गुरुवार, 29 अक्टूबर 2015

(फ्लैप वक्तव्य : प्रो. देवराज) 'अनुप्रयुक्त भाषाविज्ञान की व्यावहारिक परख'

अनुप्रयुक्त भाषाविज्ञान की व्यावहारिक परख 

गुर्रमकोंडा नीरजा 
2015
वाणी प्रकाशन
मूल्य : रु. 495
ISBN : 978-93-5229-249-3
पृष्ठ 304
पुस्तक के बारे में  

अनुप्रयुक्त भाषाविज्ञान की सैद्धांतिकी पर चाहे जितना लिखा गया हो, उसकी व्यावहारिक परख के बारे में पुस्तकाकार नहीं लिखा गया है. इसका कारण लेखकों के समक्ष इकहरेपन से उभरी चुनौतियाँ हैं. प्रायः या तो हम कोरी सैद्धांतिकी को समर्पित होते हैं या उसे समझने की आवश्यकता अनुभव न करते हुए उसके निपट प्रयोक्ता. हम यह विचारने की भी कोशिश नहीं करते कि किसी भी लेखक, अध्येता, अनुवादक और कभी-कभी पाठक की दृष्टि से भी यह इकहरापन हमारे कार्य की गंभीरता, उपादेयता और प्रासंगिकता को हल्का बनाता है. हमें सार्थक होने और करने के लिए अपने इकहरेपन से मुक्त होने की महती आवश्यकता है. जो लेखक इस बात को समय पर स्वीकार कर लेता है, उसी का लिखा पीढ़ियों तक चल पाता है. इसके लिए उदाहरण खोजने बहुत दूर जाने की ज़रूरत नहीं है, हमारे आसपास ही कुछ बड़े सटीक उदाहरण मिल जाते हैं.

अनुप्रयुक्त भाषाविज्ञान ने भाषा, पाठ और अनुवाद में जो हस्तक्षेप किया है उसने लेखन, शिक्षण, समालोचना, अनुवाद आदि के परिदृश्य बदल डाले हैं. जिस अनुवाद को अनुप्रयुक्त भाषाविज्ञान का अंग माना जाता है वह भी आज एक स्वतंत्र अनुशासन के रूप में ढलने के लिए अपना व्याकरण तेज़ी से तैयार कर रहा है. भाषा तो उसके सहारे अपना नया परिवेश रच ही चुकी है. अब देखना यह है कि इस वैज्ञानिक उपलब्धि के सहारे हम पाठ को कितनी दूर तक ले जाने का कौशल विकसित करते हैं और कहाँ तक उसे ऐतिहासिक, सांस्कृतिक तथा सामाजिक संदर्भों के साथ जोड़े रख कर भाषा, साहित्य व मनुष्य के रिश्ते की नई इबारत लिख पाते हैं.

डॉ. गुर्रमकोंडा नीरजा को इस बात का श्रेय देना होगा कि उन्होंने एक ऐसे विषय पर भरपूर सामग्री तैयार की है जो अन्य लोगों के लिए रचनात्मक स्तर पर चुनौती बना हुआ है. उनकी अध्ययनशीलता और संकल्पशीलता के लिए मेरी शुभकामनाएँ!

- देवराज, आचार्य, अनुवाद अध्ययन विभाग, अनुवाद एवं निर्वचन विद्यापीठ, महात्मा गाँधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा – 442001.

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