टी के ढेर के नीचे, दबीं / वर्षों से, समय की परतों को / हटाने पर देखा - / महानगरीय कचरे में / पंच महाभूतों के ऐसे-ऐसे सम्मिश्रण / नए सभ्य उत्पाद-रासायनिक / और पॉलिथीन / धरती पचा नहीं पाई / इस बार. / ... / इतने वर्षों बाद भी / असमंजस, असमर्थ, अपमान में / अपना धरती होने का धर्म / निभा नहीं पाई... / मनुष्य जीवन के आधुनिक / आयामों के सामने / लज्जित थी धरती / हाँ ! इतना जरूर हुआ / कि उस ठिठकी हुई धरती पर / मिट्टी के ढेर पर / अब कुछ कोमल कोंपलें / सगर्व लहरा रहीं थीं." (कूड़ा कचरा और कोंपलें / बलदेव वंशी /समकालीन भारतीय साहित्य /जुलाई-अगस्त 2008/ पृ. 147)


प्रदूषण इतना बढ़ रहा है कि "सरवर के अधिवासी पंछी / जाने कहाँ उड़े जाते हैं / मंजिलवाली पगडंडी के / रास्ते / स्वयं मुड़े जाते हैं / कदम -कदम / पतझड़ में छिपकर / विष काँटे / बिखरे अनगिन हैं / बड़े कठिन पल-छिन हैं," (ताप के ताए दिन हैं / प्रेमशंकर मिश्र / साहित्य अमृत / अक्तूबर-2009 / पृ. 07)


चारों ओर व्याप्त प्रदूषण के कारण पशु-पक्षियों की अनेक जातियों एवं प्रजातियों का अस्तित्व मिट चुका है और मिटने की खतरा भी मंडरा रहा है. चिड़ियों की चहचहाट से तथा गौरैयों के अंडों को छूने से जो रोमांच का अनुभव होता है उससे शायद आनेवाली पीढ़ियाँ वंचित रह जाएँगी. इसलिए राजेंद्र मागदेव कहते हैं कि "हमने गौरैयों के घोंसले / रोशनदानों में देखे थे / हमने गौरैयों के घोंसले / लकड़ी की पुरानी अलमारी पर देखे थे / हमने वहाँ गौरैयों के अंडे / पंखों, तिनकों और सुतलियों के बीच रखे देखे थे / हमने अंडों को चुपचाप छूकर देखा था / हम छूते ही अजीब रोमांच से भर गए थे / वह रोमांच, आनेवाली पीढ़ियों को / किस तरह से समझाएँगे हम?" (गौरैया नहीं आती अब / राजेंद्र मागदेव /समकालीन भारतीय साहित्य / मई-जून 2009 / पृ.39)


राजनेता प्रदूषण नियंत्रण और वन संरक्षण की बातें करते हैं. उनकी बातें महज भाषण तक ही सीमित हैं...........
"जिसने भी लिया हो मुझसे बदला / वह उसे दे जाए / वनमंत्री ने कहा उत्सव की ठंड में / जंगल जल रहा है उत्तराखंड में / जनता नहीं समझती / कितना कठिन है इस जाड़े में / राज चलाना / आँकडेवाली जनता, समस्यावाली जनता / और स्थानीय जनता तो क्या चीज है / अब तो और भी महान हो गई है / भारतीय जनता. / .... / किस जनता से किस जनता तक जाने में / किस जनता को किस जनता तक लाने में / कितनी कठिनाई होती है इस जाड़े में." (कार्यकर्ता से / कवि ने कहा :लीलाधर जगूड़ी / पृ. 63)


पर्यावरण का संबंध संपूर्ण भौतिक एवं जैविक व्यवस्था से है. यदि प्रदूषण को नहीं रोका गया तो प्राकृतिक संपदा के साथ साथ मनुष्य का अस्तित्व भी इस पृथ्वी से मिट सकता है -
"बचाना है तो बचाए जाने चाहिए गाँव में खेत, जंगल में पेड़, शहर में हवा, पेड़ों में घोंसलें, अख़बारों में सच्चाई, राजनीति में नैतिकता, प्रशासन में मनुष्यता, दाल में हल्दी"
(बचाओ/कवि ने कहा : उदय प्रकाश/पृ. 93)


( "तीसरा विमर्श" में प्रकाशित )
तीसरा विमर्श / (सं) विश्रांत वसिष्ठ / संवाद भवन, ई-३, जगन्नाथ चौक (६० फुटा रोड), श्रीराम कालोनी, खजूरी ख़ास, दिल्ली- ११० ०९४ (अथवा) दक्षिण विकास नगर, एलम, मुजफ्फरनगर (उत्तर प्रदेश) - २४७ ७७१

[''स्रवंति,जून२०१० अंक में प्रकाशित].

रविवार, 1 नवंबर 2009

एक ही तत्व

हम दोनों एक दूसरे से
ऐसे अलग हुए
जैसे पेड़ से पत्ते
और मेघ से पानी


जब हम मिले
तो यह अहसास हुआ
की हम अलग नहीं हैं



हम एक ही तत्व हैं
जैसे फूल और खुशबू
जैसे सागर और लहरें
जैसे सूरज और किरणें

मेरे साजन

तुम सच भी हो
और सपना भी
अजनबी भी हो
और अपना भी


तुम मेरे दिल के करीब भी हो
और दूर भी
तुम कायनात भी हो
और खुदा की करामात भी


हे मेरे साजन
कहूँ तो क्या कहूँ !
करूँ तो क्या करूँ !

टैलेंट

यादों के रिजर्व बैंक से
कागज़ पे जरा कंटेंट उतार लूँ


यांत्रिक सभ्यता के पुर्जे हैं हम
सही टैलेंट का नाम सुना है कम


क्या सभागारों में माइक पकड़कर
भाषण झाड़ना टैलेंट है !
या छोटे - बड़े परदों पर
हाव भाव दिखाना टैलेंट है !

हिंसा को हीरोइज्म बनाकर
टीनेज लव को मेन स्टोरी का रूप देकर
आवार्डों के बारिश में भीगना टैलेंट है !


सो काल्ड ब्यूरोक्रेट्स के बीच
रैंप पर कैट वाक करके
विश्व सुंदरी का मुकुट हासिल करना टैलेंट है !


नहीं !
हे मानव पहचानो !
पहचानो असली टैलेंट को !

खून टपकती अंगुलियों से
टोकरियाँ बनाना टैलेंट है
कच्ची मिट्टी को आकार देना टैलेंट है


ग्रीष्म ताप की परवाह किए बिना
नीड़ का निर्माण करना टैलेंट है
मोची, बढई और किसानों का
श्रम असली टैलेंट है .

शनिवार, 31 अक्टूबर 2009

राजनीति

लोग अक्सर कहते हैं
राजनीति एक खेल है
पर मेरे पापा कहते हैं
यह एक कमर्शियल फिल्म है

बहुमुखी प्रतिभा संपन्न इस फिल्म के हीरो है
रोज एक नया किरदार निभाता है
रोज एक नया नाम बदलता है
और हीरोइन तो हुकूमत की कुर्सी है भैया !
वह तो है अपनी जगह
न हिलती है न डुलती है
बड़ी शान से बैठी है

सांसद सपोर्टिंग आर्टिस्ट हैं
पार्टी के उम्मीदवार हैं प्रोड्यूसर्स और फाइनैन्सर्स
डाइरेक्टर है बिग बॉस
मीडिया है पब्लिसिटी स्टंट

टिकट खिड़की पर फिल्म
हिट हो गई तो "सत्ता पक्ष"
नहीं तो "विपक्ष"

इस फिल्म के बारे में खूब सूना है
लेकिन देखने के लिए सेंसर का कहना है
- "ओन्ली फर इंटेलेक्च्युअल्स"

गुरुवार, 8 अक्टूबर 2009

उपन्यासों में जनवादी चेतना

सामाज वस्तुतः ऐसे वर्गों से बनता है जो किन्हीं निश्‍चित प्रयोजनों के लिए एक दूसरे के संपर्क में आते हैं. अर्थात्‌ समाज व्यक्तियों के पारस्परिक संबंधों की व्यवस्था है. आज समाज विभिन्न स्तरों अर्थात्‌ आर्थिक, राजनैतिक, सामाजिक और सांस्कृतिक के साथ साथ भाषिक स्तर पर भी पर बँट गया है. एक ओर वह उच्च, मध्य और निम्न वर्गों में विभाजित है तो दूसरी ओर सर्वहारा एवं पूँजीपति के रूप में विभाजित है. समाज में व्याप्त वर्ग संघर्ष, वर्ण संकीर्णता, सांप्रदायिकता, जातिभेद और भाषा भेद ने जनमानस को झकझोर दिया है. इसके परिणाम स्वरूप समकालीन कथासाहित्य में जनवादी चेतना मुखरित हुई. डॉ. महेंद्र कुमार (1976) ने अपनी शोध पुस्तक ‘हिंदी के प्रमुख उपन्यासों में जनवादी चेतना ’ (2009) में प्रेमचंद, यशपाल, फणीश्वरनाथ रेणु, रांगेय राघव, हजारी प्रसाद द्विवेदी और जयशंकर प्रसाद के उपन्यासों में चित्रित जनवादी चेतना का विवेचन -विश्लेषण किया है.


लेखक ने यह प्रतिपादित किया है कि समाज व्यक्तियों का समूह भर नहीं, बल्कि उनके पारस्परिक संबंधों की व्यवस्था भी है. जनवाद इस व्यवस्था की रीतियों, कार्य विधियों, अधिकार, पारस्परिक सहयोग, उनके समूहों एवं विभाजनों का सैधांतिक और व्यावहारिक अध्ययन करता है.वस्तुतः प्रजातंत्र जनवाद का व्यावहारिक रूप है. लेखक ने यह निरूपित किया है कि परंपरागत रूढ़ियों एवं जीवन चिंतन में बदलाव लाने में साहित्य सहायक घटक है तथा जनवादी चेतना वास्तव में मानव जीवन की वह अवधारणा है, जो जीवन के समग्र भेद को मिटाती है.


जनवादी चेतना की अवधारणा को स्पष्ट करने के बाद लेखक ने कहा है कि हिंदी के उपन्यासों में जनवादी चेतना सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक एवं पारिवारिक समस्याओं के रूप में प्रस्फुटित हुई है. उनकी मान्यता है कि साहित्य में वैश्विक चेतना को फैलाने में जनवादी चेतना की अहम भूमिका है.


लेखक का यह प्रयास सराहनीय है, परंतु अनेक स्थलों पर अस्वाभाविक शब्द प्रयोग और टंकण की अशुद्धियाँ खटकती हैं. जैसे -
प्रस्तुत ग्रंथ महाप्रबंध..... (भूमिका)

यह मौलिक विवेचन यह उपन्यासकार पूर्णतः जनता के पक्षधर हैं. (भूमिका)

जनता के चैयन - चामन को एकदम पायमाल करनेवाले जन विरोधी शोषक शक्तियों का खंडन इसमें किया गया है. (पृष्ठ - 37)

प्रस्तुत शोध महाप्रबंध का उपसंहार अध्याय ही पूर्व अध्यायों में जो शोधकार्य किया है, उन सबका सार समुच्चय इस अध्याय में संप्रदत्त है. (पृष्ठ - 198)

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हिंदी के प्रमुख उपन्यासों में जनवादी चेतना /
डॉ.महेंद्र कुमार /
2009 /
मिलिंद प्रकाशन,
4-3-178/2, कंदास्वामी बाग, हनुमान व्यायामशाला की गली, सुलतान बाज़ार, हैदराबाद - 500 095 /
पृष्ठ - 243 /
मूल्य - रु. 300
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मंगलवार, 6 अक्टूबर 2009

राष्ट्रकवि सुब्रह्‌मण्य भारती पर दो पुस्तकें

तमिल साहित्य और संस्कृति की विशाल परंपरा में राष्ट्रकवि सुब्रह्‌मण्य भारती का विशिष्ट स्थान है. भारतीय राष्ट्रीय संग्राम एवं राष्ट्रमुक्ति आंदोलन में भारती का योगदान उल्लेखनीय है. जाति - पाँति एवं देशकाल की सीमाओं से अनाबद्ध, मानव मात्र के लिए आदर्श जीवन मूल्यों का निर्देश देनेवाले प्रबल विचारक एवं श्रेष्‍ठ कवि के रूप में सुब्रह्‌मण्य भारती की महत्ता निर्विवाद है.

