दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा, हैदराबाद के हिंदी विभाग में कार्यरत डॉ. (श्रीमती) गुर्रमकोंडा नीरजा की पुस्तक "तेलुगु साहित्य : एक अंतर्यात्रा" की पांडुलिपि मुझे आद्योपांत देखने और पढ़ने का सुअवसर मिला, इस बात की मुझे प्रसन्नता है! दक्षिण भारत की चारों भाषाओं में ‘तेलुगु’ भाषा निश्चय ही साहित्यिक दृष्टि से संपन्न और सुष्ठु भाषा है, जिसकी ‘अंतर्यात्रा’ विदुषी डॉ. नीरजा ने अत्यंत प्रामाणिक और विश्वस्त रूप से अपनी इस पुस्तक में की है! मेरा यह मत रहा है कि भाषा विज्ञान की दृष्टि से भले ही हमें भारत की भाषाओं को ‘आर्य भाषा-परिवार’ एवं ‘द्रविड़ भाषा-परिवार’ की भाषाओँ के रूप में पढ़ाया और बताया जाता हो, लेकिन हमारी राष्ट्रीय एकता और भाषाई सौहार्द्र की दृष्टि से दक्षिण भारत की भाषाओं का ज्ञान एवं आदान-प्रादान प्राचीन काल से ही सुलभ रहा है!
आदिशंकराचार्य द्वारा भारत के उत्तर, दक्षिण, पूरब और पश्चिम में ‘पीठ’ स्थापित करने का मूल उद्देश्य विश्व-गुरु भारत की उस प्रेरक संस्कृति के उत्थान का रहा है, जिसमें ‘अनेकता में एकता’ के सूत्र विद्यमान रहे हैं! मेरी यह मान्यता है कि विदुषी डॉ. नीरजा की इस पुस्तक ‘तेलुगु साहित्य : एक अंतर्यात्रा’ से विद्वत-समाज इस महान उद्देश्य को प्राप्त कर सकेगा!
तेलुगु साहित्य को जानने और उसका विशिष्ट अध्ययन करने के इच्छुक जिज्ञासुओं के लिए तो डॉ. नीरजा की यह पुस्तक निस्संदेह 'संजीवनी' ही सिद्ध होगी! मैं डॉ. नीरजा को हृदय से इस पुस्तक के लेखन हेतु बधाइयाँ देता हूँ और उनका सारस्वत अभिनंदन भी करता हूँ, क्योंकि उनकी इस बहुत उपयोगी कृति से एक ओर जहाँ ‘तेलुगु भाषा व साहित्य’ के मर्म और महत्व को विद्वतजन समझ सकेंगे, वहीं इसके प्रकाशन से हमारी 'राष्ट्रीय एकता' की अभिवृद्धि भी होगी!
- प्रो.योगेंद्र नाथ शर्मा ‘अरुण’
डी.लिट.
पूर्व प्राचार्य एवं अध्यक्ष(हिंदी विभाग)
हेमवतीनंदन बहुगुणा गढ़वाल विश्वविद्यालय,
74/3, न्यू नेहरु नगर,
रुडकी-247667 (उत्तराखंड)
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें