बुधवार, 28 जुलाई 2010

तेलुगु काव्य प्रभा


आज के परिप्रेक्ष्य में अनुवाद एक अपरिहार्य सामाजिक आवश्‍कता बन गया है। दिन-ब-दिन इसका वर्चस्व बढ़ता ही जा रहा है। अनुवाद के माध्‍यम से सिर्फ भाषा का अंतरण नहीं होता बल्कि संस्कृति का अंतरण होता है। अतः अनुवाद को सांस्कृतिक सेतु कहा जता है। वास्तव में अनुवादक को दो भाषा समाजों के मध्य सांस्कृतिक राजदूत की भूमिका निभानी पड़ती है। इसमें संदेह नहीं कि अनुवाद के माध्यम से भारतीय साहित्य और संस्कृति को वैश्‍विक स्तर पर पहुँच और पहचान मिली है। साथ ही विश्‍व साहित्य भी भारतीय भाषाओं में अनूदित है। भारतीय भाषाओं के बीच सांस्कृतिक आदान-प्रदान भी अनुवाद के माध्यम से हो रहा है।

आज की विचाराधीन पुस्तक पर चर्चा करने से पहले मैं एक और बात कहना चाहती हूँ। वह यह कि कहा जाता है कि गद्‍यानुवाद की अपेक्षा काव्यानुवाद कठिन कार्य है क्योंकि इसमें भाषांतरण मात्र से काम नहीं चलता, कविता का दूसरी भाषा में पुनःसर्जन करना पड़ता है। काव्यानुवाद करने के लिए अनुवादक के पास भी कवि हृदय अर्थात्‌ संवेदनशील हॄदय होना जरूरी है। तभी काव्यानुवाद मूल की भाँति पाठक को प्रभावित कर सकता है। ऐसा न होने पर अनूदित पाठ का जड़, नीरस और प्रभावहीन होने से नहीं बचाया जा सकता।

पिचले कई दशकों से आधुनिक तेलुगु कविताओं का अनुवाद हिंदी में प्रचुर मात्रा में हो रहा है। इसी कड़ी में सद्‍यः प्रकाशित पुस्तक ‘तेलुगु काव्य प्रभा’(2010) हमारे समक्ष है। इसके अनुवादक जी.परमेश्‍वर ने तेलुगु के 56 कवियों की 56 कविताओं का अनुवाद प्रस्तुत किया है। ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित प्रख्यात कवि डॉ.सी.नारायण रेड्डी, साहित्य अकादमी द्वारा पुरस्कृत एन.गोपि, प्रमुख दलित कवि कत्ति पद्‍माराव और मुस्लिमवादी कवयित्री शाजहाना से लेकर नवागंतुकों तक की कविताएँ इस संग्रह में संकलित हैं।

कविता तीव्र मनोभावों का सहज उच्छलन है। संवेदनशील कवि कविता के माध्यम से जीवन संघर्ष के अनेक चित्रों को उकेरता है। साथ ही, जीवन संघर्ष और सामाजिक चित्तवृत्ति के साथ कविता और उसकी अभिव्यक्‍ति में भी बदलाव आता है। पिछली शताब्दी में तेजी से बदलती प्रवृत्तियों के साथ साथ तेलुगु कविता भी बदली। कवियों ने समसामायिक स्थितियों को सरल भाषा में काव्यात्मकता के साथ अंकित करना आरंभ किया। इस संकलन की कविताएँ इस प्रवृत्ति का आइना पेश करती हैं। जी.परेमेश्‍वर द्वारा अनूदित इन कविताओं में एक ओर जीवन का सार प्रवाहित है तो दूसरी ओर दलित का आक्रोश। तेलंगाना की संस्कृति के साथ साथ उपभोक्‍ता संस्कृति का चित्र भी अंकित है। इतना ही नहीं प्लेटोनिक प्रेम भी है और पुरुष विमर्श भी।

सिनारे के नाम से प्रसिद्ध डॉ.सी.नारयण रेड्डी तेलुगु के बहुमुखी प्रतिभा संपन्न कवि, समीक्षक, शिक्षाविद्‌, गीतकार, चिंतक और वक्‍ता हैं। वे किसी वाद के कटघरे में नहीं समाते। वे वस्तुतः मानवतावादी कवि हैं। उनकी कविताओं में मानव जीवन की सूक्ष्‍म परतें उजागर होती हैं। कवि अपनी कविता ‘मौलिक पाठ’ के माध्यम से यह स्पष्‍ट करते हैं कि मात्र साँस लेना ही जीवन नहीं है। मानव मूल्यों की रक्षा के लिए प्राणों को अर्पित करना ही जीवन का परमार्थ है - "उच्छ्‌वास-निःश्‍वास के संपुट को ही/ जीवन समझने के बदले/ मानव मूल्यों की रक्षा हित/ प्राणों के अर्पण में ही/ जन्म चरितार्थ होता है।" (पृ.14)

