गुरुवार, 1 अक्टूबर 2009

हिंदी दिवस पर भाषा चिंतन

सितंबर का महीना हम हिंदी प्रचारकों के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण होता है क्योंकि इसी महीने में ‘हिंदी दिवस ’ मनाया जाता है. ‘स्रवंति ’ की ओर से आपको ‘हिंदी दिवस ’ की शुभकामनाएँ देते हुए हम यहाँ एक सद्यः प्रकाशित पुस्तक ‘हिंदी भाषा चिंतन ’ की ओर आपका ध्यान आकृष्ट करेंगे.


भाषा के बारे में विवेचन - विश्लेषण वस्तुतः भाषा से ही होता है. अतः भाषा साध्य भी है और साधन भी. यह सर्वविदित है कि हिंदी भाषा के विकास, मानकीकरण,आधुनिकीकरण और सुनिश्चित व्याकरणिक संरचना की एक सुदृढ़ परंपरा रही है. हिंदी भाषा का वैज्ञानिक अध्ययन ही ‘हिंदी भाषाविज्ञान ’ है. भाषाविज्ञान भाषा के व्याकरणिक सम्मत, शुद्ध तथा मानक रूप को अध्ययन सामग्री बनाता है, लेकिन सामाजिक व्यवहार में भाषा समरूपी न होकर विषमरूपी होती है. एक ओर समाज में भाषा के शैली भेद उपलब्ध हैं तो दूसरी ओर इसकी विविध बोलियाँ और सामाजिक व्यवहार के अनेकानेक विकल्प.


मानकीकरण की दृष्टि से हिंदी भाषा की लिपि से लेकर के उसके व्याकरणिक ढ़ाँचे तक के महत्वपूर्ण पक्षों पर महावीर प्रसाद द्विवेदी तथा अनेकानेक विद्वानों ने समय समय पर विचार प्रकट किए हैं. साथ ही हिंदी भाषा के शक्ति सामर्थ्य से संबंधित अनेक गुत्थियों को भी सुलझाया गया. विश्व फलक पर उभर रहे भाषाई चिंतन से हिंदी भाषाविज्ञान को जोड़ने में डॉ.धीरेंद्रवर्मा का योगदान अनुपमेय है. उन्होंने हिंदी भाषा की ऐतिहासिकता तथा उसकी बोलीगत, क्षेत्रगत एवं प्रयोगगत संभावनाओं का भी सूक्ष्म अध्ययन प्रस्तुत किया है. इस परंपरा को आगे बढ़ाने में अनेक भाषाविदों ने योगदान किया है और हिंदी भाषा चिंतन के विविध पक्षों को पुष्ट किया है. इस संदर्भ में प्रो.दिलीप सिंह (1951) की कृति ‘हिंदी भाषा चिंतन ’(2009, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली) मूलतः हिंदी भाषा विषयक विमर्श के एक नए आयाम प्रस्तुत करती है.


