'समकालीन साहित्य विमर्श' से गुजरते हुए
डॉ गोपाल शर्मा
गुर्रमकोंडा नीरजा की पुस्तक ‘समकालीन साहित्य विमर्श’ में क्या है? कोई भी विषय क्रम देखकर पता लगा सकता है। कोई विद्योत्तमा पूछे “अस्ति कश्चिद् वाग्विशेषः” तो वह इस पुस्तक में प्रथमतः प्रस्तुत की गईं रमेश चन्द्र शाह की शुभाशंसा और दिविक रमेश की भूमिका पढ़कर जान सकती है।
यह युग विमर्शों का है। यह युग उन विमर्शों का है जिनको अब तक विमर्श के बाहर रखा जाता रहा। इस दृष्टि से यह पुस्तक उन विमर्शों का सोदाहरण प्रस्तुतीकरण है। 24 आलेख हैं और लगभग सभी इक्कीसवीं शताब्दी के दूसरे दशक में लिखे या प्रकाशित हुए हैं। पुस्तक में कुल पाँच खंड हैं – हरित, किन्नर, स्त्री, लघुकथा और विविधा। यदि कोई इन्हें कविता के शिल्प में रखे तो कहेगा –
हरित किन्नर स्त्री विविधा लघुकथा।
विमर्शों से पुस्तक को इस तरह बांधा।
कविता बनाई है तो बने बनाए एक शेर को पेश करने में क्या हर्ज़ है ?
ये दुनिया है यहाँ असली कहानी पुश्त पर रखना।
लबों पर प्यास रखना और पानी पुश्त पर रखना॥
पता नहीं कौन लिख कर चला गया किंतु लगता है कि ठीक ही लिखा था। पुस्तक है ही ऐसी संज्ञा, इसके आने से पुश्त दर पुश्त विचारों का संचरण जो होता है। क्या ‘पुस्तक’ इसका ही स्वरूप है?
नहीं, पुस्तक में विचार होते हैं और ये विचार ही तो सब कुछ हैं। जैसा लेखिका आभार प्रकट करते समय कहने से चूकती नहीं, "यह आलेखों का समुच्चय है।" और इस वाक्य को पूर्ण अर्थ देता है, यह कथन – सभी में अध्येता के सामाजिक, सांस्कृतिक और भाषिक मुद्दों पर विशेष आग्रह है।
इसलिए लेखिका के द्वारा चाहे ‘हरित विमर्श’ की बात की गई हो या ‘किन्नर विमर्श’ की ये तीन मुद्दे रेखांकित किए जा सकते हैं – सामाजिक, भाषिक और सांस्कृतिक। क्रम कुछ भी हो कमल की पंखुड़ियों की तरह जब ज्ञान का शतदल कमल खिलता है तब उनका प्रकाशन इसी तरह पुस्तकाकार में होता है। लेखिका में सैद्धांतिक विवेचन के अनुप्रयोग की अद्भुत और अनूठी क्षमता है यह तो उनकी पूर्व प्रकाशित कृति 'अनुप्रयुक्त भाषाविज्ञान की व्यावहारिक परख' (2015) से पता चल ही गया था। अब उन्होंने यह भी दिखा दिया है कि वे भाषाविज्ञान के सिद्धांतों के अनुप्रयोग में ही सिद्धहस्त नहीं हैं वे साहित्य के विविध विमर्शों को भी उसी शिद्दत और सहजता से कलमबंद कर सकती हैं ।
यहाँ मैं कुछ सूत्र सूक्तियों में पहले लेखिका के सैद्धांतिक आग्रह को प्रस्तुत करूँगा -
हरित विमर्श – जब तक मनुष्य प्रकृति पर्यावरण के साथ घनिष्ठ आत्मीय संबंध का निर्वाह करता है तब तक पर्यावरण के लिए कोई खतरा नहीं होता। ( पृष्ठ 20)
यदि प्रदूषण को नहीं रोका गया तो प्राकृतिक संपदा के साथ-साथ मनुष्य का अस्तित्व भी इस पृथ्वी से मिट सकता है। ( पृष्ठ 28)
किन्नर विमर्श