डॉ.एम.शेषन तमिल भाषी हिंदी साहित्यकार हैं. उन्होंने अपनी कृतियों
‘आधुनिक तमिल काव्य और सुब्रह्‌मण्य भारती ’ (2009) तथा ‘तमिल नवजागरण और सुब्रह्‌मण्य भारती ’(2009)
में राष्ट्रकवि एवं युगद्रष्टा सुब्रह्‌मण्य भारती की विचारधारा को हिंदी पाठकों के सम्मुख रखा है.

19 वीं सदी पुनर्जागरण का काल था. संपूर्ण भारतवर्ष में पुनर्जागरण की लहर उमड़ पड़ी. तमिलनाडु में भारती ने जनमानस में चेतना जगाई. उनका सिद्धांत था -
‘जननी जन्मभूमिश्‍च स्वर्गादपि गरीयसी. ’
उनके लिए जातीयता और राष्ट्रीयता दोनों एक दूसरे के पूरक हैं. भारती के हृदय में देशभक्ति के साथ साथ मातृभाषा के प्रति अपार प्रेम भी निहित है. अतः वे कहते हैं -
"जय हो सेन तमिल की, जय हो तमिल जन की, / जय हो मन भावन,पावन भारत भू की / **** / वंदेमातरम्‌ ! वंदेमातरम्‌ !" (जय हो सेन तमिल )

भारती पूर्ण स्वराज्य की कामना करनेवाले कवि थे. भारत माँ को गुलामी की ज़िंदगी से मुक्‍त करवाना ही उनका उद्धेश्य था. वे स्वतंत्र जीवन के अनुरागी थे. अतः
‘सुतंतिर पेरुमै ’(स्वतंत्रता का अभिमान), ‘सुतंतिर पयिर ’(स्वतंत्रता की फसल), ‘सुतंतिर दाहम्‌ ’(स्वतंत्रता का दाह), ‘सुतंतिर देवियिन्‌ तुति ’(स्वतंत्रता देवी की स्तुति)
आदि कविताओं के माध्यम से उन्होंने जनता में नई उमंग जगाई. उनकी कविताओं में राष्ट्रीयता पग पग पर दिखाई देती है -
"सिन्धु नदी की लहरों में चाँदनी रात में /चेर प्रदेश की सुंदरियों सहित / सुंदर तेलुगु गीत गाते हुए / हम नाव खेते चलेंगे."


लेखक ने यह प्रतिपादित किया है कि भारती की कविताओं में राष्ट्रीयता और अंतरराष्ट्रीयता का सुंदर समावेश है. भारती ने विश्‍व भर में व्याप्‍त सभी प्रकार की क्रूरताओं एवं अत्याचारों के विरुद्ध अपनी आवाज बुलंद की. वे नारी मुक्ति के भी प्रबल समर्थक थे -
"नारी की दासता को उन्‍मूलन किए बिना / मिट्टी की दासता को दूर करना असंभव है/ नारी को गूँगी जब तक मानेंगे तब तक / पुरुषों की मंदबुद्धि दूर नहीं होगी"
.
‘आज के बच्चे ही कल के नागरिक हैं ’,
इस उक्‍ति को सार्थक करने के लिए उन्होंने बच्चों में भी चेतना जगाने का प्रयास किया है-
"खेलो, कूदे, दौड़ो है बच्चों ... तू / आलसी बनकर मत रहो पाप्‍पा (बच्चा)! / मिल कर खेलो बच्चों ... / **** / जातियाँ यहाँ नहीं हैं पाप्‍पा / कुल की उच्चता और नीचता कहना पाप है / न्याय, ऊँची बुद्धि, शिक्षा, प्रेम से/ भरे व्यक्ति ही श्रेष्‍ठ हैं - पाप्‍पा."

भारती संपूर्ण भारतदेश के साथ साथ अपनी मातृभूमि और मातृभाषा को प्रमुखता देते हैं -
"तमिल राष्ट्र को अपनी माता मानकर / उसकी वंदना करो पाप्पा / अमृत से भी मधुर है हमारी तमिल / सज्जनों, पूर्वजों का यह हमारा देश है पाप्पा / भाषा में श्रेष्‍ठ तमिल भाषा है पाप्पा - उसकी / वंदना कर पढ़ो पाप्पा/ संपत्ति में श्रेष्‍ठ यह हिंदुस्तान - उसे / प्रतिदिन प्रशंसा करते रहो पाप्पा."


जातिप्रथा का उन्मूलन जनवादी क्रांति के लिए आवश्‍यक है. भारती की रचनाओं में यह व्यावहारिक रूप में दिखाई देता है - "ब्राह्मण हो या अब्राह्मण, हम सब समान हैं / इस धरती पर जन्में सब मानव समान हैं / जाति धर्म का दम न भरेंगे / ऊँच नीच का भेद तजेंगे / हम वंदेमातरम्‌ कहेंगे. / जो अछूत हैं, वे भी कोई और नहीं हैं / वे भी तो रहते हम सबके साथ यहीं हैं / अपने कहीं पराए होंगे / और हमारा अहित करेंगे ? हम वंदेमातरम्‌ कहेंगे."

डॉ.एम. शेषन ने प्रथम पुस्तक में भारती के काव्यों में निहित लोकगीत शैली की ओर पाठकों का ध्यान खींचा है. इस शैली में रचित
‘अम्माकण्णु पाट्टु ’, ‘वण्डिक्‍कारन्‌ पाट्टु ’, ‘पुदिय कोणंगी ’, ‘पंडार पाट्टु ’ ‘कुम्मि पाट्टू ’
आदि उल्लेखनीय हैं. जैसे -
"वोडिविलयाडु पाप्पा ... नी / ओयिंदिरिक्‍क लागादु पाप्पा ! / कूडि विलयाडु पाप्पा, ओरु कुलंदैयनु नेनैक्‍कादे पाप्पा ..."
(खेलो, कूदो, दौडो हे बच्चों...तू / आलसी बनकर मत रहो ! / मिलकर खेलो बच्चों, अपने आप को सिर्फ बच्चे न समझो...)

सुब्रह्‌मण्य भारती कवि, गद्‌यकार, पत्रकार और संपादक के साथ साथ सफल अनुवादक भी हैं. उन्होंने संस्कृत, बंगला, अंग्रेजी, फ्रेंच, बेलजीयम, जापानी और चीनी भाषा के साहित्य को तमिल में अनूदित किया है. लेखक ने इसका भी संक्षिप्‍त विवरण प्रस्तुत किया है.

अपनी द्वितीय पुस्तक में लेखक ने तमिलनाडु में व्याप्त पुनर्जागरण और सांस्कृतिक चेतना का परिचय देते हए सुब्रह्‌मण्य भारती के योगदान को स्पष्ट किया है. अंत में उन्होंने भारतेंदु और मैथिलीशरण गुप्‍त के साथ भारती की तुलना की हैं. परिशिष्ट 1 और 2 में भारती की प्रासंगिकता तथा उनके खंड काव्य ‘पांचाली शपदम्‌ ’ का परिचय दिया गया है.

डॉ.एम.शेष‍न्‌ ने अपनी इन दो कृतियों के माध्यम से जहाँ एक ओर आधुनिक तमिल काव्य और भारती के अंतःसंबंधों की पड़ताल की हैं, वहीं दूसरी ओर तमिल नवजागरण में भारती की भूमिका का भी उल्लेख किया है. आशा है कि हिंदी जगत्‌ इनके इस प्रयास का स्वागत करेगा.


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1. आधुनिक तमिल काव्य और सुब्रह्‌मण्य भारती / डॉ.एम.शेषन्‌ /2009 / माणिक्‍यम एंड चिन्नाम्माल एडुकेशन एंड चारिटबल ट्रस्ट, नं. 6, IV क्रास स्ट्रीट, राजराजेश्‍वरी नगर, मडिप्पाकम, चेन्नई - 600 091

2. तमिल नवजागरण और सुबह्‌मण्य भारती / डॉ.एम.शेषन्‌ /2009 / माणिक्‍यम एंड चिन्नाम्माल एडुकेशन एंड चारिटबल ट्रस्ट, नं. 6, IV क्रास स्ट्रीट, राजराजेश्‍वरी नगर, मडिप्पाकम, चेन्नई - 600 091
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‘सन्नाटे में रोशनी ’ बोती कविताएँ

हर मनुष्य को एक तरह का नशा होता है - अंधकार के गरजते महासागर की चुनौती को स्वीकार करने का, पर्वताकार लहरों से खाली हाथ जूझने का, अनमापी गहराइयों में उतरते जाने का और फिर अपने को सारे खतरों में डालकर आस्था के, प्रकाश के, सत्य के, मर्यादा के कुछ कणों को बटोर कर, बचाकर, धरातल तक ले आने का. इस नशे में इतनी गहरी वेदना और इतना तीखा सुख घुला-मिला रहता है कि उसके आस्वादन हेतु मन बेबस हो उठता है. डॉ.दामोदर खडसे ने शायद इसीकी उपलब्धि हेतु ‘सन्नाटे में रोशनी ’ (2008) नामक काव्य संग्रह की रचना की.


‘सन्नाटे में रोशनी ’ डॉ.खडसे की सर्जनात्मक एवं आधुनिक संवेदना का निरूपक काव्य संग्रह है. इन कविताओं में आंतरिक आत्मीय सुंदरता का हृदयस्पर्शी चित्रण प्रकृति के माध्यम से अंकित है. इस संग्रह की कविताएँ कहीं प्रकृति से संपन्न हैं तो कहीं राजनैतिक घोटालों से कायल संवेदना से ऊभ-चूभ हैं. कहीं आध्यात्म दर्शन से निष्पन्न हैं तो कहीं मानवीय रिश्तों का ताना बाना है. अनुभवी जीवन को हर तरह से भोग सकने में सक्षम कवि ने समाज में व्याप्त सांप्रदायिकता के हृदय बिदारक चित्र भी उकेरे हैं -
"विश्वास, भितरघात से घायल / राजनीतिक घोटालों से कायल / जाति, धर्म, प्रदेश सब कार्ड हैं / भुनाओं इसे क्रेडिट की तरह" (बहुत स्पर्धा है)


भूमंडलीकरण और उद्‍योगीकरण के फलस्वरूप आज मनुष्य बाज़ार में एक कमोडिटि बन गया है. बाज़ारवाद के प्रभाव के कारण समाज में ही नहीं अपितु इंसानी रिश्तों में भी बदलाव दीख रहा है. प्रतिस्पर्धा की होड़ में फँसा आज का मानव समाज परिवार से ही नहीं अपितु अपने आप से भी कटता जा रहा है. शायद वह अपनी आत्मा की आवाज से भी दूर होता जा रहा है. इसका अंकन कवि ने यूँ किया है -
"खुल गया है बाज़ार / दुनिया का / स्पर्धा है.../ नगरों - महानगरों में / भाग रहे हैं परिवार !/ स्पर्धा है - / एक छत की / रोज़गार की!/ जिसे मिले / वह भी भाग रहा है / जिसे नहीं मिला / भाग रहा है हताश - / किसी तिनके के लिए !" (बहुत स्पर्धा है)


आज का युग संचारक्रांति का युग है. सूचना क्रांति के फलस्वरूप संपूर्ण विश्व एक ग्लोबल विलेज में बदल गया है. जनसंचार के अधुनातन माध्यमों ने जहाँ आशातीत प्रगति की हैं वहीं दूसरी ओर मानव के अंतस को तोड़कर उसे संवेदनहीनता के कगार पर भी ला खड़ा किया है. इसीकी ओर इशारा करता हुआ कवि कहता है कि -
"आओ / इस कोलाहल में / किसी मोड़ पर / ठहरकर देखें हम.../ कितनी भीड़ है - / आवाज ही की / शब्द, संहिता / संयोज / चाहते हैं कि ठहरकर / किसी मोड़ पर / कर ही लें तय / समय, साथ और संवाद / का मतलब!" (संवाद का मतलब)


मानव आरामदायक ज़िंदगी बिताने और अपने जरूरतों को पूरी करने के लिए अपने चारों ओर स्थित रमणीय प्रकृति को नष्ट-भ्रष्ट कर रहा है. आज महानगरों की गगनचुंबी अट्टालिकाएँ इसी तरह पेड़-पौधों को खा गई हैं. ऐसे में छोटी-सी चिड़िया के घोंसले को निगल जाने में कोई अचंबा नहीं है. यह तो एक सहज वास्तविकता है -
"पेड़ खड़े हैं पूर्ववत्‌ / चिड़िया आती नहीं / गीत गाती नहीं.../ पेड़ असमय ही / पतझर हो जाते हैं / सुबह के बिना ही / शाम हो जाती है.../ यह कैसा क्रम है / यह कैसी नियति है ? /चिड़िया बोलती नहीं!" (चिड़िया)



प्रकृति और पुरुष के बीच अभिनाभाव संबंध है. दोनों के रिश्ते आपस में इस तरह जुड़े हैं कि अपमा, उपमेय और उपमान मिट जाते हैं. तथा इसी एकाकार से कविता अंकुरित होती है. डॉ.खडसे स्वाभावतः प्रकृति प्रेमी हैं. उनकी हर एक कविता में प्रकृति का नित-नवीन रूप अभिव्यंजित है. उषःकालीन स्वर्णिम किरणों से जनमानस में आह्लाद का संचार होता है. नदी के प्रवाह के समान ही मानव जीवन भी अहर्निश गतिशील है. नदी, नारी और संस्कृति का अंतःसंबंध है. नदी किनारों को अपना लेती है और सन्नाटे में रोशनी बोती है. उसी तरह नारी भी हर एक रिश्‍ते को अपनाकर मानव जीवन को एक सार्थक पहचान देती है -
"नदी जन्म से पाती है / नाम, रिश्‍ता और खिलखिलाहट / किनारे भी मिलते हैं उसे / अनाम, निश्‍चल और उबड़-खाबड़ / नदी किनारों को अपना लेती है / देती है उन्हें नाम, परिभाषा और पहचान /***/ बरसात में किसी मोड़ पर नदी / किनारे को भरपूर गलबहियाँ देकर / सन्नाटे में /रोशनी बोती है / और उदारता की नई परिभाषाओं से / समय का अमृत-तिलक करती है." (समय का नाम)


जिस तरह सागर से मिलकर एक नदी अपने सारे अस्तित्व को विलीन कर डालती है यह जानते हुए भी कि नदी का अस्तित्व तभी तक है जब तक कि वह नदी के रूप में है, सागर से मिल जाने के बाद उसका अस्तित्व नहीं होता. वह सागर की पहचान से जानी जाती है. उसी तरह नारी भी पुरुष के आगोश में समा जाती है - "सागर में विसर्जित होती नदी / कितनी संतुष्ट, शांत और थिर लगती है /***/ सागर से मिलते ही पता नहीं कब / उसका जल मीठापन खो देता है / सागर के खारेपन को अपना लेती है नदी / सागर से लड़ती नहीं कभी वह / बस एकाकार हो जाती है / जीवन के साथ...." (केवल नदी)


कवि ने भारतीय संस्कृति को अपनी कविताओं के माध्यम से व्यकत किया है. उनहोंने सिर्फ प्रकृति चित्रण ही नहीं किया अपितु सामाजिक एवं आर्थिक विषमताओं के चक्रव्यूह में फँसे व्यक्ति की दुर्दशा का अंकन भी किया है -
"आज कल लोग / दफ्तर में / वक्त से पहले दुबक जाते हैं / ठंड़ी-ठंड़ी छाँव तले / ओवर टाइम कमाते हैं.../ उधर सड़कों के किनारे / कुछ झोपड़े बने हैं / बनती हैं जहाँ / खस की टट्‍टियाँ / दफ्तरी साहबों के लिए / दुकानों, सेठों और कोठियों के लिए / बनते हैं वे ठंडाई / भरी दुपहरी में / ताकि रख सकें देश का दिमाग ठंड़ा / और बुझ सके उनकी / पेट की आग..." (धूप में नंगे पैर)



डॉ.खडसे ने अपनी कविताओं में जीवन के हर एक रंग को बखूबी उकेरा है. कुल मिलाकर यह कह सकते हैं कि खडसे की कविताओं के केंद्र में मनुष्य़ है. उनकी हर एक कविता मानव के सुख - दुःख, आस्था - अनास्था, जीवन की चुनौतियाँ, उतार - चढ़ाव, संघर्ष, जय - पराजय आदि हर एक पहलू में शामिल होना चाहती है.

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सन्नाटे में रोशनी (काव्य संग्रह) / डॉ.दामोदर खडसे / 2008 / क्षितिज प्रकाशन, पुणे / पृष्ठ - 107 / मूल्य - रु. 180

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शनिवार, 3 अक्टूबर 2009

‘हम दीवानों की क्या हस्ती, हैं आज यहाँ, कल वहाँ चले’

भगवतीचरण वर्मा की पुण्यतिथि 5 अक्‍तूबर पर विशेष

‘हम दीवानों की क्या हस्ती, हैं आज यहाँ, कल वहाँ चले’

भगवतीचरण वर्मा (30 अगस्त, 1903 - 05 अक्‍तूबर, 1981) ने प्रायः सभी विधाओं में सृजन किया. वे एक संपूर्ण साहित्यकार थे. लेकिन कविता वर्माजी की अंतरात्मा में इस प्रकार अनुस्यूत है कि उससे उनका संबंध विच्छिन हो ही नहीं सकता. हिंदी कविता के विविध ‘वादों’ की भूमि पर उन्होंने पदार्पण अवश्य किया, किंतु अधिक समय तक वे किसी वाद के कटघरे में आबद्‍ध नहीं रहे. उनकी अल्हड़ता, मस्ती और स्वातंत्र्य प्रियता उन्हें हर बार ‘वाद’ की प्राचीरों से विमुक्त होने के लिए आकुल बनाती रही. एक के बाद दूसरे वाद की सीमा में प्रविष्ट होने और उसे ठोंक बजाकर देखने के अनंतर वे मस्ती से यह गुनगुनाते हुए आगे बढ़ गए -
"हम दीवानों की क्या हसती, / हैं आज यहाँ, कल वहाँ चले, / मस्ती का आलम साथ चला, / हम धूल उड़ाते जहाँ चले, / आए बनकर उल्लास अभी / आँसू बनकर बह चले अभी, / सब कहते ही रह गए, अरे, / तुम कैसे आए, कहाँ चले ? / किस ओर चले ? यह मत पूछो / चलना है, बस इसलिए चले, / जग से उसका कुछ लिए चले, / जग से अपना कुछ दिए चले," (हम दीवानों की क्या हस्ती)

जिस समय भगवतीचरण वर्मा ने काव्य रंगमंच पर पग धरा तब छायावाद की लहर चलनी प्रारंभ हो गई थी. इस नई लहर के साथ वह भी कुछ समय तब बह चले. लेकिन उन्हें न तो छायावादी काव्यानुभूति के अशरीर आधारों ने आकर्षित किया और न ही भारतीय मृदुलता को ही वे अपना सके. अपने काव्य संग्रह ‘मानव ’ तक आते आते वे एक प्रगतिशील कवि के रूप में परिणत हो गए. उनके बौद्‍धिक चिंतन और सामाजिक जागरूकता ने उन्हें समाज के निम्नवर्ग के जीवन स्तर के प्रति संवेदनशील बनाया और वे ‘भैंसागाड़ी ’ जैसी ख्याति लब्ध कविताओं की सृष्टि कर सके. उन्होंने अनेक कविताओं में समाज के दलित शोषित वर्ग का चित्र खींचा है. भारत में जहाँ एक ओर मानव मेधा की सहायता से तकनीकी विकास चरमोत्कर्ष पर हैं वहीं दूसरी ओर ग्रामों की स्थिति दयनीय है. भैंसागाड़ी से ‘चरमर - चरमर चूँ चरर - मरर ’ के ध्वनि बिंब उभरे हैं. कवि ने इस कविता में यह विडंबना चित्रित की हैं कि सारी सृष्टि गति के पालगपन से प्रेरित है. इसीलिए सागर में जहाज और आकाश में वायुयान उड़ रहे हैं और उसी दौर में गाँव के ऊबड़ - खाबड़ रास्तों के बीच भैंसागाड़ी चली जा रही है -
"चरमर - चरमर चूँ चरर -मरर / जा रही चली भैंसागाड़ी ! /***/ पर इस प्रदेश में जहाँ नहीं / उच्छावास, भावनाएँ, चाहें, / वे भूख, अधखाए किसान / भर रहे जहाँ सूनी आहें / नंगे बच्चे, चिथड़े पहने / माताएँ जर्जर डोल रहीं / है जहाँ विवशता नृत्य कर रही / धूल उड़ाती हैं राहें, /***/ पीछे है पशुता का खंडहर, / दानवता का सामने नगर, /मानव का कृश कंकाल लिए / चरमर - चरमर चूँ चरर - मरर / जा रही चली भैंसागाड़ी !" (भैंसागाड़ी)

महानगरों की विडंबना भी कुछ ऐसी ही है -
"पशु बनकर मानव भूल गया / है मानवता का नाम - ग्राम ! /हम ठीक तरह चढ़ भी न सके / घर घर घर घर चल पड़ी ट्राम !" (ट्राम)

वर्मा जी व्यक्तिवादी कवि थे. उनकी कविताओं में अहंवाद की खुली अभिव्यक्ति हुई है. ‘प्रेम - संगीत ’ और ‘मानव ’ की अधिकांश कविताओं में उनके वैयक्तिक सुख - दुःख की अभिव्यंजना हुई है. वे अपने प्रणय और वेदना भाव को निःसंकोच स्वीकारते हैं -
"हाँ, प्रेम किया है, प्रेम किया है मैंने, / वरदान समझ अभिशाप लिया है मैंने." (प्रेम - संगीत)

जहाँ एक ओर उनकी कविताओं में रोमानीपन, आत्मपीड़ा, अकेलापन आदि का आभास होता है वहीं दूसरी ओर उनमें मानवीय मूल्यों के प्रति पक्षधरता, सामाजिक विषमता, नियतिवाद, व्यंग्य आदी भी पग - पग पर समाहित हैं. वे इसी मान्यता पर विश्वास करते थे कि ‘जो होना है वह हो चुका है. जो कुछ सामने है, वही सत्य है और वही नित्य है.’ अतः वे कहते हैं -
"यहाँ सफलता या असफलता, ये तो सिर्फ बहाने हैं; / केवल इतना सत्य कि निज को हम ही स्वयम्‌ अजाने हैं." (चहल - पहल की इस नगरी में हम तो निपट बिराने हैं)

देशभक्‍ति का अखंड स्वर भी उनकी कविताओं में विद्‍यमान है -
"ऐ अमरों की जननी, तुझको शत - शत बार प्रणाम, / मातृ - भू, शत - शत बार प्रणाम. / तेरे उर में शादित गांधी, बुद्ध, कृष्ण औ’ राम, / मातृ - भू, शत - शत बार प्रणाम. / *** / गूँज उठे जयहिंद नाद से सकल नगर औ’ ग्राम, / मातृ - भू, शत - शत बार प्रणाम." (मातृ - भू शत - शत बार प्रणाम)