प्रो.दिलीप सिंह ने अपने इस ग्रंथ में हिंदी भाषा के विकास का भाषावैज्ञानिक विवेचन और विश्लेषण प्रस्तुत किया है. उनकी मान्यता है कि
"हिंदी भाषा के रचनाकारों, पोषकों, अनुवादकों (चाहे वे किसी प्रांत या क्षेत्र के हों) ने हिंदी भाषा के भीतर विशाल जन-जीवनों की आत्मा से बराबर तालमेल बनाए रखा है. इनको अब हिंदी व्याकरण में उकेरने होगा. बनावटी, अनुवाद आश्रित, जन-संपर्क से दूर होती जा रही सामर्थ्यहीन हिंदी का तिरस्कार करना भी इस व्याकरण के लिए ज़रूरी होगा. भाषा की शुद्ध्ता या मानकता की दुहाई देकर हिंदी भाषा के स्वाभाविक विकास और प्रयोग को; कहा जाय उसकी लचीली प्रकृति या ग्रहणवादी प्रकृति की आलोचना करनेवाले शुद्धतावादियों से सावधान रहे बिना और भाषा-संपर्क एवं भाषा-विकास की स्वाभाविक व्याकरणिक परिणतियों का संकेत दिए बिना हिंदी व्याकरण की परतों (layers) को नहीं टटोला जा सकता है. हिंदी भाषा मात्र, ‘एक ’ व्याकरणिक व्यवस्था नहीं है, वह हिंदी भाषा समुदाय में व्यवस्थाओं की व्यवस्था के रूप में प्रचलित और प्रयुक्त है; इस तथ्य के प्रकाश में निर्मित हिंदी-व्याकरण ही भाषा के उन उपेक्षित धरातलों पर विचार कर सकेगा जो वास्तव में भाषा प्रयोक्ता के ‘भाषाई कोष ’ की धरोहर हैं. कोई भी जीवंत शब्द और जीवंत भाषा एक नदी की तरह विभिन्न क्षेत्रों से गुजरती और अनेक रंग-गंधावली मिट्टी को समेटती आगे बढ़ती है. हिंदी भी ऐसी ही जीती - जागती भाषा है. इसके व्यावहारिक विकल्पों को व्याकरण में उभारना, यही एक तरीका है कि हम हिंदी को उसकी राष्ट्रीय - अंतरराष्ट्रीय भूमिका में आगे ले जा सकते हैं."


लेखक ने प्रथम खंड ‘धरोहर’ के अंतर्गत हिंदी के शब्द संस्कार की व्यापकता की चर्चा करते हुए यह बात स्पष्ट की है कि डॉ.रघुवीर के पारिभाषिक शब्दावली कोश पर पुनर्विचार की आवश्यकता है ताकि जिन शब्द सूचियों की मदद अक्सर ली जाती हैं, उनकी रचना और बनावट को पुनः रेखांकित किया जा सके तथा उन्हें अधिक व्यावहारिक बनाया जा सके. हिंदी की सामासिक संस्कृति पर विचार करते हुए लेखक ने यह रेखांकित किया है कि भाषा शिक्षण की सहायक सामग्री के रूप में व्याकरण एक अनिवार्य तत्व है. उनका मत है कि आज व्यावहारिक अथवा संप्रेषणपरक व्याकरण की आवश्यकता है जिसके सहारे हिंदी भाषा की वैविध्यपूर्ण प्रकृति अथवा उसकी सामाजिक यथार्थता को उद्‍घाटित किया जा सके. उच्चरित और लिखित भाषा के अंतःसंबंधों एवं देवनागरी लिपि की वैज्ञानिकता की चर्चा भी की गई है. इस खंड में लेखक ने भाषाविज्ञान के विकास में महिलाओं के योगदान का भी विवेचन किया है जो स्त्रीविमर्श को नया आयाम प्रदान करता है तथा संभवतः अपनी तरह का इकलौता सर्वेक्षण है.


दूसरे खंड ‘हिंदी का सामाजिक संदर्भ ’ के अंतर्गत ‘समाज भाषाविज्ञान ’ के सैद्‌धांतिक एवं व्यावहारिक दोनों पक्षों पर दृष्टि केंद्रित की गई है. भाषिक क्षमता और भाषिक व्यवहार की चर्चा करते हुए आधुनिक भाषा अध्ययन के अनेक दृष्टिकोणों तथा अनुप्रयुक्त भाषाविज्ञान की भिन्न शाखाओं का परिचय कराया गया है. साथ ही समाज में व्यवहृत भाषा रूपों अर्थात्‌ पिजिन, क्रियोल, कोड मिश्रण, कोड परिवर्तन और भाषा द्वैत की संकल्पनाओं को स्पष्ट किया गया है.


