मंगलवार, 21 दिसंबर 2021

कविता को समझने के लिए ....



तू काव्य :
सदा-वेष्टित यथार्थ
चिर-तनित,
भारहीन, गुरु,
अव्यय।

तू छलता है
पर हर छल में
तू और विशद, अभ्रान्त,
अनूठा होता जाता है। (अज्ञेय)

कविता सहृदय और संवेदनशील मनुष्य के मन की उपज है। इसे एक निश्चित परिभाषा में बाँधना कठिन कार्य है। फिर भी अनेक विद्वानों ने इसे पारिभाषित करने का प्रयास किया है। कविता को पारिभाषित करते हुए रामचंद्र शुक्ल ने अपने निबंध ‘कविता क्या है?’ में कहा है कि ‘कविता मनोवेगों को उत्तेजित करने का एक उत्तम साधन है।’ काव्यशास्त्र में इन्हीं मनोवेगों को रस कहा जाता है।

भारतीय काव्यशास्त्रियों ने कवि और कविता को उदात्त माना है। भारतीय काव्यशास्त्र में कवि को महत्व दिया गया है। भरतमुनि समेत अनेक आचार्यों ने काव्य के गुणों की चर्चा की है। आनंदवर्धन ने तो कवि को प्रजापति कहा है (अपारे काव्य संसारे कविरेव प्रजापति)। पाश्चात्य दार्शनिक प्लेटो ने कविता को उन्माद कहा है, तो विलियम वर्ड्सवर्थ ने कविता को तीव्र मनोभावों का सहज उच्छलन कहा है। चाहे कोई भी कुछ भी कहे, साहित्य अथवा कविता व्यक्ति के आंतरिक मनोभावों की अभिव्यक्ति है। सृजनात्मकता का परिचायक है। कविता की शक्ति का एक बड़ा उदाहरण यह है कि भारत के स्वतंत्रता आंदोलन के समय कविता ने जनमानस को जागृत करने का कार्य किया है। कवि के सामने अनेक तरह की चुनौतियाँ रहती हैं। जब तक पाठक काव्य-वस्तु में नहीं डूबेंगे, तब तक कविता के अर्थ को समझ नहीं पाएँगे। इस ‘डूबने’ की प्रक्रिया को विद्यानिवास मिश्र शब्दार्थ-व्यापार कहते हैं, ‘क्योंकि शब्द ही डूबने का प्रेरक भी है, शब्द ही तिरने का साधन भी।’ (विद्यानिवास मिश्र, रीतिविज्ञान, पृ. 35)। वे आगे यह कहते हैं कि ‘कविता बोलचाल की भाषा से ही नहीं, एकदम भदेसी एवं अंतरंग अनगढ़ बोलचाल की भाषा से शब्द लेने के लिए लाचार हो जाती है।’ (वही, पृ. 47)। कहने का तात्पर्य है कि कवियों की मानसिकता में जैसे-जैसे परिवर्तन होगा, वैसे-वैसे कविता के प्रतिमान बदलने लगेंगे। कविता को समझने के लिए सूक्ष्म दृष्टि की आवश्यकता होती है। मेरे हाथ एक ऐसी पुस्तक लगी जो कविता को समझने के लिए अत्यंत उपयोगी है। ‘हिंदी कविता : अतीत से वर्तमान’ (2021) शीर्षक यह पुस्तक कविता को समझने के लिए सहायक सिद्ध होगी। साहित्य रत्नाकर, कानपुर से प्रकाशित इस पुस्तक के रचनाकार हैं प्रसिद्ध तेवरीकार प्रो. ऋषभदेव शर्मा। इस पुस्तक को पढ़ते समय पाठकों में सहज जिज्ञासा जागृत होगी, क्योंकि इस पुस्तक ने यह स्पष्ट कर दिया है कि कवि महत्वपूर्ण नहीं है बल्कि महत्वपूर्ण है प्रवृत्तियाँ; और वे परिस्थितियाँ जिनके कारण प्रवृत्तियों का जन्म होता है।

इस पुस्तक में कुल आठ सोपान हैं। पहला सोपान है ‘नींव का परिवेश और विचारों की यात्रा’, जो विशेष रूप से 1950 के बाद की कविता को समझने में सहायक है। इसमें यह देखने को मिलता है कि 1950 से लेकर 1970 तक की काव्य-यात्रा का एक महत्वपूर्ण पक्ष है लोक जीवन और लोक संस्कृति तथा प्रकृति के साथ कविता का रागात्मक संबंध। इस कालखंड में अनेक काव्यांदोलन उभर कर सामने आए। इन आंदोलनों की पृष्ठभूमि में परिस्थितियों के प्रति आक्रोश और नए रास्ते खोजने की चाहत को प्रमुख रूप से देखा जा सकता है, जिनके कारण काव्य-स्थितियाँ बदलीं और नई प्रवृत्तियों का जन्म हुआ। परिवर्तनों को प्रोत्साहन मिला। कवियों की मानसिकता बदलने लगी। ‘परंपरा और परिवेश के बीच संवाद-सेतु के रूप में कार्य करने वाला कवि जब दोनों को ही आत्मसात कर लेता है, तब उस युग की सच्ची कविता पैदा होती है।’ (पृ. 38)। सो, हुई।