नलगोंड़ा जिले में जन्मे एन.गोपि की कविताओं में मिट्टी का सोंधापन है। अपनी कविता ‘स्माइल प्लीज’ के माध्यम से वे कहते हैं कि "हँसने को कहने पर हँसी आएगी क्या !/ ***/ हँसने के लिए कहते है तो/ तुम पर ही हँसने की इच्छा होती है।/ किन पर्तों के नीचे, अंतिम साँसें गिन रही हैं हँसी।/ गाँव में खोई हुई कांति, शहर में जगमाएगी क्या?/ कैमरे पर डालकर परदा, हँसने को कहते हो।/ ***/ तुम्हारे खींचे जानेवाले फोटोग्राफ में / कितनी रिक्‍तताएँ!!/ भर सकोगे उन्हें??" (पृ.26)

गुंटूर जिले में जन्मे कत्ति पद्‍माराव दलित कवियों में प्रमुख हैं। उनकी कविता में पीडितों और शोषितों की आवाज गूँज उठती है। वे जाति भेद का खंडन करते हैं। भारतीय समाज जाति के नाम पर अमानवीय रीति से बँटा हुआ है। इस भेद भाव को मिटाने के लिए अनेक प्रयास हुए लेकिन यह आज भी समाज में विद्‍यमान है। इसी पर आक्रोश व्यक्‍त करते हुए कवि अपनी कविता ‘हमारे गाँव में मानवता नहीं है’ में कहते हैं कि - "मेरे गाँव के साथ मेरा कुछ बनता नहीं, जमता नहीं।/ मुझे तो मेरी बस्ती ही पसंद है।/ ***/ मानव को जाति भेद की दृष्‍टि से देखनेवाली/ मेरे गाँव की आँख/ फोड़ने का मन करता था मेरा।/ गाँव के तालाब में जब वह अपनी भैंस को नहलाता था/ तो मुझे सीढ़ियों पर चढ़ने तक नहीं देता था/ ***/ आज का गाँव/ मानवताविहीन, बिफरा-साँड़ है।/ मानव को मानव-सा/ न देखपानेवाले, हमारे गाँव पर/ कभी-कभी गाज गिरती है।/ ***/ उसकी माँस पेशियों के बढ़ने के साथ साथ/ जाति का अंह बढ़ता ही जा रहा है।/ गाँव और मुहल्ले के बीच/ कौटिल्य द्वारा बनाई गई/ लौह-दीवार टूट नहीं रहीं।" (पृ.23-24)

शिखामणि ने अपनी कविता ‘पुतली’ में एक अधेड़ उम्र की भिखारिन की दुर्दशा का वर्णन किया है जो तपती दुपहरी में सड़क के किनारे अंजलि पसार कर बैठी रहती है - " तपती दोपहरी की धूप में / भीड़ भरी सड़क के एक कोने में / सदा एक ही मुद्रा में / अंजली पसार कर/ एक अधेड़ उम्र की औरत.../ ***/ मानव होकर भी वह ठूँठ बन गई है।" (पृ.53)

प्रेम ऐसी भावना है जिसे परिभाषित करना कठिन कार्य है। एम.रघु ने अपनी कविता ‘प्रेम पत्र’ में यह स्पष्‍ट किया है कि "यौवन का छिटका/ प्रेम लेख/ किताब में रखे मारे पंख-सा मिला/ कल्पना की प्रेयसी-सी/ विचारों से भरी कक्षाएँ/ संकेत, मेघसंदेश की/ यादें हैं आज भी तरो ताजा।" (पृ.38)। लेकिन आज मनुष्‍य जीवन इतना यांत्रिक बन चुका है कि उसके पास न तो प्रेम करने के लिए वक्‍त है और न प्रेम पत्र लिखने के लिए ही। इसीलिए कवि व्यंग्य पूर्वक कहते हैं कि - "सचमुच/ वह प्लेटोनिक प्रेम की पीठिका है!/ अब गोदावरी की बाढ़-सा/ सच्चा प्रेम डूबा जा रहा है।/ अब लिखा नहीं जाता/ प्रथम प्रेम पत्र।" (पृ.39)

किछ दश्कों से स्त्री विमर्श, स्त्री मुक्‍ति और स्त्री सशक्‍तीकरण की बातें सुनाई दे रही हैं। स्त्री अधिकारों के साथ ही पुरुष सोच के बदलाव को भी कुछ कविताओं में लक्षित किया गया है। कोडूरि विजय कुमार ने अपनी कविता में उत्तर आधुनिक पुरुष के इस सोच को दर्शाया है कि संसार के एक ग्राम बन जाने के साथ ही स्त्री पुरुष का भेद भाव समाप्‍त हो गया है। यह पढ़ना बड़ा मनोरंजक लगता है कि उत्तर आधुनिक पुरुष भी यह सोचकर घरेलू काम करने से परहेज करते हैं कि कहीं ऐसा करना स्त्री को बुरा न लगे। अर्थात्‌ स्त्री को बाहर के साथ साथ घर की भी जिम्मेदारियाँ निभाने के लिए बाध्य करने का बहुत सुंदर तर्क उत्तर आधुनिक मर्दों ने खोज लिया है - " जिस दिन नौकरानी नहीं आती है,/ चौका बासन करने की, कपड़े धोने की बात सोचता हूँ,/ लेकिन ‘तुम्हें यह सब पसंद नहीं होगा’ समझकर चुप हो जाता हूँ।/ ***/ बच्चों के नैपकिन बदलना चाहता हूँ,/ टॉयलट धोना चाहता हूँ,/ ‘तुम ठीक से नहीं धोते हो’ कहोगी, समझकर चुप रह जाता हूँ।/ स्त्रियों के समान सुंदर,/ घर या ससोई का काम/ क्या पुरुष कर सकते हैं, माय डियर!" (पृ.49)

