मंगलवार, 13 अक्टूबर 2015

चाहिए सर्वोदय बेहतर दुनिया के लिए

महात्मा गांधी ने लोकतंत्र के भारतीय स्वरूप की कल्पना सर्वोदय के रूप में की थी. सर्वोदय का एक अर्थ है ‘सबका उदय’ तथा दूसरा अर्थ है ‘सब प्रकार से उदय’. जो व्यवस्था सब प्रकार से सबका उदय करे, सर्वोदय है. इसे देश काल से परे संपूर्ण मनुष्य जाति के लिए वांछित आदर्श माना जा सकता है. इसकी सिद्धि का मार्ग सहयोग, सत्याग्रह और समन्वय के तिराहे से सीधा अनासक्ति के शिखर की ओर बढ़ता है. यह कोई एकांगी राजनैतिक व्यवस्था नहीं है बल्कि परिवार, समाज, धर्म, राजनीति सब कुछ का नियामक सिद्धांत है. 

गांधी और मार्क्स दोनों ही समाज की वर्गीय विषमता से विचलित होते हैं. मार्क्स का विचलन जहाँ वर्ग संघर्ष की दिशा में बढ़ता है और अंततः वर्गहीन समाज की कामना करता है वहीं गांधी का विचलन वर्ग सहयोग की दिशा में बढ़ता है और समरस समाज की कामना करता है. मार्क्स जिस लक्ष्य को घृणा, हिंसा और युद्ध से प्राप्त करना चाहते हैं गांधी उसी लक्ष्य को प्रेम, अहिंसा और शांति द्वारा उपलब्ध होना चाहते हैं. लक्ष्य एक ही है – वर्गभेद की समाप्ति. गांधी को न तो धनपतियों का नर पिशाच बनना स्वीकार था और न ही धनहीनों का रक्तपिपासु पशु बनना. वे दोनों की इंसानीयत को बचाना, जगाना और बढ़ाना चाहते थे. इसीलिए उन्होंने अधिकतम व्यक्तियों के अधिकतम सुख के उपयोगितावादी सिद्धांत का खंडन करते हुए सबके सुख का लक्ष्य सामने रखा. धन का समान वितरण और आर्थिक समानता चाहने वाले महात्मा गांधी का मानना था कि प्रत्येक को उसकी आवश्यकता के अनुसार प्राप्त होना चाहिए. सामान वितरण का यह अर्थ नहीं है कि हाथी और चींटी दोनों को बराबर भोजन दिया जाए. 

वास्तव में महात्मा गांधी ने सर्वोदय का यह विचार उस भारतीय परंपरा से प्राप्त किया है जिसमें संपूर्ण जगत को कुटुंब माना जाता है और अपने सुख से पहले लोक के सुख की कामना की जाती है – सब सुखी हों, सब नीरोग हों, सबका कल्याण हो और किसी को दुःख प्राप्त न हो. यह दोहराने की जरूरत नहीं होनी चाहिए कि सबका उदय चाहने वाले ऐसे समाज की प्रवृत्ति संघर्ष और हिंसा की प्रवृत्ति नहीं हो सकती. सब जीवों को परस्पर एक दूसरे के आश्रित और उपकारी मानने वाली भारतीय चेतना अहिंसा, स्वतंत्रता, समानता और सहयोग जैसे उत्कृष्ट मूल्यों के आधार पर ही समाज को संगठित करना चाहती है. अभिप्राय यह है कि सर्वोदय में सब प्राणी सब प्राणियों की कल्याण साधना में रत रहते हैं – सर्व भूत हिते रता. इसके लिए गांधी ने ट्रस्टीशिप का विचार सामने रखा जिसके अनुसार “पूँजीपति समाज के सदस्यों के पूँजी के संरक्षक होंगे जो पूँजी का प्रयोग उचित स्थान पर करेंगे. सभी बलवान दुर्बलों की रक्षा स्करेंगे अर्थात समाज का प्रत्येक सदस्य समाज के अन्य सदस्यों का ध्यान रखेगा. यदि समाज का प्रत्येक व्यक्ति अधिकारों के आग्रह के स्थान पर अपने-अपने कर्तव्यों का पालन करे तो मानव जाति में तुरंत व्यवस्था का राज्य स्थापित हो जाएगा.” (राकेश शर्मा ‘निशीथ’, महात्मा गांधी की विचारधारा आज भी प्रासंगिक, पृ. 96) 

युद्ध और आतंकवाद की विभीषिका से त्रस्त उत्तर आधुनि़क विश्व को यह समझना होगा कि गांधी द्वारा प्रतिपादित सर्वोदय ही इस धरती को सुरक्षित रखने का सर्वोत्तम मार्ग है. अन्यथा सुख साधनों पर एकाधिकार के लिए एक दूसरे को नष्ट करने पर तुले हुए देश पृथ्वी को मनुष्यों के रहने लायक नहीं छोड़ेंगे. केवल वर्गभेद ही नहीं, किसी भी प्रकार का भेदभाव गांधी के सर्वोदय को स्वीकार नहीं है. हम सब सभी प्रकार के भेदभावों से ऊपर उठें, तभी महात्मा गांधी का सर्वोदय का स्वप्न साकार हो सकेगा. इस 2 अक्टूबर (गांधी जयंती) पर हम इन्हीं विचारों के साथ भवानी प्रसाद मिश्र की कविता ‘गांधी का सपना’ को उद्धृत करते हुए इस अंक के आस्वादन हेतु आपको आमंत्रित करते हैं - 
                            यह अछूत वह काला गोरा 
                            यह हिंदू वह मुसलमान है 
                            वह मजदूर और मैं धनपति 
                            यह निर्गुण वह गुण निधान है 
                            ऐसे सारे भेद मिटेंगे जिस दिन अपने 
                            सफल उसी दिन होंगे गांधीजी के सपने. 

कोई टिप्पणी नहीं: