शनिवार, 3 अक्टूबर 2009

‘हम दीवानों की क्या हस्ती, हैं आज यहाँ, कल वहाँ चले’

भगवतीचरण वर्मा की पुण्यतिथि 5 अक्‍तूबर पर विशेष

‘हम दीवानों की क्या हस्ती, हैं आज यहाँ, कल वहाँ चले’

भगवतीचरण वर्मा (30 अगस्त, 1903 - 05 अक्‍तूबर, 1981) ने प्रायः सभी विधाओं में सृजन किया. वे एक संपूर्ण साहित्यकार थे. लेकिन कविता वर्माजी की अंतरात्मा में इस प्रकार अनुस्यूत है कि उससे उनका संबंध विच्छिन हो ही नहीं सकता. हिंदी कविता के विविध ‘वादों’ की भूमि पर उन्होंने पदार्पण अवश्य किया, किंतु अधिक समय तक वे किसी वाद के कटघरे में आबद्‍ध नहीं रहे. उनकी अल्हड़ता, मस्ती और स्वातंत्र्य प्रियता उन्हें हर बार ‘वाद’ की प्राचीरों से विमुक्त होने के लिए आकुल बनाती रही. एक के बाद दूसरे वाद की सीमा में प्रविष्ट होने और उसे ठोंक बजाकर देखने के अनंतर वे मस्ती से यह गुनगुनाते हुए आगे बढ़ गए -
"हम दीवानों की क्या हसती, / हैं आज यहाँ, कल वहाँ चले, / मस्ती का आलम साथ चला, / हम धूल उड़ाते जहाँ चले, / आए बनकर उल्लास अभी / आँसू बनकर बह चले अभी, / सब कहते ही रह गए, अरे, / तुम कैसे आए, कहाँ चले ? / किस ओर चले ? यह मत पूछो / चलना है, बस इसलिए चले, / जग से उसका कुछ लिए चले, / जग से अपना कुछ दिए चले," (हम दीवानों की क्या हस्ती)

जिस समय भगवतीचरण वर्मा ने काव्य रंगमंच पर पग धरा तब छायावाद की लहर चलनी प्रारंभ हो गई थी. इस नई लहर के साथ वह भी कुछ समय तब बह चले. लेकिन उन्हें न तो छायावादी काव्यानुभूति के अशरीर आधारों ने आकर्षित किया और न ही भारतीय मृदुलता को ही वे अपना सके. अपने काव्य संग्रह ‘मानव ’ तक आते आते वे एक प्रगतिशील कवि के रूप में परिणत हो गए. उनके बौद्‍धिक चिंतन और सामाजिक जागरूकता ने उन्हें समाज के निम्नवर्ग के जीवन स्तर के प्रति संवेदनशील बनाया और वे ‘भैंसागाड़ी ’ जैसी ख्याति लब्ध कविताओं की सृष्टि कर सके. उन्होंने अनेक कविताओं में समाज के दलित शोषित वर्ग का चित्र खींचा है. भारत में जहाँ एक ओर मानव मेधा की सहायता से तकनीकी विकास चरमोत्कर्ष पर हैं वहीं दूसरी ओर ग्रामों की स्थिति दयनीय है. भैंसागाड़ी से ‘चरमर - चरमर चूँ चरर - मरर ’ के ध्वनि बिंब उभरे हैं. कवि ने इस कविता में यह विडंबना चित्रित की हैं कि सारी सृष्टि गति के पालगपन से प्रेरित है. इसीलिए सागर में जहाज और आकाश में वायुयान उड़ रहे हैं और उसी दौर में गाँव के ऊबड़ - खाबड़ रास्तों के बीच भैंसागाड़ी चली जा रही है -
"चरमर - चरमर चूँ चरर -मरर / जा रही चली भैंसागाड़ी ! /***/ पर इस प्रदेश में जहाँ नहीं / उच्छावास, भावनाएँ, चाहें, / वे भूख, अधखाए किसान / भर रहे जहाँ सूनी आहें / नंगे बच्चे, चिथड़े पहने / माताएँ जर्जर डोल रहीं / है जहाँ विवशता नृत्य कर रही / धूल उड़ाती हैं राहें, /***/ पीछे है पशुता का खंडहर, / दानवता का सामने नगर, /मानव का कृश कंकाल लिए / चरमर - चरमर चूँ चरर - मरर / जा रही चली भैंसागाड़ी !" (भैंसागाड़ी)