समसामियिक तेलुगु कविता की एक विशिष्‍ट प्रवृत्ति के रूप में मुस्लिमवादी कविता उभर कर आई है। परंतु इस संग्रह में शाजहाना, ख़ादर शऱीफ शेख़ और एस.समीउल्लाह की जो कविताएँ संकलित हैं, वे इस प्रवृत्ति का प्रतिनिधित्व नहीं करतीं। ऐसा संभवतः इसलिए है कि अनुवादक ने विभिन्न प्रवृत्तियों के प्रतिनिधित्व की दृष्‍टि से कवियों और कविताओं का चयन नहीं किया है, बल्कि ‘विशेषकर पिछले 2007 से 2009 के बीच (यानि तीन वर्ष) एक रविवारीय अंक में छपी कविताओं को उन्होंने चुना है।" जैसा कि निखिलेश्‍वर ने कहा है ‘समकालीन तेलुगु कविताओं का यह एक समयिक अंश है। अनुवादक को जो भी जंचा और अनुकूल लगा, उन कविताओं को अपना लिया’। निखिलेश्‍वर ने अनुवादक की कलम की लड़खड़ाने और शब्द चयन में असावधानी की ओर भी संकेत किया है। मुझे इस संबंध में कुछ नहीं कहना। जैसा कि डॉ.एम.रंगय्या ने इंगित किया है इस संकलन की उपलब्धि इसके विषय वैविध्य में है जिसमें प्रेम, गाँव, माँ, बुढ़ापा, स्वप्‍न, फूल, कली, धूप, पगड़ी, दलित, पुतली, समय, स्वेच्छा, कुशल मंगल और चूने की डिबिया तक न जाने क्या क्या शामिल है।

120 पृष्ठ की यह अनूदित काव्य कृति ‘कादंबिनी क्लब’, हैदराबाद द्वारा प्रकाशित की गई है। मूल्य के स्थान पर ‘अमूल्य’ अंकित है। डॉ.अहिल्या मिश्र के नेतृत्व में ‘कादंबिनी क्लब’ ने अनेक उपलब्धियाँ अर्जित की है। यह कृति उस क्रम में एक और मील का पत्थर है। यों तो हैदराबाद में हिंदी और तेलुगु के साहित्य को प्रोत्साहित करनेवाली अनेक संस्थाएँ हैं लेकिन हिंदी के माध्यम से तेलुगु को एक अमूल्य पुस्तक के रूप में उपलब्ध कराने का जो अनूठा कार्य है वह सराहनीय है।

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तेलुगु काव्य प्रभा (कविता संकलन)/ जी.परमेश्‍वर/ मूल्य : अंकित नहीं/ 2010/ पृ.120/ प्रकाशक : कादंबिनी क्लब, 93/सी, राज सदन, वेंगलराव नगर, हैदराबाद - 500 038

4 टिप्‍पणियां:

PN Subramanian ने कहा…

इस जानकारी के लिए आभार. ఎలుగుబంటి తోలు తెచ్చి ఎందాక ఉతికిన నలుపు నలుపే గాని తెలుపు రాదు.

डॉ.बी.बालाजी ने कहा…

जी.परमेश्वर की अनूदित पुस्तक पर आपकी समीक्षा पढ़ी . ५६ कवियों की ५६ कविताओं का अनुवाद याने क्या नाना पाटेकर की अबतक ५६ फिल्म तो नहीं. खैर मजाक फिर कभी.
समीक्षा अच्छी है. ''भारतीय भाषाओं के बीच सांस्कृतिक आदान-प्रदान भी अनुवाद के माध्यम से हो रहा है।'' अनुवाद के माद्यम से ही यह कार्य संभव है.
- डॉ.बी.बालाजी

Gurramkonda Neeraja ने कहा…

@ पी.एन. सुब्रह्मन्यन

आपको समीक्षा अच्छी लगी. मैं आभारी हूँ. पर तेलुगु कहावत का इस समीक्षा से क्या संबंध है ? समझने में असमर्थ हूँ .

@ डॉ.बी.बालाजी

धन्यवाद . आपका मजाक भी अच्छा लगा .

_ जी.नीरजा

बलविंदर ने कहा…

बहुत ही अच्छा विशलेषण आपने प्रस्तुत किया है . सच में अनुवादक ने बिना किसी भेद भाव के जो अच्छा लगा उसे परोसने का काय किया . इस अनुवाद में मुझे बहुत से नये विमर्शो की जानकारीय भी अपने भिन्न रूप में मिली .