12/07/2012 की सुर्खियाँ
· 'जनसंचार के माध्यमों में हिंदी' पर उस्मानिया विश्वविद्यालय, थियेटर ऑफ आर्ट्स के अध्यक्ष प्रो.प्रदीप कुमार का व्याख्यान
· 'स्वातंत्र्योत्तर नाटकों में निर्देशक की भूमिका' पर हैदराबाद विश्वविद्यालय, थियेटर आर्ट्स के एसोसियेट प्रोफ़ेसर डॉ.सत्यब्रत रावत का व्याख्यान
पुनश्चर्या पाठ्यक्रम का सातवाँ दिन.
प्रो.प्रदीप कुमार के व्याख्यान का सार संक्षेप
'जनसंचार के माध्यमों में हिंदी' पर व्याख्यान देते हुए प्रो.प्रदीप कुमार ने कहा कि आज जनसंचार का माध्यम बहुत ही सशक्त हो गया है. प्राचीनकाल पर दृष्टि केंद्रित की जाय तो यह स्पष्ट होता है कि 500 ई.पू. में प्राचीन फारस (ईरान) में राजकीय संदेश भेजने के लिए ऊँची मीनारों पर गुलामों को नियुक्त किया जाता था. दुनिया भर में उसके पश्चात बिगुल, ढफ, आदि यंत्र उपयोग में आए. कबूतर, घोड़े जैसे जानवरों का प्रयोग भी किया जाता था. डाकिया ने घुड़सवारी का स्थान ले लिया. आज के परिप्रेक्ष्य में जनसंचार के माधामों के रूप में प्रिंट मीडिया, इलेक्ट्रानिक मीडिया, कम्प्यूटर, इंटरनेट आदि का प्रयोग हो रहा है. ध्यान से देखा जाए तो इन माध्यमों में प्रयुक्त भाषा जनसामान्य की भाषा है जो जनता को काफ़ी प्रभावित कर रही है.
प्रो.सत्यब्रत रावत के व्याख्यान का सार संक्षेप
'स्वातंत्र्योत्तर नाटकों में निर्देशक की भूमिका' पर व्याख्यान प्रस्तुत करते हुए प्रो.सत्यब्रत रावत ने कहा कि इब्राहिम अल्काज़ी को भारतीय थियेटर के जनक के रूप में माना जा सकता है. उन्होंने हिंदी रंगमंच को नया दृष्टिकोण प्रदान किया है. 1942 में आई पी टी ए (इन्डियन पीपुल्स थियेटर एसोसियेशन) की शुरुआत हुई. 1956 में केंद्रीय संगीत नाटक अकादमी के तत्वावधान में पहली बार 'नाटक की दिशा और दशा (संस्कृत नाटक के सन्दर्भ में)' पर राष्ट्रीय संगोष्ठी का आयोजन किया गया था. थियेटर वास्तव में जनसंचार का सशक्त माध्यम है. इब्राहिम अल्काज़ी, हबीब तनवीर, बी.वी.कारंत, के.एम.पनिकर जैसे प्रसिद्ध निर्देशकों ने अपने नाटकों में नित नए प्रयोग किये हैं और उन्हें जनसामान्य तक नुक्कड़ नाटकों आदि के माध्यम से पहुँचाया. इब्राहिम अल्काज़ी, हबीब तनवीर और बी.वी. कारंत को नाटक के त्रिक के रूप में जाना जाता है.
इस पुनश्चर्या पाठ्यक्रम के संबंध में गत दिनों की जानकारी के लिए देखें-
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