मंगलवार, 10 जुलाई 2012

पुनश्चर्या पाठ्यक्रम का चौथा दिन. भाग - 2




09/07/2012 की सुर्खियाँ

·        जयशंकर प्रासाद के नाटक और रंगमंचीयता पर उसमानिया विश्वविद्यालय, आर्ट्स कॉलेज की प्रोफ़ेसर प्रो.शुभदा वांजपे का व्याख्यान
·      साहित्य, मीडिया और संस्कृति पर बाबू जगजीवनराम डिग्री कॉलेज के लेक्चरर डॉ.घनश्याम का व्याख्यान   

डॉ.घनश्याम के व्याख्यान का सार संक्षेप



डॉ.घनश्याम ने ‘साहित्य, मीडिया और संस्कृति’ पर प्रकाश डालते हुए यह स्पष्ट किया कि ये तीनों अपने आप से इस तरह मिले हुए हैं कि इन्हें अब समग्रता में देखने की आवश्यकता है. उन्होंने संस्कृति से अपनी बात शुरू करते हुए कहा कि ‘संस्कृति’ शब्द पर ध्यान दिया जाए तो यह स्पष्ट होता है कि इसमें ‘कृति’ निहित है. सारी सृष्टि एक कृति है(प्लेटो). इस कृति से प्रकृति (भूख, प्यास...) बनती है. प्रकृति से जब मनुष्य ऊपर उठता है तो ‘संस्कृति’ बनती है और यदि वह नीचे गिरता है तो ‘विकृति’. वस्तुतः मनुष्य का अर्थ है मनन करने वाला. संस्कृति भाषा में निहित है. जब भी हम संस्कृति की बात करते हैं तब तीन चीजें हमारे सामने प्रकट हो जाते हैं – स्मृति (भूत), वास्तविकता (वर्तमान) और आकांक्षा (भविष्य).

साहित्य के बारे में समय समय पर विद्वानों ने, आलोचकों ने काफी कुछ कहा है जैसे साहित्य समाज का दर्पण है, आलोचना है, इत्यादि इत्यादि इत्यादि. साहित्य और संस्कृति दोनों एक दूसरे को प्रभावित करते रहते हैं. ये दोनों अब मीडिया को प्रभावित कर रहे हैं और प्रभावित भी हो रहे हैं. मार्शल मेक्लूहन ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक Understanding Media : The Extensions Of Man (1964) में यह कहा है कि माध्यम ही संदेश है (Medium is the message) और यह भी महत्वपूर्ण पहलू है कि यह संदेश किसके हाथों नियंत्रित है.

हमारे सामने आज बहुत सारे isms’ (वाद) हैं. ‘जर्नलिज़्म’ पत्रकारिता भी वाद बन चुका है. मीडिया आज सब पर हावी है. चाहे वह साहित्य हो या संस्कृति. आज भारतीय संस्कृति और प्रसिद्ध भारतीय साहित्य को भी बाज़ार का हिस्सा बनाया जा रहा है. इसका एक उदाहरण है हेवेल्स वाईर का विज्ञापन. इसमें ईदगाह की कथा को पृष्ठभूमि के तौर पर प्रयोग किया गया है. इस विज्ञापन का कैप्शन है – ‘wires that doesn’t catch fire.’

आज कल मीडिया एक तरह का भ्रम पैदा कर रहा है. वह हमारे जीवन को नियंत्रित करने लगा है. आज सूचना का विस्फोट हो रहा है. ज़िंदगी में आम आदमी बहुत दौड़ रहा है. दौड़ दौड़ वह कहाँ और किस स्थिति में पहुँच रहा है पता ही नहीं चल रहा है. महादेवी वर्मा ने भी कहा है कि हमारी दौड़ ज्वर ग्रस्त है. आज हमारी ज़िंदगी भी हाई टेक होती जा रही है. एक-दूसरे से मिलने के लिए भी समय नहीं है. मूल्य समाप्त हो रहे है. इसी कारण आज मीडिया ने विकराल रूप धारण कर लिया है.

डॉ.घनश्याम ने साहित्य, संस्कृति और मीडिया के आपसी संबंध को समझाने के लिए विज्ञापनों का पावरपोइंट प्रेसेंटेशन प्रस्तुत किया है.         

इस  पुनश्चर्या पाठ्यक्रम के संबंध में गत दिनों की जानकारी के लिए देखें-

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