तीसरे खंड में मानकीकरण और आधुनिकीकरण की संकल्पनाओं की चर्चा करते हुए लेखक ने यह प्रतिपादित किया है कि यदि मानकीकरण के प्रयासों के साथ उसकी संभावनाओं पर दृष्टि केंद्रित करनी है तो उसके खतरों से भी अवगत होना जरूरी है.


चौथे खंड में भाषा विकास की चर्चा करते हुए लेखक ने यह स्पष्ट किया है कि दक्खिनी हिंदी वसतुतः हिंदी के विकास की मजबूत कड़ी है. उन्होंने यह रेखांकित किया है कि
"दक्खिनी हिंदी काव्य भाषा भारत की सामासिक संस्कृति का एक अनुकरणीय स्वरूप लेकर हमारे सामने आज भी एक जीवंत और ज्वलंत प्रमाण के रूप में उपस्थित है."
उन्होंने यह भी प्रतिपादित किया है कि ‘हिंदी और उर्दू को टुकड़ों में, खेमों में या खानों में विभाजित करना बेमानी है. ’


प्रयोजनमूलक हिंदी वस्तुतः आज की जरूरत है. पांचवे खंड में प्रयोजनमूलक हिंदी की प्रयुक्तियों एवं उप-प्रयुक्तियों की स्वरूपगत विशेषताओं को समझाते हुए लेखक ने यह स्पष्ट किया है कि प्रयोजनमूलक हिंदी के संदर्भ में अधिकांश अध्ययन और विवेचन ‘कार्यालयीन हिंदी ’ तक ही सीमित हो गए हैं. लेकिन वास्तव में प्रयोजनमूलक हिंदी जीवन और समाज की विभिन्न आवश्यकताओं एवं दायित्वों की पूर्ति के लिए उपयोग में लाए जानेवाली हिंदी है. छठे खंड में प्रयोजनमूलक हिंदी की विविध शैलियों के अंतर्गत व्यावसायिक हिंदी की चर्चा करते हुए लेखक ने पत्रकारिता की हिंदी और साहित्य समीक्षा के साथ साथ पाक-विधि की प्रयुक्ति का सोदाहरण विवेचन किया है. इसमें संदेह नहीं कि समीक्षा से रसोई तक रस परिपाक का आधार भाषा ही है और इस कृति में इसे अत्यंत रोचक ढ़ंग से उद्‌घाटित किया गया है.


सातवें और अंतिम खंड में लेखक ने हिंदी के प्रचार-प्रसार में दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा के योगदान को स्पष्ट किया है. यह सर्वविदित है कि स्वतंत्रता संघर्ष में हिंदी राष्ट्रीय प्रतीक के रूप में उभरी. इसलिए दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा का प्रतीक चिह्‌न हृदयों को जोड़ता हुआ यह घोषित करता है -
"एक राष्ट्रभाषा हिंदी हो, एक हृदय हो भारत जननी."
1918 में स्थापित सभा का मुख्य उद्‍देश्य था, हिंदी का प्रचार - प्रसार. राष्ट्रपिता माहात्मा गांधी इस संस्था के आजीवन अध्यक्ष रहे. 1927 में दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा एक स्वतंत्र संस्था के रूप में उभरी और 1964 में ‘राष्ट्रीय महत्व की संस्था ’ बनी. इसी वर्ष मद्रास में उच्च शिक्षा और शोध संस्थान (विश्‍वविद्‍यालय विभाग) प्रारंभ हुआ. तब से लेकर आज तक सभा अपने उद्‍देश्‍यों को क्रियान्वित कर रही है. उच्च शिक्षा और शोध संस्थान ने व्यावहारिक हिंदी के पाठ्‍यक्रमों में एम.ए. स्तर पर साहित्य के साथ साथ शैलीविज्ञान, सौंदर्यशास्त्र, सामान्य भाषाविज्ञान, हिंदी भाषा की संरचना और इतिहास ही नहीं कार्यालयीन हिंदी, व्यावसायिक हिंदी, अनुवाद विज्ञान, तुलनात्मक अध्ययन, व्यतिरेकी विज्ञान तथा अन्य भाषा शिक्षण जैसे प्रयोजनमूलक हिंदी के प्रश्‍न पत्र भी शामिल किए हैं. इस प्रकार के ‘जॉब ओरियंटेड ’ पाठ्‍यक्रम छात्रों को रोजगार प्राप्त कराने में सक्षम हैं. इस प्रकार हिंदी के प्रचार - प्रसार के साथ साथ उच्च शिक्षा और शोध कार्यों के माध्यम से निरंतर एक नई पीढ़ी को तैयार कर रही है ताकि हिंदी अखिल भारतीय स्वरूप प्राप्त कर सकें.