महानगरों की विडंबना भी कुछ ऐसी ही है -
"पशु बनकर मानव भूल गया / है मानवता का नाम - ग्राम ! /हम ठीक तरह चढ़ भी न सके / घर घर घर घर चल पड़ी ट्राम !" (ट्राम)

वर्मा जी व्यक्तिवादी कवि थे. उनकी कविताओं में अहंवाद की खुली अभिव्यक्ति हुई है. ‘प्रेम - संगीत ’ और ‘मानव ’ की अधिकांश कविताओं में उनके वैयक्तिक सुख - दुःख की अभिव्यंजना हुई है. वे अपने प्रणय और वेदना भाव को निःसंकोच स्वीकारते हैं -
"हाँ, प्रेम किया है, प्रेम किया है मैंने, / वरदान समझ अभिशाप लिया है मैंने." (प्रेम - संगीत)

जहाँ एक ओर उनकी कविताओं में रोमानीपन, आत्मपीड़ा, अकेलापन आदि का आभास होता है वहीं दूसरी ओर उनमें मानवीय मूल्यों के प्रति पक्षधरता, सामाजिक विषमता, नियतिवाद, व्यंग्य आदी भी पग - पग पर समाहित हैं. वे इसी मान्यता पर विश्वास करते थे कि ‘जो होना है वह हो चुका है. जो कुछ सामने है, वही सत्य है और वही नित्य है.’ अतः वे कहते हैं -
"यहाँ सफलता या असफलता, ये तो सिर्फ बहाने हैं; / केवल इतना सत्य कि निज को हम ही स्वयम्‌ अजाने हैं." (चहल - पहल की इस नगरी में हम तो निपट बिराने हैं)

देशभक्‍ति का अखंड स्वर भी उनकी कविताओं में विद्‍यमान है -
"ऐ अमरों की जननी, तुझको शत - शत बार प्रणाम, / मातृ - भू, शत - शत बार प्रणाम. / तेरे उर में शादित गांधी, बुद्ध, कृष्ण औ’ राम, / मातृ - भू, शत - शत बार प्रणाम. / *** / गूँज उठे जयहिंद नाद से सकल नगर औ’ ग्राम, / मातृ - भू, शत - शत बार प्रणाम." (मातृ - भू शत - शत बार प्रणाम)


वस्तुतः भगवतीचरण वर्मा उन कवियों में से हैं जिन्हें प्रकृति सौंदर्य की अपेक्षा मानव सौंदर्य अधिक आकर्षित करता है. वे स्वयं फूलों की अपेक्षा रंगों से अपना मोह होने की बात स्वीकृत करते हैं -
"मुझको रंगों से मोह, नहीं फूलों से. / जब मुग्ध भावना मलय - भार से कंपित / जब विसुध चेतना सौरभ से अनुरंजित, / जब आलस लास्य से हँस पड़ता है मधुवन / तब हो उठता है मेरा मन आशंकित / चुभ जायँ न मेरे वज्र सदृश चरणों में / मैं कलियों से भयभीत, नहीं फूलों से." (मुझको रंगों से मोह)


इसका अर्थ यह कदापि नहीं कि वे प्रकृति सौंदर्य की उपेक्षा करते हैं. वे प्रकृति के ऋतु सौंदर्य से बहुत प्रभावित हैं, विशेषतः पावस एवं बासंती प्रकृति से -
"जब उषा सुनहली जीवन - श्री बिखराती / जब रात रुपहली गीत प्रणय के गाती / जब नील गगन में आंदोलित तन्मयता / जब हरित प्रकृति में नव सुषमा मुस्काती" (मुझको रंगों से मोह)

"आज सौरभ में भरा उच्छ्‌वास है, / आज कम्पित भ्रमित यह वातास है, / आज शतदल पर मुदित - सा झूलता / कर रहा अठखेलियाँ हिमहास है, / लाज की सीमा प्रिये, तुम तोड़ दो! / आज मिल लो, मान करना छोड़ दो!" (आज माधव का सुनहला प्रात है)

भगवतीचरण वर्मा की कविताओं में वैविध्य होने के बावजूद सभी कविताओं में एक बिंदु पर अन्विति दिखाई देती है. वह है ‘अस्मिता की खोज’. उनकी कविताओं की केंद्रीय आत्मा है जीवन दर्शन -
"कैसे विषाद ? क्या मानवता ? / मेरे सम्मुख तो है पशुता; / ये भक्ष्य और वे भक्षक हैं, / इनमें लघुता, उनमें गुरुता, / *** / केवल मुट्ठी - भर अन्न, इसी / पर केंद्रित मानव का जीवन/ दो-चार हाथ कपड़ों से ही / ढक जाता है मानव का तन, / छः हाथ भूमि पर बना हुआ / है मानव का ऐश्‍वर्य - सदन, / फिर क्यों इतना मानापमान / इतनी तृष्णा, इतना क्रन्दन ?" (जीवन दर्शन)