21 वीं सदी की पूर्वोक्त कृतियों को किन्नर विमर्श का नया उत्थान कह सकते हैं। इस दौर की इन रचनाओं में समाजशास्त्रीय शोध पद्यति का प्रयोग किया गया है। और कहीं-कहीं तो ये रचनाएँ रिसर्च की रिपोर्ट जैसी लगती हैं। ( पृष्ठ 42)
लेकिन जब बात आती है किन्नरों की, तो सभी आदर्शवादी बातें हाशिये पर चली जाती हैं । (पृष्ठ 55)
स्त्री विमर्श
सिद्धान्त और सोच को किस प्रकार विवेचन और विश्लेषण में बदलकर प्रस्तुत किया जा सकता है इसका सर्वोत्तम उदाहरण लेखिका नीरजा का ‘स्त्री विमर्श’ विषयक खंड है। इसकी प्रमुख विशेषता यह है कि यहाँ खुलकर और स्वतंत्र रूप से मत व्यक्त किया गया है। रचनाओं के विवेचन से आगे जाकर जब जब वे अपनी टीका-टिप्पणी करती हैं तो ‘स्त्री’ के मर्म को ही उद्घाटित नहीं करतीं बल्कि उसे पुरुष के समक्ष और समकक्ष भी खड़ा करती हैं । ‘समकालीन स्त्री प्रश्न’ (पृष्ठ 75-78) इस दृष्टि से कई बार पढ़ा जा सकता है। विमर्शों की पुस्तक में ऐसा भी लिखा मिलेगा, यह सोचा न था –
आज
की स्त्री चाहती है कि पुरुष समय-असमय अपना ‘पति-पना’
न दिखाया करे। स्त्री को भी गाहे बगाहे प्रति पल अपना ‘पत्नीपना’
दिखाने की प्रवृत्ति से बाज़ आना होगा। वह
जमाना गया जब पति-पत्नी ‘दो
शरीर एक प्राण’
होते थे क्योंकि इस एक प्राणता के लिए दो
में से किसी एक को अपना व्यक्तित्व दूसरे के व्यक्तित्व में विलीन करना होता था।
आज की स्त्री अपने व्यक्तित्व को इस तरह पुरुष के व्यक्तित्व में विलीन करने के
लिए तैयार नहीं है। उसे अपनी स्पष्ट पहचान और परिवार तथा समाज में अपना स्थान व
सम्मान चाहिए। (पृष्ठ 77)
स्पष्ट है पुस्तक में सबसे ज्यादा पृष्ठ इसी विमर्श को मिले हैं। हरित विमर्श के लिए कुल छह पृष्ठ है, किन्नर के लिए भी इतने नहीं पर स्त्री विमर्श के लिए सबसे ज्यादा। आधे में हम, और आधे में सब। ठीक भी है “हिन्दी साहित्य का आधा इतिहास” लिखकर अमर हो गए शुक्ल जी के बाद यदि अब कोई सुमन राजे इसको पूरा करने की दिशा में कदम बढ़ाती है तो उसे डॉ नीरजा की पुस्तक के विमर्श से राह मिलेगी। ‘मिश्र बंधु विनोद' से अब हम बहुत आगे निकल आए हैं। कहना चाहिए कि अब अपनी परंपराओं को शुद्ध करने का समय भी निकल चुका है। अब तो बक़ौल नीरजा जी के “आज स्त्री जागरूक हो गई है। अपने अस्तित्व एवं अस्मिता की लड़ाई लड़ रही है। पुरुष पक्षीय परंपराओं को तोड़ना सीख गई है।” (पृष्ठ 83 )। इन ‘जगी हुई आहटों का सम्मान’ क्यों किया जाना चाहिए? क्योंकि – “पुराने विधि विधान और पुरानी स्मृतियाँ आज के संदर्भ में अर्थहीन हो गए हैं। आज नई स्मृतियों और नई संहिताओं की जरूरत है। सब कुछ बदलना होगा, सारे समाज की मानसिकता को बदलना होगा।” (पृष्ठ 95)।
लघुकथा विमर्श
इस खंड में लेखिका का भाषा-अध्येता रूप खिलकर आया है। लघुकथा की गुरुता का भाषाई पक्ष वे खूब खंगाली हैं। साथ में बहुत सी सूत्र पंक्तियाँ भी हैं , जैसे –