यह निर्विवाद है कि भारत और भारतीय संस्कृति को समझने में हिंदी की अहम भूमिका है. हिंदी ने संपूर्ण विश्‍व का ध्यान अपनी ओर खींच रखा है. प्रो.दिलीप सिंह ने अपनी पुस्तक द्वारा विश्‍व भाषा के रूप में हिंदी की शक्ति का भी बोध कराया है. उन्हीं के एक कथन के साथ इस चर्चा का समाहार समीचीन होगा -

"हम भारत के लोग विदेशों में हो रहे हिंदी संबंधी कार्यों को भी अनदेखा किए हुए हैं. इन्हें न तो हम कोई पहचान देते हैं और न ही महत्व. इस तरह की उदासीनता को सक्रिय जागरूकता में बदले बिना हिंदी भाषा (साथ ही विदेशों में चल रहे तमिल, तेलुगु, बांग्‍ला भाषा कार्यक्रमों को भी) के अंतरराष्ट्रीय संदर्भ को वह ऊँचाई नहीं मिल सकती जिसकी आकांक्षा है, उल्टा, इस तरह की मनोवृत्ति से विदेशी भाषा के रूप में हिंद्दी भाषा की गति - प्रगति बाधित होगी, नीचे की ओर ढुलकेगी. विदेश में हिंदी का ध्वज रामायण के परिवेश में फहरा है. शायद ही दुनिया की कोई ऐसी भाषा हो जिसमें वाल्मीकी कृत ‘रामायण ’ अथवा ‘रामचरित मानस ’ का अनुवाद या व्याख्यानुवाद न हुआ हो. मीरा, सूर, कबीर भी खूब अनूदित हुए हैं. रूसी भाषा में ‘प्रेम सागर ’ (ए.पी.बारान्निकोव) का अनुवाद भी हुआ है. अपने अंतरराष्ट्रीय संदर्भ में हिंदी भाषा, मात्र एक भाषा नहीं, भारतीय संस्कृति, दर्शन और अध्यात्म की संवाहिका भाषा है. इस भावात्मक लगाव के कारण ही विश्‍व का झुकाव हिंदी की ओर हुआ. हिंदी साहित्य के अनुवाद कार्य में तथा हिंदी में सृजनात्मक लेखन में इन देशों का योगदान अपना ऐतिहासिक महत्व रखता है. आज हमें इन कार्यों का अवलोकन - आकलन करते हुए इन्हें प्रोत्साहित करने और इनसे संबद्ध समस्याओं का समाधान करने का प्रयत्‍न करना चाहिए. भारत के विश्‍वविद्‍यालयों में इन कार्यों पर शोध हों, महत्वपूर्ण व्याकरणों, रचनाओं का पाठ्‍यक्रम में स्थान दिया जाय और भारत सरकार इन कार्यों को प्रकाशित कर सस्ते दामों पर उपलब्ध कराये. विश्‍व हिंदी के विस्तार को भारतीय जनता से परिचित कराने पर ही हम हिंदी - प्रेमी भारतीय का आत्म - सम्मान बढ़ेगा और विदेशों में हिंदी के लिए समर्पित प्रतिभाओं का उत्साह भी."


[सितंबर2009, संपादकीय: स्रवंति}

कोई टिप्पणी नहीं: