गुरुवार, 21 मई 2009

डॉ. रामस्वरूप चतुर्वेदी - आलोचना का अर्थ ः अर्थ की आलोचना

चिट्ठाजगत अधिकृत कड़ी
आचार्य रामस्वरूप चतुर्वेदी हिंदी के आलोचकों में उस स्थान के अधिकारी हैं जिन्होंने आलोचना को मनुष्य के जातीय जीवन और उसकी संस्कृति से जोड़कर देखा-परखा है। आचार्य शुक्ल का ‘विरुद्धों का सामंजस्य’ रामस्वरूप चतुर्वेदी के पूरे रचना-कर्म की बहुत भारी विशेषता है। उनकी मान्यता है कि ‘‘कवि का काम यदि ‘दुनिया में ईश्वर के कामों को न्यायोचित ठहराना है’ तो साहित्य के इतिहासकार का काम है कवि के कामों को साहित्येतिहास की विकास-प्रक्रिया में न्यायोचित दिखा सकता।’’1

आचार्य शुक्ल इसीलिए कहते हैं कि ‘इन्हीं चित्तवृत्तियों की परंपरा को परखते हुए साहित्य-परंपरा के साथ उनका सामंजस्य दिखाना।’ यानि कवि, यदि अपने इर्द-गिर्द के संसार और जीवन को देख-परख कर उसे अर्थ देता है तो आलोचक और इतिहासकार कवि की इस रचना में अर्थ का संधान करता है और उसे संवद्धित करता है। रचना, आलोचना और साहित्येतिहास यों मानवीय जिजीविषा के, जीवन में अर्थ-संधान के क्रमिक चरण हैं। आचार्य रामस्वरूप चतुर्वेदी द्वारा रचित पुस्तक ‘आलोचना का अर्थ ः अर्थ की आलोचना’ लोकभारती प्रकशन द्वारा सन् 2001 (प्रथम संस्करण) में प्रकाशित हुई। यह रचना वस्तुतः आचार्य शुक्ल पर केंद्रित है। यों तो आचार्य शुक्ल पर कई रोचक आलोचनाएँ प्रकाशित हुई हैं। खासतौर पर नामवर सिंह द्वारा ‘चिंतामणि, भाग-3 की भूमिका’ (1983), डॉ. बच्चन सिंह द्वारा ‘आचार्य शुक्ल का इतिहास पढ़ते हुए’ (1989) तथा समीक्षा ठाकुर द्वारा ‘आचार्य रामचंद्र शुक्ल के इतिहास की रचना प्रक्रिया’ (1996)। ये सारे अध्ययन अपने क्रम में उत्तरोत्तर विकसित और संवद्र्धित होते गए हैं। तब इस क्रम को आगे बढ़ाने के औचित्य पर प्रकाश डालते हुए रामस्वरूप चतुर्वेदी कहते हैं कि इस सिलसिले में ‘‘यहाँ पूरी पुस्तक अपने आयोजन में व्यवस्थित इस दृष्टि से हुई है कि हिंदी के शीर्ष आलोचक के समग्र लेखन का सभी महत्वपूर्ण पक्षों की दृष्टि से विवेचन एक साथ हो, जिससे उनकी अपनी अंतरक्रिया अच्छे से स्पष्ट हो सके।’’2

इस पुस्तक में आचार्य शुक्ल की काव्य आलोचना और उनके बौद्धिक चरित्र पर पहली बार दृष्टि केंद्रित की गई है। यों तो बुनियादी यत्न है कि रामचंद्र शुक्ल का लेखक-आलोचक व्यक्तित्व समग्रतः उजागर हो सके। आचार्य रामस्वरूप चतुर्वेदी अपनी इस रचना में आचार्य शुक्ल के आलोचना कर्म का सैद्धांतिक पक्ष देखते हैं। फिर इतिहास और व्यावहारिक आलोचना की संपृक्त दृष्टि पर विचार करते हैं। रामचंद्र शुक्ल के विविध गद्य रूप, उनकी भाषा-दृष्टि आदि पर प्रकाश डालते हुए अंत में आचार्य शुक्ल के समीक्षा-कर्म पर विचार-क्रम का विवेचन-विश्लेषण प्रस्तुत करते हैं। आलोचना के क्षेत्र में आचार्य शुक्ल ने कई दिशाओं में कार्य किया है। उनके कार्य की एक दिशा है - भारतीय काव्य सिद्धांतों का पुर्नाख्यान या युग-प्रवृत्ति के संदर्भ में उनकी प्रनव्र्याख्या। दूसरी दिशा है पाश्चात्य सिद्धांतों का अनुशीलन और भारतीय काव्य संदर्भ में उनका विवेकपूर्ण संग्रह। तीसरी दिशा है - काव्य कृतियों एवं प्रवृत्तियों का विवेचन। कहना न होगा कि इन तीनों दिशाओं में उनका कार्य महनीय है। काव्य-कृतियों के विवेचन की भी तीन दिशाएँ हैं। एक है - कृतियों में अंतर्निहित विचारधारा को लक्षित करना और उसका स्वरूप स्पष्ट करना। दूसरी है - कृति के ऐतिहासिक और सांस्कृतिक परिवेश की व्यापक पीठिका को उभार कर उसके संदर्भ में कृति का महत्व प्रतिपादन करना और तीसरी है - भाषिक विश्लेषण के द्वारा कृति में निहित भाव-सौंदर्य का उद्घाटन करना। डॉ. रामस्वरूप चतुर्वेदी की समीक्षा दृष्टि में आचार्य शुक्ल के इन तीनों दिशाओं की विवेचन को लक्षित किया जा सकता है। डॉ. रामस्वरूप चतुर्वेदी आचार्य शुक्ल के साहित्य चिंतन में दो पक्षों का विशेष रूप से चिंतन किया है। एक साधारणीकरण और दूसरी बिंब-विधान। एक भारतीय काव्यशास्त्र का हृदय तो दूसरा पाश्चात्य आलोचना का केंद्रित स्थल है। वे लिखते हैं कि इन दोनों प्रसंगों में आचार्य शुक्ल का मैलिक चिंतन अप्रतिम है। ‘कविता क्या है?’ शीर्षक अपने प्रसिद्ध निबंध में आचार्य शुक्ल कविता की परिभाषा इस प्रकार दी हैं - ‘‘जिस प्रकार आत्मा की मुक्तावस्था ज्ञान दशा कहलाती है उसी प्रकार हृदय की मुक्तावस्था रस दशा कहलाती है। हृदय की इसी मुक्ति की साधना के लिए मनुष्य की वाणी जो शब्द-विधान करती आई है, उसे कविता कहते हैं।’’3

कहना न होगा, रामस्वरूप चतुर्वेदी यहाँ क्रमशः विकसित कविता की परिभाषा में ‘हृदय की मुक्तावस्था’ को केंद्रीय अवधारणा के रूप में देखते हैं। और वे आलोचक की इस अवधारणा को आचार्य शुक्ल के समकालीन विद्रोही कवि निराला की ‘परिमल’ की भूमिका से जोड़कर देखते हैं। उनके अनुसार आधुनिक हिंदी साहित्य में आचार्य शुक्ल का निबंध ‘कविता क्या है?’ और निराला के ‘परिमल’ की भूमिका का एक जैसा महत्व है। और दोनों का वैशिष्ट्य वे इस बात में देखते हैं कि दोनों कविता को बद्धावस्था से मुक्तावस्था की ओर ले जाना चाहते हंै।’ इसके लिए वे निराला का सुविख्यात वाक्य का हवाला देते हैं, ‘‘मनुष्यों की मुक्ति की तरह कविता की भी मुक्ति होती है। मनुष्यों की मुक्ति कर्मों के बंधन से छुटकारा पाना है, और कविता की मुक्ति छंदों के शासन से अलग ले जाना।’’4