वस्तुतः भगवतीचरण वर्मा उन कवियों में से हैं जिन्हें प्रकृति सौंदर्य की अपेक्षा मानव सौंदर्य अधिक आकर्षित करता है. वे स्वयं फूलों की अपेक्षा रंगों से अपना मोह होने की बात स्वीकृत करते हैं -
"मुझको रंगों से मोह, नहीं फूलों से. / जब मुग्ध भावना मलय - भार से कंपित / जब विसुध चेतना सौरभ से अनुरंजित, / जब आलस लास्य से हँस पड़ता है मधुवन / तब हो उठता है मेरा मन आशंकित / चुभ जायँ न मेरे वज्र सदृश चरणों में / मैं कलियों से भयभीत, नहीं फूलों से." (मुझको रंगों से मोह)


इसका अर्थ यह कदापि नहीं कि वे प्रकृति सौंदर्य की उपेक्षा करते हैं. वे प्रकृति के ऋतु सौंदर्य से बहुत प्रभावित हैं, विशेषतः पावस एवं बासंती प्रकृति से -
"जब उषा सुनहली जीवन - श्री बिखराती / जब रात रुपहली गीत प्रणय के गाती / जब नील गगन में आंदोलित तन्मयता / जब हरित प्रकृति में नव सुषमा मुस्काती" (मुझको रंगों से मोह)

"आज सौरभ में भरा उच्छ्‌वास है, / आज कम्पित भ्रमित यह वातास है, / आज शतदल पर मुदित - सा झूलता / कर रहा अठखेलियाँ हिमहास है, / लाज की सीमा प्रिये, तुम तोड़ दो! / आज मिल लो, मान करना छोड़ दो!" (आज माधव का सुनहला प्रात है)

भगवतीचरण वर्मा की कविताओं में वैविध्य होने के बावजूद सभी कविताओं में एक बिंदु पर अन्विति दिखाई देती है. वह है ‘अस्मिता की खोज’. उनकी कविताओं की केंद्रीय आत्मा है जीवन दर्शन -
"कैसे विषाद ? क्या मानवता ? / मेरे सम्मुख तो है पशुता; / ये भक्ष्य और वे भक्षक हैं, / इनमें लघुता, उनमें गुरुता, / *** / केवल मुट्ठी - भर अन्न, इसी / पर केंद्रित मानव का जीवन/ दो-चार हाथ कपड़ों से ही / ढक जाता है मानव का तन, / छः हाथ भूमि पर बना हुआ / है मानव का ऐश्‍वर्य - सदन, / फिर क्यों इतना मानापमान / इतनी तृष्णा, इतना क्रन्दन ?" (जीवन दर्शन)

भगवतीचरण वर्मा हिंदी के श्रेष्ठ कवि हैं. इसमें कोई संदेह नहीं. कवि रूप के साथ साथ उनका उपन्यासकार रूप उतना ही भव्य है. उनकी सरल उक्तियों में पाठकों का दिल झकझोर देने की क्षमता निहित है. अपनी कालजयी कृति ‘चित्रलेखा ’ के माध्यम से उन्होंने पाप और पुण्य की परिभाषा का प्रतिपादन किया. मनुष्य में ममत्व प्रधान है. प्रत्येक मनुष्य सुख चाहता है. केवल व्यक्तियों के सुख के केंद्र भिन्न होते हैं. कुछ सुख को धन में देखते हैं, कुछ सुख को मदिरा में देखते हैं, कुछ सुख को व्यभिचार में देखते हैं, कुछ त्याग में देखते हैं - पर सुख प्रत्येक व्यक्ति चाहता है. कोई भी व्यक्ति संसार में अपनी इच्छानुसार वह काम न करेगा, जिसमें दुःख मिले - यही मनुष्य की मनःप्रवृत्ति है और उसके दृष्टिकोण की विषमता है. फिर पाप और पुण्य कैसा ? हम न ही पाप करते हैं और न ही पुण्य, हम केवल वह करते हैं, जो हमें करना पड़ता है. इस तथ्य का प्रतिपादन वर्मा जी ने अपने उपन्यास ‘चित्रलेखा ’ में किया है.

वर्मा जी ने मूलतः किसी न किसी सामाजिक समस्या को अपनी कृतियों में अवश्य उठाया है. प्रेम की परिणति विवाह में आवश्यक है या नहीं, यही वस्तुतः ‘तीन वर्ष ’ उपन्यास की समस्या है. इसमें उपन्यासकार प्रेम के आत्मिक पहलू को स्वीकार करने पर बल देता है. ‘भूले बिसरे चित्र ’ में तीन पीढ़ियों की सोच और मानसिकता के बदलाव, पुरानी पीढ़ी के साथ नई पीढ़ी के संघर्ष (पीढ़ी अंतराल), औपनिवेशिक शासन के प्रति बुद्धिजीवियों का मोहभंग एवं विद्रोह का अंकन किया गया है. ‘सीधी सच्ची बातें ’ में राष्ट्रीय आंदोलन को बुद्धिजीवियों एवं नेताओं के दृष्टिकोण से समझने का प्रयास किया गया है. अपराध और राजनीति का गठबंधन, नेताओं की सत्तालोलुपता आदि को ‘सबहिं नचावत राम गोसाईं ’ तथा ‘प्रश्‍न और मरीचिका ’ में व्यंग्यात्मक शैली अपनाकर बखूबी चित्रित किया है. अतः हम यह कह सकते हैं कि भगवतीचरण वर्मा ने अपनी कृतियों में उन्नीस्वीं शती के अंतिम दशक से लेकर बीसवीं शती के सातवें दशक तक के काल को उसके व्यापक और वैविध्यपूर्ण आयाम में प्रस्तुत करने का प्रयास किया है.

इतना ही नहीं उनका कहानीकार रूप भी भव्य है. उन्होंने अपनी कहानियों के माध्यम से मध्यवर्गीय व्यक्ति की आर्थिक कठिनाइयाँ, महानगरीय जीवन और उसकी यांत्रिकता, वेश्या समस्या, काम समस्या, बेकारी आदि अनेक व्यष्टि - समष्टि जीवन की समस्याओं को उठाया. संसृति के प्रति उनकी भावना वंदनीय है -
"संसृति के प्रति अनुरक्ति बनूँ / जन के प्रति श्रद्धा बनूँ / मैं शक्ति बनूँ ऐसी कि रच सकूँ / पृथ्वी पर नन्दन कानन." (बसंतोत्सव)


शुक्रवार, 2 अक्टूबर 2009

गाँधी जयंती : ''हिंद स्वराज्य''

अक्‍तूबर का महीना आते ही सबसे पहले हम सत्य और अहिंसा के प्रतीक महात्मा गांधी (02 अक्‍तूबर,1869 - 30 जनवरी,1948) को याद करते हैं. इस उपलक्ष्य में ‘स्रवंति ’ की ओर से आपको ‘गांधी जयंती ’ की शुभकामनाएँ. इस अंक में हम महात्मा गांधी की कृति ‘हिंद स्वराज्य ’(1909) की ओर आपका ध्यान आकर्षित करेंगे क्योंकि यह ‘हिंद स्वराज्य ’ का शताब्दी वर्ष है.

1909 में गुजराती में लिखी गई यह पुस्तक महात्मा गांधी की पहली पुस्तक है. पाठक और संपादक की संवाद शैली में लिखी गई इस पुस्तक का हिंदी अनुवाद ‘हिंद स्वराज्य ’ नाम से नवजीवन संस्था ने प्रकाशित किया.

1893 में गांधी दक्षिण अफ्रीका में बसे भारतीयों के अधिकारों की रक्षा के लिए दक्षिण अफ्रीका गए. बाद में वे 1909 में ट्रांसवाल डिप्यूटेशन के साथ लंदन गए थे. वहाँ उनकी मुलाकात कुछ स्वराज्य प्रेमी भारतीय नवयुवकों से हुई. गांधी जी ने उनसे तत्कालीन राजनैतिक परिस्थितियों, हिंदुस्तान की दशा, उसकी आजादी की संभावनाएँ, शिक्षा, सत्य, अहिंसा और स्वराज्य जैसे अनेक मुद्‍दों पर चर्चा की. चार महीने के बाद वापस दक्षिण अफ्रीका लौटते समय उन्होंने किलडोनन कैसल पर मात्र दस दिनों (13 - 22 नवंबर, 1909) में उस बातचीत से संदर्भित विचारों को प्रश्‍नोत्तर शैली में ‘हिंद स्वराज्य ’ के रूप में लिपिबद्ध किया.

गांधीजी ने ‘हिंद स्वराज्य ’ के उद्धेश्य को स्पष्ट करते हुए लिखा है -
"उद्धेश्य सिर्फ देश की सेवा का और सत्य की खोज करने का और उसके मुताबिक बरतने का है."
पुनः 1921 में इस पुस्तक का सार प्रस्तुत करते हुए उन्होंने लिखा कि -
"1909 में यह लिखी गई थी. इसमें मेरी जो मान्यता प्रकट की गई है, वह आज पहले से ज्यादा मजबूत बनी है. मुझे लगता है कि हिंदुस्तान ‘आधुनिक सभ्यता ’ का त्याग करेगा, तो उससे उसे ही लाभ होगा. ... इस किताब में जिस स्वराज्य की तस्वीर मैंने खड़ी की है, वैसा स्वराज्य कायम करने के लिए आज मेरी कोशिशें चल रही हैं. मैं जानता हूँ कि अभी हिंदुस्तान उसके लिए तैयार नहीं है. ऐसा कहने में शायद ढिठाई का भास हो, लेकिन मुझे तो पक्का विश्‍वास है कि इसमें जिस स्वराज्य की तस्वीर मैंने खींची है, वैसा स्वराज्य पाने की मेरी निजी कोशिश जरूर चल रही है. लेकिन इसमें कोई शक नहीं कि आज मेरी सामूहिक (आम) प्रवृत्ति का ध्येय तो हिंदुस्तान की प्रजा की इच्छा के मुताबिक पार्लियामेंटरी ढ़ंग का स्वराज्य पाना है. ... मेरी यह छोटी सी किताब इतनी निर्दोष है कि यह बच्चों के हाथ में भी दी जा सकती है. यह द्वेष धर्म की जगह पर प्रेम धर्म सिखाती है; हिंसा की जगह आत्म - बलिदान स्थापित करती है और पशुबल के खिलाफ टक्कर लेने के लिए आत्मबल को खड़ा करती है."

तत्कालीन परिस्थितियों, विचारों और तर्कों को गांधी जी ने ‘हिंद स्वराज्य' (94 पृष्ठ) में दो परिशिष्टों सहित
‘सुधार का दर्शन ’, ‘हिंदुस्तान की दशा ’, ‘हिंदू -मुसलमान ’, ‘वकील और डॉक्टर ’, ‘सत्याग्रह ’, ‘पढ़ाई ’, ‘मशीनें ’ और ‘छुटकारा ’
शीर्षक 20 छोटे - छोटे अध्यायों में संजोया है. प्रथम अध्याय में पत्रकारों की आचार संहिता के बारे में विचार प्रकट करते हुए उन्होंने पत्रकारिता की कसौटियों को स्पष्ट किया है. इस अध्याय के अंत में उन्होंने यह लिखा है कि
"कांग्रेस ने अलग - अलग जगहों पर हिंदियों को इकट्ठा करके उनमें ‘हम एक प्रजा है ’ ऐसे जोश पैदा किया."
यहाँ पर प्रयुक्‍त शब्द ‘हिंदियों ’ वसतुतः ‘हिंदुस्तानियों ’ का वाचक है.

गांधी जी मशीनी सभ्यता के खिलाफ थे क्योंकि वे मानते थे कि मशीनें मनुष्य का रोजगार छीनकर उसे भूखों मरने के लिए मजबूर करती हैं :
"मशीनें यूरोप को उजाड़ने लगी हैं और वहाँ की हवा अब हिंदुस्तान में चल रही है. यंत्र आज की सभ्यता की मुख्य निशानी है और वह महापाप है ऐसा मैं तो साफ देख सकता हूँ. ... बंबई की मिलों में जो मजदूर काम करते हैं, उनकी हालत देखकर कोई भी काँप उठेगा. जब मिलों की वर्षा नहीं हुई थी तब वे औरतें भूखों नहीं मरती थीं." गांधी जी के इन विचारों को भले आज अक्षरशः स्वीकारना कठिन प्रतीत हो लेकिन इस दृष्टि से ये आज भी प्रासंगिक हैं कि आज मनुष्य यांत्रिक पुर्जा बन गया है. गांधी जी का स्वराज्य इस मशीनी सभ्यता से मुक्ति प्राप्त करने पर जोर देती है. ‘हिंद स्वराज्य ’ की असली अवधारणा को उन्होंने एक वाक्य में समेटा है - "हम अपने ऊपर राज करें वही स्वराज्य है, और वह स्वराज्य हमारी हथेली में है."


