मंगलवार, 6 अक्तूबर 2009

‘सन्नाटे में रोशनी ’ बोती कविताएँ

हर मनुष्य को एक तरह का नशा होता है - अंधकार के गरजते महासागर की चुनौती को स्वीकार करने का, पर्वताकार लहरों से खाली हाथ जूझने का, अनमापी गहराइयों में उतरते जाने का और फिर अपने को सारे खतरों में डालकर आस्था के, प्रकाश के, सत्य के, मर्यादा के कुछ कणों को बटोर कर, बचाकर, धरातल तक ले आने का. इस नशे में इतनी गहरी वेदना और इतना तीखा सुख घुला-मिला रहता है कि उसके आस्वादन हेतु मन बेबस हो उठता है. डॉ.दामोदर खडसे ने शायद इसीकी उपलब्धि हेतु ‘सन्नाटे में रोशनी ’ (2008) नामक काव्य संग्रह की रचना की.


‘सन्नाटे में रोशनी ’ डॉ.खडसे की सर्जनात्मक एवं आधुनिक संवेदना का निरूपक काव्य संग्रह है. इन कविताओं में आंतरिक आत्मीय सुंदरता का हृदयस्पर्शी चित्रण प्रकृति के माध्यम से अंकित है. इस संग्रह की कविताएँ कहीं प्रकृति से संपन्न हैं तो कहीं राजनैतिक घोटालों से कायल संवेदना से ऊभ-चूभ हैं. कहीं आध्यात्म दर्शन से निष्पन्न हैं तो कहीं मानवीय रिश्तों का ताना बाना है. अनुभवी जीवन को हर तरह से भोग सकने में सक्षम कवि ने समाज में व्याप्त सांप्रदायिकता के हृदय बिदारक चित्र भी उकेरे हैं -
"विश्वास, भितरघात से घायल / राजनीतिक घोटालों से कायल / जाति, धर्म, प्रदेश सब कार्ड हैं / भुनाओं इसे क्रेडिट की तरह" (बहुत स्पर्धा है)


भूमंडलीकरण और उद्‍योगीकरण के फलस्वरूप आज मनुष्य बाज़ार में एक कमोडिटि बन गया है. बाज़ारवाद के प्रभाव के कारण समाज में ही नहीं अपितु इंसानी रिश्तों में भी बदलाव दीख रहा है. प्रतिस्पर्धा की होड़ में फँसा आज का मानव समाज परिवार से ही नहीं अपितु अपने आप से भी कटता जा रहा है. शायद वह अपनी आत्मा की आवाज से भी दूर होता जा रहा है. इसका अंकन कवि ने यूँ किया है -
"खुल गया है बाज़ार / दुनिया का / स्पर्धा है.../ नगरों - महानगरों में / भाग रहे हैं परिवार !/ स्पर्धा है - / एक छत की / रोज़गार की!/ जिसे मिले / वह भी भाग रहा है / जिसे नहीं मिला / भाग रहा है हताश - / किसी तिनके के लिए !" (बहुत स्पर्धा है)


आज का युग संचारक्रांति का युग है. सूचना क्रांति के फलस्वरूप संपूर्ण विश्व एक ग्लोबल विलेज में बदल गया है. जनसंचार के अधुनातन माध्यमों ने जहाँ आशातीत प्रगति की हैं वहीं दूसरी ओर मानव के अंतस को तोड़कर उसे संवेदनहीनता के कगार पर भी ला खड़ा किया है. इसीकी ओर इशारा करता हुआ कवि कहता है कि -
"आओ / इस कोलाहल में / किसी मोड़ पर / ठहरकर देखें हम.../ कितनी भीड़ है - / आवाज ही की / शब्द, संहिता / संयोज / चाहते हैं कि ठहरकर / किसी मोड़ पर / कर ही लें तय / समय, साथ और संवाद / का मतलब!" (संवाद का मतलब)


मानव आरामदायक ज़िंदगी बिताने और अपने जरूरतों को पूरी करने के लिए अपने चारों ओर स्थित रमणीय प्रकृति को नष्ट-भ्रष्ट कर रहा है. आज महानगरों की गगनचुंबी अट्टालिकाएँ इसी तरह पेड़-पौधों को खा गई हैं. ऐसे में छोटी-सी चिड़िया के घोंसले को निगल जाने में कोई अचंबा नहीं है. यह तो एक सहज वास्तविकता है -
"पेड़ खड़े हैं पूर्ववत्‌ / चिड़िया आती नहीं / गीत गाती नहीं.../ पेड़ असमय ही / पतझर हो जाते हैं / सुबह के बिना ही / शाम हो जाती है.../ यह कैसा क्रम है / यह कैसी नियति है ? /चिड़िया बोलती नहीं!" (चिड़िया)