रामस्वरूप चतुर्वेदी के अनुसार ‘‘कविता की बुनियादी समझ के प्रसंग में निराला और रामचंद्र शुक्ल को मिलाने पर दिखता है कि यहाँ कवि और आलोचक दोनों काव्य-प्रवाह में नैरंतर्य के लिए तरह-तरह के शास्त्रीय विधानों से मुक्ति आवश्यक मानते हैं। और जब हृदय मुक्तावस्था में होगा, कविता मुक्त रहेगी तो आलोचना, जो अपेक्षाकृत बहुत बाद में विकसित हुई है, बद्धावस्था में नहीं रह सकती।’’5

आचार्य शुक्ल न केवल हिंदी के पहले बड़े आलोचक ऐतिहासिक क्रम में हैं, अपितु चिंतन-क्रम में भी वे पहले बड़े स्वाधीनचेता आलोचक हैं। अर्थ की विशिष्ट विकसनशील प्रक्रिया को केंद्र में रखनेवाली आधुनिक हिंदी आलोचना को वे कई रूपों में पूर्वाशित करते हैं, संदर्भ चाहे काव्य भाषा का हो या कि साहित्य और सांस्कृतिक-संवेदनात्मक विकास के सामंजस्य का। भारतीय काव्यशास्त्र की सूक्ष्म से क्रमशः महीन होती वर्गीकरण-प्रणाली को संतुलित करने के लिए वे आधुनिक पश्चिमी साहित्य-चिंतन को दूसरी ओर रखते हैं और इस प्रक्रिया में जो आलोचना उनके यहाँ विकसित होती है वह शास्त्र के बजाय रचना की ओर अधिक उन्मुख है।6

रामस्वरूप चतुर्देदी कहते हैं ‘‘आधुनिक आलोचना द्वारा कवियों के वैशिष्ट्य को रेखांकित करने और रचना के अर्थ और आशय को कई कोणों से खोलने के यत्न का, यानी कि अर्थ की आलोचना का, सूत्रपात यहीं से होता है।’’7

इसलिए रामस्वरूप चतुर्वेदी सावधान करते हुए कहते हैं कि वैशिष्ट्य को प्रतिमानीकृत नहीं किया जा सकता और प्रतिमानों से वैशिष्ट्य की समझ नहीं बनती। आचार्य शुक्ल के साहित्यिक विचार-क्रम में समूची सृष्टि में परिव्याप्त संबंध सूत्रों की तलाश की बात केंद्र में उभरती है। आलोचक इसके लिए अट्ठाईसवें अखिल भारतीय हिंदी साहित्य सम्मेलन साहित्य परिषद, काशी के 1939 में आचार्य शुक्ल के अध्यक्षीय भाषण का हवाला देते हैं। ‘‘इस संसार की हर एक बात और सब बातों से संबद्ध है। अपने-अपने मानसिक संघटन के अनुसार किसी का मन किसी संबंध-सूत्र पर दौड़ता है, किसी का किसी पर। ये संबंध-सूत्र पीपल के पत्तों के भीतर की नसों के समान एक दूसरे से नए हुए चारों ओर जाल की तरह अनन्तता तक फैले हैं। निबंध लेखक किसी बिंदु से चलकर तार्किकों के समान किसी एक ओर सीधान न जाकर अपने मन की प्रवृत्ति के अनुसार स्वच्छंद गति से कभी इधर कभी उधर मुड़ता हुआ नाना अर्थ-संबंध-सूत्रों पर विचरता चलता है। यही उसकी अर्थ संबंधी व्यक्तिगत विशेषता है। एक ही बात को कई लेखकों का भिन्न-भिन्न दृष्टियों से देखना भी यही है।’’8