‘हिंद स्वराज्य ’ में अन्यत्र गांधी जी ने स्वराज्य के बारे में अपने विचार यों व्यक्‍त किए हैं -
"स्वराज्य तो सबको अपने लिए पाना चाहिए और सबको उसे अपना बनाना चाहिए. मांगने से कुछ नहीं मिलेगा, यह तो खुद लेना होगा."
उन्होंने यह भी स्पष्ट किया है कि एक हद तक स्वराज्य में अंधाधुंधी को बरदाशत कर सकते हैं लेकिन परराज्य को नहीं क्योंकि परराज्य हमारी बरबादी का सूचक है.

बापू ने अपनी पुस्तक ‘हिंद स्वराज्य ’ के माध्य्म से भारतीय जनता ही नहीं बल्कि विश्‍व के तमाम लोगों के सामने जीवन की कसौटियों को रखा है. उनका स्वराज्य केवल राजनीतिक स्वाधीनता तक सीमित नहीं हैं. जीवन के हर क्षेत्र में, धर्म, सत्य और अहिंसा का साम्राज्य देखना ही उनका सपना था. अतः वे लिखते हैं
"मेरा मन गवाही देता है कि ऐसा स्वराज्य पाने के लिए यह देह समर्पित है."


गांधी जी का ‘हिंद स्वराज्य ’ 100 साल पहले भी प्रासंगिक था, आज भी प्रासंगिक हैं और कल भी रहेगा, इसमें दो राय नहीं हैं. ब्रिटिश शासन की गुलामी से तो भारत आजाद हुआ लेकिन आज तक वह ‘स्वराज्य ’ प्राप्त नहीं हुआ जिसका सपना महात्मा गांधी ने देखा था. बापू हिंदू, मुस्लिम, सिक्ख, ईसाई में कोई भेदभाव नहीं करते थे. उनके अनुसार तो
"हिंदू, मुसलमान, पारसी, ईसाई जो इस देश को अपना वतन मानकर बस चुके हैं, वे एक - देशीय, एक - मुल्की हैं, वे मुल्की - भाई हैं."

मनुष्य के शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक और आत्मिक विकास अर्थात्‌ सर्वांगीण विकास के लिए शिक्षा अत्यंत जरूरी है. मातृभाषा का महत्व स्पष्ट करते हुए गांधी जी लिखते हैं -
"हमें अपनी भाषा में ही शिक्षा लेनी चाहिए. सबसे पहले तो धर्म की शिक्षा या नीति की शिक्षा होनी चाहिए. हरेक पढ़े - लिखे हिंदी को अपनी भाषा का, हिंदू को संस्कृत का, मुसलमानों को अरबी का, पारसी को फारसी का और सबको हिंदी का ज्ञान होना चाहिए."

बापू ने ‘हिंद स्वराज्य ’ के ‘परिशिष्ट 2 ’में ब्रिटिश सांसद जे.सी.मोर का उद्धरण अंकित किया है जिससे भारत के स्वभाव का पता चलता है -
"हमने पाया कि भारत एक प्राचीन सभ्यता है जो वहाँ हजारों सालों से रह रही अतिशय बुद्धिमान जातियों के चरित्र का अंग बन चुकी है. उस सभ्यता ने भारत को राजनैतिक संरचना तो दी है, समाज और परिवार के जीवन को चलने वाली अनेकों विविधतापूर्ण और संपन्न संस्थाएँ भी दी हैं. अपनी इन संस्थाओं के कारण हिंदू जाति का चरित्र उन्नत है. वे कुशल व्यापारी हैं, बुद्धिमान, विचारशील और समीक्षाबुद्धि से संपन्न हैं, कमखर्च हैं, उदार हैं, संयमी हैं, धर्म पर चलने वाले और नियमों को मानने वाले हैं, मधुर व्यवहार वाले हैं, दयालु हैं, विपत्ति में धैर्यशील हैं और मातापिता की आज्ञा मानने वाले हैं."


इस पुस्तक के प्रारंभ में दी गई प्रस्तावना बहुत ही महत्वपूर्ण है. सात प्रस्तावनाओं में दो काकासाहब कालेलकर की हैं, दो महादेवभाई की और तीन महात्मा गांधी की हैं. काकासाहब ने ‘दो शब्द ’ में लिखा है कि "इस अमर किताब का स्थान तो भारतीय जीवन में हमेशा के लिए रहेगा ही.
" महादेवभाई ने ‘उपोद्‍धात’ के अंत में लिखा है - "सत्य और अहिंसा के सिद्धांतों के स्वीकार से अंत में क्या नतीजा आयेगा, उसकी तस्वीर इसमें है." महात्मा गांधी द्वारा लिखित प्रस्तावना को पढ़ने के बाद यह स्पष्ट होता है कि किस परिस्थिति में बापू को ‘हिंद स्वराज्य ’ लिखने की प्रेरणा हुई - "जब मुझसे रहा ही नहीं गया तभी मैंने यह लिखा है. बहुत पढ़ा, बहुत सोचा. विलायत में ट्रांसवाल डेप्युटेशन के साथ मैं चार माह रहा, उस बीच हो सका उतने हिंदुस्तानियों के साथ मैंने सोच - विचार किया, हो सका उतने अंग्रेजों से भी मैं मिला. अपने जो विचार मुझे आखिरी मालूम हुए, उन्हें पाठकों के सामने रखना मैंने अपना फर्ज समझा."

[अक्‍तूबर 2009: संपादकीय :स्रवंति]

गुरुवार, 1 अक्टूबर 2009

हिंदी दिवस पर भाषा चिंतन

सितंबर का महीना हम हिंदी प्रचारकों के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण होता है क्योंकि इसी महीने में ‘हिंदी दिवस ’ मनाया जाता है. ‘स्रवंति ’ की ओर से आपको ‘हिंदी दिवस ’ की शुभकामनाएँ देते हुए हम यहाँ एक सद्यः प्रकाशित पुस्तक ‘हिंदी भाषा चिंतन ’ की ओर आपका ध्यान आकृष्ट करेंगे.


भाषा के बारे में विवेचन - विश्लेषण वस्तुतः भाषा से ही होता है. अतः भाषा साध्य भी है और साधन भी. यह सर्वविदित है कि हिंदी भाषा के विकास, मानकीकरण,आधुनिकीकरण और सुनिश्चित व्याकरणिक संरचना की एक सुदृढ़ परंपरा रही है. हिंदी भाषा का वैज्ञानिक अध्ययन ही ‘हिंदी भाषाविज्ञान ’ है. भाषाविज्ञान भाषा के व्याकरणिक सम्मत, शुद्ध तथा मानक रूप को अध्ययन सामग्री बनाता है, लेकिन सामाजिक व्यवहार में भाषा समरूपी न होकर विषमरूपी होती है. एक ओर समाज में भाषा के शैली भेद उपलब्ध हैं तो दूसरी ओर इसकी विविध बोलियाँ और सामाजिक व्यवहार के अनेकानेक विकल्प.


मानकीकरण की दृष्टि से हिंदी भाषा की लिपि से लेकर के उसके व्याकरणिक ढ़ाँचे तक के महत्वपूर्ण पक्षों पर महावीर प्रसाद द्विवेदी तथा अनेकानेक विद्वानों ने समय समय पर विचार प्रकट किए हैं. साथ ही हिंदी भाषा के शक्ति सामर्थ्य से संबंधित अनेक गुत्थियों को भी सुलझाया गया. विश्व फलक पर उभर रहे भाषाई चिंतन से हिंदी भाषाविज्ञान को जोड़ने में डॉ.धीरेंद्रवर्मा का योगदान अनुपमेय है. उन्होंने हिंदी भाषा की ऐतिहासिकता तथा उसकी बोलीगत, क्षेत्रगत एवं प्रयोगगत संभावनाओं का भी सूक्ष्म अध्ययन प्रस्तुत किया है. इस परंपरा को आगे बढ़ाने में अनेक भाषाविदों ने योगदान किया है और हिंदी भाषा चिंतन के विविध पक्षों को पुष्ट किया है. इस संदर्भ में प्रो.दिलीप सिंह (1951) की कृति ‘हिंदी भाषा चिंतन ’(2009, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली) मूलतः हिंदी भाषा विषयक विमर्श के एक नए आयाम प्रस्तुत करती है.


प्रो.दिलीप सिंह ने अपने इस ग्रंथ में हिंदी भाषा के विकास का भाषावैज्ञानिक विवेचन और विश्लेषण प्रस्तुत किया है. उनकी मान्यता है कि
"हिंदी भाषा के रचनाकारों, पोषकों, अनुवादकों (चाहे वे किसी प्रांत या क्षेत्र के हों) ने हिंदी भाषा के भीतर विशाल जन-जीवनों की आत्मा से बराबर तालमेल बनाए रखा है. इनको अब हिंदी व्याकरण में उकेरने होगा. बनावटी, अनुवाद आश्रित, जन-संपर्क से दूर होती जा रही सामर्थ्यहीन हिंदी का तिरस्कार करना भी इस व्याकरण के लिए ज़रूरी होगा. भाषा की शुद्ध्ता या मानकता की दुहाई देकर हिंदी भाषा के स्वाभाविक विकास और प्रयोग को; कहा जाय उसकी लचीली प्रकृति या ग्रहणवादी प्रकृति की आलोचना करनेवाले शुद्धतावादियों से सावधान रहे बिना और भाषा-संपर्क एवं भाषा-विकास की स्वाभाविक व्याकरणिक परिणतियों का संकेत दिए बिना हिंदी व्याकरण की परतों (layers) को नहीं टटोला जा सकता है. हिंदी भाषा मात्र, ‘एक ’ व्याकरणिक व्यवस्था नहीं है, वह हिंदी भाषा समुदाय में व्यवस्थाओं की व्यवस्था के रूप में प्रचलित और प्रयुक्त है; इस तथ्य के प्रकाश में निर्मित हिंदी-व्याकरण ही भाषा के उन उपेक्षित धरातलों पर विचार कर सकेगा जो वास्तव में भाषा प्रयोक्ता के ‘भाषाई कोष ’ की धरोहर हैं. कोई भी जीवंत शब्द और जीवंत भाषा एक नदी की तरह विभिन्न क्षेत्रों से गुजरती और अनेक रंग-गंधावली मिट्टी को समेटती आगे बढ़ती है. हिंदी भी ऐसी ही जीती - जागती भाषा है. इसके व्यावहारिक विकल्पों को व्याकरण में उभारना, यही एक तरीका है कि हम हिंदी को उसकी राष्ट्रीय - अंतरराष्ट्रीय भूमिका में आगे ले जा सकते हैं."


लेखक ने प्रथम खंड ‘धरोहर’ के अंतर्गत हिंदी के शब्द संस्कार की व्यापकता की चर्चा करते हुए यह बात स्पष्ट की है कि डॉ.रघुवीर के पारिभाषिक शब्दावली कोश पर पुनर्विचार की आवश्यकता है ताकि जिन शब्द सूचियों की मदद अक्सर ली जाती हैं, उनकी रचना और बनावट को पुनः रेखांकित किया जा सके तथा उन्हें अधिक व्यावहारिक बनाया जा सके. हिंदी की सामासिक संस्कृति पर विचार करते हुए लेखक ने यह रेखांकित किया है कि भाषा शिक्षण की सहायक सामग्री के रूप में व्याकरण एक अनिवार्य तत्व है. उनका मत है कि आज व्यावहारिक अथवा संप्रेषणपरक व्याकरण की आवश्यकता है जिसके सहारे हिंदी भाषा की वैविध्यपूर्ण प्रकृति अथवा उसकी सामाजिक यथार्थता को उद्‍घाटित किया जा सके. उच्चरित और लिखित भाषा के अंतःसंबंधों एवं देवनागरी लिपि की वैज्ञानिकता की चर्चा भी की गई है. इस खंड में लेखक ने भाषाविज्ञान के विकास में महिलाओं के योगदान का भी विवेचन किया है जो स्त्रीविमर्श को नया आयाम प्रदान करता है तथा संभवतः अपनी तरह का इकलौता सर्वेक्षण है.