कविता और राष्ट्रीयता का गहरा संबंध होता है। दोनों को अलग करके देखना कठिन कार्य है। ‘कविता जिस परंपरा से जीवन ग्रहण करती है, वह किसी समाज और राष्ट्र की सांस्कृतिक परंपरा ही होती है।’ (पृ. 48)। साहित्य के विद्यार्थी यह भलीभाँति जानते हैं कि आठवें-नवें दशक की कविता का मूल स्वर यही ‘राष्ट्रीय चेतना’ है। इसे लेखक ने ‘देश के सिर से बहते हुए रक्त से कविता की बातचीत’ शीर्षक दूसरे सोपान में बखूबी उकेरा है। इसमें यह स्पष्ट कर दिया गया है कि ‘कविता ने व्यक्ति को देश के एकदम निकट ले जाने की कोशिश की है, क्योंकि उसकी निकटता प्राप्त किए बिना निर्माण की संभावनाएँ क्षीण हो जाती हैं। ... राष्ट्र-निर्माण के लिए गाँव को समझना और उसके जीवन को पहचानना अनिवार्य है।’ (पृ. 57)।

आधुनिक समाज को नियंत्रित करने वाले दो प्रमुख तत्व हैं - विज्ञान और परंपरागत सामाजिक मान्यताएँ तथा मूल्य। स्वस्थ समाज के निर्माण में इन दोनों की भूमिका को नकारा नहीं जा सकता। 1970 के बाद की परिस्थितियों पर दृष्टि केंद्रित करने से यह स्पष्ट होता है कि सामाजिक मूल्य तेजी से बदलने लगे। मूल्य-ह्रास की प्रक्रिया तेजी से शुरू हुई। इन परिस्थितियों ने कवि की रचनाशीलता को भी प्रभावित किया। परिणामस्वरूप कविता की प्रवृत्तियाँ बदलने लगीं। नई सभ्यता विकसित होने लगी। मनुष्य का जीवन दबावों के बीच फँस गया। ‘पारस्परिक प्रेम, सहानुभूति और परिचय के अभाव ने मनुष्य को एक कैलेंडर की शक्ल दे दी है, जिसमें वर्ष भर के समय का लेखा-जोखा तो होता है किंतु जीवंतता नहीं होती’ (पृ. 72), तो कवि पुनर्विचार करने के लिए प्रेरित हुआ। जनपक्षधरता का गुण उभरकर सामने आने लगा। इसका खुलासा ‘सामाजिकता, परंपराबोध और कविता’ शीर्षक तीसरे सोपान में हुआ है।

‘कविता और राजनीति का आमना-सामना’ शीर्षक चौथे सोपान में यह स्पष्ट कर दिया गया है कि ‘कविता ने जनपक्षीय राजनैतिक मूल्यों को ग्रहण करके राजनीति के यथार्थ तथा जनता के मन के आक्रोश को मुख्य रूप से अभिव्यक्ति दी है।’ (पृ. 99)। आज़ादी के बाद देश में धीरे-धीरे कुर्सीधर्मी राजनीति पनपने लगी। ‘हिंसा’ इस कुर्सीधर्मी राजनीति का दूसरा चरित्र है। सन सत्तर के बाद देश भर में जो हिंसक घटनाएँ हुईं उनके पीछे राजनीति का हाथ है। जन-प्रतिनिधि ‘रक्षक’ के बदले ‘भक्षक’ बनने लगे। व्यक्ति केंद्रित राजनीति पनपने लगी। तानाशाही का उदय होने लगा। जनता का मोहभंग होने लगा। उनके स्वप्न बिखरने लगे। निरंकुशता बढ़ने लगी। ऐसी स्थिति में संघर्ष अनिवार्य था। 1970 के बाद की कविता ने इन परिस्थितियों को चित्रित ही नहीं किया, बल्कि इनके कारण उत्पन्न असंतोष और आक्रोश को भी अभिव्यक्त किया।

