मंगलवार, 17 जुलाई 2012

पुनश्चर्या पाठ्यक्रम का नवां दिन




16/07/2012 की सुर्खियाँ 

·        आर्ट्स कॉलेजदिल्ली विश्वविद्यालय के सेवानिवृत्त प्रोफेसर डॉ.महेश आनद का नगर आगमन 
·        ‘नाटक देखने और पढ़ने की दर्शनीयता’ पर प्रो.महेश आनंद का व्याख्यान
·       ‘हिंदी – तेलुगु नाटक और रंगमंच’ पर उस्मानिया विश्वविद्यालय की सेवानिवृत्त प्रोफेसर प्रो.माणिक्याम्बा का व्याख्यान

पुनश्चर्या पाठ्यक्रम का नवां दिन.
यह कार्यक्रम 5 जुलाई को शुरू हुआ था. अतः 16 जुलाई 2012 पुनश्चर्या पाठ्यक्रम का बारहवां दिन है. रविवार (8 जुलाई15 जुलाई) और द्वितीय शनिवार (14 जुलाई) की छुट्टियों को छोड़ दें तो 16 जुलाई नवां दिन हैं.

डॉ.महेश आनंद के व्याख्यान का सार संक्षेप 

नाटक को देखने और पढ़ने की दर्शीयता’ पर व्याख्यान देते हुए दिल्ली विश्वविद्यालयआर्ट्स कॉलेज के प्रोफेसर प्रो.महेश आनंद ने कहा कि नाटक महज साहित्य या संवेदात्मक कथा नहीं है बल्कि वह एक तरह से सामाजिक घटना है क्योंकि वह मानवीय कार्य को बखूबी पकड़ता है. वह ज़िंदगी के अनकहेअनछुए पक्षों को उद्घाटित करता है. वस्तुतः नाटक एक सामूहिक कला है चूंकि इसमें अनेक कलाओं का सम्मिश्रण है. प्रकाशध्वनिसंगीतनृत्यस्क्रिप्टसाज-सज्जाआहार्य आदि अनेकानेक डिसिप्लिन्स  का सम्मिश्रण है.

आज ऐसे कई कल्पनाशील निर्देशक हैं जो नित नए प्रयोगों द्वारा नाटक के अलावा अन्य विधाओं से रंगमंच को जोड़कर उसके फलक को विस्तार देने की कोशिश कर रहे हैं. समकालीन नाटकों में तकनीकी प्रयोग तो हो रहा है लेकिन तकनीकी चमत्कार से अलग अभिनेता को केंद्र में लाते हुए रंगमंच को एक नया आयाम और अर्थ दिया जा रहा है.

नाटक एक ऐसा जीवंत माध्यम है जो जीवंत व्यक्तियों के लिए जीवंत व्यक्तियों द्वारा खेला जाता है. नाटक का जन्म दो बार होता है – पहली बार तब  जब निर्देशक या नाटककार उसे लिखता है तथा दूसरी बार तब  जब अभिनेता उसका मंच पर दर्शकों के समक्ष अभिनय करता है. वस्तुतः निर्देशक/ नाटककारअभिनेता और दर्शक थियेटर के मुख्य अंग हैं तथा अन्य सदस्य जो प्रकाशध्वनिसाज-सज्जाआहार्य आदि चीजों का ध्यान रखते हैं वे गौण अंग हैं.

परंपरागत लोकनाट्य के प्रचलित नाट्य रूपों के साथ साथ किस्सागोई की परंपरा भी रही है. समकालीन नाटकों में रगमंच ने किस्सागोई के इन रूपों से अलग अपना एक स्वतंत्र रूप बना लिया है. नाटक में वस्तुतः प्रदर्शन प्रमुख है. नाटक के क्षेत्र में सिर्फ सैद्धांतिकी से काम नहीं चलेगा. यहाँ व्यावहारिकता पर अधिक बल दिया जाता है. अभ्यास बहुत महत्वपूर्ण है. एक नाटककार/ निर्देशक अपने अर्थ को अभिनेता के माध्यम से दर्शक तक पहुंचाना चाहता है. इसके लिए वह ऐसे शब्दों का चयन करता है जिनसे दर्शक प्रभावित हो सकें. नाटक प्रस्तुति के बिना अधूरा है. उसका मुख्य प्रयोक्ता अभिनेता है. यही अभिनेता अपने हाव-भावों के माध्यम से दर्शक तक बात पहुंचाता है. शब्दों को आकार देने का काम अभिनेता करता है. एक तरह से कहा जाए तो अभिनेता संपूर्ण स्क्रिप्ट को कंट्रोल करता है. (Actor controls the whole script and displays it. For this an aesthetic sense is required so that he can communicate maintaining an equilibrium.). अभिनेता को थियेटर स्पेस प्रदान करता है अपने टैलेंट को प्रदर्शित करने के लिए.       

नाटक में वर्णन नहीं होता है. शब्द बोलते हैं अभिनेता के हर अंग के साथ. अभिनेता समूह को संबोधित करता है. अतः यह कहा जा सकता है कि प्रदर्शनीयता  नाटक का प्रमुख गुण है.

डॉ.माणिक्याम्बा के व्याख्यान का सार संक्षेप

हिंदी - तेलुगु नाटक और रंगमंच’ पर प्रकाश डालते हुए उस्मानिया विश्वविद्यालय की सेवानिवृत्त प्रोफेसर प्रो.माणिक्याम्बा ने कहा कि नाटककार जीवन के शाश्वत बिंदुओं को  छू लेता है. उन्होंने प्रमुख रूप से नवजागरणकालीन तेलुगु नाटकों पर प्रकाश डालते हुए कहा कि उन दिनों नाटककारों ने समाज सुधार के लिए ही नाटकों का सृजन किया. वीरेशलिंगम पंतुलुगुरजाडा अप्पारावचिलकमरतीरघुपति वेंकटरमण नाइडू आदि नाटककारों ने सफल नाटकों का सृजन करके तत्कालीन समाज में व्याप्त वेश्या समस्याबाल विवाहविधवा समस्यासती प्रथाअनमेल विवाह आदि का यथार्थ चित्रण किया है.

प्रो.माणिक्याम्बा ने यह कहा कि आजकल विशेष रूप से हैदराबाद में नाटक देखने को नहीं मिल रहें हैं क्योंकि यहाँ नाटक कंपनियां ही नहीं हैं. उनकी बात एक सीमा तक सही  हो सकती है परन्तु इस तथ्य से इनकार नहीं किया जा सकता की इन दिनों हैदराबाद में कई नाट्य संस्थाएं सक्रिय हैं.