दूसरे खंड ‘हिंदी का सामाजिक संदर्भ ’ के अंतर्गत ‘समाज भाषाविज्ञान ’ के सैद्‌धांतिक एवं व्यावहारिक दोनों पक्षों पर दृष्टि केंद्रित की गई है. भाषिक क्षमता और भाषिक व्यवहार की चर्चा करते हुए आधुनिक भाषा अध्ययन के अनेक दृष्टिकोणों तथा अनुप्रयुक्त भाषाविज्ञान की भिन्न शाखाओं का परिचय कराया गया है. साथ ही समाज में व्यवहृत भाषा रूपों अर्थात्‌ पिजिन, क्रियोल, कोड मिश्रण, कोड परिवर्तन और भाषा द्वैत की संकल्पनाओं को स्पष्ट किया गया है.


तीसरे खंड में मानकीकरण और आधुनिकीकरण की संकल्पनाओं की चर्चा करते हुए लेखक ने यह प्रतिपादित किया है कि यदि मानकीकरण के प्रयासों के साथ उसकी संभावनाओं पर दृष्टि केंद्रित करनी है तो उसके खतरों से भी अवगत होना जरूरी है.


चौथे खंड में भाषा विकास की चर्चा करते हुए लेखक ने यह स्पष्ट किया है कि दक्खिनी हिंदी वसतुतः हिंदी के विकास की मजबूत कड़ी है. उन्होंने यह रेखांकित किया है कि
"दक्खिनी हिंदी काव्य भाषा भारत की सामासिक संस्कृति का एक अनुकरणीय स्वरूप लेकर हमारे सामने आज भी एक जीवंत और ज्वलंत प्रमाण के रूप में उपस्थित है."
उन्होंने यह भी प्रतिपादित किया है कि ‘हिंदी और उर्दू को टुकड़ों में, खेमों में या खानों में विभाजित करना बेमानी है. ’


प्रयोजनमूलक हिंदी वस्तुतः आज की जरूरत है. पांचवे खंड में प्रयोजनमूलक हिंदी की प्रयुक्तियों एवं उप-प्रयुक्तियों की स्वरूपगत विशेषताओं को समझाते हुए लेखक ने यह स्पष्ट किया है कि प्रयोजनमूलक हिंदी के संदर्भ में अधिकांश अध्ययन और विवेचन ‘कार्यालयीन हिंदी ’ तक ही सीमित हो गए हैं. लेकिन वास्तव में प्रयोजनमूलक हिंदी जीवन और समाज की विभिन्न आवश्यकताओं एवं दायित्वों की पूर्ति के लिए उपयोग में लाए जानेवाली हिंदी है. छठे खंड में प्रयोजनमूलक हिंदी की विविध शैलियों के अंतर्गत व्यावसायिक हिंदी की चर्चा करते हुए लेखक ने पत्रकारिता की हिंदी और साहित्य समीक्षा के साथ साथ पाक-विधि की प्रयुक्ति का सोदाहरण विवेचन किया है. इसमें संदेह नहीं कि समीक्षा से रसोई तक रस परिपाक का आधार भाषा ही है और इस कृति में इसे अत्यंत रोचक ढ़ंग से उद्‌घाटित किया गया है.


सातवें और अंतिम खंड में लेखक ने हिंदी के प्रचार-प्रसार में दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा के योगदान को स्पष्ट किया है. यह सर्वविदित है कि स्वतंत्रता संघर्ष में हिंदी राष्ट्रीय प्रतीक के रूप में उभरी. इसलिए दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा का प्रतीक चिह्‌न हृदयों को जोड़ता हुआ यह घोषित करता है -
"एक राष्ट्रभाषा हिंदी हो, एक हृदय हो भारत जननी."
1918 में स्थापित सभा का मुख्य उद्‍देश्य था, हिंदी का प्रचार - प्रसार. राष्ट्रपिता माहात्मा गांधी इस संस्था के आजीवन अध्यक्ष रहे. 1927 में दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा एक स्वतंत्र संस्था के रूप में उभरी और 1964 में ‘राष्ट्रीय महत्व की संस्था ’ बनी. इसी वर्ष मद्रास में उच्च शिक्षा और शोध संस्थान (विश्‍वविद्‍यालय विभाग) प्रारंभ हुआ. तब से लेकर आज तक सभा अपने उद्‍देश्‍यों को क्रियान्वित कर रही है. उच्च शिक्षा और शोध संस्थान ने व्यावहारिक हिंदी के पाठ्‍यक्रमों में एम.ए. स्तर पर साहित्य के साथ साथ शैलीविज्ञान, सौंदर्यशास्त्र, सामान्य भाषाविज्ञान, हिंदी भाषा की संरचना और इतिहास ही नहीं कार्यालयीन हिंदी, व्यावसायिक हिंदी, अनुवाद विज्ञान, तुलनात्मक अध्ययन, व्यतिरेकी विज्ञान तथा अन्य भाषा शिक्षण जैसे प्रयोजनमूलक हिंदी के प्रश्‍न पत्र भी शामिल किए हैं. इस प्रकार के ‘जॉब ओरियंटेड ’ पाठ्‍यक्रम छात्रों को रोजगार प्राप्त कराने में सक्षम हैं. इस प्रकार हिंदी के प्रचार - प्रसार के साथ साथ उच्च शिक्षा और शोध कार्यों के माध्यम से निरंतर एक नई पीढ़ी को तैयार कर रही है ताकि हिंदी अखिल भारतीय स्वरूप प्राप्त कर सकें.


यह निर्विवाद है कि भारत और भारतीय संस्कृति को समझने में हिंदी की अहम भूमिका है. हिंदी ने संपूर्ण विश्‍व का ध्यान अपनी ओर खींच रखा है. प्रो.दिलीप सिंह ने अपनी पुस्तक द्वारा विश्‍व भाषा के रूप में हिंदी की शक्ति का भी बोध कराया है. उन्हीं के एक कथन के साथ इस चर्चा का समाहार समीचीन होगा -

"हम भारत के लोग विदेशों में हो रहे हिंदी संबंधी कार्यों को भी अनदेखा किए हुए हैं. इन्हें न तो हम कोई पहचान देते हैं और न ही महत्व. इस तरह की उदासीनता को सक्रिय जागरूकता में बदले बिना हिंदी भाषा (साथ ही विदेशों में चल रहे तमिल, तेलुगु, बांग्‍ला भाषा कार्यक्रमों को भी) के अंतरराष्ट्रीय संदर्भ को वह ऊँचाई नहीं मिल सकती जिसकी आकांक्षा है, उल्टा, इस तरह की मनोवृत्ति से विदेशी भाषा के रूप में हिंद्दी भाषा की गति - प्रगति बाधित होगी, नीचे की ओर ढुलकेगी. विदेश में हिंदी का ध्वज रामायण के परिवेश में फहरा है. शायद ही दुनिया की कोई ऐसी भाषा हो जिसमें वाल्मीकी कृत ‘रामायण ’ अथवा ‘रामचरित मानस ’ का अनुवाद या व्याख्यानुवाद न हुआ हो. मीरा, सूर, कबीर भी खूब अनूदित हुए हैं. रूसी भाषा में ‘प्रेम सागर ’ (ए.पी.बारान्निकोव) का अनुवाद भी हुआ है. अपने अंतरराष्ट्रीय संदर्भ में हिंदी भाषा, मात्र एक भाषा नहीं, भारतीय संस्कृति, दर्शन और अध्यात्म की संवाहिका भाषा है. इस भावात्मक लगाव के कारण ही विश्‍व का झुकाव हिंदी की ओर हुआ. हिंदी साहित्य के अनुवाद कार्य में तथा हिंदी में सृजनात्मक लेखन में इन देशों का योगदान अपना ऐतिहासिक महत्व रखता है. आज हमें इन कार्यों का अवलोकन - आकलन करते हुए इन्हें प्रोत्साहित करने और इनसे संबद्ध समस्याओं का समाधान करने का प्रयत्‍न करना चाहिए. भारत के विश्‍वविद्‍यालयों में इन कार्यों पर शोध हों, महत्वपूर्ण व्याकरणों, रचनाओं का पाठ्‍यक्रम में स्थान दिया जाय और भारत सरकार इन कार्यों को प्रकाशित कर सस्ते दामों पर उपलब्ध कराये. विश्‍व हिंदी के विस्तार को भारतीय जनता से परिचित कराने पर ही हम हिंदी - प्रेमी भारतीय का आत्म - सम्मान बढ़ेगा और विदेशों में हिंदी के लिए समर्पित प्रतिभाओं का उत्साह भी."


[सितंबर2009, संपादकीय: स्रवंति}

जो चले गए, उनको प्रणाम !

हिंदी के लोकप्रिय रंगकर्मी, निर्देशक, कवि और अभिनेता, ‘आगरा बाज़ार ’ और ‘चरनदास चोर ’ जैसे सुप्रसिद्ध नाटकों के लेखक हबीब तनवीर का निधन 08 जून, 2009 को 85 वर्ष की आयु में हुआ.

हबीब तनवीर का जन्म 01 सितंबर, 1923 को रायपुर (छत्तीसगढ़) में हुआ था. उनका मूल नाम हबीब अहमद खान था. ‘तनवीर ’ नाम से वे कविता लिखते थे. उनके द्वारा रचित नाटकों में ‘आगरा बाज़ार’, ‘शतरंज के मोहरे’, ‘मिट्टी की घड़ी’ ‘चरनदास का चोर’, ‘पोंगा पंडित’, ‘कामडे का अपना बसंत ऋतु का सपना’, ‘राजरक्त’ आदी प्रमुख हैं.

तनवीर को संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार (1969), पद्‍मश्री (1983), कालिदास सम्मान (1990),संगीत नाटक अकादमी फेलोशिप(1996), तथा पद्‍मभूषण (2002), से सम्मानित किया गया था. उनके सुप्रसिद्ध नाटक ‘चरनदास चोर’ के लिए एडिनबर्ग अंतरराष्ट्रीय नाटक महोत्सव (1982) में `Fringe Firsts Award' भी प्राप्त हुआ.

तनवीर पारदर्शी तथा खुले विचारोंवाले व्यक्ति थे. उनके अनुसार अंचल ही सही अर्थों में रंगमंच है. अतः उन्होंने लोक कलाकारों को प्रोत्साहित किया और अपने थियेटर में उन्हें स्थान दिया. वे अपने नाटकों में लोक संगीत का प्रयोग करते थे, समाज में व्याप्त शोषण, भ्रष्टाचार, अत्याचार आदि के खिलाफ आवाज उठाते थे तथा छत्तीसगढ़ी लोकशैली ‘पंडवाणी’ के साथ साथ पारंपरिक रंगमंचीय तकनीक का भी प्रयोग करते थे. उनके नाटकों में छत्तीसगढ़ी लोक परंपरा एवं छत्तीसगढ़ी नाच का प्रभाव देखा जा सकता है.

सफदर हाशमी के अनुरोध पर तनवीर ने 1980 को जन नाट्‍य मंच (जनम) के लिए ‘मोती राम का सत्याग्रह’ नामक नाटक का निर्देशन किया. नाटक निर्देशन के साथ साथ उन्होंने फिल्मों में भी अभिनय किया. रिचडर्स एटिनबरो की फिल्म ‘गांधी ’ (1982) में अभिनय किया. भोपाल गैस त्रासदी पर चित्रित फिल्म ‘ब्लैक एंड व्हाइट’ में भी उन्होंने अभिनय किया, पर यह फिल्म अभी तक रिलीज़ नहीं हुई.