रामस्वरूप चतुर्वेदी के अनुसार आलोचक को शास्त्र मीमांसक की तरह किसी सामान्य तथ्य यया तत्व तक पहुँचने की जल्दी नहीं रहती वरन् वह अलग-अलग दृश्य देखने-दिखने में उलझना चाहता है। वह रचना का अर्थ एक बारगी निकालकर उसे निःशेष नहीं कर देना चाहता। उसका लक्ष्य है रचना को अर्थ का अक्षय स्रोत बनाए रखना। रचना यदि जीवन का अर्थ - विस्तार करती है तो भावक-आलोचक रचना का अर्थ - विस्तार करता है। यह भाषा की अपनी समान्य विषमरूपी प्रकृति एवं बहुस्तरीय अर्थ-क्षमता के कारण संभव होता है। कवि जीवन में अर्थ का संधान करता है तो आलोचक रचना में। यह अर्थ-संवद्र्धन की लगातार चलनेवाली प्रक्रिया है। हम भली-भाँति जानते हैं कि सामान्य भाषा व्याकरणों के नियमों से निर्धारित होती है और साहित्यिक भाषा अर्थ की श्रेणियों से बनती है। रामस्वरूप चतुर्वेदी स्पष्ट करते हैं कि ‘‘भाषा की अस्पष्ट तथा बहुअर्थी प्रकृति के अनुकूल रचना में अर्थ की व्युत्पत्ति रचना और भावक के सहयोग में होती है .... और यह अर्थ व्युत्पत्ति देश-काल के अनुरूप निरंतर विकसित होती चलती है।’’9

जैसा कि पहले कहा जा चुका है कि आचार्य शुक्ल के साहित्य चिंतन की दो दृष्टियाँ हैं - एक साधारणीकरण की और दूसरे बिंब-विधान की। रस सिद्धांत यदि भारतीय काव्यशास्त्र का प्राण तत्व है तो साधारणीकरण सिद्धांत उसका केंद्रीय प्रकरण कहा जा सकता है। हिंदी आलोचक और सिद्धांतकार अपनी चिंतन प्रक्रिया में इससे बचकर नहीं निकल सकता। रामस्वरूप चतुर्वेदी ने आचार्य शुक्ल के काव्य में साधारणीकरण के प्रयास को सर्वथा मौलिक प्रयास माना है। शुक्ल जी ने अपने साधारणीकरण संबंधी विचार चिंतामणि तथा रस-मीमांसा में प्रस्तुत किए हैं। शुक्ल के इसी विवेचन क्रम को आधुनिक दृष्टि से आगे जोड़ते हुए रामस्वरूप चतुर्वेदी कहते हंै कि ‘‘तादात्म्य के साथ-साथ, श्रोता@पाठक स्वयं सर्जनात्मक होकर अपना अर्थ मूल रचना में जोड़ता है, जो प्रक्रिया दृश्य काव्य के दर्शक-सामाजिक को संपे्रषण-बोध की तात्कालिकता में सुलभ नहीं। भरतमुनि के ‘नाट्यशास्त्र’ से आरंभ करके रस-चिंतन का मूलाधार दृश्य काव्य है, जहाँ दर्शक रंगमंच पर घटित होनेवाले व्यापार से एकबारगी आक्रांत रहता है। समाज में बैठकर देखने से जहाँ उसके मनोभाव संक्रामक क्षमता के कारण कई गुना वर्धनशील रहते हैं, वहीं सब कुछ दृश्यगोचर और तात्कालिक होने के कारण उसकी कल्पना वैसी सक्रिय नहीं हो पाती जैसी श्रोता और पाठक की प्रतिक्रिया के अंतराल में होती है।’’10

