गुरुवार, 7 दिसंबर 2017

छत्तीसगढ़ की भाषाओं का व्यापक सर्वेक्षण

 भाषा सर्वेक्षणलेखक : डॉ. रामनिवास साहूपृष्ठ : 278/
 
मूल्य : रु. 85संस्करण : 2017, द्वितीय संस्करण
प्रकाशक : आलेख प्रकाशन, दिल्ली  
भारत के एक राज्य के रूप में छत्तीसगढ़ को मान्यता प्राप्त हुए कुछ ही वर्ष हुए हैं. परंतु यह क्षेत्र अपनी प्राकृतिक संपदा के साथ-साथ भाषा संपदा के लिए भी लंबे समय से जिज्ञासा और शोध का क्षेत्र रहा है. यहाँ हिंदी के साथ विभिन्न वनवासी जनजातीय समुदायों में मुंडा भाषाएँ प्रचलित हैं जिनके भीतर 9 अलग-अलग मातृभाषाएँ आती हैं. जैसे-जैसे आधुनिक विकास वहाँ पहुँच रहा है, वैसे-वैसे ये समुदाय जल-जंगल-जमीन से बेदखल होते जा रहे हैं. इस विस्थापन की कड़ी मार मातृभाषाओं के रूप में प्रयुक्त इन मुंडा भाषाओं पर रही है और तेजी से ये सभी लुप्त होने के कगार पर पहुँच रही हैं. ऐसी स्थिति में भाषावैज्ञानिकों से लेकर समाजशास्त्रियों तक की रुचि इन भाषाओं के प्रति बढ़ गई है. इस दिशा में केंद्रीय हिंदी संस्थान, आगरा से संबद्ध डॉ. रामनिवास साहू की पुस्तक ‘भाषा सर्वेक्षण’ (2017) एक ताजा प्रयास के रूप में सामने आई है. 

डॉ. रामनिवास साहू ने इस पुस्तक के माध्यम से भाषा सर्वेक्षण के चुनौतीपूर्ण कार्य को एक सीमित भौगोलिक क्षेत्र - छत्तीसगढ़ - में फैली हुई 9 मुंडा भाषाओं (खरिया, महतो, माझी, कोरवा, मुंडारी, बिरहोड़, तूरी, ब्रिजिआ और कोड़ाकु) के संदर्भ में अत्यंत श्रमपूर्वक संपन्न किया है. मुंडा आदि 9 भाषाओं का यह सर्वेक्षण भाषाविज्ञान के अध्येताओं के अलावा सामान्य पाठकों के लिए भी अत्यंत रोचक है तथा इन भाषाओं से जुड़ी जिज्ञासाओं का समाधान करने के अलावा कई भ्रांतियों को दूर करने की दृष्टि से भी उपयोगी है।

लेखक ने छत्तीसगढ़ की मुंडा भाषाओं के इस सर्वेक्षण के अपने अनुभवों को भी रोचक ढंग से कलमबद्ध किया है. वे बताते हैं कि अपने क्षेत्र-कार्य के दौरान प्रथम सोपान में जहाँ ‘चिरई-झुंझ’ जैसे अगम्य वनों के झुरमुटों में फँसा था, वहीं द्वितीय सोपान में रायगढ़ जिले के उत्तर-पूर्वांचल स्थित जशपुरनगर की मनोरम्य भूमि एवं पश्चिमोत्तरांचल स्थित कैलाश-नाथेश्वर गुफा की वन-वसुधा का दर्शन भी हुआ. इसी तरह अंतिम सोपान में चुटईपाट के शीर्ष तक पहुँच कर विभिन्न पहाडियों से ठिठोली करने का भी अवसर प्राप्त हुआ. सर्वेक्षण के दौरान पहाड़ और जंगल के गाँवों में लेखक ने भूख का मारक अनुभव भी पाया. साखो ग्राम में एक रात लेखक दर-दर भटकता फिरा; किंतु एक पसर भर (पाव भर) चावल तक नहीं मिला, जिससे रात आँतें मरोड़ बिताई, फिर अगले दिन ग्यारह कि.मी. दूर जाने पर अमेरबहार ग्राम में चावल मिला और सब्जी के नाम पर एक तो कच्चे आम की चटनी मिली, फिर नमक की डली. शयन के लिए तो सर्वत्र झड़ा हुआ भू-खंड मिलता, जहाँ दरी बिछाते ही शयन-स्थल का चयन हो जाता अथवा कहीं धान का पुआल मिल जाता तो वही गद्दीनुमा बिस्तर बन जाता. साखो ग्राम में तो ग्रीष्मावकाश होने के कारण नदी की रेत पर लेखक ने रात बिताई.

कुल मिलाकर यह एक रोचक और ज्ञानवर्धक ग्रंथ है. 

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