प्रकृति और पुरुष के बीच अभिनाभाव संबंध है. दोनों के रिश्ते आपस में इस तरह जुड़े हैं कि अपमा, उपमेय और उपमान मिट जाते हैं. तथा इसी एकाकार से कविता अंकुरित होती है. डॉ.खडसे स्वाभावतः प्रकृति प्रेमी हैं. उनकी हर एक कविता में प्रकृति का नित-नवीन रूप अभिव्यंजित है. उषःकालीन स्वर्णिम किरणों से जनमानस में आह्लाद का संचार होता है. नदी के प्रवाह के समान ही मानव जीवन भी अहर्निश गतिशील है. नदी, नारी और संस्कृति का अंतःसंबंध है. नदी किनारों को अपना लेती है और सन्नाटे में रोशनी बोती है. उसी तरह नारी भी हर एक रिश्‍ते को अपनाकर मानव जीवन को एक सार्थक पहचान देती है -
"नदी जन्म से पाती है / नाम, रिश्‍ता और खिलखिलाहट / किनारे भी मिलते हैं उसे / अनाम, निश्‍चल और उबड़-खाबड़ / नदी किनारों को अपना लेती है / देती है उन्हें नाम, परिभाषा और पहचान /***/ बरसात में किसी मोड़ पर नदी / किनारे को भरपूर गलबहियाँ देकर / सन्नाटे में /रोशनी बोती है / और उदारता की नई परिभाषाओं से / समय का अमृत-तिलक करती है." (समय का नाम)


जिस तरह सागर से मिलकर एक नदी अपने सारे अस्तित्व को विलीन कर डालती है यह जानते हुए भी कि नदी का अस्तित्व तभी तक है जब तक कि वह नदी के रूप में है, सागर से मिल जाने के बाद उसका अस्तित्व नहीं होता. वह सागर की पहचान से जानी जाती है. उसी तरह नारी भी पुरुष के आगोश में समा जाती है - "सागर में विसर्जित होती नदी / कितनी संतुष्ट, शांत और थिर लगती है /***/ सागर से मिलते ही पता नहीं कब / उसका जल मीठापन खो देता है / सागर के खारेपन को अपना लेती है नदी / सागर से लड़ती नहीं कभी वह / बस एकाकार हो जाती है / जीवन के साथ...." (केवल नदी)


कवि ने भारतीय संस्कृति को अपनी कविताओं के माध्यम से व्यकत किया है. उनहोंने सिर्फ प्रकृति चित्रण ही नहीं किया अपितु सामाजिक एवं आर्थिक विषमताओं के चक्रव्यूह में फँसे व्यक्ति की दुर्दशा का अंकन भी किया है -
"आज कल लोग / दफ्तर में / वक्त से पहले दुबक जाते हैं / ठंड़ी-ठंड़ी छाँव तले / ओवर टाइम कमाते हैं.../ उधर सड़कों के किनारे / कुछ झोपड़े बने हैं / बनती हैं जहाँ / खस की टट्‍टियाँ / दफ्तरी साहबों के लिए / दुकानों, सेठों और कोठियों के लिए / बनते हैं वे ठंडाई / भरी दुपहरी में / ताकि रख सकें देश का दिमाग ठंड़ा / और बुझ सके उनकी / पेट की आग..." (धूप में नंगे पैर)



डॉ.खडसे ने अपनी कविताओं में जीवन के हर एक रंग को बखूबी उकेरा है. कुल मिलाकर यह कह सकते हैं कि खडसे की कविताओं के केंद्र में मनुष्य़ है. उनकी हर एक कविता मानव के सुख - दुःख, आस्था - अनास्था, जीवन की चुनौतियाँ, उतार - चढ़ाव, संघर्ष, जय - पराजय आदि हर एक पहलू में शामिल होना चाहती है.

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सन्नाटे में रोशनी (काव्य संग्रह) / डॉ.दामोदर खडसे / 2008 / क्षितिज प्रकाशन, पुणे / पृष्ठ - 107 / मूल्य - रु. 180

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1 टिप्पणी:

Arshia Ali ने कहा…

खडसे की कविता वास्तव में जिंदगी की कविता है। अच्छा लगा जानकर। आभार।
करवा चौथ की हार्दिक शुभकामनाएँ।
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बोटी-बोटी जिस्म नुचवाना कैसा लगता होगा?