भगवतीचरण वर्मा हिंदी के श्रेष्ठ कवि हैं. इसमें कोई संदेह नहीं. कवि रूप के साथ साथ उनका उपन्यासकार रूप उतना ही भव्य है. उनकी सरल उक्तियों में पाठकों का दिल झकझोर देने की क्षमता निहित है. अपनी कालजयी कृति ‘चित्रलेखा ’ के माध्यम से उन्होंने पाप और पुण्य की परिभाषा का प्रतिपादन किया. मनुष्य में ममत्व प्रधान है. प्रत्येक मनुष्य सुख चाहता है. केवल व्यक्तियों के सुख के केंद्र भिन्न होते हैं. कुछ सुख को धन में देखते हैं, कुछ सुख को मदिरा में देखते हैं, कुछ सुख को व्यभिचार में देखते हैं, कुछ त्याग में देखते हैं - पर सुख प्रत्येक व्यक्ति चाहता है. कोई भी व्यक्ति संसार में अपनी इच्छानुसार वह काम न करेगा, जिसमें दुःख मिले - यही मनुष्य की मनःप्रवृत्ति है और उसके दृष्टिकोण की विषमता है. फिर पाप और पुण्य कैसा ? हम न ही पाप करते हैं और न ही पुण्य, हम केवल वह करते हैं, जो हमें करना पड़ता है. इस तथ्य का प्रतिपादन वर्मा जी ने अपने उपन्यास ‘चित्रलेखा ’ में किया है.

वर्मा जी ने मूलतः किसी न किसी सामाजिक समस्या को अपनी कृतियों में अवश्य उठाया है. प्रेम की परिणति विवाह में आवश्यक है या नहीं, यही वस्तुतः ‘तीन वर्ष ’ उपन्यास की समस्या है. इसमें उपन्यासकार प्रेम के आत्मिक पहलू को स्वीकार करने पर बल देता है. ‘भूले बिसरे चित्र ’ में तीन पीढ़ियों की सोच और मानसिकता के बदलाव, पुरानी पीढ़ी के साथ नई पीढ़ी के संघर्ष (पीढ़ी अंतराल), औपनिवेशिक शासन के प्रति बुद्धिजीवियों का मोहभंग एवं विद्रोह का अंकन किया गया है. ‘सीधी सच्ची बातें ’ में राष्ट्रीय आंदोलन को बुद्धिजीवियों एवं नेताओं के दृष्टिकोण से समझने का प्रयास किया गया है. अपराध और राजनीति का गठबंधन, नेताओं की सत्तालोलुपता आदि को ‘सबहिं नचावत राम गोसाईं ’ तथा ‘प्रश्‍न और मरीचिका ’ में व्यंग्यात्मक शैली अपनाकर बखूबी चित्रित किया है. अतः हम यह कह सकते हैं कि भगवतीचरण वर्मा ने अपनी कृतियों में उन्नीस्वीं शती के अंतिम दशक से लेकर बीसवीं शती के सातवें दशक तक के काल को उसके व्यापक और वैविध्यपूर्ण आयाम में प्रस्तुत करने का प्रयास किया है.

इतना ही नहीं उनका कहानीकार रूप भी भव्य है. उन्होंने अपनी कहानियों के माध्यम से मध्यवर्गीय व्यक्ति की आर्थिक कठिनाइयाँ, महानगरीय जीवन और उसकी यांत्रिकता, वेश्या समस्या, काम समस्या, बेकारी आदि अनेक व्यष्टि - समष्टि जीवन की समस्याओं को उठाया. संसृति के प्रति उनकी भावना वंदनीय है -
"संसृति के प्रति अनुरक्ति बनूँ / जन के प्रति श्रद्धा बनूँ / मैं शक्ति बनूँ ऐसी कि रच सकूँ / पृथ्वी पर नन्दन कानन." (बसंतोत्सव)


1 टिप्पणी:

Udan Tashtari ने कहा…

भगवतीचरण वर्मा की पुण्यतिथि 5 अक्‍तूबर पर इस विशिष्ट प्रविष्टी को देख मन प्रसन्न हो गया. पुण्य आत्मा को नमन.