रवींद्रनाथ टैगोर के उपन्यास ‘राजर्षि ’ तथा नाटक ‘विसर्जन ’ के आधार पर उन्होंने 2006 में ‘राजरक्त ’ नामक नाटक लिखा और उसका निर्देशन भी किया.

निध्न से पूर्व वे उर्दू में लिखित अपनी आत्मकथा ‘मटमैली चदरिया ’ को अंतिम रूप दे रहे थे.

जून माह में हमने वरिष्ठ रंगकर्मी हबीब तनवीर के साथ साथ हिंदी काव्यमंच की तीन विभूतियों - ओमप्रकाश ‘आदित्य’, लाड़सिंह गूजर और नीरज पुरी को खो दिया.

इन सब दिवंगत विभूतियों को ‘स्रवंति ’ परिवार की विनम्र श्रद्धांजलि !
[जुलाई2009, संपादकीय:स्रवंति]

कुँवरनारायण

"चारों ओर लौह - मौन गुम्बद - सा अंधकार
जिसकी दीवारों से टकराती आवाजें ये
केवल सन्नाटे को और झनझनाती हैं.
*** *** *** ***
समय के केंचुल सरीखा रास्ता.
मारकर खाया हुआ - सा पड़ा
चारों ओर खाली नगर - पंजर ...
लुंज दीवारें -
सहारे
डरी, सिकुड़ी पड़ी
कुछ परछाइयाँ ." (आत्मजयी)


आधुनिक समाज की जटिलताओं एवं विसंगतियों के चितेरे, हिंदी कविता के शलाका पुरुष कुँवरनारायण को वर्ष 2005 के ज्ञानपीठ पुरस्कार से नवाज़ा गया. नई कविता आंदोलन के सशक्त हस्ताक्षर कुँवरनारायण ‘अज्ञेय’ द्वारा संपादित ‘तीसरा सप्तक’ (1959) के प्रमुख कवियों में रहे हैं. वे अपनी रचनाशीलता में इतिहास और मिथक के जरिए वर्तमान को देखने के लिए जाने जाते हैं. कुँवरनारायण के लिए जीवन संपर्क का अर्थ अनुभव मात्र नहीं अपितु वह अनुभूति और मननशक्ति भी है जो अनुभव के प्रति तीव्र और विचारपूर्वक प्रतिक्रिया कर सके.



मानवीय सार्थकता के पक्षधर कुँवरनारायण का जन्म 1927 में हुआ. वे चुंतक मिजाज और संवेदनशील कवि हैं. उनकी कविताओं में भावनाओं का आवेग नहीं अपितु संयम है. उनकी कविता रोमांटिक भावुकताग्रस्त कविता नहीं अपितु उसमें कई की प्रवृत्तियाँ सक्रिय होती नज़र आती हैं. उनकी कविता में एक प्रकार के रहस्य और विलक्षण प्रश्‍नाकुलता की मुद्रा पग पग पर दिखाई देती है. अस्तित्व को पहचानने की चिंता, अकेलापन, मनुष्य की नियति, मृत्युबोध आदि उनकी कविताओं में विशेष रूप से दीख पड़ते हैं. उनकी प्रमुख रचनाओं में ‘आत्मजयी’, ‘आकारों के आसपास’, ‘चक्रव्यूह’, ‘अपने सामने’, ‘सन्नाटा या शोर’, ‘जब आदमी आदमी नहीं रह जाता’, ‘इन्तिज़ाम’, ‘दिल्ली की तरफ’, ‘शक’ आदि शामिल हैं.



कुँवरनारायण कवि होने के साथ साथ गंभीर आलोचक भी हैं. उनकी कविता का मूलाधार है - निरंतर और बेचैन प्रश्‍नाकुलता, जो किसी भी सहृदय का सहज स्वाभाव होती है. उनहोंने अपने काव्यबोध से यह प्रमाणित किया कि जो सुंदर है, वह कठिन भी है; चूँकि मानवीय हित की कल्पना सुंदर है लेकिन उसके लिए कठिनतर प्रयत्‍न ज़रूरी है. उनकी पक्षधरता विश्‍वमानवता के सामने उपस्थित संकटों की पहचान में निहित है. कठिन समय का अहसास कुँवरनारायण की कविताओं में बार बार उभरता है -
"शायद उसी मुश्किल वक्त में / जब मैं एक डरे हुए जानवर की तरह / उसे अकेला छोड़कर बच निकला था ख़तरे से सुरक्षा की ओर / वह एक फँसे हुए जानवर की तरह / खूंख्वार हो गया था." (जब आदमी आदमी नहीं रह जाता / अपने सामने).



कुँवरनारायण ने अपनी कविताओं के माध्यम से समाज में व्याप्त त्रास्द मूल्यहीनता का निर्मम उद्‍घाटन किया है. मुक्तिबोध ने कुँवरनारायण के बारे में लिखा है -
"महत्व की बात यह है कि आज, जबकि साधारणतः लेखक और कवि इसी व्यवहार क्षेत्र में कार्यकुशल होकर अपने को अधिकाधिक सफल और प्रभावशाली बनाने के प्रयत्‍न में लीन रहते हैं और इसके लिए बिक तक जाते हैं, कुँवरनारायण ऐसा कवि है जो उसी व्यवहार क्षेत्र के विरुद्ध तीव्र संवेदनात्मक प्रतिक्रियाएँ करता हुआ, जीवन के क्षण क्षण को तड़िन्मय और संवेदनमय बनाने के लिए अकुलाता हुआ, पीड़ित अंतरात्मा के स्तर को उभारता है. उसे वास्तविक मानवीय सार्थकता की तलाश है. वह वास्तविक मानवीय सार्थकता उसे कहीं नहीं मिल पाती. इसलिए उसका चित्त खिन्न हो जाता है. पर वह केवल दुःख के काले रंगों में घिरकर डूब नहीं जाता, वरन्‌ मानव के हृदय विस्तार की क्रिया में जो एक मूल समस्यात्मक बाधा है, उस बाधा के वस्तुगत रूप का भी स्पष्ट चित्रण करता है. उसका स्वर उदात्त और नैतिक महत्व धारण कर लेता है. कुँवरनारायण मूलतः आदर्शवादी कवि हैं."



वास्तविक मानवीय सार्थकता के खोजी कवि कुँवरनारायण को ज्ञानपीठ पुरस्कार दिए जाने के अवसर पर उन्हीं के कवितांश के माध्यम से ‘स्रवंति ’ परिवार की बधाई निवेदित है -


"चेतना का न्यून अंकुर,
मनुजता की सहज मर्यादा,
उपजने दो खुली, सन्तुष्ट, रस जलवायु में,
क्योंकि विकसित व्यक्ति ही वह देवता है
इतर मानव जिसे केवल पूजता है;
आँक लेगा वह पनप कर
विश्‍व का विस्तार अपनी अस्मिता में ...
सिर्फ उसकी बुद्धि को हर दासता से मुक्त रहने दो."

[स्रवंति:दिसंबर 2008 संपादकीय]

'आज़ाद ही हो लेंगे, या सर ही कटा देंगे'


"कस ली है कमर अब तो, कुछ करके दिखाएँगे,
आज़ाद ही हो लेंगे, या सर ही कटा देंगे,
हटने के नहीं पीछे, डर कर कभी जुल्मों से,
तुम हाथ उठाओगे, हम पैर बढ़ा देंगे."

- -अशफ़ाक उल्ला खाँ

भारत की आज़ादी का इतिहास अविस्मरणीय घटनाओं से भरा पड़ा है. लाखों - करोड़ों देशप्रेमियों ने जिस बहादुरी और साहस के साथ अंग्रेज़ों के खिलाफ संघर्ष किया और जिस बलिदान एवं त्याग का परिचय दिया, वह अनुपमेय है. प्रथम प्रधानमंत्री पं.जवाहरलाल नेहरू ने 15 अगस्त 1947 को राष्ट्र को संबोधित करते हुए कहा था -
" वर्षों पहले हमने भाग्यवधू से एक प्रतिज्ञा की थी. आज वह क्षण आ गया है जब हम उस प्रतिज्ञा को समग्र रूप में न सही , बहुत हद तक पूरा करेंगे."

स्वतंत्रता संग्राम के संदर्भ में 19 वीं सदी पुनर्जागरण का काल था. इसी काल में राष्ट्रीय चेतना मानवीय जिजीविषा के लिए चुनौती बनकर सामने आई, नए मूल्यों की स्थापना हुई. भारतीय साहित्य में निरंतर इन मूल्यों एवं आदर्शों का सशक्त रूप मुखरित होता रहा है.

हिंदी साहित्य में राष्ट्रीय संघर्ष की विविध घटनाओं का चित्रण सहज एवं स्वाभाविक है. ब्रिटिश शासन काल में राष्ट्रीय चेतना की अभिव्यक्ति पर अंकुश था लेकिन साहित्यकारों ने जनमानस में राष्ट्रीय चेतना जगाई.

राष्ट्रीय स्वाधीनता संग्राम बापू के नेतृत्व में चरम सीमा पर पहुँचा. शांति और क्रांति दोनों के समर्थक आंदोलनों ने ब्रिटिश शासन पर प्रहार किए. साहित्यकारों ने भी अपना दायित्व निभाते हुए तत्कालीन सामाजिक एवं राजनैतिक घटनाओं को रूपायित किया. उसकी समृति बाद की रचनाओं में भी अंकित हुए. उदाहरण के लिए ‘मैला आंचल ’ (1954) का एक सत्याग्रही अपने साथियों को संबोधित करते हुए कहता है -
"पियारे भाइयो, हमने भारथमाता का नाम, महतमा जी का नाम लेना बंद नहीं किया. तब मलेट्री ने हमको जेलखाना में डाल दिया. आप लोग तो जानते ही हैं कि सुराज लोग जेहल को क्या समझते हैं - ‘जेहल नहीं ससुराल यार हम बिहा करने को जाएँगे’." (मैला आंचल ; पृ.30)

1947 में भारत को ब्रिटिश उपनिवेशवाद से मुक्ति तो मिली लेकिन द्विराष्ट्रवाद के कारण देश का विभाजन हुआ और भारत को सांप्रदायिकता की ज्वाला में दग्ध होना पड़ा. इस प्रकार आज संपूर्ण देश में फैली सांप्रदायिकता का बीज स्वतंत्रता पूर्व ही अंकुरित हो गया था. दूसरी ओर ‘मैला आंचल ’ में रेणु ने सांप्रदायिक एकता के उस गीत का स्मरण किया जो खिलाफत के जमाने में गाया गया था -
"अरे चमक मंदिरवा में चाँद / मसजिदवा में बंसी बजे! / मिली रहू हिंदू - मुसलमान / मान-अपमान तजो!" (मैला आंचल ; पृ.232)

इसके अलावा स्वाराज्य की कल्पना उस काल के भारतीय लोकमानस ने किस रूप में की थी, उसकी झांकी द्रष्टव्य है -
"भारत में आयल सुराज / चलु सखी देखन को... / भारथमाता / कथि जे चढ़ल सुराज / चलु सखी देखन को! / *** *** / हाथ चढ़ल आवे भारथमाता / डोली मैं बैठल सुराज! चलु सखी देखन को" (मैला आंचल ; पृ.224)

1947 से पहले हमारा एकमात्र उद्‌देश्‍य था आजादी लेकिन आजादी मिलने के बाद परिस्थितियाँ बदल गईं. लोगों के सपने टूट गए. सामान्य जनता की हालत में कोई परिवर्तन न हुआ. डॉ.रामदरश मिश्र के ये प्रश्‍न आज जन जन के प्रश्‍न हैं कि -
"कहाँ है वह सुराज्य ? कहाँ है वह समता की भावना, गांधीजी जिसका सपना देखते थे ? हत्यारों ने गांधीजी को पहले ही साफ कर दिया. आज मौज से मनमाना करते हैं." (जल टूटता हुआ ; पृ.9)