लघुकथाकार संक्षिप्त फ़लक पर भाव ,घटना, या विचार की बीज बोता है और प्रभावशाली अभिव्यक्ति के माध्यम से उसे पल्लवित करता है। वह अपनी बात को दो टूक कहने के लिए व्यंजना का सहारा लेता है। समय की माँग और विषय के चयन के अनुरूप लघुकथाकार ‘पंच’ का प्रयोग करते हुए अपनी बात को अभिव्यक्त करता है और पाठक को उद्वेलित करता है। (पृष्ठ 156)
विमर्श विविधा
‘हरि अनंत हरि कथा अनंता’ के समान विमर्श अनंत हैं और उनकी गाथा हनुमान की पूंछ सी बढ़ती ही चली जाती है। पुस्तक में पृष्ठों की सीमा होती है, यहाँ भी है। खैर यह है कि विविधा में वैविध्य दर्जन की संख्या पार नहीं करता। फिर भी यह क्या कम है? विस्थापन विमर्श और वृद्धावस्था विमर्श तो अपने नाम से भी नवीन लगते हैं। इन विमर्शों पर अभी लेखन हुआ ही कितना है? हाँ, उत्तर आधुनिक विमर्श के नाम पर बहुत कुछ परोसा जाता रहा है। नीरजा जी स्त्री, दलित, आदिवासी, किन्नर, अल्पसंख्यक आदि के साध साथ ‘वृद्धावस्था’ को भी अपने विमर्श में स्थान दिया है। अंत में ही दिया है, पर खूब दिया है। यह बात नहीं कि यह विमर्श पहले नहीं था। उदाहरण के लिए केशव सफ़ेद होते बालों की चिंता में कठिन काव्य के प्रेत हो गए थे। इस चिंता ‘जो आ के न जाये वो बुढ़ापा देखा’ को चिंतन में शामिल करते हुए नीरजा जी ‘वृद्धावस्था विमर्श’ को एक वाक्य में परिभाषित करती हैं – वृद्धावस्था विमर्श इस उपेक्षित समुदाय की दृष्टि से, अथवा वृद्धावस्था को केंद्र में रखते हुए, समाज, साहित्य और संस्कृति की नई व्याख्या करने वाला विमर्श है । (पृष्ठ 212)
जब यह पुस्तक ‘समकालीन साहित्य विमर्श’ नाम से है तो इसमें विमर्श और भी होंगे ही। हैं भी। पर उन पुस्तकों और उन रचनाकारों का उल्लेख करने से बचते हुए मैं यह कहकर आगे बढ़ूँगा कि इस पुस्तक में ‘सर्वथा अपूर्वानुमेय – किंतु अत्यंत आत्मीय और गहरी संवेदना के साथ खोजी और प्रस्तुत की गई सामग्री मिलती है’ (शुभाशंसा – रमेशचंद्र शाह)। और यह भी कि लेखिका ने अपनी साहित्यिक खोज को केवल तथाकथित मशहूर हस्तियों तक सीमित नहीं रखा है। उनके साथ-साथ कम चर्चित रचनाकारों की ओर भी उनका ध्यान गया है। (दिविक रमेश)।
‘कुछ न कुछ लिखा जाता रहा है’ कहकर जिस लेखन को बड़ी विनम्रता से लेखिका ने यहाँ सँजोया है उसका हिंदी के उन अध्येताओं को तुरत फायदा पहुँचेगा जो समकालीन साहित्य के सजग पाठक और अध्येता हैं। उनको भी यह पुस्तक रुचेगी जो शोध की नवीन दिशाओं की खोज में हैं। एंड्रू बेनेट और निकोलस रॉयल ने ‘एन इंट्रोडक्शन टू लिटरेचर, क्रिटिसिज़्म एंड थियरि’ में जिस प्रकार विविध विमर्शों पर लिखकर उसे विश्वविद्यालयों के लिए वांछित पुस्तक के रूप में पेश किया और उसके छह संस्करणों में विमर्शों की संख्या लगातार बढ़ी है, ऐसा ही इस पुस्तक के साथ भी हो। यही कामना और आशा है कि इसके आगामी प्रत्येक संस्करण में विमर्शों की संख्या बढ़ती जाए और हिंदी पाठ क जगत लाभान्वित हो।
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