रविवार, 3 दिसंबर 2017

दिनकर की उर्वशी पर पुराणों का प्रभाव

डॉ. सुनीति/ दिनकर की उर्वशी : स्रोत एवं मौलिक उद्भावना (2017)
 मिलिंद प्रकाशन, हैदराबाद/ मूल्य : रु. 600/ पृष्ठ 394



“रक्त बुद्धि से अधिक बली है और अधिक ज्ञानी भी, 
क्योंकि बुद्धि सोचती और शोणित अनुभव करता है।“ (उर्वशी, पृ. 45-46) 

इस उद्घोष पर आधारित काव्य रूपक ‘उर्वशी’ पुराण प्रसिद्ध उर्वशी और पुरुरवा की कथा पर आधारित है। दिनकर की इस रचना पर अनेक समीक्षात्मक कृतियाँ उपलब्ध हैं। यही नहीं, हैदराबाद शहर को यह श्रेय भी प्राप्त है कि यहाँ से निकलने वाली अद्वितीय पत्रिका ‘कल्पना’ ने अपने 4 अंकों में उर्वशी और उससे जुड़े विवाद पर धारावाहिक सामग्री प्रकाशित की थी. आज लोकार्पित हो रही डॉ. सुनीति की शोधपूर्ण कृति ‘दिनकर की उर्वशी : स्रोत एवं मौलिक उद्भावना’ (2017) इस चर्चा को एक नया आयाम देने वाली कृति है. 

लेखिका ने अत्यंत परिश्रमपूर्वक दिनकर की ‘उर्वशी’ के स्रोत और कवि की मौलिक उद्भावनाओं को रेखांकित किया है। आमुख में लेखिका ने स्वयं इस बात को स्पष्ट किया है कि “नारी के विविध रूपों का समन्वय एवं उसके ममता से भरे भावों को जिस अनोखे एवं यथार्थ रूप में ‘उर्वशी’ में प्रस्तुत किया गया है, उस प्रभाव की अभिव्यक्ति ही, प्रस्तुत ग्रंथ की पृष्ठभूमि रही है।“ (आमुख)

इस शोधग्रंथ में 9 अध्याय हैं। पहले अध्याय में वेदों में निहित उर्वशी-पुरुरवा की कहानी को रेखांकित करते हुए लेखिका कहती हैं कि वेदों में उर्वशी आख्यान सृष्टि विद्या के वैज्ञानिक तथ्य को प्रकट करने वाला आख्यान प्रतीत होता है। आगे तीन अध्यायों में उन्होंने क्रमशः उर्वशी के पौराणिक स्वरूप, संस्कृत साहित्य में निहित उर्वशी की कथा तथा कवींद्र रवींद्र, योगिराज अरविंद और जयशंकर प्रसाद के साहित्य में प्रस्तुत उर्वशी के रूपों का मूल्यांकन करते हुए यह प्रतिपादित किया है कि “पौराणिक काव्यों में फैला हुआ उर्वशी का कथानक आधुनिक युग में भी अपनी सरसता को लिए विविध रूप में अपना सौंदर्य बिखेर रहा है। इन सभी बिखरे रूपों का एक उत्कृष्टतम रूप दिनकर की उर्वशी में सहज ही प्रतिभासित होता है।“ (पृ. 185)। आगे के 5 अध्यायों में डॉ. सुनीति ने दिनकर की ‘उर्वशी’ की कथावस्तु, चरित्र चित्रण, दार्शनिक रूप, काम और मनोविज्ञान के सामंजस्य आदि को रेखांकित करते हुए प्रतिपादित किया है कि ‘उर्वशी’ एक ऐसा काव्य है जो रस से रहस्य में प्रवेश करता है और काम के द्वारा मोक्ष का द्वार खटखटाता है। लेखिका यह भी कहती हैं कि “युगों-युगों तक ‘उर्वशी’ महाकाव्य, नर-नारी की चिरंतन कामगत समस्याओं को सुलझाता, जीवन को सँवारता, मानव में उस अद्भुत शक्ति का संचरण करेगा, जिससे कि मानव अपने मूलभूत गुणों के कारण गौरवान्वित हो सके.” (पृ. 388) 

यों तो इस ग्रंथ के सभी अध्याय अत्यंत गहन हैं जिन्हें बार-बार पढ़े जाने की जरूरत है। लेकिन अध्याय 2 जिसका शीर्षक ‘उर्वशी का पौराणिक स्वरूप’ है, खास तौर पर ध्यान खींचता है। इस अध्याय में भारतीय पौराणिक वाङ्मय में उर्वशी-पुरुरवा के आख्यान का अत्यंत रोचक अनुशीलन किया गया है। वास्तव में उर्वशी और पुरुरवा की कहानी दुनिया की सबसे पुरानी प्रेम कहानी है जिसमें अप्सरा और मनुष्य का प्रणय दर्शाया गया है। यह कहानी ऋग्वेद से चलकर पुराणों और कालिदास के ‘विक्रमोर्वशीयम’ से होती हुई दिनकर के काव्य रूपक ‘उर्वशी’ तक पहुँचती है। इस अध्याय में लेखिका ने इस तथ्य पर प्रकाश डाला है कि दिनकर ने पुराणों में वर्णित उर्वशी-पुरुरवा के कथानक को अंशतः ही ग्रहण किया है क्योंकि उर्वशी द्वारा तीन शर्तें रखना, मेषों का अपहरण, गंधर्वों का वरदान आदि अनेक घटनाओं को दिनकर ने छुआ तक नहीं है। डॉ. सुनीति को लिखे हुए पत्र में दिनकर ने स्वयं इस बात को स्पष्ट किया है कि महर्षि अरविंद ने उर्वशी को आत्मा के आध्यात्मिक उद्देश्य के रूप में चित्रित किया है। जब उर्वशी चली जाती है तो पुरुरवा उसे खोजता हुआ हिमालय की घाटियों में भटकता फिरता है। भरत के शाप को दिनकर उर्वशी के चले जाने का कारण मानते हैं। दिनकर की दृष्टि में पुरुरवा सनातन नर का प्रतीक है और उर्वशी सनातन नारी का। उन्होंने ‘उर्वशी’ की भूमिका में इस बात को रेखांकित किया है कि वैदिक आख्यान की पुनरावृत्ति अथवा वैदिक प्रसंग का प्रत्यावर्तन उनका ध्येय नहीं है। (उर्वशी, भूमिका)

इस दूसरे अध्याय का सबसे बड़ा महत्व यही है कि दिनकर की उर्वशी के परंपरागत स्वरूप और आधुनिक उद्भावनाओं को इस चाभी के बिना खोला नहीं जा सकता।

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