आलोचक का मानना है कि व्याख्या वह है जिसे रचना अपने सहज भाव से धारण कर सके। जिस बिंदु पर वह उसे धारण न कर सके वहीं से अतिव्याख्या का क्षेत्र आरंभ हो जाता है। सारांश के रूप में रामस्वरूप चतुर्वेदी एक पुरानी परी-कथा के संदर्भ को लेते हुए कहते हैं कि ‘रचना की राजकुमारी और उसका सारा वैभव तब तक सोया रहेगा, जब तक भावक-राजकुमार उसे चूमता नहीं, उसे स्पर्श नहीं करता। मुख-स्पर्श से ही रचना राजकुमारी जागकर बोलती है।’ यों साधारणीकरण दोनों ओर होता है, रचना एवं आस्वाद दोनों सिरों पर। अर्थात अनुभव के अनुभव का अनुभव कविता है। इसे आलोचक ‘राम की शक्ति-पूजा’ से जोड़कर दिखाता है। वह कहता है कि आलोचना की वास्तविक परख तो रचना की समझ और उसके विस्तार में ही है न कि महज सिद्धांत-कथन में। ‘शक्ति-पूजा’ में आलोचक अर्थ के तीन स्तर को देखता है जो परस्पर अंतरक्रिया करते चलते हैं। पहले और प्रत्यक्ष स्तर पर कविता के चरित नायक राम हैं - ‘रघुनायक आगे अवनी पर नवनीत चरण’। दूसरे और सूक्ष्मतर स्तर पर कविता का संघर्ष स्वयं कवि निराला का भी है - ‘‘धिक जीवन जो पाता ही आया है विरोध@धिक साधन जिसके लिए सदा ही किया शो!’’ फिर एक तीसरे स्तर पर लगेगा कि कविता ब्रिटिश शासन से आक्रांत भारतीय जन-मन की कथा है जो कहती है ‘‘अन्याय जिधर, हैं उधर शक्ति।’’ आलोचक की मान्यता है कि रचना की गँूज जितनी दूर होती जाती है उसका प्रभाव उतना ही सघन होता जाता है। यही साधारणीकरण की प्रक्रिया है जो रचना से आस्वाद की ओर क्रमशः उन्मुख होती है। साधारणीकरण की मुख्य चुनौती भी यही है ‘विशिष्ट को सामान्य बनाना’, पर सबका अलग-अलग सामान्य जहाँ से भावक उसे फिर अपने ढंग से रचता है, अपने लिए। साधारणीकरण के संदर्भ में आचार्य ने एक मूलतः आधुनिक पाश्चात्य अवधारणा बिंब-विधान का प्रसंग छेड़ा है। ‘साधारणीकरण और व्यक्ति-वैयित्र्यवाद’ में लिखते हैं - ‘‘काव्य का काम है कल्पना में बिंब (प्उंहमे) या मूर्त भावना उपस्थित करना, बुद्धि के सामने कोई विचार (बवदबमचज) लाना नहीं। ‘बिंब’ जब होगा तब विशेष या व्यक्ति का ही होगा, सामान्य या जाति का नहीं।’’11

