बुधवार, 11 जुलाई 2012

पुनश्चर्या पाठ्यक्रम का पांचवा दिन




10/07/2012 की सुर्खियाँ

·        पौराणिक नाटक साहित्य की मंचीयता और उपेन्द्रनाथ अश्क के नाटक साहित्य  पर उस्मानिया विश्वविद्यालय की हिंदी विभागाध्यक्ष  प्रो.दुर्गेश नंदिनी का व्याख्यान
·        साहित्यिक कृतियों के मंचन पर 'सूत्रधार' के निदेशक श्री विनय वर्मा का व्याख्यान  
  


पुनश्चर्या पाठ्यक्रम का पाँचवा दिन.

आज का पहला विषय था 'पौराणिक नाटक साहित्य में स्त्री सशक्तीकरण' और 'उपेन्द्रनाथ अश्क का नाटक साहित्य'.
    
प्रो.दुर्गेश नंदिनी के व्याख्यान का सार संक्षेप 
साहित्य समय सापेक्ष होता है. प्राचीन  काल के नाटक और आधुनिक काल के नाटकों में बहुत अंतर दिखाई देता है. आज वह सीता सीता नहीं रही और द्रौपदी द्रौपदी नहीं रही. परिवेश बदल चुका है, परिप्रेक्ष्य भी बदल चुका है अतः दृष्टिकोण भी में भी परिवर्तन परिलक्षित है. आज की स्त्री घर – बाहर दुहरी भूमिका निभा रही है. वह संघर्षरत है अपने अस्तित्व के लिए और अपने अधिकारों के लिए. स्त्री जीवन में दो स्तरों पर द्वंद्व दिखाई पड़ता है – आतंरिक स्तर पर और बाह्य स्तर पर. पौराणिक नाटक की मेनका  इंद्र के कहने पर चुपचाप विश्वामित्र को रिझाने और उनकी तपस्या को भंग करने के लिए स्वर्ग से भू पर उतरती है पर आज की मेनका  इंद्र से कहती हैं – हाँ ! मैं तो स्त्री हूँ. इसलिए तो तुम अपने आपको बचाने के लिए मेरा उपयोग कर रहे हो. मुझे अपना गुलाम बनाकर नचाना चाहते हो ! यह अब नहीं होगा. मैं ऐसे होने भी नहीं दूंगी. हाँ यह अंतर है पौराणिक मेनका  और आज की मेनका  में.
इतना कहकर दुर्गेश जी मोहन राकेश और सुरेंद्र वर्मा के नाटक साहित्य का परिचय देती रहीं. उसके बाद उपेन्द्रनाथ अश्क के नाटक साहित्य पर प्रकाश डालते हुए उन्होंने कहा कि उपेन्द्रनाथ अश्क के नाटक पठनीय हैं और अभिनेय भी. उनके नाटकों के समस्त पात्रों को सहज रूप में रंगमंच पर उतारा जा सकता है.
श्री विनय वर्मा के व्याख्यान का सार संक्षेप
विनय वर्मा साहित्यकार या अध्यापक नहीं हैं. वे मूलतः रंगकर्मी हैं जो मंच पर व्यावहारिक प्रयोग करते हैं. 'मैं राही मासूम' नाटक की पटकथा उन्होंने स्वयं लिखी हैं और उसका सफल मंचन भी किया है. 11 जुलाई 2012 को सायं 7 बजे 'नेशनल पुलिस अकादमी, शिवरामपल्ली में इस नाटक का मंचन होगा.

अभिनेता होने के कारण विनय वर्मा ने क्लास में उन परिस्थितिओं को उजागर किया जिनसे एक कलाकार को जूझना पड़ता है जब किसी साहित्यिक कृति को मंचित किया जाता है या उसे फिल्माया जाता है. अभिनेता को हमेशा अपने परिवेश, अपनी परम्परा और अपनी संस्कृति से रू-ब-रू होना अनिवार्य है. साहित्य क्रान्ति का वह माध्यम है जिसे रंगमंच और सिनेमा से जोड़ना अनिवार्य है. अभिनेता को यदि किसी किरदार को निभाना है तो पहले उसे उस पात्र के बारे में समग्र रूप से जानना अनिवार्य होता है. अभिनेता उस पात्र के चरित्र को जब तक आत्मसात नहीं करता तब तक वह उस पात्र के साथ न्याय नहीं कर सकता है. इसके लिए उसे शोध करना पड़ता है. मंचन के लिए चुनी गई कृति यदि किसी अन्य भाषा की है तो अभिनेता को मूल कृति से भी अवगत होना पड़ता है. तभी वह पूरी ईमानदारी के साथ अभिनय कर सकता है. एक कलाकार तभी व्यावहारिक हो सकता है जब वह उस पात्र और स्क्रिप्ट के साथ ईमानदार हो. अभिनेता को पृष्ठभूमि और परिवेश को समझना होगा और उसे उस क्षण में जीना होगा पूरी ईमानदारी के साथ. नाटक समाप्त होने के बाद अभिनेता को फिर से यथार्थ में आना होता है .   
बाएं से - स्नेहलता शर्मा, विनय  वर्मा, नीरजा, करनसिंह ऊटवाल , पूनम बिष्ट, ममता  
  

इस  पुनश्चर्या पाठ्यक्रम के संबंध में गत दिनों की जानकारी के लिए देखें-

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