साहित्य का काम है प्रश्‍न उठाना, जनमानस को झिंझोड़ना और झकझोरना ताकि वह इन प्रश्‍नों के उत्तर प्राप्त करने के लिए सन्नद्ध हो. संतोष का विषय है कि हमारे साहित्यकार इस दिशा में सचेत हैं.
[स्रवंति : संपादकीय : अगस्त २००९]

गुरुवार, 24 सितंबर 2009

ऋता शुक्ल की कहानियों में सामाजिक जीवन

ऋता शुक्ल की रचनाओं में तिवारीपुर का परिवेश दीखता है. किसी भी रचनाकार के लिए परिवेश से कटकर रहना संभव नहीं होता . अतः ऋता शुक्ल ने भी अपनी रचनाओं के माध्यम से अपने परिवेश में निहित व्यष्टिगत एवं समष्टिगत समस्याओं को उकेरा है और जनमानस को सोचने के लिए मजबूर किया है. प्रेम, विवाह, स्त्री - पुरुष संबंध, व्यक्ति के अंतर्द्वन्द्व, अस्तित्व की रक्षा तथा व्यक्ति मन से संबंधित समस्याओं का चित्र उनक कहानियों में विद्यमान है. इसके अतिरिक्त व्यक्तिगत समस्याओं से उत्पन्न समष्टिगत समस्याओं के प्रति भी उन्होंने पाठकों का ध्यान आकर्षित किया है. इन्हीं बिन्दुओं को दृष्टिगत रखकर सीताराम राठौड़ (1979) ने अपनी किताब ‘ऋता शुक्ल की कहानियों में सामाजिक जीवन ’ (2009) में ऋता शुक्ल की कहानियों का विवेचन - विश्लेषण किया है जो उनके एम.फिल. लघु शोध प्रबंध जा प्रकाशित रूप है. इस अध्ययन में लेखक ने रिता शुक्ल के चार कहानी संग्रहों को आधार बनाया है - कनिष्ठ उंगली का पाप, कासों कहौं मैं दरदिया, मानुस तन और कायांतरण.

भारतीय समाज पितृसत्तात्मक समाज है. मध्यकाल के प्रतिबंधों के बाद आजादी के संघर्ष में स्त्री को घर से बाहर आने का अवसर मिला. आजादी के बाद उसे वैधानिक अधिकार भी मिले, लेकिन भारत की औसत नारी आज भी सामाजिक दृष्टि से पिछड़ी हुई ही है. दरअसल भारतीय समाज की विविधता के अनुरूप यहाँ स्त्री की स्थिति के भी अनेक स्तर हैं. एक ओर जहाँ वह अपने हित और हकों से अनभिज्ञ है वहीं दूसरी ओर वह अपनी स्वतंत्रता का दुरुपयोग भी करने लगी है. ऋता शुक्ल ने अपनी कहानियों में नारी के इन अनेक रूपों को स्पष्ट करने का प्रयास किया है . लेखक ने यह स्पष्ट किया है कि नारी जीवन की विडंबनाओं चित्रण ऋता शुक्ल ने बखूबी किया है. ऋता की कहानियाँ एक ओर नारी की दयनीय स्थिति को उजागर करने में सक्षम हैं तो दूसरी ओर नारी सशक्तीकरण को उजागर करने में. स्त्री समस्याओं के अलावा उनकी कहानियाँ समाज में व्याप्त वर्ग संघर्ष, आर्थिक असमानता, भ्रष्टाचार, बेरोजगारी, लैंगिक भेद, शिक्षण संस्थाओं की अव्यवस्था, कार्यालयों की भ्रष्ट नीति, बाल श्रमिकों की त्रासदी, मध्यवर्गीय मानसिकता और राजनीतिज्ञों की कूटनीति को भी रेखांकित करती हैं.

आज समाज युद्ध और आतंकवाद से त्रस्त है. सांप्रदायिकता की आग में फंसकर मानव जीवन तहस - नहस हो रहा है. मृत्यु भय, अनिश्चित भविष्य, रोजगार की समस्या आदि अनेक विसंगतियों के कारण मानव भयभीत है. ऋता की कहानियाँ मानव जीवन में व्याप्त इस आशा - निराशा, आस्था - अनास्था एवं सुख - दुःख को अभिव्यक्ति प्रदान करती हैं . लेखक ने यह प्रतिपादित किया है कि "ऋता शुक्ल एक सच्ची साहित्यकार हैं, जिन्होंने जीवन के विविध पहलुओं को बड़ी ही बारीकी के साथ अनुभव किया और अपनी कहानियों में उन्हें जागरूकता के साथ चित्रित किया है ."

शोध की मर्यादा का पालन करते हुए सीताराम राठौड़ ने पहले तो लेखिका के व्यक्तित्व और कृतित्व पर चर्चा की है , उसके बाद एक एक अध्याय में उनकी कहानियों में निहित सामाजिक जीवन, आर्थिक जीवन , नारी जीवन और आध्यात्मिक जीवन पर प्रकाश डाला है. आशा है, हिंदी जगत में उनकी इस प्रारम्भिक कृति का यथायोग्य स्वागत होगा. _____________________________________________________

ऋता शुक्ल की कहानियों में सामाजिक जीवन / सीताराम राठौड़ / 2009 / मिलिंद प्रकाशन, 4-3-178/2, कंदास्वामी बाग,हनुमान व्यायामशाला की गली,सुलतान बाज़ार,हैदराबाद-500 095 / पृष्ठ - 116 / मूल्य - रु.150 _____________________________________________________


अज्ञेय के निबंध



प्रयोगवाद और नई कविता के विशिष्ट कवि सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन ‘अज्ञेय ’ का स्वर अत्यंत वैविध्यपूर्ण है. एक कुशल कवि होने के साथ साथ वे एक सफल उपन्यासकार, कहानीकार, निबंधकार और संपादक भी हैं. अज्ञेय मध्यवर्ग की पीड़ा से भली भाँति परिचित हैं. मध्यवर्ग के सपने और आकांक्षाएँ बड़े रंगीन होते हैं, लेकिन चतुर्दिक व्याप्त आर्थिक वैषम्य की दीवारों से टकराकर वे चूर चूर हो जाते हैं.अज्ञेय ने थके -हारे और टूटे हुए मध्यवर्गीय व्यक्ति की पीड़ा को भलीभांति पहचाना है, तभी तो वे लिखते हैं - "दुःख सबको माँजता है / और / चाहे स्वयं सबको मुक्ति देना वह न जाने, किंतु / जिनको माँजता है / उन्हें यह सीख देता है कि सबको मुक्त रखें."
सच्चिदानंद चतुर्वेदी (१९५८) ने अपनी समीक्षाकृति ‘अज्ञेय के निबंध ’ (2009) में यह प्रतिपादित किया है कि अज्ञेय ने अपने साहित्य द्वारा जन मानस के समक्ष संस्कृति का वह रूप प्रस्तुत किया है जो मानव विकास के लिए अत्यंत उपयोगी है. अज्ञेय के साहित्य में प्रतिपादित सांस्कृतिक दृष्टि किसी ‘वाद’ या ‘पूर्वाग्रह’ से ग्रस्त नहीं है . संस्कृति के बारे में उनकी मान्यता है कि "संस्कृति शब्द यों तो बहुत पुराना है, लेकिन जिस अर्थ में हम आधुनिक युग में उसका प्रयोग करते हैं, उस अर्थ में उसका इतिहास बहुत लंबा नहीं है. भारतीय चिंतन धारा में समग्रता की खोज की बात मान लें तो संस्कृति की चेतना की अपनी पड़ताल में परिधि से केंद्र की ओर यात्रा करते हुए बहुत से बाहरी लक्षणों की पड़ताल कर सकते हैं जिनसे हमें भीतरी स्थिति का निदान करने में सहायता मिलेगी."
अज्ञेय ने व्यक्ति, समाज, संस्कृति तथा साहित्य को मानवीय मूल्यों की कसौटी पर ही कसा है. लेखक ने यह स्पष्ट किया है कि "अज्ञेय ने अपने निबंधों में मूल्यों की बार-बार चर्चा की है क्योंकि उनका मानना था कि मानव ही ऐसा प्राणी है जो मूल्यों की सृष्टि करता है और बाद में उन मूल्यों को अपने जीवन से बड़ा मान लेता है तथा उनकी रक्षा के लिए प्राण भी निछावर कर सकता है."
लेखक ने अपनी पुस्तक में निबंध साहित्य की सैद्धांतिक चर्चा करते हुए अज्ञेय के निबंध साहित्य का विवेचन - विश्लेषण सांस्कृतिक, सामाजिक, मानववादी तथा भाषिक स्तर पर किया है. विषयवस्तु और शैली के आधार पर अज्ञेय के निबंधों का वर्गीकरण किया गया है. लेखक ने अज्ञेय के निबंधों में प्रयुक्त भाषा और शैली की ओर पाठकों का ध्यान खींचा है. उन्होंने यह स्पष्ट किया है कि अज्ञेय वस्तुतः पाठकों तक अपनी बात पहुँचाने के लिए कई पद्धतियों का प्रयोग करते हैं. जैसे स्थापना - परिणाम पद्धति, परिणाम - स्थापना पद्धति, प्रश्न पद्धति, खंडन - मंडन पद्धति, गणितीय पद्धति तथा चित्र पद्धति. इन पद्धतियों का सोदाहरण विवेचन भी किया गया है.
अज्ञेय की भाषा स्थिर न होकर गत्यात्मक है. शब्द चयन और शब्द के सही प्रयोग के बारे में स्वयं अज्ञेय की मान्यता है कि "केवल सही शब्द मिल जाएँ तो ! लेखक के नाते और उससे अधिक कवि के नाते मैं अनुभव करता हूँ कि यही समस्या की जड़ है. मेरी खोज भाषा की खोज नहीं है, केवल शब्दों की खोज है. भाषा का उपयोग मैं करता हूँ, निस्संदेह लेकिन कवि के नाते जो मैं कहता हूँ, वह भाषा के द्वारा नहीं केवल शब्दों के द्वारा. मेरे लिए यह भेद गहरा महत्व रखता है. भाषा का उपयोग मैं करता हूँ, लेखक के नाते, कवि के नाते और एक साधारण सामाजिक मानव प्राणी के नाते, दूसरे सामाजिक मानव प्राणियों से साधारण व्यवहार के लिए. उसका उपयोग मैं ऐसे ढंग से करना चाहता हूँ कि नए प्राणों से दीप्त हो उठे." लेखक ने यह स्पष्ट किया है कि अज्ञेय की लिखित भाषा और उच्चरित भाषा में कोई अंतर नहीं दीखता. यह उनकी विशेषता है. अज्ञेय की रचनाओं में कोड मिश्रण और कोड परिवर्तन की संकल्पनाएँ व्यवहारतः सम्मिलित हैं.
लेखक की यह स्थापना महत्वपूर्ण है कि अज्ञेय ने अपने निबंधों के माध्यम से साहित्यालोचना की कई कसौटियाँ निर्धारित की हैं. पहली कसौटी यह है , किसी रचना का मूल्यांकन करने के लिए तत्कालीन युगीन परिवर्तनों के साथ उस रचना के रचनाकार के संबंध को देखना. दूसरी कसौटी है भाषा और तीसरी कसौटी है रचनाकार के मन की परख.
इस प्रकार एक निबंधकार के रूप में अज्ञेय को समझने के लिए डा.सच्चिदानंद चतुर्वेदी की यह कृति अत्यंत उपयोगी है तथा अन्य निबंधकारों की कृतियों के विवेचन के लिए भी इससे दिशा प्राप्त की जा सकती है. _______________________________________________________
_ अज्ञेय के निबंध / सच्चिदानंद चतुर्वेदी / 2009 / मिलिंद प्रकाशन, 4-3-178/2, कंदास्वामी बाग, हनुमान व्यायामशाला की गली, सुलतान बाज़ार, हैदराबाद - 500 095 / पृष्ठ - 188 / मूल्य - रु.225 _______________________________________