रामस्वरूप चतुर्वेदी कहते हैं कि आचार्य शुक्ल ‘बिंब’ पद का प्रयोग वस्तुतः दो अलग-अलग अर्थों में करते हैं। यद्यपि इस अंतर का शुक्ल जी ने स्वयं कहीं स्पष्ट उल्लेख नहीं किया है। एक जगह वे बिंब का अर्थ लेते हैं साधारण चित्रात्मक वर्णन, जो अभिधामूलक है तो दूसरी जगह वे बिंब का प्रयोग अप्रस्तुत विधान के रूप में करते हैं। इस प्रकार आचार्य ने बिंब-ग्रहण और बिंब-स्थापना के बीच फर्क किया है। बिंब-ग्रहण भाषा में से सामान्य श्रोता या पाठक का कर्म है जबकि बिंब स्थापना उनके अनुसार काव्य भाषा के लिए कवि कर्म का प्रधान अंग है। इस उदाहरण के लिए आचार्य शुक्ल वाल्मीकि का हेमंत वर्णन को आधार बनाते हैं। वाल्मीकि का हेमंत वर्णन मूलतः इतिवृत्तात्मक वर्णन है जो कवि के सूक्ष्म पर्यवेक्षण की चित्रात्मकता उत्पन्न करती है। आचार्य शुक्ल की दृष्टि में यह चित्रात्मकता ही बिंब-विधान है। रामस्वरूप चतुर्वेदी के अनुसार आचार्य शुक्ल इस ओर ध्यान नहीं देते कि बिंब प्रस्तुत एवं अप्रस्तुत का कैसे संपर्कित करके, अर्थ का आलोक व्युत्पन्न करता है, जो कि मूलतः आधुनिक आलोचना का केंद्रीय वैशिष्ट्य है। आचार्य शुक्ल के बिंब स्थापना को वे आधुनिक परिपे्रक्ष्य में तीन कवियों की कविताओं पर लागू करते हैं। अयोध्यासिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ के काव्य ‘प्रियप्रवास’ का आरंभिक छंद है - दिवस का अवसान समीप था। गगन था कुछ लोहित हो चला। तरु-शिखा पर थी अब राजती। कमलिनी-कुल-वल्लभ की प्रभा।। रामस्वरूप चतुर्वेदी इस वर्णन का पूरी तरह इतिवृत्तात्मक मानते हैं। सिर्फ प्रस्तुत संध्या को लेकर कुछ-कुछ जैसा वाल्मीकि ने हेमंत वर्णन में किया है। छायावादी कवि सुमित्रानंदन पंत के यहाँ संध्या के यही रंग दूसरी तरह अंकित होते हैं - तरु-शिखरों से वह स्वर्ण-विहग उड़ गया, खोल निज पंख सुभग, किस गुहा-नीड़ में रे किस मग! हरिऔध ने तरु-शिखर पर जो प्रभा सीधे-सीधे देखी थी अ बवह पंत के लिए तरु-शिखरों पर ‘स्वर्ण विहग’ के लाक्षणिक प्रयोग में संक्रांत हो गई है। इस कविता में पाठक-भावक की कल्पना को सक्रिय होने के लिए पूरी छूट मिलती है। शमशेर बहादुर सिंह संध्या के सुनहलेपन में लाल से अधिक पीलेपन की छाया देखते हैं तथा बिंब-प्रक्रिया को और सघन बनाते हैं - एक पीली शाम पतझर का ज़रा अटका हुआ पत्ता ग् ग् ग् अब गिरा अब गिरा वह अटका हुआ आँसू सांध्य तारक-सा अतल में। रामस्वरूप चतुर्वेदी कहते हैं कि ‘‘आचार्य शुक्ल का ‘बिंब-ग्रहण’ बहुत कुछ हरिऔध पर रुक जाता है, आगे पंत की अनेक लाक्षणिक संभावनाओं को देखने के बावजूद। बिंब के प्राथमिक चाक्षुष स्तर पर ही उनकी दृष्टि है, बिंब के जटिल अर्थ-संश्लेष तक वे नहीं पहुँचते, जहाँ भावक-ग्रहण की कल्पना को सक्रिय होने के लिए सबसे अधिक उत्साह और अवसर रहता है। और एक तरह से यह अच्छा ही है। अन्यथा नए साहित्य-चिंतन के लिए करने को कुछ ख़ास नहीं बचता। रामस्वरूप चतुर्वेदी ने आचार्य शुक्ल की व्यावहारिक आलोचना पर भी दृष्टि केंद्रित की है। शुक्ल जी की व्यवहारिक आलोचना में उनकी साहित्यिक मान्यताओं का अत्यंत सफल विनियोग दिखाई पड़ता है। वस्तुतः सिद्धांत-मीमांसा एवं व्यावहारिक समीक्षा को