1960 के आस-पास हिंदी कविता के क्षेत्र में अनके काव्यांदोलन हुए। जैसे नवगीत, अकविता, अभिनव कविता या एण्टी कविता, ताजी कविता, सांप्रतिक कविता, अस्वीकृत कविता, सचेतन कविता, बीट कविता, विद्रोही कविता, युयुत्सावादी कविता, साठोत्तरी कविता, सहज कविता, सनातन सूर्योदयी कविता, अगीत, ग़ज़ल, तेवरी, मंत्र कविता आंदोलन आदि। इनमें से कुछ आंदोलन आठवें-नवें दशक की कविता के साथ भी चलते देखे जा सकते हैं। ‘आंदोलनों के मंच पर बोलती कविता’ शीर्षक पाँचवे सोपान में इन आंदोलनों और परिस्थितियों का परिचय सम्मिलित है, जो हर पाठक को जानना बेहद जरूरी है।

1970 के बाद कविता जिन सामाजिक परिस्थितियों से प्रभावित हुई उनसे ‘कविता की समग्र दृष्टि से साक्षात्कार’ शीर्षक सोपान में परिचित हुआ जा सकेगा। सत्तर के बाद की कविता के संबंध में कुछ आक्षेप हैं। जैसे वक्तव्य की प्रधानता, शहरी वातावरण की प्रधानता, भारतीय जीवन की ठोस चुनौतियों का अभाव आदि। परंतु इस सोपान में यह स्पष्ट किया गया है कि ‘इस काल की कविता में जनवादी काव्यांदोलन नए तेवर और तैयारी के साथ उभरा। इन कविताओं में संघर्ष का तेवर मुख्य है और राजनीतिक तथा आर्थिक शोषण इनका उपजीव्य है।’ (पृ. 182)। उपलब्धियों की दृष्टि से इस दशक की कविता संपन्न कविता है।

इक्कीसवीं सदी की कविता में एक बार फिर कथात्मकता, छंद और लय की वापसी हुई। समकालीन रचनाधर्मिता के मर्म को जानना हो, तो ‘कविता की रचनाधार्मिता : जनपद और लोक’ शीर्षक सोपान से गुजरना काफ़ी है। लेखक ने यह प्रतिपादित किया है कि विश्वसनीयता, लोकचित्त, विचार, नई भाषा की तलाश आदि समकालीन रचनाधार्मिता के प्रमुख बिंदु हैं। उन्होंने यह भी निरूपित किया है कि इस कविता में स्थानीयता और तात्कालिकता के बावजूद सार्वभौमता और विश्वदृष्टि को साधा जा सका है।

उत्तर आधुनिक विकेंद्रीकरण के कारण समाज, राजनीति, साहित्य, कला और दर्शन आदि सभी क्षेत्रों में नए-नए खंड बन रहे हैं- स्त्री, दलित, आदिवासी, अल्पसंख्यक, किन्नर, किसान, वृद्ध आदि। कहने का आशय है कि हाशिये के भीतर धकेले गए समुदाय अब अपने अधिकारों के लिए संघर्ष कर रहे हैं। ‘उत्तर आधुनिकता के क्षितिज पर विमर्शों का इंद्रधनुष’ शीर्षक अंतिम सोपान में इस बात की गहन चर्चा करते हुए लेखक ने विशेष रूप से दलित, स्त्री और आदिवासी विमर्श पर केंद्रित कविता का आकलन किया है और निरूपित किया है कि बहुकेंद्रीयता नई सदी के आरंभिक दशकों की मुख्य परिस्थिति भी है, और प्रवृत्ति भी।

अंततः कहना ही होगा कि कविता के क्षेत्र में अनुसंधानरत शोधार्थियों और शोध निर्देशकों के लिए ‘हिंदी कविता : अतीत से वर्तमान’ निश्चित रूप से एक आकर ग्रंथ सिद्ध होगा। यह पुस्तक बहुत ही प्रासंगिक है। इस पुस्तक को ध्यान से पढ़ेंगे तो आप अनेक प्रवृत्तियों और उप-प्रवृत्तियों को जरूर चिह्नित कर सकेंगे। लेकिन इसके लिए परिश्रम करना ही होगा। जिन खोजा तिन पाइयाँ, गहरे पानी पैठ, मैं बपुरा बूडन डरा, रहा किनारे बैठ! (कबीर)। लेखक ने समकालीन कविता के सागर में गहरा गोता लगाकर ही ये मोती खोजे हैं।

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समीक्षित पुस्तक : हिंदी कविता : अतीत से वर्तमान तक
लेखक : ऋषभदेव शर्मा
प्रकाशन वर्ष : 2021
प्रकाशक : साहित्य रत्नाकर, कानपुर
पृष्ठ : 224
मूल्य : रु. 495/-

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