13/07/2012 की सुर्खियाँ
· 'हिंदी सिनेमा और दलित विमर्श' तथा 'हिंदी सिनेमा और स्त्री विमर्श' पर एसोसियेट प्रोफेसर डॉ.आलोक पांडेय का व्याख्यान
पुनश्चर्या पाठ्यक्रम का आठवाँ दिन
डॉ.आलोक पांडेय के व्याख्यान का सार संक्षेप
'हिंदी सिनेमा और दलित विमर्श' पर व्याख्यान देते हुए डॉ.आलोक पांडेय ने पहले 'विमर्श' शब्द पर प्रकाश डालते हुए कहा कि विमर्श के साथ साथ हमेशा विचार जुड़ा हुआ होता है. यह एक ओपन डिस्कशन है. जब विमर्श कट्टर हो जाता है तो विचार लुप्त हो जाते हैं. कुछ आलोचकों की मान्यता है कि दलित साहित्य दलितों के लिए, दलितों के द्वारा लिखा गया साहित्य है और स्त्री साहित्य भी स्त्री के लिए, स्त्रियों के द्वारा लिखा गया साहित्य. पर यह धारणा गलत है. विमर्शों की दुनिया को 'भी' वादी होना चाहिए, 'ही' वादी नहीं. 'दलित' शब्द पर ध्यान दिया जाए तो यह स्पष्ट होता है कि हजारों साल से समाज में जिसका दलन हुआ है वह दलित है. डी.सी.दिनकर ने अपनी पुस्तक 'स्वतंत्रता संग्राम में अछूतों का योगदान' में अछूतों के शौर्य, साहस, त्याग और बलिदान का चित्रण किया है. सिर्फ साहित्यिक कृतियों पर ही नहीं बल्कि हिंदी सिनेमा जो वास्तव में हिन्दुस्तानी सिनेमा है उसने 100 साल की अपनी यात्रा में दलितों (हाशिया कृत समाज) को किस रूप में प्रस्तुत किया है और इसे बनाने में दलितों की क्या भूमिका रही है आदि बातों पर भी ध्यान देना आवश्यक है. दलित विमर्श की दृष्टि से 'अछूत कन्या' (1936), 'अछूत'(1940), 'सुजाता'(1959), 'सद्गति'(1981), 'आक्रोश'(1980, 2010), 'अंकुर'(1974), 'मंथन'(1976), 'बैंडिट क्वीन'(1994), 'दीक्षा'(1991), 'दामुल'(1985), 'तर्पण', 'बवंडर', 'एकलव्य' आदि प्रमुख फ़िल्में हैं. 24 सितंबर 1932 में 'पूना पैक्ट' (हरिजन आंदोलन) का समझौता बी.आर.अम्बेडकर और महात्मा गांधी के बीच हुआ. अम्बेडकर ने अछूतों के लिए अलग निर्वाचक मंडल की अवधारणा की बात उठाई पर महात्मा गांधी के अनशन के सामने उन्हें झुकना पड़ा. इसे भी हिंदी सिनेमा में दर्शकों के सामने प्रस्तुत किया है. 1970 के आस पास समानांतर सिनेमा की शुरुआत हुई. इस पर इतालवी की नियोरियलिज्म का प्रभाव भी दिखाई देता है. इसी समय नामदेव ढसाल के नेतृत्व में दलित पैंथर आंदोलन का सूत्रपात हुआ. दलितों ने अपनी आवाज बुलंद की जिससे राजनैतिक व्यवस्था में हलचल पैदा हो गई. भले ही साहित्यकारों ने दलितों पर लिखा है और हिंदी सिनेमा ने भी दलितों की दयनीय स्थिति को उजागर किया है पर इस बात को नकारा नहीं जा सकता कि हिंदी सिनेमा मूलतः कमर्शियल सिनेमा ने जाति व्यवस्था को मिटाने के बजाय उसे और मजबूत किया है.
अपने दूसरे व्याख्यान 'हिंदी सिनेमा और स्त्री विमर्श' में डॉ.आलोक पांडेय ने यह स्पष्ट किया कि हिंदी सिनेमा में वस्तुतः स्त्री की तीन छवियों को अक्सर देखा जा सकता है. एक वह जो आदर्श और त्याग का प्रतिरूप है (देवी – माँ), दूसरा खलनायिका का रूप और तीसरा रूप इन दोनों के बीच का है अर्थात नायिका का रूप. हीरोइन ओरियंटेड फिल्म भी अनेक बनी हैं. उनमें 'हंटरवाली' (1935), 'मदर इंडिया' (1957) आदि अनेकानेक फिल्म उल्लेखनीय हैं. हिंदी सिनेमा ने स्त्री का संघर्ष, अस्तित्व की तलाश, आत्मनिर्भरता, आजादी, स्त्री जिजीविषा आदि को बखूबी चित्रित किया है.
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