उन्होंने इतना घुल-मिला दिया कि दोनों को अलग-अलग करना प्रायः असंभव है। सिद्धांत और प्रयोग का यह सामंजस्य ही उनके आलोचक-व्यक्तित्व की वास्तविक महत्ता प्रकट करता है। शुक्ल जी के पास एक ऐसी रस-दृष्टि है जो कार्य-श्ाृंखला की अपेक्षा नहीं रखती और सहज भाव से रचना के मूल तक जा पहुँचती है। व्यावहारिक आलोचना के क्षेत्र में शुक्ल जी की उपलब्धियाँ नई पीढ़ी के पथ-प्रदर्शक हैं। आचार्य शुक्ल के विविध गद्य स्तर एवं उनकी आलोचना भाषा पर दृष्टि केंद्रित करते हुए चतुर्वेदी जी ने यह स्पष्ट किया कि शुक्ल द्वारा प्रयुक्त शब्दावली विशिष्ट होते हुए भी पारिभाषिक नहीं बनती। तभी वह रचना के अनुभव को नए एवं सार्थक ढंग से पकड़ पाती है। ‘संश्लिष्ट चित्रण’, ‘विरुद्धों का सामंजस्य’, ‘लोक-मंगल’ आदि अनेक कुछ ऐसे ही नए और विशिष्ट प्रयोग है। सामान्यतः कवियों द्वारा लिखित आलोचना का विशिष्ट महत्व रहा है। और ऐसे देखा जाय तो आलोचक की कविता भी अपने आप में विशिष्ट होती है। आचार्य शुक्ल के काव्य में प्रकृति-चित्रण एक विशिष्ट रूप लेता है। उनके प्रकृति-चित्रण से राष्ट्रीय भाव-धारा का रूप जुड़ा हुआ है। वे प्रकृति-प्रेम को भी देश-पे्रम का ही अधिक स्वच्छ, परिष्कृत और अंतरीण रूप मानते हैं। उनके अनुसार प्रकृति-वर्णन में मनुष्य की क्रियाओं और भावनाओं का आरोप एक निश्चित मर्यादा के भीतर ही हो सकता है। वस्तुतः रचनाकार एवं समीक्षक के रास्ते अलग-अलग हैं। एक के लिए व्यक्तिगत अभिशाप का अपार क्षेत्र खुला है, तो दूसरे के लिए उनकी गंुजाइश नहीं। उसे पूरी तरह से तटस्थ रहना पड़ता है। अतः रामस्वरूप चतुर्वेदी के अनुसार समीक्षा की तटस्थता से यह आशय न निकालना चाहिए कि उस समीक्षा का सामाजिक संपर्क छूटा हुआ है। शुक्ल जी की काव्य समीक्षा में बड़े समारोह के साथ इस सामाजिक संपर्क का आवाहन है। यह हिंदी आलोचना के लिए बड़े महत्व की बात सिद्ध हई। जिस प्रकार शुक्ल जी ने काव्य और कलाओं के सामाजिक संपर्क की आवाज उठाई उसी प्रकार उन्होंने रचनाकार की व्यक्तिगत मनःस्थिति का भी हवाला दिया। आचार्य शुक्ल ने भारतीय एवं पाश्चात्य दोनों परंपराओं से विचार-सामग्री ली, पर वे किसी से आतंकित नहीं हुए। चतुर्वेदी जी ने यह स्पष्ट किया कि आचार्य शुक्ल की आलोचना प्रक्रिया, उन्हीं के शब्दों में ‘विरुद्धों का सामंजस्य’ के अधिक निकट है। परवर्ती आलोचना के कुछ बीज उनके चिंतन में ऐसे मिल जाते हैं जैसे संपूर्ण विवेचन-क्रम में रचना का महत्व, काव्य भाषा का केंद्रीय आधार और बिंब-प्रक्रिया की विशिष्ट भूमिका। साहित्य की रचना यदि शाब्दिक कला है, तो अर्थ की संभावना भाषा में ही होती है। यों साहित्य का पाठक-श्रोता मूल रचना में अपना अर्थ ग्रहण करने में ही उस रचना में भी अपनी कुछ व्याख्या जोड़ता चलता है और आलोचक रचना की अपनी विशिष्ट क्षमता पर विचार करके उसे अर्थ-विस्तार प्रदान करता है। अतः रामस्वरूप चतुर्वेदी प्रस्तुत कृति का उद्देश्य स्पष्ट करते हुए कहते हैं कि रचनाकार जीवन के अर्थ का विस्तार करता है तो आलोचक रचना का। इस क्रम में आलोचक की आलोचना बहुत महत्वपूर्ण है तथा आचार्य शुक्ल की आलोचना और उनका इतिहास-लेखन इसका महत्वपूर्ण साक्ष्य है।

.1. डॉ. रामस्वरूप चतुर्वेदी - हिंदी साहित्य की संवदना का विकास - पृ.सं. 28

.2. डॉ. रामस्वरूप चतुर्वेदी - आलोचना का अर्थ ः अर्थ की आलोचना - आमुख .

3,डॉ. रामस्वरूप चतुर्वेदी - आलोचना का अर्थ ः अर्थ की आलोचना - पृ.सं. 14

.4. डॉ. रामस्वरूप चतुर्वेदी - आलोचना का अर्थ ः अर्थ की आलोचना - पृ.सं.14

.5. डॉ. रामस्वरूप चतुर्वेदी - आलोचना का अर्थ ः अर्थ की आलोचना - पृ.सं. 15

.6. डॉ. रामस्वरूप चतुर्वेदी - आलोचना का अर्थ ः अर्थ की आलोचना - पृ.सं. 16

.7. डॉ. रामस्वरूप चतुर्वेदी - आलोचना का अर्थ ः अर्थ की आलोचना - पृ.सं. 16

.8, डॉ. रामस्वरूप चतुर्वेदी - आलोचना का अर्थ ः अर्थ की आलोचना - पृ.सं. 22-23

.9. डॉ. रामस्वरूप चतुर्वेदी - आलोचना का अर्थ ः अर्थ की आलोचना - पृ.सं.20-21

.1o. डॉ. रामस्वरूप चतुर्वेदी - आलोचना का अर्थ ः अर्थ की आलोचना - पृ.सं. 23 .

11 . डॉ. रामस्वरूप चतुर्वेदी - आलोचना का अर्थ ः अर्थ की आलोचना - पृ.सं.24

9 टिप्‍पणियां:

बेनामी ने कहा…

कुछ पढ़ने की इच्छा ही नहीं हुयी। अपने लेख को छोटे छोटे पैराग्राफ में बांट कर लिखा करें। मेरे जैसे पाठकों की रूचि बनी रहती है।

Unknown ने कहा…

saadhu saadhu....
achhi post
sarthak aalekh
AAPKO BADHAI LEKIN PAIRAGRAF THIK KAREN TOH AUR ACHHA HOGA

रवि कुमार, रावतभाटा ने कहा…

"रचनाकार जीवन के अर्थ का विस्तार करता है तो आलोचक रचना का। इस क्रम में आलोचक की आलोचना बहुत महत्वपूर्ण है"

महत्वपूर्ण आलेख.....

Unknown ने कहा…

गंभीर विवेचना,
‘आलोचना का अर्थ और अर्थ की आलोचना’
अच्छा द्वेत..

वैसे ही जैसे मुक्तिबोध कहा करते थे
‘ज्ञानात्मक संवेदना और संवेदनात्मक ज्ञान’

गोविंद गोयल, श्रीगंगानगर ने कहा…

bahut mushkil hai,narayan narayan

इस्लामिक वेबदुनिया ने कहा…

पढ़कर अच्छा लगा

anil ने कहा…

चिटठा जगत मैं आप का स्वागत है । लिखते रहीये हमारी शुभकामनाएं आपके साथ हैं।

Pammibhargow13 ने कहा…

" रचनाकार जीवन के अर्थ का विस्तार करता है तो आलोचक रचना का इस क्रम में आलोचक की आलोचना बहुत महत्वपूर्ण है" आलेख मुझे काफी पसंद आया और यह आलेख काफी महत्व इसलिए भी है क्योंकि जब हम किसी रचनाकार की आलोचना करते हैं उसकी रचना पर तो हमें आलोचक की भी आलोचना करनी चाहिए उसकी आलोचना पर
' यह पोस्ट मुझे काफी पसंद आई और आशा करती हूं कि आप आगे भी अच्छी-अच्छी ऐसे ही पोस्ट करेंगे'
धन्यवाद

Tulsi Garg ने कहा…

बहुत ही लाभदायक, शुक्रिया इतनी जानकारी उपलब्ध कराने के लिए।